बुधवार, 21 अगस्त 2013

शर्म क्यों हमे ? मगर नहीं आती ......

14वें  विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप का आयोजन मास्को, रूस मे 10 से 18 अगस्त 2013 तक किया गया । भारत को पिछले आयोजनों की तरह इस बार भी कोई मेडल नहीं मिल सका है जिसका उसे कोई गम नहीं । इसमे शायद आपको भी कोई आश्चर्य नहीं होगा ।  लेकिन मेडल तालिका देखने के बाद हममे  से  ज्यादातर  के सीने मे बेचैनी  हो सकती  है और हो सकता है गुस्से मे आपकी मुट्ठियाँ भिच जाए क्योंकि पदक तालिका मे ऐसे बहुत से देश मिल जाएंगे जिनकी भारत से अन्यथा कोई तुलना नही हो सकती । रूस का प्रथम, अमेरिका का दूसरे स्थान पर रहना किसी को भी अचंभित नही करेगा  लेकिन जमाइका (6 गोल्ड), कीन्या (5 गोल्ड), इथोपिया (3 गोल्ड), युगांडा (1 गोल्ड), त्रिनीडाड एंड टोबागों (1 गोल्ड), इवोरी कोस्ट(2 सिल्वर) और नाइजीरिया (1 सिल्वर और 1 कांस्य ) को पदक मिलना और भारत का इन छोटे छोटे अभाव ग्रस्त देशों से अत्यधिक पीछे रहना अवसाद पैदा करने वाला है । इथोपिया आज भी अकाल और भुखमरी के लिए जाना जाता है । ये शर्म का विषय है 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के लिए और देश के नीति नियंताओं के लिए। आज़ादी के 66 वर्ष बाद भी खेलो की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ? खेलों की राजनीति या राजनीति का खेल ?
 
       भारत जैसे देशो की शर्म कम करने के लिए  विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप के आयाजकों ने इस बार एक नुस्खा निकाला जिसके द्वारा सभी देशों के लिए एक क्रमांक तालिका बनाई गई जिससे ये पता चल सके कि प्रदर्शन के आधार पर  किस देश का कौन सा स्थान रहा । इस नुस्खे के अनुसार किसी प्रतिस्पर्धा मे गोल्ड मेडल को 8 अंक, सिल्वर को 7, कांस्य को 6, चौथे स्थान को 5, पांचवे स्थान को 4, छटवे को 3, सातवें को 2 और आठवें को 1 अंक देने का प्रविधान किया गया। यानी केवल आठवे स्थान तक के लिए अंको का प्रविधान किया गया । इस तरह से प्राप्त कुल अंको के आधार पर सभी देशो की सूची बनाई गई । किन्तु, भारत चूंकि सिर्फ एक प्रतिस्पर्धा मे सातवें स्थान पर रहा था ( अन्य मे आठवें के बहुत बाद रहा) इसलिए उसे केवल 2 अंक प्राप्त हो सके और उसका स्थान 53वां रहा । अमेरिका के 282 अंको के मुक़ाबले विश्व की इस तथाकथित संभावित तीसरी महाशक्ति भारत के केवल 2 अंक ।       
 
         एक और बात अचंभित करने वाली रही इस प्रतियोगिता का किसी भी समाचार पत्र और किसी भी टी वी चैनल पर कोई खास समाचार नही रहा और इसलिए अपनी दुर्दशा पर न किसी ने आँसू बहाए और न ही किसी को शर्म आने का सुअवसर प्राप्त हुआ । यहाँ  तक कि भारत के एथलेटिक की अधिकृत वेब साइट पर आज तक 13 अगस्त तक का विवरण है और इसमे कहा गया है कि कई खिलाड़ियों ने अपने प्रदर्शन मे काफी सुधार किया है ।
 
      क्या होगा इस देश का जहां खिलाड़ी खेल  के लिए नहीं सरकारी नौकरी पाने के लिए खेलते है ? स्वाभाविक है बिना भाई भतीजावाद के यदि चयन हो जाय तो बहुत बड़ी बात होगी।ये सभी को इस हद तक मालूम है कि कोई भी समझदार व्यक्ति भरसक कोशिश करता है कि बच्चे खेलों पर समय खराब न करें।
 
     खिलाड़ियो को समुचित और मूलभूत सुविधाए नहीं और उस पर सारे खेल संघों पर राजनैतिक व्यक्तियों का कब्जा । कैसा है राजनीति और खेलों का घाल मेल ..... पता नहीं खेलों मे राजनीति है  या  राजनीति मे खेल। (for more detail please log on to http://lucknowtribune.blogspot.com ; http://mishrasp.blogspot.com http://lucknowcentral.blogspot.com )

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     शिव प्रकाश मिश्रा

बुधवार, 14 अगस्त 2013

अब तो कानून भी अपना काम नही कर पा रहा है


सुनते सुनते यह बात रट  गयी  है कि कानून अपना काम करता है और राजनीतिज्ञ तो हमेशा  जब कभी फंस जाते है तो कहते हैं  कि कानून अपना काम करेगा।  यद्यपि कानून के रास्ते में राजनीतिज्ञों द्वारा ही हजार बाधायें खडी  की जाती रहीं हैं ताकि कानून   सही तरह से अपना काम न कर पा और अगर करे भी तो जितनी देर हो सके उतनी देर की जाय।  इसका नतीजा ये होता है  क़ि साधारण व्यक्ति को अपने लिए न्याय की आशा लगभग धूमिल लागने लगती है   धीरे धीरे लोग न्यायालयों मे लगने वाले अत्यधिक समय के कारण न्याय की गुहार करने से कतराते है । फिर भी सर्वोच्च न्यायालय देश के लिए आज के हालत मे एकमात्र आशा  की किरण है । समान्यतया राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान करते रहे है। न्यायालय के निर्णय बहुत दूरगामी प्रभावों वाले होते हैं । सर्वोच्च न्यायालय की संविधान की रक्षा की ज़िम्मेदारी भी है इसलिए अनेक मौकों पर न्यायालय ने सरकार द्वारा बनाए गए असंवैधानिक क़ानूनों पर रोक भी लगाई है । पिछले कुछ समय से ज़्यादातर राजनैतिक दल संकोच छोड़ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयो के खिलाफ खुल कर बोलने लगे है और ये प्रथा बढ़ती ही जा रही है ।

अब  एक और चलन चल पड़ा है  जिसमे सारे राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध खड़े हो जाते है । ऐसे मामले या तो सारे राजनैतिक दलों को प्रभवित करते है या फिर इनके वोट बैंक को प्रभावित करते है या ये दल अपने विरोध से अपने वोट बैंक का तुष्टीकरण करना चाहते है। स्पष्ट है कि सारी राजनीति वोट बैंक की है । देश के लिए कौन सोचता है ये सिर्फ सोचने की बात रह गई है। संसद मे किसी भी मुद्दे पर साथ न खड़े होने वाले  धुर विरोधी दल ऐसे कुछ मामलों मे “हम साथ साथ हैं” की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। ऐसे मुद्दों पर ये दल संविधान संशोधन के लिए भी तैयार हो जाते है जिसके लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत होती है । ये स्थिति हिंदुस्तान के लिए बिलकुल भी अच्छी नहीं है और लोकतन्त्र के लिए तो कतई नहीं ।
भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे विशेषज्ञ डाक्टरों मे आरक्षण की व्यवस्था न किए जाने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर राजनैतिक दलों ने बड़ी तीखी  प्रतिक्रिया व्यक्ति की है और सारे दलों ने निर्णय लिया है कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय मे पुनरीक्षण याचिका दाखिल करे और इस निर्णय पर पुनर्विचार करे । अगर सर्वोच्च न्यायालय इस पर पुनर्विचार न करे तो संविधान संशोधन के जरिये इसे निरस्त कर दिया जाय ।
दूसरा मामला है सूचना के अधिकार से जुड़ा हुआ है । तमाम अनावश्यक आवेदनों और उस पर होने वाले व्यर्थ पत्राचार के वावजूद ये बहुत ही लोकप्रिय और प्रभावी कानून है । इससे सरकारी कामकाज मे पारदर्शिता को बढ़ावा मिला है और लोकसेवक इससे भय खाते है। धीरे धीरे इसकी स्वीकार्यता जनता और संबंधित विभागो मे बहुत  अधिक हो गई है । आज के दिन ये सबसे लोकप्रिय क़ानूनों मे से एक है । किन्तु राजनैतिक दलों पर इसे लागू किए जाने के मुद्दे पर सारे दल एक हो गए है और शीघ्र ही संसद एक कानून पारित करने वाला है जिससे ये कानून राजनैतिक दलों पर लागू नही हो सकेगा ।
 
तीसरा मामला है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दो साल की सजा पाये व्यक्तियों और जेल से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाना। इस निर्णय के खिलाफ भी सारे दल लामबंद है और इसे भी निरस्त करने की फिराक मे है । क्या 125 करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश मे संसद के लिए 545 साफ सुथरे व्यक्ति नाही मिल सकते । कितने दुख की बात है कि सारे राजनैतिक दल आम जनता के हित के किसी भी मुद्दे पर एकसाथ नही खड़े होते पर ऐसे मुद्दे पर सब साथ साथ है।

लोकतन्त्र मे सारे दलो का ऐसे मुद्दो पर एक साथ खड़े होना खतरे की घंटी है । सारे राजनैतिक दलों और आम जनता को इस पर गंभीरता पूर्वक  विचार करना चाहिए ।कम से कम इस पर तो जरूर विचार करना चाहिए कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का इस तरह के निर्णय देने के पीछे कोई स्वार्थ है ? नहीं । स्वार्थ नही हो सकता और स्वार्थ नही है यह एक साधारण मनुष्य तुरंत समझ जाएगा । निस्वार्थ भाव से किए गए निर्णय कभी गलत नहीं होते । ऐसे निर्णयों का सम्मान किया जाना चाहिए और ऐसे निर्णय लेने वालों का सम्मान किया जाना चाहिए । अगर हिंदुस्तान को बचाना  है तो हमें ऐसा करना सीखना होगा और ऐसा करना होगा । स्वार्थ तो राजनैतिक दलों का हो सकता है राजनैतिक  चस्मे का हो सकता है । राजनैतिक दलों को भी निस्वार्थ भाव से सोचना चाहिए तभी ये देश बच सकेगा और बचाया जा सकेगा ।

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शिव प्रकाश मिश्रा 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

पुंछ के शहीदों को नमन

सरहद ने फिर  जख्म खाये हैं,
देश के पाँच वीर पुंछ से शहीद होकर आए हैं,
“ पाकिस्तान और आतंकवादियों की कायराना हरकत जैसे ”
कई बयान एक साथ आए है,
राजनेताओं से,
भारत मे यह एक चलन है ,
पिछले काफी समय से ,
जिसे हर विदेशी और आतंकवादी आक्रमण के बाद,
राज नेता करते आए है ।
इतिहास गवाह है,
आक्रमणकारी कभी कायर नही कहलाते ।  
कायर तो वो कहलाते हैं
जो आक्रमण का मुंह तोड़ जबाब नहीं दे पाते ।
अगर ये आक्रमण कायरता है,
तो पराक्रम  क्या है ?
पाकिस्तान  का बचाव करना,
खामोश रहना,
या समर्पण करना,
अगर यही सच है,
तो ये पराक्रम की उल्टी पराकाष्ठा है,
और  बेहद गैर जिम्मेदाराना है,
सच तो ये है कि ऐसे हमलों को
कायराना कहना ही कायराना है।
क्या हिंदुस्तान इतना
कमजोर है ?
असहाय है ?
लाचार है ?
पर दुनियाँ को संदेश तो यही गया है
कि यह देश बहुत बदहाल हो गया है ।   
पूरा विश्व जनता है कि
पाक है नापाक आक्रमणकारी,
और भारत है उतना ही कुख्यात वार्ताकारी ।
आखिर वार्ता क्यों हो और किसलिए ?
अगर हो ... तो सिर्फ इसलिए
कि बस .... बहुत हो गया
अब बात नहीं हो सकती
सीमा पर एक भी और हरकत
बर्दाश्त नहीं हो सकती,
अब पराक्रम दिखाने का वक्त आ गया है
दुश्मन को करारा जबाब देने का वक्त आ गया है  
पता नहीं ये वोटो की राजनीति है,
या शान्ति दूत दिखने का जोश,
वे सीमा पर जवानों के सिर भी
कलम कर ले जाते है
हम फिर भी रहते है खामोश,
इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति
और कुछ नहीं हो सकती है,
पर  भारत की राजनीति
सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है,    
एक राजनेता कहते है कि
लोग सेना मे शहीद होने के लिए ही जाते है,
और इसी की तनख्वाह पाते है,
संवेदन शून्य इन नेताओं के बेटे,
न तो सेना मे जाते है,
और न ही शहीद होते है,
वे चाहे देश मे पढे या विदेश मे ,
इंजीनियर हो या डाक्टर ,
बनते हैं सिर्फ वोटो के सौदागर,
और लाशों पर पैर रख कर,  
सत्ता की सीढिया चढ जाते हैं ,
मंत्री हो जाते है शासक बन जाते हैं,
आँसुओ से भीगी शहीदो की दहलीजों को
और अधिक मर्माहत कर जाते हैं ।
गुस्से मे उबलते
और वेवसी की आग मे जलते
शहीदो के इन परिवारो को सांत्वना और
सम्मान चाहिए ,
समूचे देश को इन परिवारों के आँसुओ का
और
इन शहीदो के बलिदानों का
हिसाब चाहिए,
ताकि ये बलिदान व्यर्थ न जाय  
और कभी कमी न हो जाय
देश पर जान देने वालों की,
और शहीदो के सम्मान की
रक्षा करने वालों की ।

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शिव प्रकाश मिश्रा
 

 



 



शनिवार, 3 अगस्त 2013

रिश्ते और रास्ते



रिश्ते प्यार के,

और रस्ते पहाड़ के,

कभी  बिल्कुल  आसान

तो  नही होते ।

कभी आंधी, कभी तूफान,

कभी धूप, कभी  छांव ,

 तो कभी  साफ आसमान

नहीं   होते ।  

थोड़ी सी बेचैनी से,

सैलाब उमड़ पड़ते है अक्सर,

और आंखे भी निचोड़ी जाय,

तो कभी  आँसू नहीं होते  ।  


प्यार एक धर्म है,
मर मिटने का ,
जिसमें  मर्म हैं  हर कर्म के ,  
पर हर कर्म के
विधि, विधान और संविधान

 नही होते ।

भावनाओं की,
कभी बैलेंस शीट बनाई नहीं जाती,     
निवेश के समानुपात लाभ  मिले,
ऐसी आश भी लगाई नहीं  जाती,  

कौन समझा है किसे ? और कितना ?
ये समझ कर ही तो ,
दिल की हर बात बताई नही जाती  ।  

सच्चाई क्या है ? कैसी है ?
ठीक अहसास  नहीं देती  है,  
अब तो अपनी ही नजर
काफी कमजोर हुई लगती है ।

दिल है बोझिल,
तो गनीमत है, कुछ मिल सकता है इससे ,

बहुत बेचैन  है,   

परेशान है हर शहर , अपने  खालीपन से ॥    

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       शिव प्रकाश मिश्रा

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

कितना मुश्किल है ? ईमानदार रहना और बेईमान बनना…….

दुनिया मे बहुत से काम मुश्किल है और बहुत सी चीजे प्राप्त करना मुश्किल है। जीवन मे कुछ चीजे व कुछ स्टैंडर्ड सदैव बनाए रखना और भी मुश्किल है। ऐसी ही एक चीज है ईमानदारी जिसे बनाए रखना बहुत ही मुश्किल है (हिंदुस्तान मे )। ईमानदार लोगो की संख्या बहुत ही कम होती जा रही है और ये तेजी से घटती जा रही है । बहुत संभव है की निकट भविष्य मे ये प्रजाति विलुप्त हो जाय ।
         ईमानदारी का दर्द मै अच्छी तरह समझता  हूँ और आप मे से ज़्यादातर लोग भी समझते होंगे। सार्वजनिक जीवन मे ऐसे लोग हमेशा तलवार की धार पर चल रहे होते है। जाहिर है ऐसे व्यक्तियों का स्वयं और उनके परिवार का जीवन हमेशा खतरों से भरा हुआ होता है। ईमानदारी सिर्फ रिश्वत खोर न होने से नही बनती बल्कि इसका व्यापक क्षेत्र है।  जिसमे नियम,कानून और पूर्ण निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यो का निर्वहन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है । आज के परिस्थितयो मे ईमानदार  व्यक्ति सिर्फ जनता के कुछ लोगो का ही कोप भाजन नहीं बनते बरन कभी कभी अपने परिवार के लोगो की नाराजगी का शिकार भी  होते है। ऐसे व्यक्ति जिंनका परिवार भी उनके साथ होता है और समाज के कुछ लोग भी उनके साथ होते है ,चट्टान की तरह अडिग रहते है और लगातार पूरी निष्ठा से अपना कर्तव्य पालन करते रहते है । हमेशा छोटे छोटे सम्बल लंबे संघर्ष की ऊर्जा प्रदान करते रहते है ।
         संघर्ष मे ईमानदार व्यक्तियों के टूट जाने की भी सदा से  लंबी फेहरिस्त होती आई है जिन्हे आम लोग ढ़ोंगी या छुपा रुस्तम कह कर अफसोस करते है और भूल जाते है। जब इन व्यक्तियों को सम्बल की जरूरत थी उस समय शायद कोई भी नैतिक  समर्थन मे  खड़ा होने को तैयार नही था ।
         पैसा,पद और प्रतिष्ठा का लालच कैसा वातावरण तैयार कर रहा है इसकी बानगी आप पूरे देश मे कहीं  भी देख सकते है। ऐसे लोगों की संख्या बहुत है जिन्होने जीवन  मे कभी रिश्वत नही ली लेकिन ऐसे लोग की संख्या बहुत कम है जिन्होने कभी रिश्वत नही दी। आज की परस्थितियों मे मजबूरी बस दी जाने वाली रिश्वत की  ज़्यादातर लोगों ने आदत बना ली है। बल्कि कई बार कुछ चर्चित विभागो मे बिना कुछ दिये कम हो जाने पर बहुत आश्चर्य होता है । सार्वजनिक जीवन मे कई ईमानदार अधिकारियों के साथ हास्यपाद स्थिति भी आती है जब जिसका काम हो जाता है बिना मांगे ही रिश्वत  देने का प्रस्ताव करता है जैसे काम कराने वाला पूरे सिस्टम से भली भाँति परिचित ही नही अभ्यस्त भी है । कहीं पूरी दबंगई से निजी हित मे ऐसे काम करवाने के प्रयास किए जाते है जो या तो विधि सम्मत नही होते या फिर जिनसे संस्था, सरकार या समाज का भारी नुकसान होना तय होता है। संघर्ष या फिर सुलह सफाई या हिस्सेदारी जैसे बीच के रास्ते निकल आते है और फिर भ्रष्टाचार की अविरल धारा शुरू हो जाती है। चूंकि दबंगई को राजनैतिक सरंक्षण प्राप्त होता है इसलिए जो संघर्ष करते है समान्यतया निपटा दिये जाते है। जो हिस्सेदार हो जाते है, राजदार होते है और राज करते है। हद तो तब हो जाती है जब विभागों के ऐसे भ्रष्ट तत्व स्वयं भ्रष्टाचार और कमाई  का रास्ता सुझाते है। देश, समाज से उन्हे क्या मतलब उनका जहां तो अलग है और सारे जहां से अच्छा होता है । ऐसी स्थितिया ये रेखांकित करती है की हमारे समाज मे इस अवमूल्यन का स्तर क्या है, उसकी कितनी पैठ है और स्वीकार्यता कितनी बढ़ गई है ।
         कुछ समय से तो लाज शर्म का पर्दा भी उठ रहा है। कितने ही वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी छोटे मोटे किन्तु चलते पुर्जा नेताओं के सार्वजनिक रूप से पैर छूते है। उनका ये बेशर्म अंदाज़ अनायास नही, सर्वसाधारण के लिए  उनके  नापाक गठजोड़ की प्रेस विज्ञप्ति के अलावा कुछ नही होता । ऐसे अधिकारियों का चाहे वह गलत सही कुछ भी करें कभी कुछ नही विगड्ता किन्तु ईमानदारी और देश सेवा के जुनून मे बहुत लोगो का बहुत कुछ हो सकता है और हो रहा है।  
             जरा सोचिए ......  क्या हो रहा है ? हमारा समाज कहाँ जा रहा है ? और हम कहाँ खड़े है ? हमारी क्या भूमिका होनी चाहिए ?

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                    - शिव प्रकाश मिश्रा 
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