शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

भ्रष्टाचार का इत्र में राजनीति की बदबू

 


ये कहानी है भ्रष्टाचार के इत्र की जिससे राजनीति की बदबू फैल रही है.

इस विषय पर मेरा एक लेख हिन्दी समाचार पत्र में छपा जिसका विवरण प्रस्तुत है .

हाल ही में एक इत्र व्यवसायी के कानपुर और कन्नौज के आवास और प्रतिष्ठानों पर जीएसटी इंटेलिजेंस ने छापेमारी की, जिसका आधार था गुजरात में चार ट्रक बिना कागजात के पान मसाला पकड़ा जाना. जाँच की आंच पियूष जैन तक पहुँची और आश्चर्यजनक रूप से उसके आवास से बड़ी मात्रा में ₹500 और ₹2000 के नोटों की गड्डियों के रूप में २८७ करोड़ से भी अधिक की नकदी बरामद हुई. जैन के कन्नौज स्थित आवास में छापा मारने पर भी बड़ी मात्रा में नकदी, 6 क्विंटल से अधिक चंदन का तेल, लगभग ६४ किलो सोने की विदेशी मार्क वाली ईंटें, बड़ी मात्रा में चांदी आदि बरामद हुई.

कन्नौज जैसी एक छोटी सी जगह में एक बड़ी सी कोठी का उपयोग नकदी, सोना, चांदी और अन्य बहुमूल्य चीजों के भंडारण के लिए किया जा रहा था. मकान में एक बड़ी सुरंग भी पाई गई जिसमें नोटों की गड्डियां बोरो में भरी रखी थी. सोना चांदी कंक्रीट की दीवारों में छुपा कर रखा गया था दीवारों में बायोमेट्रिक लाकर भी पाए गए. मकान की दीवारों और फर्श का स्कैन करने के लिए आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की टीम का सहारा लिया गया. ३० ऐसी रहस्यमय चाभियाँ मिली हैं, जिनके तालों की तलाश है और यह ताले विभिन्न लॉकर तथा अन्य गुप्त स्थानों के हो सकते हैं जहां पर नकदी और सोने-चांदी के अलावा बहुमूल्य प्राचीन वस्तुएं होने की संभावना है. छापों में जीएसटी इंटेलिजेंस टीम के अलावा आयकर और इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट की टीमें भी शामिल हैं, जिनके लिए यह अब तक की सबसे बड़ी बरामदगी है.


उ.प्र. में चुनाव के इस मौसम में राजनीति गरमा गयी है . विश्वस्त सूत्रों के अनुसार ये वही पियूष जैन हैं जिन्होंने कुछ समय पहले सपा के लिए समाजवादी इत्र तैयार किया था, तब सपा नेता अखिलेश यादव ने कहा था कि समाजवादी इत्र की खुशुबू पूरे प्रदेश में फैलेगी और भाजपा का सफाया कर देगी. बाईस में बाइसिकल का यह दांव उलटा पड़ता दिखाई पड रहा है.

कन्नौज के इत्र व्यापारियों ने कहा है कि पियूष जैन इत्र व्यापारी नहीं हैं, उनका व्यापर क्या है, सरकार को इसकी जांच करनी चाहिए. यह भी पता चला है कि पियूष जैन की इत्र कंपनी का टर्न ओवर लगभग ५ करोड़ है, अगर पूरे टर्न ओवर को लाभ मान लिया जाय तो भी इतनी बड़ी रकम नहीं बनायी जा सकती. फिर सवाल है कि पीयूष जैन ने कुबेर का खजाना कहां से इकट्ठा किया। एजेंसियों की शुरूआती जांच में ये बात सामने आयी है कि पीयूष इत्र के कारोबारी जरूर हैं लेकिन करोबार इतना बड़ा नहीं है कि इतनी कमाई हो. पीयूष जैन टैक्स चोरी से भी इतनी बड़ी रकम नहीं जुटा सकते हैं। वैसे उनका परिवार बेहद सादगी से रहता है, पीयूष जैन स्वयं स्कूटर से चलते हैं और उनके परिवार के पास लगभग 10 साल पुरानी कार है. ऐसा बहुत कम होता है कि इतनी धन संपत्ति के मालिक का पूरा परिवार इतनी सादगी से जीवन बिताये.

नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी के बाद व्यापार और कारोबार पर बुरा असर पड़ा था और इसके बाद कोरोना काल में लॉकडाउन में हुई बंदी से व्यापार और व्यवसाय अत्यधिक प्रभावित हुए थे। नोटबंदी और कोरोना काल के बाद कोई इत्र कारोबारी इतनी बड़ी रकम व्यवसाय से इकट्ठा नहीं कर सकता है। पियूष जैन ने कहा है कि यह पूरी रकम उन्ही की है, उन्होंने टैक्स नहीं चुकाया है जिसे चुकाने के लिए वह तैयार हैं. बाद में बयान बदलते हुए कहा कि उन्होंने परिवार का सोना बेचकर रकम इकट्ठी की है. उनके पारिवारिक आवास से 64 किलो सोने की विदेशी मार्क वाली ईंटे बरामद की गई हैं, जिसका वह जवाब नहीं दे सके. इतने बड़ी रकम इकट्ठा करने के लिए लगभग ६ कुंतल सोने की आवश्यकता है और इतना सोना उनके परिवार के पास कहां से आया, यह भी एक यक्ष प्रश्न है. उन्होंने किसे, कब और कहाँ सोना बेचा, इसका ब्योरा भी नहीं दे सके. यह निश्चित है कि इतनी बड़ी रकम अकेले पीयूष जैन की नहीं हो सकती है।

उ.प्र. में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं इसलिए यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि हवाला के जरिए इत्र कारोबारी के ठिकानों पर रकम इकट्ठा की जा रही थी जिसे विधानसभा चुनाव में खपाने की तैयारी थी। आखिर किस राजनीतिक दल ने ऐसा किया है, यह जांच का विषय है और पीयूष जैन इस पूरे घटनाक्रम का एक मुख्य किरदार है. उसका मुंह खुलते ही प्रदेश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा. अभी 18 नवंबर को अखिलेश यादव के चार करीबियों के यहाँ लखनऊ, मऊ, मैनपूरी में छापेमारी हुई थी। इस छापेमारी के बाद सपा ने इस पर तीखी प्रतिक्रया व्यक्त की थी लेकिन इस बार अखिलेश खामोश हैं. पियूष जैन सपा के एमएलसी पम्मी जैन के करीबी हैं, और समाजवादी इत्र के निर्माता हैं, इसलिए शक की सूई सपा की तरफ घूमना स्वाभाविक है.

भारत में राजनीति बहुत बड़ा और सर्वाधिक लाभ देने वाला उद्योग बन चुका है, इसलिए कई राजनैतिक दल इसमें अनाप-शनाप निवेश करते हैं और इसके लिए सालों से काला धन इकठ्ठा कर चुनाव की तैयारी करते हैं. जिसे एकबार भी सत्ता प्राप्त हो जाती है उसके लिए कालाधन बनाना आसान हो जाता है . स्वाभाविक रूप से कालेधन का श्रोत भ्रष्टाचार ही होता है जो जनता की गाड़ी कमाई और करदाताओं के पैसे पर डाका होता है लकिन कौन परवाह करता है इसकी. सभी पैसा, पद, प्रतिष्ठा के लिए सत्ता प्राप्ति की जोड़तोड़ करते हैं. इसलिए गठबंधन बनते हैं, सरकार बनाने के लिए समझौते होते हैं, मंत्री पद के बंटवारे होते हैं और ऐसा करने के लिए देश और समाज के हित को ताक पर रख दिया जाता है.

दुर्भाग्य से भारत का विभाजन भी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के कारण हुआ था और आज भारत जिस दुर्गति में है उसका कारण भी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के कारण सत्ता पर काबिज बने रहना ही है. इसके लिए राष्ट्र हित को बार बार दांव पर लगाया गया, भ्रष्टाचार से सत्ता का दोहन किया गया और रक्षा समझौतों मे भी जमकर कमीशन बाजी की गयी. कई सत्ताधीशों ने भ्रष्टाचार की काली कमाई विदेशी बैंकों में जमा की, और चुनावों में भी इसका जमकर दुरूपयोग किया. कई राज नेताओं की असामयिक मौत के कारण उनकी काली कमाई देश में वापस भी नहीं आ पाई. आज चुनाव इतने महंगे हो गए है कि कोई सामान्य ईमानदार व्यक्ति विधायक या संसद का चुनाव लड़ कर जीत नहीं सकता.

भ्रष्टाचार की काली कमाई इतनी आकर्षक होती गयी कि कई राजनैतिक दल केवल परिवार की संपत्ति बन गए और सत्ता के सिंहांसन पर पीढी दर पीढी परिवार के लोग बैठते गए, राज्य खोखले होते गए और देश भी पनप नहीं सका. परिवारवाद की राजनीति ने ऐसे ऐसे लोगो को सत्ता के सिंहासन पर बैठा दिया जो इतने अयोग्य हैं जिन्हें आज खुले बाजार में १० -१५ हजार रुपये की नौकरी भी नहीं मिल सकती, लेकिन वे करोडो लोगों के भाग्य विधाता बन चुके हैं या बनने का प्रयास कर रहे हैं. क्या होगा इस देश का या समाज का, इसकी उन्हें न कोई चिंता है और न ही समझ . ऐसे लोगो का एकमेव उद्देश्य सत्ता हाशिल करना और भ्रष्टाचार से कमाई करना है. ऐसा केवल एक राज्य में हो ऐसा भी नहीं है. लगभग हर राज्य में इस तरह के उदाहरण हैं. जब तक ऐसा होता रहेगा तब तक भ्रष्टाचार कभी ख़त्म नहीं हो सकता और काले धन की समस्या कमोवेश बनी रहेगी.

कालेधन को ख़त्म करने के उद्देश्य से लाई गयी नोटबंदी काले धन को ख़त्म करने में अपेक्षित सफल भले ही न हुई हो लेकिन इतना तो अवश्य हुआ कि कई राजनैतिक दलों का खजाना लुट गया और इसलिए जितना विरोध राजनीतिक दलों ने किया उतना आम जनता ने नहीं किया. चुनाव लड़ने में इन दलों को वित्तीय संकट का सामना करना पडा और इस कारण कई दलों को राज्यसभा, लोकसभा और विधान सभा / विधान परिषद् के टिकट नीलाम करने पड़े . इस कारण भ्रष्टाचार और कालाधन और बढ़ने की संभावना है.

इन परस्थितियों में केवल चुनाव सुधार की नहीं बल्कि राजनीतिक सुधार की आवश्यकता है, जिसमें दो दलीय चुनाव प्रणाली की सख्त आवश्यकता है, जिससे क्षेत्रीय दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को रोका जा सके. चुनाव आयोग को इतना स्वतन्त्र करना होगा कि वह राजनैतिक दलों में आतंरिक लोकतंत्र सुनिश्चित कर सके जिससे परिवारवाद की राजनीति पर रोक लग सके. इससे तुष्टिकरण की राजनीति पर भी रोक लगेगी और लोग राष्ट्रहित के मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर सकेंगे.

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- शिव मिश्रा 



गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

धर्मांतरण ही राष्ट्रान्तरण है - भारत में हो रहा है भितरघात

 

धर्मांतरण ही  राष्ट्रान्तरण है  - भारत में हो रहा है भितरघात

दुनिया में कोई  भी धर्मान्तरण स्वेच्छा से नहीं होता है फिर भी  सनातन धर्म लंबे समय से धर्मांतरण का दंश झेल रहा है. इसकी शुरुआत जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उद्भव के साथी शुरू हो गई थी और सिख पंथ का  निर्माण  तो खुद सनातन सहयोग से किया गया था. इन  तीनों संप्रदायों को सनातन धर्म ने अपने  दार्शनिक स्वरूप के रूपों में   स्वयं अंगीकार किया और इसलिए  संविधान में भी  इन्हें सनातन का ही एक अंग माना जाता है.

सनातन धर्म पर मतान्तरण  का दबाव मुस्लिम आक्रांताओं के भारत पर  आक्रमण के साथ ही हो गया था. तब इन्होंने भारत के मंदिरों और पूजा स्थलों पर लूट के इरादे से आक्रमण किए थे और मजहबी  उन्माद में  न केवल मंदिरों को नुकसान पहुंचाया था बल्कि लाखों सनातनियों का खून भी  बहाया  था.  अकूत धन दौलत के साथ ये लुटेरे अनगिनत लड़कियों और महिलाओं को भी जबरन उठाकर अपने साथ ले गए थे और इनके साथ जो अमानवीय अत्याचार किये गए उनकी कल्पना करना भी मुश्किल है. एक मजहब है जिसमें ये  माले गनीमत कहा जाता है और आपस में बाँट लिया जाता है और इसे  जायज भी माना जाता है . मजहब काफिरों / मूर्तिपूजकों को क़त्ल करने पर शाबासी के रूप में  गाजी की उपाधि देता है, दूसरे धर्म के  पूजा स्थलों को तोड़कर  उन पर मस्जिदें खडी कर देना पुण्य का काम माना जाता  है .  जब इन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया तो लाखो हिन्दुओं को  तलवार की धार  पर या लालच देकर इस्लाम स्वीकार करवाया. अंग्रेजों के शासन काल में ईसाई मिशनरियों ने भी बड़े पैमाने पर  धर्मान्तरण  करवाया.  इन्होने  धर्मांतरण के लिए छल कपट का सहारा लिया जिसमें जादू टोने से लोगों की बीमारी का इलाज करने,  आर्थिक सहायता पहुंचाने, बच्चों को  शिक्षा देने के नाम पर बहला फुसला कर मतांतरित किया गया.

आजादी के बाद  नया संविधान लागू होने के बाद तो  मतान्तरण का खेल संस्थागत  रूप से शुरू हो गया.  ऐसा लगता है कि संविधान के धर्मनिरपेक्ष होने का सबसे ज्यादा फायदा धर्मांतरण कराने वाले लोगों को ही हुआ या  शायद इसी उद्देश्य से संविधान को धर्मनिरपेक्ष बनाया गया. हिंदू और  मुस्लिम के  सांप्रदायिक आधार पर देश का विभाजन होने के बाद  यदि एक देश  मुस्लिम बना था तो स्वाभाविक रूप से  दूसरे देश को हिंदू देश होना चाहिए था लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गांधी की सहमति से हिंदुओं के इस देश को साजिशन  धर्म निरपेक्ष बना दिया. आजादी के बाद हिन्दू अपने ही देश में  द्वितीय श्रेणी के नागरिक बनते चले  गए. हिन्दुओं ने जिन्हें अपने घर में आसरा दिया, वे आज हिन्दुओं को उनके अपने  घर से ही  विस्थापित कर रहे हैं. संप्रदायिक तुष्टिकरण  की राजनीति ने  इस देश को हिन्दुओ से छीन लिया. शुरुआती दौर में कांग्रेस ने तुष्टिकरण की जमीन पर वोटों  की फसल काटी लेकिन बाद में अनेक क्षेत्रीय दल भी यह फसल काटने लगे . आज भाजपा को छोड़कर सभी दल मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति भी करते हैं और  इन  वोटों की  प्रतिस्पर्धा में कुछ भी कर सकते हैं. देश के संसाधनों का बड़ा हिस्सा मुस्लिमो और क्रिस्चियन पर खर्च किया जाता है.

 

तुष्टिकरण की नीति ने  पूरे देश में धर्मांतरण को नई गति प्रदान की. जो कार्य मुस्लिम आक्रांता तलवार के जोर पर नहीं कर सके उसे गांधी - नेहरू ने बेहद आसान बना दिया. आज सनातन धर्म पर अपना अस्तित्व बचाने का जितना विकट संकट  है, उतना पहले  कभी नहीं रहा. आज अनेक मुस्लिम और क्रिश्चियन  संगठन पूरे समय केवल धर्मांतरण के लिए ही कार्यरत हैं. विदेशी सहायता पर चलने वाले अनगिनत गैर सरकारी संगठन भी इस दिशा में कार्य कर रहे हैं. धर्मांतरण के लिए पैसा पानी की तरह बहाया  जा रहा है इसका नतीजा यह है कि आज भारत में 10  से भी अधिक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं. कुछ राज्यों में हालात चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुके हैं, जहाँ हिन्दू या तो पलायन कर रहे हैं या फिर धर्मान्तरित हो रहे हैं. आज इस  हिन्दू देश में हिन्दू होना शर्म और भेदभाव का पर्याय बन गया है. एक अनुमान के अनुसार अगले पचास साल में इस  देश में घोषित तौर पर हिन्दुओं का रहना मुश्किल हो जाएगा.

 

दुर्भाग्य से पिछले  7 वर्ष के  मोदी सरकार के कार्यकाल में भी धर्मांतरण रोकने के लिए कोई केंद्रीय कानून नहीं बनाया जा  सका  है, जिससे मामला पूरी तरह से राज्यों के ऊपर निर्भर है.  यद्यपि धर्मांतरण रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों में भाजपा शासित  राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और हिमाचल  आदि में कानून बनाए गए हैं और धर्मांतरण रोकने के प्रयास किए गए हैं लेकिन फिर भी इसमें पूरी तरह सफलता नहीं मिल पाई है . उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के कार्यकाल में धर्मांतरण रोकने की दिशा में उल्लेखनीय कदम उठाए गए हैं और धर्मांतरण में शामिल कई सक्रिय गिरोहों  के  एक  देशव्यापी बड़े रैकेट का भंडाफोड़ किया  गया है, लेकिन प्रदेश में धर्मांतरण की जड़ें इतनी गहरी है कि इन पर एकदम से रोक लगाना बहुत मुश्किल है. जिस प्रदेश में  इफ्तिखारउद्दीन जैसे वरिष्ठ आईएएस अधिकारी कमिश्नर रहते हुए अपने सरकारी आवास पर, सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करते हुए लंबे समय से धर्मांतरण का कार्य  करते  रहें हों, उस प्रदेश में  मामले की गंभीरता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसा लगता है कि जैसे पिछली सरकारों ने इस तरफ बिल्कुल आंख बंद कर रखी थी.

मतान्तरण  की बढ़ती घटनाओं के परिपेक्ष में कर्नाटक की  भाजपा सरकार  ने धर्मांतरण विरोधी सख्त कानून का मसौदा विधानसभा में पेश  किया है जिसका  सभी विपक्षी दलों खासतौर से कांग्रेस नें जमकर  विरोध किया है. कर्नाटक कांग्रेश के अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने बिल  का विरोध करते हुए इसकी प्रति सदन में फाड़ कर फेंक दी. इससे यह परिलक्षित होता है कि भारत में विभिन्न राजनैतिक दलों का खासतौर से कांग्रेस का रवैया देश की सांस्कृतिक विरासत बचाने में बिलकुल भी नहीं है.

कोविड-19 का संक्रमण काल और उसमें किया गया लॉक डाउन  का  धर्मांतरण करवाने वालों ने भरपूर उपयोग किया . दिल्ली में तबलीगी जमात और उस की कारगुजारियाँ कोरोना संक्रमण काल में ही पूरे देश के सामने आईं. मानवता को शर्मसार करने वाला नोएडा में मूक-बधिर विद्यालय के छात्रों का धर्मांतरण इसी समय किया गया. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर जयलाल के अपने  पेशे को शर्मशार करते हुए कई वीडियो सामने आए जिसमें वह क्रिस्चियन मिशनरियों की मीटिंग में कहते पाए गए हैं कि कोरोनाकाल का  धर्मांतरण के लिए भरपूर उपयोग किया जाना चाहिए.

पंजाब के किसान कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलन में व्यस्त रहें और दिल्ली घेर  कर बैठे रहे और राज्य में क्रिश्चियन मिशनरी धर्मांतरण का काम युद्ध स्तर पर चलाते रहे. आज पंजाब में धर्मांतरण अपने चरम पर है, गुरुग्राम में एक गुरूद्वारे का उपयोग नमाज पढने के लिए उपयोग किया जाना भी सामान्य घटना नहीं है.  अब जाकर  सिख और  अन्य सामाजिक संगठनों की आँख खुली  है और  इसके विरुद्ध आवाज उठाई है लेकिन पिछले कुछ समय से हिन्दुओं और सिखों को आमने सामने करने की कोशिशे परवान चढ़ रही हैं. पंजाब में  बेअदबी के   मामले अनायास नहीं सोची समझी रणनीति है.

 

धर्मांतरण में लगे इस्लामिक और क्रिस्चियन संगठनों में एक चीज में समानता है कि इन दोनों का लक्ष्य  हिंदू समाज के कमजोर तबकों खासतौर से  से अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के लोगों को अपने जाल में फंसाना है. कई क्रिश्चियन संगठनों ने हिंदू धर्म के भोले भाले लोगों को लुभाने के लिए हिंदू धर्म से मिलती-जुलती किताबें छापी हैं जैसे एक किताब का नाम है "श्री यीशु नारायण व्रत कथा, पूजन विधान, 101 नामावली, आरती सहित-  मूल संस्कृत एवं हिंदी अनुवाद". हिंदुओं को धोखा देने के लिए इन्होंने मसीही मंदिर के नाम से चर्च भी स्थापित कर रखे हैं. यीशु के मस्तक  पर चंदन लगी फोटो के  पोस्टर बनाए जाते हैं, कई पोस्टर में यीशु के चार हाथ दिखाए जाते हैं और उन्हें शेषनाग के फनों के नीचे भगवान विष्णु की तरह बैठा हुआ दिखाया जाता है. यीशु के लिए परमेश्वर शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और उनकी फोटो में उनके सिर को मध्य में रखकर कई देवी-देवताओं के सिर ऐसे लगाये जाते हैं जैसे कि भगवान् विष्णु का विश्वरूप हों . मिशनरी कार्यकर्ता परंपरागत भारतीय मालाओं में क्रॉस डालकर हिंदुओं को पहना रहे हैं. हिंदुओं को लुभाने के लिए भारतीय पद्धति से हवन और पूजा विधि भी कर्मकांड का हिस्सा बना रहे  हैं.  मिशनरी कार्यकर्ता सन्यासियों की तरह ही  भगवा वस्त्र  पहनते हैं और जरूरत पड़ने पर मारपीट भी करते हैं, जिस का आरोप हिंदूवादी संगठनॉ  के कार्यकर्ताओं के सिर मढ दिया जाता है.

 





धर्मान्तरण को लेकर एक कठोर क़ानून की आवश्यकता देश को लम्बे समय से  है. 1951 में हिंदू आबादी ८५%थी जो २०२१ में ७२ % के लगभग रह जाने  की आशंका है किन्तु इसके विरुद्ध मुस्लिम आबादी १९५१ में ८% से २०२१ में २५% से भी अधिक हो जाने की संभावना है. पड़ोसी देशों  पकिस्तान, अफगानिस्तान  और बँगला देश में हिंदुओंकी आबादी समाप्ति की ओर है. भारत में जनसंख्या का घनत्व बदलकर राष्ट्र का मूल स्वरूप बदलने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है. इसके लिए ज्यादा संताने उत्पन्न करने के अलावा, मुस्लिम घुसपैठियों को अवैध रूप से बसाना और अधिक से अधिक  धर्मान्तरण करवाना मुख्य रणनीति का हिस्सा है, लेकिन विभिन्न राजनैतिक दल और कुछ हिन्दू उन्ही के साथ खड़े हैं.        

पहले ही बहुत देर हो चुकी है  अब  जनसंख्या नियंत्रण, सामान नागरिक संहिता  एवं धर्मान्तरण को लेकर सख्त  केन्द्रीय कानून  की तुरंत  आवश्यकता है और भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की आवश्यकता है. हमें यह याद रखना चाहिए कि धर्मांतरण  केवल  उपासना पद्धति का रूपांतरण नहीं बल्कि  राष्ट्र का रूपांतरण भी होता  है.  सनातन धर्म  की सांस्कृतिक विरासत के अस्तित्व को बचाने की गंभीर चुनौती आज देश के समक्ष है और शायद सनातन धर्म अपने अस्तित्व की रक्षा की आख़िरी लड़ाई लड़ रहा है. अगर आज भी हम नहीं जागे तो फिर सनातन संस्कृति की रक्षा करना बेहद कठिन हो जाएगा और अगले पचास साल में इस देश का कुछ हिस्सा इस्लामिक और कुछ क्रिश्चियन होना अवश्यम्भावी लगता है.     

-    - - शिव मिश्रा


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( लेखक सेवा निवृत्त उच्चाधिकारी और समसामयिक विषयों के विशेषज्ञ हैं )

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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

काशी सबसे न्यारी, राजनीति की मारी

 

काशी सबसे न्यारी, राजनीति की मारी 




13 दिसंबर 2021  भारत के इतिहास का एक स्वर्णिम दिन बन गया जब  प्रधानमंत्री मोदी ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर  राष्ट्र को समर्पित  करके काशी को नव्यता और भव्यता प्रदान की जिससे काशी एक बार फिर पूरे विश्व पटल पर सुर्खियों में छा  गई.

काशी अमर है अविनासी है. काशी   की महिमा का स्कन्दपुराण में  वर्णन  इस प्रकार किया गया  है-

भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया, या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:। या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते,  सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥

इसका भावार्थ यह है कि जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटनेवाली (मोक्षदायिनी) है, जो महात्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे।

कहा जाता है कि यह पुरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अत: प्रलय होने पर भी इसका नाश नहीं होता है। वरुणा और असि नामक नदियों के बीच पांच कोस में बसी होने के कारण इसे वाराणसी भी कहा जाता है। काशी अर्थ भी यही है-जहां ब्रह्म प्रकाशित हो। भगवान शिव काशी को कभी नहीं छोडते। जहां देह त्यागने मात्र से प्राणी जन्मों के बंधन से मुक्त हो जाय, वह अविमुक्त क्षेत्र यही है। सनातन धर्मावलंबियों का दृढ विश्वास है कि काशी में देहावसान के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी को तारकमन्त्र सुनाते हैं। इससे जीव को तत्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकाशित हो जाता है।

बाबा भोलेनाथ का यह मंदिर भारत में सभी ज्ञात मंदिरों में प्राचीनतम है और ऐसा माना जाता है यह भगवान पार्वती और शंकर का आदि स्थान है. ज्ञात इतिहास के अनुसार राजा हरिश्चंद्र ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. इसके पश्चात सम्राट विक्रमादित्य ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार और पुनरुद्धार कराया था.

1194 में मुहम्मद गोरी नाम के एक मुस्लिम लुटेरे आक्रांता ने इसे तोड़ा था. 1447 में सुल्तान महमूद शाह ने एक बार फिर इस मंदिर को तोड़ दिया था. जिस शाहजहां को  तथाकथित  प्यार की निशानी ताजमहल के लिए दुनिया भर में याद किया जाता है उस  क्रूर और राक्षसी प्रवृत्ति के मुस्लिम शासक ने 1632 में इस मंदिर को तोड़ने  के लिए सेना भेजी  थी । 1669 में  औरंगजेब के आदेश पर मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई।

1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था, जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया था । ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी ( सरस्वती देवी )  का मंडप बनवाया था  और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई थी । वर्तमान विस्तारीकरण और जीर्णोद्धार प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी के शासनकाल में हुआ है, वह  भी इतिहास में दर्ज होगा. हमें उस दिन की बेसब्री से  प्रतीक्षा है, जब ज्ञानवापी मस्जिद का अतिक्रमण हटेगा और यह शायद जल्दी ही होगा.                                     

 

आजादी के  समय भारत का धार्मिक आधार पर विभाजन  हुआ  किन्तु   मुस्लिमों के लिए पाकिस्तान बन जाने के बाद भी भारत से अधिकतर मुस्लिम वहां  नहीं गए और इसका  सबसे बड़ा कारण था जवाहरलाल नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति  जिसे वे आजाद भारत में अपना सबसे बड़ा वोट बैंक बनाना चाहते थे. भेदभाव की इस नीति के कारण ही  केवल हिंदुओं के लिए बचे इस भूभाग को  न केवल धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनाया गया बल्कि हिंदुओं के प्रति भेदभाव भरा नकारात्मक रवैया भी  अपनाया गया. इसके चलते  सनातन धर्म के उन  पौराणिक प्राचीन मंदिरों व अन्य पूजा स्थलों का भी ध्यान नहीं रखा गया, जहाँ मुस्लिम आक्रताओं  ने क्षति पहुंचाई थी और उन्हें तोड़कर उनके ऊपर मस्जिद बना दी थी। चाहिए तो यह था कि  आजादी के तुरंत बाद  नेहरू सरकार देश में एक आयोग का गठन करती जो इस तरह के विवादित स्थलों  का हल निकालती  और  सनातन धर्म के आस्था केंद्रों, मंदिरों और अन्य धार्मिक  स्थलों पर मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा तोड़े जाने और कब्जा किये जाने  के बारे में तुरंत फैसला करता.  दुर्भाग्य से नेहरु के स्वार्थ और अदूरदर्शिता से  ऐसा नहीं किया गया. इस कारण तीनों प्रमुख धर्म स्थानों मथुरा, काशी और अयोध्या   सहित 50000 से भी अधिक मंदिरों पर आज भी मुस्लिम समुदाय का कब्जा बना हुआ है. कांग्रेस की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने 1991 में एक नया कानून बना कर सभी धर्म स्थानों के लिए 15 अगस्त 1947  के समय की यथा  स्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए. इस संवैधानिक बाध्यता के चलते सनातन धर्म के अनेक अति महत्वपूर्ण स्थानों के संदर्भ में न्यायालय में आज कोई याचिका भी दायर नहीं की जा सकती है.

केंद्र में मोदी व उत्तर प्रदेश में योगी की सरकार आने से लोगों में आशा की नई किरण जाग उठी कि शायद अब सनातन धर्म के प्रति भेदभाव नहीं होगा और  सनातन धर्म के सर्वोच्च तीन  धर्म स्थान काशी, मथुरा और अयोध्या  के मामले में भी हिंदुओं के साथ न्याय किया जाएगा.  मोदी सरकार ने बहुसंख्यक समुदाय को निराश नहीं किया.  सरकार ने तमाम बाधाओं को दूर  किया और सुखद  संयोग से  सर्वोच्च न्यायालय  के निर्णय  ने राम मंदिर बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया. अब अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण के साथ-साथ प्रदेश की योगी सरकार अयोध्या के चहुमुखी विकास के लिए अन अथक प्रयास कर रही है. आशा है कि अयोध्या अपने प्राचीन गौरव को पूरी नवीनता के साथ पुनः प्राप्त कर सकेगी

काशी से प्रधानमंत्री मोदी के सांसद बनने के बाद विकास के लगातार नए आयाम गढ़े जा रहे हैं और इसी कड़ी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण किया गया है. काशी की इतनी पौराणिक महत्व के बाद बाबा विश्वनाथ का यह द्वादश ज्योतिर्लिंग  लगभग 3500 स्क्वायर फीट के अत्यंत छोटे क्षेत्र में स्थित था और जिसकी पहुंच छोटी-छोटी सकरी गलियों से होती थी. कॉरीडोर बन जाने से श्रद्धालुओं के उपयोग का क्षेत्रफल लगभग दो लाख स्क्वायर फीट हो गया है जहां अब एक साथ लगभग 70 हजार  श्रद्धालु एकत्रित हो सकते हैं.




काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के इस भव्य आयोजन में उपस्थिति देश के  सनातन धर्म के  सभी प्रमुख संत और अन्य गण मान्य  व्यक्तियों के चेहरे पर छाई  प्रसन्नता देख कर  ऐसा लग रहा था कि शायद उन्होंने इस तरह के निर्माण और भव्य  विस्तार की कल्पना भी नहीं की होगी . देश का प्रधान मंत्री गंगा में डुबकी लगाकर  मस्तक पर चन्दन लगाए भगवा वस्त्रों में पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ इस आयोजन का हिस्सा था . सब कुछ  अद्भुत और अकल्पनीय था . काशी का रोम रोम पुलकित हो  रहा था.  लेकिन  बरबस लोगो को सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रसंग याद आ गया जब नेहरु ने खुद जाना तो दूर देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद को भी जाने से यह कह कर रोक दिया था  कि भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है. राष्ट्रपति बिना सरकारी खर्चे के इस आयोजन में शामिल हुए थे, जिसके बाद नेहरु ने  उन्हें कितना अपमानित और प्रताड़ित  किया था, जिसकी सहज कल्पना नहीं की जा सकती. देश के प्रथम राष्ट्रपति ने पटना के सदाकत आश्रम की सीलन भरी कोठरी में जीवन के अंतिम दिन बिताएं.

यह कहने में  मुझे कोई संकोच नहीं कि पिछले 7 वर्षों के मोदी सरकार के कार्यकाल में सनातन संस्कृति के पुनर्जागरण का कार्य शुरू हुआ है.  अयोध्या में राम की भव्य मंदिर के निर्माण के साथ ही  उत्तराखंड में चार धाम परियोजना की शुरुआत की थीके अंतर्गत चारों धाम को जोड़ने के लिए 889 किलोमीटर लंबे हाईवे का  चौड़ीकरण  किया गया और ऑल-वेदर यानी हर मौसम में मजबूत रहने वाली सड़क  का निर्माण कराया गया।  इससे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री  की यात्रा काफी शुगम हो गई है.  अयोध्या में राम मंदिर निर्माण  का मार्ग प्रशस्त  होने के बाद सरकार ने  एक न्यास की स्थापना की और मंदिर  के निर्माण कार्य  को पंख लगा दिए.  अगस्त 2020 में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे सनातन रीति-रिवाजों से पूजा अर्चना करते हुए इस मंदिर का शिलान्यास   पूरे भक्ति भाव से करते हुए पूरी दुनिया को  संदेश दिया कि  पंथनिरपेक्षता केवल सनातन धर्म में ही संभव है.   पिछले 500 वर्षों के मंदिर निर्माण के संघर्ष को याद करते हुए हिंदू जनमानस के मन मस्तिष्क में आज भी अयोध्या में  प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किए गए शिलान्यास की यादें ताजा है, जब उन्होंने साष्टांग दंडवत होते हुए प्रभु श्री राम का चरण वंदन किया था.

श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का बनना एक अत्यंत साहसिक और समर्पण का  प्रतीक है इसका बन पाना आसान कार्य नहीं था और इसके निर्माण में सैकड़ों व्यवधान उत्पन्न  किए गए  जिनमें  हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय शामिल थे. जहां  विरोध करने वाले  हिंदू विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा प्रायोजित  किए गए थे जिन्होंने अपने दलगत राजनीतिक स्वार्थ के कारण प्राचीन मंदिरों को तोड़ने, विग्रह नष्ट करने और काशी का विनाश करने जैसे आरोप लगाए.  स्वाभाविक रूप से विपक्षी दल नहीं चाहते थे कि  श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण पूरा हो पाए और इसका श्रेय भाजपा या प्रधानमंत्री मोदी को मिले.  यद्यपि इन्होने   गंगा में डुबकी  लगाते हुए और बाबा विश्वनाथ के दरबार में पहुंच कर आराधना करते हुए अपनी तस्वीरें और  वीडियो खूब प्रचारित और प्रसारित किए जिसका केवल और केवल उद्देश्य  अपने आपको हिंदू के रूप में स्थापित करना था.  विपक्ष के इन नेताओं को डर था कि  श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के इतने बड़े  कार्य के संपन्न हो जाने के बाद  उनका हिंदुत्व  बहुत छोटा पड़ जाएगा,  इसलिए निर्माण के इस कार्य का   अभियान चलाकर हर स्तर पर विरोध किया गया.

ज्ञानवापी मस्जिद  की इंतजामियां कमेटी ने भी  कॉरिडोर के निर्माण का  भरसक विरोध किया और सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी  कि इतने बड़े निर्माण  और लोगों की भारी भीड़ जमा होने के कारण  मस्जिद की सुरक्षा को गंभीर खतरा है. लेकिन पूरी दुनिया ने सनातन धर्म की विशालता का उस समय  अनुभव किया कि जिस  समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन कर रहे थे,  ठीक उसी समय नमाजी मस्जिद में नमाज  अदा कर रहे थे.  उद्घाटन के बाद   ज्ञानवापी मस्जिद कमेटी का अब कहना है  कि कॉरिडोर के निर्माण से मस्जिद और भी सुरक्षित हो जाएगी.


कॉरिडोर के उद्घाटन के समय अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने चुटकी लेते हुए कहा था  कि  हो सकता है कोई  नेता कॉरिडोर के निर्माण का श्रेय लेने की भी कोशिश करे कि  यह परियोजना उसने शुरू की थी.  प्रधानमंत्री  के इस व्यंग से बेपरवाह अखिलेश यादव ने सचमुच यह घोषणा कर दी कि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर की योजना उनके शासनकाल में बनी थी और कुछ भवनों का अधिग्रहण भी किया गया था. बेहद बचकाने अंदाज में नकारात्मकता का परिचय देते हुए उन्होंने यह भी कह डाला कि प्रधानमंत्री को  काशी में रहना चाहिए क्योंकि आखिरी समय में वही रहा जाता है.  इसके एक दिन पहले  राहुल गांधी हिंदू और हिंदुत्व की व्याख्या कर रहे थे, तो  राज्य सभा में  कांग्रेस के नेता  खड़गे ने प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए कह रहे थे  कि उन्हें यह उद्घाटन किसी छुट्टी के दिन करना चाहिए था और उस दिन उन्हें संसद में होना चाहिए था. अन्य नेताओं ने खुल कर आलोचना भले ही न की हो किन्तु किसी ने भी इस पर प्रसन्नता  व्यक्त करते हुए न तो कोई ट्वीट किया और न ही कोई  वक्तव्य दिया.  यह प्रदर्शित  करता है कि न केवल  राजनैतिक दलों का  तुष्टिकरण  मोह अभी भी जस का तस कायम है बल्कि वोट बैंक के साझीदारों की संख्या बढ़ती जा रही है. धार्मिक कट्टरता और  उन्माद बढ़ता जा रहा है. छल - कपट और प्रलोभन  से मतान्तरण करवाकर जनसंख्या विस्फोट करवाया जा रहा है ताकि देश की धार्मिक पहचान को समाप्त कर  और गजवा- ए- हिन्द को अंजाम दिया जा सके. अपने स्वार्थ में अंधे हो चुके राजनैतिक  दल इसके विरुद्ध खड़े होने के बजाय इसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन दे रहें हैं . इसलिए सनातन   संस्कृति   के कर्णधारों को अपनी  हिचक छोड़कर सनातन धर्म की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए और क्षणिक फायदे के लिए  किसी बहकावे में नहीं आना चाहिए. 

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- शिव मिश्रा 





न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी

 न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी

सरकार द्वारा  तीनो कृषि  कानून वापस ले लेने के बाद भी तथा कथित  किसान हट धर्मिता दिखाते हुए अभी घर वापसी के मूड में नहीं है. अब  कई नई मांगे भी  की जा रही  हैं लेकिन सबसे बड़ी मांग है न्यूनतम  समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून. यह कानून देश और किसानों के लिए कितना लाभकारी हो सकता है, आइये इसे बिना इकनोमिक जोर्गन प्रयोग किये बिलकुल साधारण भाषा में समझने  की कोशिश करते हैं.

जरा सोचिये जिस  देश में गुड १०० रूपये प्रति किलो और चीनी ३० रुपये प्रति किलो बिकती हो  इसका क्या कारण हो सकता हैकारण है गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य होता है, लेकिन गुड का नहीं. चीनी मिले ज्यादा कुशन गन्ना खरीदे, इसके लिए आन्दोलन होते हैं.  भुगतान  में विलम्ब करें, भुगतान नहीं करें तो भी आन्दोलन होतें हैं और फिर राज्य सरकारे सक्रिय होती हैं, चीनी मिलो की सहायता करती हैं, तब कहीं जाकर भुगतान हो पाता है. . अक्सर यह चुनावी  मुद्दा भी बनता है. धीरे धीरे गन्ने का वैकल्पिक वाणिज्यिक उपयोग लगभग बंद हो चुका है. बड़ी कंपनिया जैसे रिलायंस फ्रेश, डीमार्ट, बिग बास्केट, स्पेंसर, अमेजन, फ्लिप कार्ट  आदि महाराष्ट्र और गुजरात से अपने रिटेल या ऑनलाइन स्टोर्स पर बेचने के लिए  गुड  तैयार करवाती हैं, जहाँ यह १०० रूपये से १५० रुपये किलो तक बेचा जाता है. सामान्य किसानों को तो शायद यह मालूम भी नहीं होगा. कभी पूरे उत्तर भारत में  पश्चिमी उ.प्र के नए गुड की प्रतीक्षा रहती थी, अब  मेरठ, नोइडा और दिल्ली में भी कोल्हापुर का डिब्बाबंद गुड बिकता है. यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है  कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या प्रभाव  हो रहा है खास तौर से पश्चिम उत्तर प्रदेश हरियाणा और पंजाब में.

न्यूनतम समर्थन मूल्य तो अभी भी लागू है और फसल की  शुरुआत में सरकार इसकी घोषणा कर देती है. इसका उद्देश्य होता है कि सरकार किसानों से इसी मूल्य पर खरीदारी करेगी ताकि किसानों को यह मालूम हो सके कि बाजार मूल्य लगभग इसके आस पास रहेगा और वे  फसल बोने के लिए  अपने सही विकल्प का चुनाव कर सकें. लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने के बाद भी सरकार सारी  उपज की खरीदारी नहीं करती. सरकार केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सेना और अर्धसैनिक बलों तथा अन्य जरूरतों का ध्यान रखकर सीमित मात्रा में खरीदारी करती है.  सरकार अगर चाहे भी तो किसानों की सारी उपज की खरीदारी कर भी  नहीं सकती क्योंकि उसके पास ना तो भंडारण की क्षमता है और ना ही बिक्री और वितरण का कोई तंत्र. इसलिए सरकारी खरीदारी के बाद जो उपज बचती है, वह खुले बाजार में बिकती है. इसकी विशेषता यह है कि किसान को मूल्य भले ही कम मिले लेकिन  उपज बिना किसी परेशानी के बिक जाती है. यद्दपि   उपज  का  मूल्य  "डिमांड और सप्लाई के सिद्धांत" पर निर्भर  होता है इसलिए बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम या ज्यादा हो सकता है. फसल के समय यह सामान्यतय: कम ही होता है और इसलिए यह तुरंत फायदे का सौदा होता  है. इसके अलावा समय के साथ साथ पूरी खरीद प्रक्रिया में पार दर्शिता का अभाव होता  जा रहा है. अक्सर बिचौलियों की भूमिका सवालों के घेरे में आती है क्योंकि खाद्य निगम ज्यादातर खरीदारी राज्य सरकार द्वारा लाइसेंसी कृत बिचौलियों के माध्यम से करती है. साथ ही खाद्य निगम के गोदामों में खाद्यान्न की बर्बादी भी बहुत सामान्य  है यद्दपि  इसमें हाल के वर्षों में काफी सुधार हुआ है. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि  ज्यादातर छोटे किसानों को  न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई  लाभ नहीं मिल पाता और इसलिए किसानों के वर्तमान आन्दोलन में उनकी सहभागिता भी लगभग नहीं के बराबर है.

 

न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का औचित्य

न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने का मतलब है कि उस मूल्य पर ही खरीदारी होगी, या तो सारी खरीदारी सरकार करें, जो संभव नहीं है, इसलिए कानून बनाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीद-फरोख्त को गैरकानूनी घोषित कर दिया जाय और इसे दंडनीय अपराध घोषित कर दिया, और कानून तोड़ने वालों को  जेल में डाल दिया जाए. ऐसे कानून के अंतर्गत यदि सरकार पूरी खरीदारी नहीं करेगी तो व्यापारी या स्टॉकिस्ट को सरकारी मूल्य पर ही खरीदारी करनी होगी. यदि उपज की मांग नहीं हुई तो व्यापारी और स्टॉकिस्ट इसे नहीं खरीदेंगे. अगर आयात करने पर किसी जिन्स का मूल्य देश के न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होता है तो व्यापारी स्थानीय स्तर पर खरीदने के बजाय इसका आयात करेंगे और यदि सरकार आयात प्रतिबंधित करेगी तो फिर पड़ोसी देशों की सीमाओं से स्मगलिंग और काले धंधे शुरू हो जायेंगे. यदि यह भी नहीं हो सका तो किसानों से चोरी छुपे कम कीमत पर खरीदारी की जाएगी.

 

 

 

इस सब का नतीजा यह होगा कि किसान की उपज कितनी ही अच्छी और कितनी ही ज्यादा क्यों ना हो बाजार में खरीदने वाले नहीं होंगे और किसान रुपयों की अत्यंत आवश्यकता होने पर  भी अपनी फसल नहीं बेच पाएंगे. उन्हें फसल या तो अपने पास रखनी पड़ेगी या फिर इसे जानवरों को खिलाने या फेंकने के लिएके लिए मजबूर हो जाएंगे, जैसा कि हम हर साल मौसमी सब्जी और फलों के बारे में देखते हैं.

फुटकर ग्राहकों के लिए भी बहुत बड़ी समस्या हो जाएगी क्योंकि किसानों के पास उपज तो बहुत होगी लेकिन उन्हें या तो बहुत  महंगी मिलेगी या फिर मिलेगी ही नहीं. ऐसी स्थिति में फसलों की उपज और उनके मूल्यों के बारे में भविष्यवाणी करना असंभव हो जाएगा. सरकार के लिए ऐसी स्थिति में उत्पादन और गुणवत्ता बढ़ाना बेहद मुश्किल हो जाएगा.  इसका एक दुष्परिणाम यह  होगा कि  कमोडिटी मार्केट तो ध्वस्त हो जाएगा.

इस सबका मिलाजुला असर यह होगा कि किसानों की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और उनके खर्च करने की शक्ति कम हो जाएगी, चाहे वह पारिवारिक खर्च हो या फसलों में लगने वाली लागत या पूंजी हो. कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी लगभग खत्म हो जाएगी.

संपन्न किसान और किसान वेश में बिचौलिए नए-नए आंदोलन चलाकर सरकार को खरीदारी का कोटा बढ़ाने के लिए दबाव बनाएंगे. आज जो किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए आंदोलन चलाने की बात कर रहे हैं, कल वह सरकारी खरीद का कोटा बढ़ाने के लिए आंदोलन चलाएंगे और यदि सरकार कोटा बढ़ाएगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की बात होगी.  संपन्न किसान और बिचौलिए तो मालामाल होते जाएंगे लेकिन सामान्य किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जाएगी. साथ-साथ सरकार अत्यधिक वित्तीय दबाव बनेगा क्योंकि सरकार इस तरह से खरीदी गई उपज को ना तो निर्यात कर पाएगी और ना ही देसी बाजार में बेच पाएगी. सरकार के पास भंडारण की पर्याप्त क्षमता भी नहीं है इसलिए उपज का बड़ा हिस्सा बर्बाद होने से नहीं रोका जा सकेगा. इसके बाद उपज को या तो मुफ्त में अपने देश के नागरिकों में बांटना होगा, या फिर ओने पौने निर्यात करना होगा या मुफ्त में जरूरतमंद देशों / संयुक्त राष्ट्र संघ को दान करना होगा.

सरकार द्वारा इस पर किया गया खर्चा इतना ज्यादा होगा की अन्य महत्वपूर्ण परियोजनाएं और रक्षा सहित विकास के कार्य प्रभावित होंगे, जिसकी भरपाई सरकार करों की दर बढ़ाकर यह नए कर लगाकर करेगी. पूरे घटनाक्रम से सबसे अधिक प्रभावित होंगे आम किसान और खेतिहर मजदूर जो अधिकांशत: आज भी गरीबी में जी रहे हैं.

मैंने अपनी आंखों से देखा है और महसूस किया है कि किसानों की हालत बहुत खराब है . खेती किसानी अब लाभदायक कार्य नहीं रहा. मैं अपने गांव और रिश्तेदारी में ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं,   जिनके पास लगभग 10 एकड़ खेती थी और वे जमीदारों की तरह रहते थे. आजकल उनकी हालत बहुत खराब है. उतनी खेती से घर का खर्चा नहीं चलता. सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि खेती करने के लिए मजदूरों की भारी कमी है. गांव के ज्यादातर युवा वर्ग गांव छोड़कर दिल्ली, गुजरात, मुंबई और पंजाब चले जाते हैं. केवल वही लोग बचते हैं जिनके पास नरेगा कार्ड होते हैं और साल में १००- ५० दिन का काम मिल जाता है.

खेतों की जोत बहुत छोटी है, कई गावों  में घूमिये तो शायद ही किसी के पास बैल मिलेंगे. किराए पर ट्रैक्टर मंगा कर एक आध बार जोत कर खेती की जा रही है. बटाई पर खेती करने वालों की संख्या भी कम होती जा रही हैं. मेरे पास  बहुत थोड़े खेत है, जो कई बार बटाईदार ना मिलने पर खाली पड़े रहते हैं. मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कैसे इस पूरी व्यवस्था को परिवर्तित करेगी.

इसलिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने के बजाय किसानों की आमदनी बढ़ाने की अन्य योजनाएं बनाने पर विचार करना चाहिए और ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिससे उनकी आय बढे, उनकी क्रय शक्ति बढे. जिससे किसानों के रहन-सहन में सुधार आएगा और देश की जीडीपी भी बढ़ेगी. पंजाब में अधिकांशत: गेहूं और धान की फसलें उगाई जा रही हैं, जिनमें अत्यधिक सिंचाई के  पानी की आवश्यकता पड़ती है और इस कारण पंजाब में भूगर्भ का जलस्तर गिरकर खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक कीटनाशकों और रासायनिक खादों का उपयोग किया जा रहा है. जिसके कारण पंजाब देश में सबसे अधिक कैंसर रोगियों वाला प्रदेश बन गया है. आय के असमान वितरण के दुष्परिणाम स्वरूप नशे का कारोबार भी अपनी जड़ें जमा रहा है. सरकार नकद या अन्य तरह की सहायता पहुंचा कर फसलों का पैटर्न बदल सकती है, और भूगर्भ जलस्तर बचा कर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी सुरक्षित कर सकती है. जब तक कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं दिया जाता और उसी तरह सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जाती, किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं किया जा सकता. सरकार को ऐसे प्रयास करने चाहिए जिससे किसानों की लागत कम हो सके  और वे देश की आवश्यकता के अनुसार फसलें उगा कर अपने लिए आर्थिक स्रोत उत्पन्न कर सकें. रद्द किए गए  कृषि किसान कानूनों की जगह, किसान संगठनों और विशेषज्ञों से वार्ता कर के नए कानून लाई जानी चाहिए जिससे किसान अपनी कृषि योग्य भूमि का अधिकतम उपयोग करके अधिक से अधिक आय अर्जित कर सकें और स्वयं स्वावलंबी बन सके.

अमेरिका, कनाडा जैसे विकसित देश और यहाँ तक कि विश्व व्यापार संगठन भी  भारत पर कृषि क्षेत्रको  तय सीमा से अधिक सब्सिडी देने का आरोप लगाते रहते हैं. मोदी सरकार ने शायद  इससे बचने के लिए किसानों को आर्थिक सहायता देने का नया तरीका निकाला है और वह है  सीधे उनके खाते में धनराशि पहुंचाना, जिसे तकनीकी रूप से  सब्सिडी नहीं सहायता  माना जाता है और इसलिए इस पर कोई आपत्ति भी नहीं की जाती.

अमेरिका और युरोप के  ज्यादातर किसानों की गिनती दनिया के समृद्ध किसानो में होती है लेकिन वहां न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का कानून नहीं है. इसलिए मूल्यों की  गारंटी के ये मांग किसानो की खुशहाली का द्वार नहीं खोल सकती. 

- शिव मिश्रा 

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