सुनते सुनते यह बात रट गयी है कि कानून अपना काम
करता है और राजनीतिज्ञ तो
हमेशा जब कभी फंस जाते है
तो कहते हैं कि कानून अपना काम करेगा।
यद्यपि कानून के रास्ते में राजनीतिज्ञों द्वारा ही हजार बाधायें
खडी की जाती रहीं हैं
ताकि कानून सही तरह से अपना काम
न कर पाए
और अगर करे भी तो जितनी देर हो सके उतनी देर की
जाय। इसका नतीजा ये होता है क़ि साधारण व्यक्ति को अपने लिए न्याय की
आशा लगभग धूमिल लागने
लगती
है । धीरे धीरे लोग
न्यायालयों मे लगने वाले अत्यधिक समय के कारण न्याय की गुहार करने से कतराते है ।
फिर भी सर्वोच्च न्यायालय देश के लिए आज के हालत मे एकमात्र आशा की किरण है । समान्यतया राजनैतिक दल सर्वोच्च
न्यायालय का सम्मान करते रहे है। न्यायालय के निर्णय बहुत दूरगामी प्रभावों वाले
होते हैं । सर्वोच्च न्यायालय की संविधान की रक्षा की ज़िम्मेदारी भी है इसलिए अनेक
मौकों पर न्यायालय ने सरकार द्वारा बनाए गए असंवैधानिक क़ानूनों पर रोक भी लगाई है
। पिछले कुछ समय से ज़्यादातर राजनैतिक दल संकोच छोड़ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयो
के खिलाफ खुल कर बोलने लगे है और ये प्रथा बढ़ती ही जा रही है ।
अब एक और चलन चल पड़ा है जिसमे सारे राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध खड़े हो जाते है । ऐसे मामले या तो सारे राजनैतिक दलों को प्रभवित करते है या फिर इनके वोट बैंक को प्रभावित करते है या ये दल अपने विरोध से अपने वोट बैंक का तुष्टीकरण करना चाहते है। स्पष्ट है कि सारी राजनीति वोट बैंक की है । देश के लिए कौन सोचता है ये सिर्फ सोचने की बात रह गई है। संसद मे किसी भी मुद्दे पर साथ न खड़े होने वाले धुर विरोधी दल ऐसे कुछ मामलों मे “हम साथ साथ हैं” की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। ऐसे मुद्दों पर ये दल संविधान संशोधन के लिए भी तैयार हो जाते है जिसके लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत होती है । ये स्थिति हिंदुस्तान के लिए बिलकुल भी अच्छी नहीं है और लोकतन्त्र के लिए तो कतई नहीं ।
भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे विशेषज्ञ डाक्टरों मे आरक्षण की व्यवस्था न किए जाने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर राजनैतिक दलों ने बड़ी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्ति की है और सारे दलों ने निर्णय लिया है कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय मे पुनरीक्षण याचिका दाखिल करे और इस निर्णय पर पुनर्विचार करे । अगर सर्वोच्च न्यायालय इस पर पुनर्विचार न करे तो संविधान संशोधन के जरिये इसे निरस्त कर दिया जाय ।
दूसरा मामला है सूचना के अधिकार से जुड़ा हुआ है । तमाम अनावश्यक आवेदनों और उस पर होने वाले व्यर्थ पत्राचार के वावजूद ये बहुत ही लोकप्रिय और प्रभावी कानून है । इससे सरकारी कामकाज मे पारदर्शिता को बढ़ावा मिला है और लोकसेवक इससे भय खाते है। धीरे धीरे इसकी स्वीकार्यता जनता और संबंधित विभागो मे बहुत अधिक हो गई है । आज के दिन ये सबसे लोकप्रिय क़ानूनों मे से एक है । किन्तु राजनैतिक दलों पर इसे लागू किए जाने के मुद्दे पर सारे दल एक हो गए है और शीघ्र ही संसद एक कानून पारित करने वाला है जिससे ये कानून राजनैतिक दलों पर लागू नही हो सकेगा ।
तीसरा मामला है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दो साल की सजा पाये
व्यक्तियों और जेल से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाना। इस निर्णय के खिलाफ
भी सारे दल लामबंद है और इसे भी निरस्त करने की फिराक मे है । क्या 125 करोड़ से
अधिक की आबादी वाले इस देश मे संसद के लिए 545 साफ सुथरे व्यक्ति नाही मिल सकते ।
कितने दुख की बात है कि सारे राजनैतिक दल आम जनता के हित के किसी भी मुद्दे पर
एकसाथ नही खड़े होते पर ऐसे मुद्दे पर सब साथ साथ है।
लोकतन्त्र मे सारे दलो का ऐसे मुद्दो पर एक साथ खड़े होना खतरे की घंटी है । सारे राजनैतिक दलों और आम जनता को इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए ।कम से कम इस पर तो जरूर विचार करना चाहिए कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का इस तरह के निर्णय देने के पीछे कोई स्वार्थ है ? नहीं । स्वार्थ नही हो सकता और स्वार्थ नही है यह एक साधारण मनुष्य तुरंत समझ जाएगा । निस्वार्थ भाव से किए गए निर्णय कभी गलत नहीं होते । ऐसे निर्णयों का सम्मान किया जाना चाहिए और ऐसे निर्णय लेने वालों का सम्मान किया जाना चाहिए । अगर हिंदुस्तान को बचाना है तो हमें ऐसा करना सीखना होगा और ऐसा करना होगा । स्वार्थ तो राजनैतिक दलों का हो सकता है राजनैतिक चस्मे का हो सकता है । राजनैतिक दलों को भी निस्वार्थ भाव से सोचना चाहिए तभी ये देश बच सकेगा और बचाया जा सकेगा ।
अब एक और चलन चल पड़ा है जिसमे सारे राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध खड़े हो जाते है । ऐसे मामले या तो सारे राजनैतिक दलों को प्रभवित करते है या फिर इनके वोट बैंक को प्रभावित करते है या ये दल अपने विरोध से अपने वोट बैंक का तुष्टीकरण करना चाहते है। स्पष्ट है कि सारी राजनीति वोट बैंक की है । देश के लिए कौन सोचता है ये सिर्फ सोचने की बात रह गई है। संसद मे किसी भी मुद्दे पर साथ न खड़े होने वाले धुर विरोधी दल ऐसे कुछ मामलों मे “हम साथ साथ हैं” की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। ऐसे मुद्दों पर ये दल संविधान संशोधन के लिए भी तैयार हो जाते है जिसके लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत होती है । ये स्थिति हिंदुस्तान के लिए बिलकुल भी अच्छी नहीं है और लोकतन्त्र के लिए तो कतई नहीं ।
भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे विशेषज्ञ डाक्टरों मे आरक्षण की व्यवस्था न किए जाने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर राजनैतिक दलों ने बड़ी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्ति की है और सारे दलों ने निर्णय लिया है कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय मे पुनरीक्षण याचिका दाखिल करे और इस निर्णय पर पुनर्विचार करे । अगर सर्वोच्च न्यायालय इस पर पुनर्विचार न करे तो संविधान संशोधन के जरिये इसे निरस्त कर दिया जाय ।
दूसरा मामला है सूचना के अधिकार से जुड़ा हुआ है । तमाम अनावश्यक आवेदनों और उस पर होने वाले व्यर्थ पत्राचार के वावजूद ये बहुत ही लोकप्रिय और प्रभावी कानून है । इससे सरकारी कामकाज मे पारदर्शिता को बढ़ावा मिला है और लोकसेवक इससे भय खाते है। धीरे धीरे इसकी स्वीकार्यता जनता और संबंधित विभागो मे बहुत अधिक हो गई है । आज के दिन ये सबसे लोकप्रिय क़ानूनों मे से एक है । किन्तु राजनैतिक दलों पर इसे लागू किए जाने के मुद्दे पर सारे दल एक हो गए है और शीघ्र ही संसद एक कानून पारित करने वाला है जिससे ये कानून राजनैतिक दलों पर लागू नही हो सकेगा ।
लोकतन्त्र मे सारे दलो का ऐसे मुद्दो पर एक साथ खड़े होना खतरे की घंटी है । सारे राजनैतिक दलों और आम जनता को इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए ।कम से कम इस पर तो जरूर विचार करना चाहिए कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का इस तरह के निर्णय देने के पीछे कोई स्वार्थ है ? नहीं । स्वार्थ नही हो सकता और स्वार्थ नही है यह एक साधारण मनुष्य तुरंत समझ जाएगा । निस्वार्थ भाव से किए गए निर्णय कभी गलत नहीं होते । ऐसे निर्णयों का सम्मान किया जाना चाहिए और ऐसे निर्णय लेने वालों का सम्मान किया जाना चाहिए । अगर हिंदुस्तान को बचाना है तो हमें ऐसा करना सीखना होगा और ऐसा करना होगा । स्वार्थ तो राजनैतिक दलों का हो सकता है राजनैतिक चस्मे का हो सकता है । राजनैतिक दलों को भी निस्वार्थ भाव से सोचना चाहिए तभी ये देश बच सकेगा और बचाया जा सकेगा ।
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शिव प्रकाश मिश्रा
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