शनिवार, 29 मई 2021

वीर सावरकर : एक प्रखर राष्ट्रवादी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कवि , लेखक और विचारक

 वीर सावरकर को कोटिश : नमन !




भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानी और राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर की आज 28 मई 2021 को 138वीं जयंती है। वीर सावरकर को शत शत नमन !

इस उपलक्ष पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर कई अन्य मंत्रियों ने भी सावरकर को नमन करते हुए श्रद्धांजलि दी है।

कभी अटल बिहारी वाजपेई ने इन शब्दों में वीर सावरकर को श्रद्धांजलि अर्पित की थी.



2018 में धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंडमान की सेलुलर जेल जाकर जेल की उसी कोठी में रखी वीर सावरकर की फोटो के सामने बैठकर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किए .

मेरी सेलुलर जेल यात्रा :

  1. दिसंबर 2017 में मैं जब अंडमान निकोबार के पोर्ट ब्लेयर स्थित  इस सेल्यूलर जेल  देखने पहुंचा तो क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों द्वारा किए गए अत्याचार  उनके परमाणु देखकर ह्रदय द्रवित हो गया.   

  2. वीर सावरकर की कोठरी जो लगभग 12-13 फीट लंबी और 7 फीट चौड़ी थी,  जिसमें  उन्हें हथकड़ियां और बेड़िया लगाकर रखा जाता था. उस कोठरी में  कोई खिड़की नहीं थी सिर्फ लोहे का दरवाजा था. कोठरी  के किनारे पर पानी पीने का मिट्टी का एक बर्तन और लघु शंका से निवृत होने के लिए भी एक मिट्टी का बर्तन रखा  जाता था.   

  3. जरूरत पड़ने पर दीर्घ शंका  भी कैदियों को वही कोठरी  में करनी पड़ती थी.   

  4. यह कोठरी वीर सावरकर को जानबूझ कर दी गई थी, क्योंकि इसके ठीक नीचे फांसी घर  और यातना घर  बने हुए थे ताकि  कैदियों पर हो रहे अत्याचार के स्वर  लगातार  उनके कानों में जाते रहे  और उन्हें मानसिक  रूप से भी तोड़ा  जा सके.  

  5. भूतल पर लगे हुए तेल निकालने के कोल्हू में कैदियों को बैल की तरह जोता जाता था  और निश्चित मात्रा में प्रतिदिन तेल निकालना  प्रत्येक कैदी के लिए आवश्यक होता था.   

  6. इसी कोठरी में सावरकर ने  अपने जीवन के लगभग 10 साल बिताए. 

  7. मन  में लगातार एक प्रश्न  कौंधता  रहा कि  एक तरफ ऐसे  प्रखर राष्ट्रवादी  क्रांतिकारी थे   जिन्होंने इतनी  यातनाएं  सही  और दूसरी तरफ  जवाहरलाल नेहरू  जैसे  तथाकथित स्वतंत्रता सेनानी भी थे  जिन्हें जेल में  वीआईपी सुविधाएं मिलती थी, जिनसे  प्रतिदिन  पूछा जाता था कि वे नाश्ते में क्या खाएंगे, लंच  और डिनर में  में क्या खाएंगे.  जिन की लिखी हुई चिट्ठियों को  डाक घर तक पहुंचाने के लिए एक  जेल कर्मचारी  की ड्यूटी लगाई जाती थी.  ऐसा व्यक्ति  देश का प्रधानमंत्री बन जाता है  और वीर सावरकर  जैसे क्रांतिकारियों के  कार्यों को भी इतिहास से मिटाने की भरपूर कोशिश की जाती है, उन्हें बदनाम किया जाता है  ताकि कोई भी देश भक्त  उसे प्रेरणा ले सकें.   अंग्रेजों ने कांग्रेस की स्थापना  अपने शासन की निरंतरता बनाए रखने के लिए की थी और कांग्रेस  सरकार  ने  क्रांतिकारियों  और राष्ट्रवादियों  की वीर गाथाएं इतिहास से हटाकर और उन्हें लांछित  कर अपनी  सत्ता  बनाए रखने का असफल प्रयास किया . अंग्रेज तो केवल शारीरिक  यातनाएं  देते थे,  लेकिन कांग्रेस ने धार्मिक सांस्कृतिक और राष्ट्रवाद पर चोट करने की  ऐसी भयंकर यातनाएं इस देश को दी हैं,  जिसका उद्देश्य  समूचे  राष्ट्र का विध्वंस करना है, इसके   दुष्परिणाम  देश को कम से कम  अगले  100 वर्ष तक भोगने पड़ेंगे.  

महाराष्ट्र के नासिक के निकट भागुर गांव में 28 मई 1883 को जन्में वीर सावरकर एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार थे। राजनीति में हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा को विकसित करने में सावरकर का बहुत बड़ा योगदान है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ के सदस्य न होते हुए भी संघ परिवार में वीर सावरकर का बहुत सम्मान है क्योंकि वह राष्ट्र भक्ति की जीती जाती मिसाल थे.

वह वीर सावरकर ही थे जिन्होंने पूरे विश्व में हिंदुओं का मान बढ़ाने के लिए हिंदुत्व की अवधारणा को शब्द प्रदान किए . वह प्रखर राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के पुरोधा थे उनके द्वारा लिखे गए साहित्य को सावरकर साहित्य के नाम से जाना जाता है, जिसमें राष्ट्रवाद कूट कूट कर भरा हुआ है. उनकी हर एक रचना राष्ट्रवाद की भावना को बेहद मजबूत करती है और यही कारण है कि उनकी पुस्तकें हैं ब्रिटेन जर्मनी पोलैंड आदि देशों में चलती थी लेकिन भारत में उन्हें प्रतिबंधित किया गया था. नेहरू ने आजादी के 5 साल तक दी इन किताबों से प्रतिबंध नहीं उठाया जब तक कि राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद और लाल बहादुर शास्त्री ने इसके लिए आवाज उठाई .

सावरकर ने दी थी हिंदुत्व की ये परिभाषा -

सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व - हू इज़ हिंदू?' इस किताब में उन्होंने पहली बार राजनीतिक विचारधारा के तौर पर हिंदुत्व का इस्तेमाल किया था। सावरकर के अनुसार भारत में रहने वाला हर व्यक्ति मूलत: हिंदू है और यही हिंदुत्व शब्द की परिभाषा है।

जिस व्यक्ति की पितृ भूमि, मातृभूमि और पुण्य भूमि भारत हो वही इस देश का नागरिक है। हालांकि यह देश किसी भी पितृ और मातृभूमि तो बन सकती है, लेकिन पुण्य भूमि नहीं।

  • वीर सावरकर १८५७ में हुए सैन्य विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहां था और इस में मारे गए सैनिकों को शहीद का दर्जा दिया था लेकिन कांग्रेस के लोग इसे पसंद नहीं करते थे कांग्रेस के अनुसार यह केवल सैनिक विद्रोह था जिसे अंग्रेजों ने कुचल दिया था .

  • हकीकत यह है कि अंग्रेज भारतीय क्रांतिकारियों से बहुत डरते थे और अट्ठारह सौ सत्तावन की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इसलिए 1885 में ए ओ ह्यूम नाम के एक अंग्रेज से जो उस समय इटावा के कलेक्टर हुआ करते थे कांग्रेस की स्थापना स्वयं अंग्रेजी शासन नहीं कराई थी.

  • इतिहासकार और लेखक विक्रम संपथ की किताब “सावरकर - इकोज फॉर्म फॉरगगोटिन पास्ट” ( Savarkar - Echos from forgotten past) में लिखते हैं की कांग्रेसका उद्देश्य भारत को स्वतंत्रता दिलाना हरगिज़ भी नहीं था कांग्रेस की स्थापना करने का मतलब था कि सावरकर जैसे बुद्धिजीवी क्रांतिकारियों को भारत की सोच सामान्य जनमानस को प्रभावित न करने पाए. संपथ ने इस किताब में वीर सावरकर के जीवन से जुड़ी अनेक अनसुनी बातें बताई हैं.

  • आजादी के बाद ज्यादातर शासन करने वाली कांग्रेस के समय हमेशा प्रयास किया गया की देशभक्ति का पाठ पढ़ाने वाले देश के असली नायकों को इतिहास से बाहर कर दिया जाए ताकि आगे की पीढ़ियों उनके नाम भी ना जान सके .

  • अक्तूबर, 1906 में लंदन में मोहनदास करमचंद गांधी को अपने यहाँ खाने पर बुला रखा था ( जो उस समय महात्मा गांधी नहीं थे ) जो दक्षिण अफ़्रीका में रह रहे भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय के प्रति दुनिया का ध्यान आकृष्ट कराने लंदन आए हुए थे.

    • उन्होंने सावरकर से कहा कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उनकी रणनीति ज़रूरत से ज़्यादा आक्रामक है. दोनों के बीच कुछ ऐसा हुआ कि गांधी बिना खाए हे चले गए .

  • १९०९ वीर सावरकर ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम था द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस, जिसमें उन्होंने 1857 में हुए स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम आंदोलन का विस्तार से वर्णन किया था. अंग्रेज इस किताब से इतना डरे हुए थे कि उन्हें इस किताब को प्रतिबंधित कर दिया.

  • प्रखर हिंदूवादी होने के कारण मार्क्सवादी राजनीतिज्ञों, विश्लेषकों व इतिहासकारों ने हमेशा उनकी आलोचना की और उनकी स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को लेकर भी लगातार सवाल उठाए और सावरकर को नाज़ीवाद व फासीवाद से जोड़ने की भी भरपूर कोशिश की.

  • लेकिन भारत के वामपंथियों का ढोंग ही कहा जाएगा क्योंकि एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि कार्ल मार्क्स के पोते लोंगुएट ने हिंदुत्व के पुरोधा सावरकर का एक अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में में न केवल बचाव किया था बल्कि उनके व्यक्तित्व और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भूमिका की जबरदस्त प्रशंसा भी की थी.

    • यद्दपि वह सावरकर को बचा नहीं सके और फैसला अंग्रेजों के पक्ष में गया. जिसके कारण 1911 में वीर सावरकर को काले पानी की सजा सुनाई गई और उन्हें अंडमान की सेल्यूलर जेल में भेज दिया गया.

  • उन्हें 25-25 साल की दो अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं . उन्हें 698 कमरों की सेल्युलर जेल में 13.5 गुणा 7.5 फ़ीट की कोठरी नंबर 52 में रखा गया.

  • मैं जब स्वयं इस सेलुलर जेल और सावरकर की कोठरी के दर्शनार्थ पहुंचा तो विश्वास करिए आपके आंसू आ जायेंगे .

    • इस छोटी सी कोठी में ही उन्हें लघु शंका से निवृत होना पड़ता था जिसके लिए मिट्टी का एक बर्तन रखा रहता था और जरूरत पड़ने पर उन्हें दीर्घ शंका भी वही करनी पड़ती थी. हथकड़ी और बेड़ियों से जकड़ा व्यक्ति तो बैठ भी नहीं सकता था. सभी कैदियों का जीवन नर्क से भी बदतर था.

( सेलुलर जेल और वह कोठरी जहां सावरकर को रखा गया था- मेरे द्वारा स्वयं ली गई फोटो)

अंडमान में सरकारी अफ़सर बग्घी में चलते थे और राजनीतिक कैदी इन बग्घियों को खींचा करते थे. उन्हें कोनों में बैल की जगह जूता जाता था जहां पर नारियल से तेल निकालने का काम उनसे कराया जाता था.

(सेलुलर जेल के अंदर बना तेल निकालने का कोल्हू जिसमें सावरकर को बैल की तरह जोता जाता था - मेरे द्वारा स्वयं ली गई फोटो )

( सेलुलर जेल के अंदर बना शहीद स्मारक- मेरे द्वारा स्वयं ली गई फोटो )

जेल में बिताए अपने अनुभवों के आधार पर सावरकर ने एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक है “मेरा आजीवन कारावास” जिसमें जेल में उन्हें दी गई यातनाओं का बहुत लोम हर्षक वर्णन किया गया है.

दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने सेलुलर जेल के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा।

वर्ष 1949 में सावरकर पर गांधी हत्याकांड में शामिल होने का आरोप लगा था और उन्हें इस आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन सबूतों के अभाव में अदालत द्वारा उन्हें बरी कर दिया गया था।

26 फरवरी 1966 को भारत के इस महान क्रांतिकारी का निधन हुआ। उनका संपूर्ण जीवन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हुए ही बीता। वीर सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी एवं प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे।

कांग्रेस ने अपने शासनकाल में वीर सावरकर के नाम को हमेशा बदनामी के गर्त दबाने की कोशिश की. जनता पार्टी के शासन काल में अंडमान के पोर्ट ब्लेयर स्थित सेलुलर जेल को स्वतंत्रता सेनानियों का स्मारक बनाया गया.

( सिग्नल जेल के अंदर लगा पत्थर - फोटो मेरे द्वारा स्वयं ली गई )

वर्ष 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्पति केआर नारायणन के पास सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया था.

उन्हें भारत रत्न देने की मांग यदा-कदा चलती रहती है यदि अब उन्हें भारत रत्न दिया जाता है तो शायद कोई और नहीं है लेकिन मेरा मानना है वीर सावरकर का जो स्थान है सभी देश भक्ति भारतीयों के हृदय में है उसके लिए भारत रत्न कोई बात नहीं रखता है हां यदि भारत रत्न दिया जाता है तो निश्चित रूप से भारत रखती ही गौरवान्वित होगा.

References - [1] [2] [3]

फुटनोट

[1] मार्क्स के पोते ने की थी सावरकर की पैरवी, भारत के मार्क्सवादियों द्वारा उनका विरोध कितना तर्कसंगत

[2] तो ऐसे विनायक दामोदर सावरकर के नाम के आगे लग गया था 'वीर'

[3] वीर सावरकर : स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी नेता। Vinayak Damodar Savarkar

बुधवार, 26 मई 2021

रजाकार कौन थे और निजाम के शासन में उनके क्या कार्यकलाप थे?

 रजाकार  निजाम  शासन में हिन्दुओं के नृशंस हत्यारे ! 

( रजाकार दस्ता )

रजाकार कट्टरपंथी मुस्लिमों का हथियारबंद संगठन था जो हैदराबाद में निजाम के शासन के दौरान हिंदुओं पर अत्याचार करके उन्हें मुस्लिम बनने पर मजबूर करता था. यह नृशंस हत्यारों का समूह था जो निजाम के इशारे पर हैदराबाद में काफिरों के सफाये में संलग्न था. इसे उत्तर प्रदेश में जन्मे और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से शिक्षा पाए कासिम रिजवी ने बनाया था. इस संगठन ने हैदराबाद में लाखों हिंदुओं का कत्ल किया, जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं.

यह हथियारबंद रजाकार संगठन हिंदू गांवों पर आक्रमण करता था, लूटपाट करता था, महिलाओं के साथ बलात्कार करता था. पुरुषों और बच्चों के मौत के घाट उतार देता था

यह बात उल्लेखनीय है कि असदुद्दीन ओवैसी इसी नृशंस रजाकारों के वंशज हैं.

निजाम को क्यों जरूरत पड़ी रजाकार संगठन की ?

निजाम को हिंदुओं के विरुद्ध बनाए गए कानूनों को सख्ती से लागू करने और न मानने वाले लोगों को मौके पर ही दंडित करने के लिए एक संगठन की जरूरत थी जिसके लिए रजाकार संगठन बनाया गया.

हिंदुओं के विरुद्ध निजाम के प्रतिबंध

  • निजाम सरकार के एक फरमान जिसे गस्ती निशान 53 यानी सरकारी आदेश संख्या 53 के द्वारा हिंदुओं को सार्वजनिक रूप से पूजा अर्चना करने की अनुमति नहीं थी.
  • हिंदू अपने देवी-देवताओं की शोभायात्रा निकालने की सोच भी नहीं सकते थे. मंदिरों पर पाबंदी थी. हिंदुओं की कोई भी धार्मिक सभा आयोजित नहीं की जा सकती थी. यहां तक कि हिंदू कोई भी सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं कर सकते थे चाहे वह गैर धार्मिक ही क्यों न हो .
  • कभी कभी रात के अंधेरे में चार छह हिंदू लोग मिलकर अपने घरों में बहुत धीमे-धीमे स्वरों में पूजा कथा और भजन कीर्तन कर लेते थे. अगर इसकी भनक रजाकार संगठन को लग जाती थी तो उस पूरे मोहल्ले को सजा दी जाती थी, जिसमें मौके पर ही उनकी हत्या करना भी शामिल था.
  • हिंदुओं के किसी भी धार्मिक आयोजन जैसे रामलीला, यक्षगान, कथा भागवत आदि पर पूरी तरह से प्रतिबंध था.
  • अगर कोई हवन यज्ञ करता हुआ पाया जाता था तो उसे तुरंत मौत के घाट उतार दिया जाता था.
    • निजामाबाद के एक युवक राधा कृष्ण मोदानी ने यज्ञ और हवन पर निजाम के प्रतिबंध का विरोध करते हुए बाजार में सार्वजनिक रूप से यज्ञ का आयोजन किया. रजाकार संगठन ने यज्ञ करते हुए ही राधा-कृष्ण गोदानी का कत्ल कर दिया. निजामाबाद के इस मुख्य बाजार को हिंदुओं ने राधा-कृष्ण गंज का नाम दिया था जो आज भी प्रचलित है.
  • भैरनपल्ली नाम के गांव में रजाकारों द्वारा 200 हिंदुओं को शांति वार्ता के लिए बुलाया गया और वहीं पर उन सभी को कत्ल कर दिया गया.
    • इसी तरह चिंतडपल्ली में स्वाधीनता सेनानियों को वार्ता के लिए बुलाया गया और सभी को मौत के घाट उतार दिया गया.
    • इस तरह के अनेक गांव हैं, जहां रजाकारों ने जाकर पूरे के पूरे गांव को जमींदोज कर दिया, पुरुषों और बच्चों की हत्या कर दी महिलाओं के साथ बलात्कार किया और उन्हें अपने साथ ले गए.
  • राज्य में हिन्दी, तेलुगु और मराठी पर पूरी तरह प्रतिबंध था और कोई भी स्कूल हिंदी, तेलुगु या मराठी माध्यम से पढ़ाई नहीं कर सकते थे.
    • स्कूलों कॉलेजों में हिंदुओं को भारतीय परिधान पहनने की अनुमति नहीं थी उन्हें मुस्लिम रिवाज और शरीयत के अनुसार ही कपड़े पहनने पढ़ते थे.
  • निजाम के शासनकाल में एक स्लोगन चलता था “अनअल मालिक” यानी (I am the Ruler) मैं शासक हूं और हर मुस्लिम हिन्दुओं से यही कहता था और अपने आप को निजाम समझता था.
  • भारत का दुर्भाग्य देखिए कि जिन पी वी नरसिम्हा राव ने निजाम शासन के विरुद्ध हैदराबाद के उस्मानिया यूनिवर्सिटी में धोती आंदोलन शुरू किया था, वह जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने आंध्र प्रदेश के आर्कियोलॉजिकल विभाग से हैदराबाद की इतिहास के चार वॉल्यूम प्रकाशित करवाएं जिसमें दो वॉल्यूम सिर्फ निजाम शासन से संबंधित हैं लेकिन 800 पेज के इन दोनों वॉल्यूम में रजाकार संगठन का कोई जिक्र नहीं है.
    • आसानी से समझा जा सकता है की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने वोटों की खातिर इतिहास को भी बदल डाला.
    • आज तेलंगाना, हैदराबाद और आंध्र प्रदेश के लोग अपना वास्तविक इतिहास खोज रहे हैं.
    • इंटरनेट मीडिया पर मजलिस और निजाम शासन के गुणगान करने वाला इतिहास मिलेंगे यहां तक कि तत्कालीन कांग्रेसी सरकारों की सहमति से कुछ लोगों ने रजाकार संगठन के कासिम रिजवी को स्वतंत्रता सेनानी भी घोषित कर दिया है और इससे सम्बंधित कई झूठी और फरेबी वीडियो यूट्यूब और गूगल सर्च में मिल जाएंगे.

( हैदराबाद से हिन्दुओ का पलायन )

हैदराबाद का ऑपरेशन पोलो :

  • निजाम ने हैदराबाद के भारत में विलय से आनाकानी की, और इसे या तो पाकिस्तान में मिलाने या स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र बनाने की कोशिश की. इसके लिए उसने अपनी सेना और रजाकार संगठन को विरोध करने के लिए आगे कर दिया. इस विरोध को जिन्ना का भी समर्थन प्राप्त था जिन्होंने पाकिस्तान का बॉर्डर बंद कर दिया था और पाकिस्तान जाने की इच्छा रखने वाले वाले सभी मुसलमानों से कहा था कि वह हैदराबाद में जाकर आबाद हो.  
  • अपने इरादे से अटल सरदार पटेल को हैदराबाद के विलय के लिए ऑपरेशन पोलो चलाना पड़ा. बताया जाता है कि कुछ गांव ऐसे थे जो पूर्णरूपेण रजाकारों के ही गांव थे, जहां भारतीय सेना और पुलिस पर जबरदस्त आक्रमण किए गए लेकिन इसमें निजाम की सेना और रजाकार संगठन को भारी क्षति पहुंची.  
  • विडंबना देखिए जब रजाकार सेना हिंदुओं पर अत्याचार करती थी तो कहा जाता था कि यह चंद भटके हुए लोगों का संगठन है लेकिन ऑपरेशन पोलो में मारे गए यह भटके हुए रजाकार अचानक मुस्लिम हो गए, जिनकी की मौत पर नेहरू जी बहुत दुखी हुए और उन्होंने एक तीन सदस्य गुडविल मिशन हैदराबाद भेजा जिसकी अध्यक्षता पंडित सुंदरलाल कर रहे थे और इसके अन्य सदस्य थे काजी अब्दुल गफ्फार और मौलाना अब्दुल्लाह मिसरी.  
  • अफवाह उड़ाई गई कि ऑपरेशन पोलो में 50 हजार से 2 लाख के बीच मुस्लिमों की हत्या कर दी गई है ताकि सरदार पटेल को नीचा दिखाया जा सके और उनकी लोकप्रियता को कम किया जा सके. यद्यपि गुडविल मिशन न तो कोई आयोग था और ना ही कोई कमेटी इसलिए इसे रिपोर्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं थी लेकिन सरदार पटेल को नीचा दिखाने के लिए नेहरू ने दबाव बनाकर इन सदस्यों से एक रिपोर्ट बनवाई ताकि तथाकथित मुस्लिम नरसंहार की कहानी सामने लाई जा सके. अन्य कांग्रेसी मंत्रियों के विरोध के कारण इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया जिसके कारण गलतफहमी और बढ़ती गई लेकिन यह रिपोर्ट आज भी इंटरनेट मीडिया पर धड़ल्ले से उपलब्ध है.  

      (The Nizam of Hyderabad receiving Sardar Patel after Operation Polo at Begum pet Airport

      कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए हैदराबाद का इतिहास इस तरह बदल डाला कि हिंदुओं की नई पीढ़ी के लोगों को इन राजाकारों के बारे में सही जानकारी मिल सके. हैदराबाद के राका सुधाकर राव जैसे समाजसेवी इस दिशा में अथक प्रयास कर रहें हैं . [1]

      आज रजा कारों की उत्तराधिकारी ए आई एम आई एम (ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लिमीन), जिसके नेता असदुद्दीन ओवैसी हैं, से टीआरएस और कांग्रेस दोनों ही गठबंधन के लिए उतावले रहते हैं .

      शायद आज भी हिंदुओं के इस देश में, एक हजार साल की गुलामी के अत्याचारों को सहते हुए अपनी अस्मिता और धार्मिक रक्षा करके आज जो हिंदू शेष है, उनकी सुनने वाला कोई भी नहीं है.

                                      ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

       

      References

      [1] Who were the Razakars and what were their activities under the Nizam's rule?

      [2] https://www.youtube.com/watch?v=7b3PUCmCSFs&t=1157s

      [3] https://indusscrolls.com/how-hyderabad-nizams-beastly-army-unleashed-a-reign-of-terror-on-hindus/

      [4] https://www.youtube.com/watch?v=ohqIiuLw8CI

      [5] Unaccounted reports of Hindu genocide under the Nizam of Hyderabad

      [6] https://www.youtube.com/watch?v=_1TSsytza-8

      [7] https://www.youtube.com/watch?v=ARe5cH_wc5s

      [8] Survivor of Razakars’ brutality reminisces

      फुटनोट

      ~~~~~~~~~~~~~~~

               -शिव मिश्रा 

      ~~~~~~~~~~~~~~~


      पी वी नरसिम्हाराव का धोती आन्दोलन

       


      पीवी नरसिम्हा राव का धोती आंदोलन क्या था और इसकी उन्हें क्या सजा मिली थी?

      हैदराबाद में निजाम के शासन काल में हिंदुओं पर तरह तरह की पाबंदियां लगाई गई थी. हिंदुओं की पूजा और मंदिरों पर प्रतिबंध था. सभी हिंदुओं को फर्शी सलाम करना पड़ता था ( झुक कर सलाम करना जिसमें हाथ जमीन से छूता रहें).[1]

      हिंदी मराठी और तेलुगू भाषाओं पर प्रतिबंध था किसी भी स्कूल कॉलेज में यह भाषाएं नहीं पढ़ाई जाती थी. तत्कालीन हैदराबाद रियासत में केवल निजाम कॉलेज और उस्मानिया यूनिवर्सिटी ही थे. जहाँ हिंदू छात्रों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार किया जाता था. उनके लिए छात्रावास अलग थे और उन्हें विश्वविद्यालय या छात्रावास में कहीं पर भी भारतीय परिधान पहनने की छूट नहीं थी. उन्हें मुस्लिम पोशाक या शरीयत के अनुसार पोशाक पहननी पड़ती थी. छात्रावास के अंदर भी भारतीय धोती पहनने पर प्रतिबंध था.

      इसके विरोध में छात्रों ने उस्मानिया यूनिवर्सिटी में 15 दिन तक आंदोलन किया और इस आंदोलन का नेतृत्व किया पीवी नरसिम्हा राव ने, इस आंदोलन को धोती आंदोलन कहा जाता है.

      इस आंदोलन के कारण पीवी नरसिम्हाराव सहित लगभग 242 छात्रों को उस्मानिया से निष्कासित कर दिया गया. उस्मानिया यूनिवर्सिटी द्वारा देश के सभी विश्वविद्यालयों को पत्र भेजा गया कि इन छात्रों को प्रवेश न दिया जाए. किंतु महाराष्ट्र के नागपुर विश्वविद्यालय ने इन सभी 242 छात्रों को अपने यहां न केवल प्रवेश दिया बल्कि पढ़ाई की सारी सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जिसके कारण इन छात्रों की पढ़ाई पूरी कर सके.

      निजाम के शासनकाल में यह अपनी तरह का पहला आंदोलन था जिसने बाद में निजाम शासन के विरुद्ध आंदोलन करने का रास्ता खोल दिया. स्वतंत्रता के बाद जब निजाम ने भारत में विलय से आनाकानी की तो इस आंदोलन से प्रेरित बहुत से लोगों ने निजाम के विरुद्ध जनादेश बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.

      ~~~~~~~~~~~~~~~~

      - शिव मिश्रा

      ~~~~~~~~~~~~~~~~


      मंगलवार, 25 मई 2021

      26 मई २०२१, को है सुपर मून और इसे कहा जा रहा है सुपर ब्लड मून

       

      क्या होता है सुपरमून ?

      पृथ्वी की चंद्रमा से दूरी 384400 किलोमीटर मानी जाती है तथा चन्द्रमा के पृथ्वी के चक्कर लगाने के कारण इसकी पृथ्वी से सबसे ज्यादा दूर होने पर ये दूरी लगभग 405696 किलोमीटर मानी जाती है। इस स्थिति को अपोगी कहते हैं।

      इसके ठीक विपरीत चंद्रमा के पृथ्वी के सबसे ज्यादा करीब होने की स्थिति को पेरिगी कहते हैं जिसमें पृथ्वी और चंद्रमा की बीच की दूरी लगभग 357000 किलोमीटर रह जाती है। यदि चंद्रमा के पेरिगी की स्थिति में पूर्णिमा पड़ती है तो सुपरमून दिखाई देता है।यानी जब चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक होता है तो उस समय पृथ्वी वासियों को इसका आकार बड़ा दिखाई पड़ता है और इसकी चमक भी अधिक दिखाई पड़ती है.

      26 मई २०२१ को चंद्रमा सामान्य दिनों के मुकाबले करीब 7 % अधिक बड़ा दिखाई देगा। आकार के अलावा इसकी चमक भी आम दिनों की तुलना में करीब 16 % अधिक होगी। इस दिन चंद्रमा धरती के सबसे करीब होगा। वर्ष में न्यूनतम 12 पूर्णिमा पड़ती हैं। कभी-कभी 13 पूर्णिमा भी होती हैं। मगर ऐसा कम ही होता है कि पेरीगी की स्थिति में पूर्णिमा भी पड़े। अतः यह एक खास घटना है। इस दिन सुपरमून का नजारा देखा जा सकता है।

      इस बार एक खास बात ये है कि लॉकडाउन के कारण मौसम साफ है और इस कारण यह ज्यादा साफ और अच्छा देखा जा सकेगा.

      26 मई २०२१ को दोपहर 01.53 पर चंद्रमा पृथ्वी के सबसे ज्यादा करीब होगा। इस समय चंद्रमा की पृथ्वी से दूरी मात्र 357309 किलोमीटर रह जाएगी। चंद्रमा की ये स्थिति पेरिगी की स्थिति कहलाती है और इस स्थिति से चन्द्रमा हमें काफी बड़ा दिखना शुरू हो जाएगा। मगर सुपर मून देखने के लिए हमें सूर्यास्त का इंतजार करना होगा क्योंकि पूर्णिमा की स्थिति 26 मई को ही दोपहर 4.44 पर हमें प्राप्त होगी जबकि चंद्रमा शाम लगभग 06.54 पर उदय होगा। ऐसे में सूर्यास्त के साथ ही हम सब इस सुपर मून के अद्भुद नजारे का पूरी रात अवलोकन कर सकेंगे।

      क्यों कहां जा रहा है इसे सुपर ब्लड मून ?

      चंद्र ग्रहण के दौरान चांद पृथ्वी की छाया में चला जाता है. इसी दौरान कई बार चांद पूरी तरह लाल भी दिखाई देगा. इसे ब्लड मून कहते हैं.

      नासा के मुताबिक सूरज की किरणें धरती के वातावरण में घुसने के बाद मुड़ती हैं और फैलती हैं. नीला या वायलेट रंग, लाल या नारंगी रंग के मुकाबले अधिक फैलता है. इसलिए आकाश का रंग नीला दिखता है. लाल रंग सीधी दिशा में आगे बढ़ता है, इसलिए वो हमें सूर्योदय और सूर्यास्त के वक्त ही दिखाई देता है. उस वक्त सूर्य की किरणें धरती के वातावरण की एक मोटी परत को पार कर हमारी आंखों तक पहुंच रही होतीं हैं.

      क्या भारत में दिखेगा ब्लड मून?

      नहीं, भारत के ज़्यादातर हिस्सों के लिए पूर्ण ग्रहण के दौरान चंद्रमा पूर्वी क्षितिज से नीचे होगा और इसलिए देश के लोग ब्लड मून नहीं देख पाएंगे. लेकिन कुछ हिस्सों में, ज्यादातर पूर्वी भारत के लोग केवल आंशिक चंद्र ग्रहण के अंतिम क्षणों के देख सकेंगे. दिल्ली, मुंबई, चेन्नई समेत देश के ज़्यादातर हिस्सों में लोग ग्रहण नहीं देख पाएंगे



      बुधवार, 19 मई 2021

      हिन्दू गुलाम क्यों हुआ ?

       अब तक का महत्वपूर्ण परन्तु अनुत्तरित प्रश्न: हिंदू गुलाम क्यों हुआ?

      यह बहुत ही अच्छा प्रश्न है और इस तरह के प्रश्न प्राय: अनेक संगोष्ठियों में और अन्य अवसरों पर उठाया जाता है . अक्सर लोग लोक कथाओं और अन्य दृष्टांतों के माध्यम से दार्शनिक भाव में बताने की कोशिश करते हैं, जो उचित भी है किंतु उनमें कोई भी इस प्रश्न का सही और सटीक जवाब देकर मुझे संतुष्ट नहीं कर पाया. पहली बार जब मैंने स्वर्गीय राजीव भाई दीक्षित जी का एक भाषण सुना, जिसमें उन्होंने इस पहलू को काफी हद तक छुआ था और उसे मैं बहुत प्रभावित हुआ था.

      इस प्रश्न का उत्तर और उसके के पीछे छिपी उत्कंठा और कसमसाहट समझने के लिए हमें सनातन धर्म की मूल भावना को समझना होगा और भारतवर्ष की प्राचीन आध्यात्मिक और धार्मिक विकास यात्रा को भी ध्यान में रखना होगा.

      भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता है और इसलिए सांस्कृतिक आध्यात्मिक और धार्मिक रूप से आज भी विश्व में सबसे समृद्ध है. सनातन धर्म में साधना / तपस्या सत्कर्म द्वारा मोक्ष प्राप्त करना जीवन का प्रमुख उद्देश्य माना जाता है. जिस संस्कृति में नदी, समुद्र, पहाड़, वृक्ष, गाय, सिंह, सांप आदि प्रकृति के सभी रूपों की पूजा की जाती हो, अहिंसा धर्म का अभिन्न हिस्सा हो, राह चलते चींटी भी धोखे से न कुचल जाए, इसका ध्यान रखा जाता हो, ऐसी संस्कृति और धर्म में सत्कर्म, शांति, सहिष्णुता और मानवीय मूल्यों का स्थान कितना ऊंचा होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है.

      लेकिन इसके बाद भी शासक और सम्राट “अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च” का पालन करते थे. इस श्लोक का भावार्थ है कि अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं और जब जब धर्म पर आंच आये तो उस धर्म की रक्षा करने के लिए की गई हिंसा उससे भी बड़ा धर्म हैं।

      दुर्भाग्य से कालांतर में विभिन्न कारणों से हमें केवल “ अहिंसा परमो धर्म:” ही याद कराया गया और इस कारण राष्ट्र और धर्म की रक्षा करने के लिए भी हम अहिंसक नहीं हो सके. आधुनिक युग के बदलते परिवेश में ऐसा माना जाता है कि जो जितना बड़ा हिंसक होता है वह उतना ही शक्तिशाली माना जाता है. इसलिए अहिंसक तो कमजोर ही होगा और फिर गुलाम होना उसकी नियति बन जाएगी.

      आइए इसे विस्तार से समझते हैं .

      त्रेता में अयोध्या के राजा श्री राम का राजधर्म आज तक पूरे विश्व के लिए उदाहरण है, जिसे राम राज्य कहा जाता है और जिसमें उन्होंने अपने मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप का उदाहरण मानव जाति के सम्मुख प्रस्तुत किया था . इतना सब करते हुए भी आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने राक्षसों का संहार किया और धर्म तथा राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा के लिए हिंसा करने से पीछे नहीं हटे.

      द्वापर में श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए के लिए युद्ध को उचित भी ठहराया और बेहिचक स्वीकार भी किया. भर के लोगों के लिए यह बहुत बड़ा संदेश था लेकिन यहां के लोगों ने 5 हजार वर्ष बाद ही भूलना शुरु कर दिया.

      जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उदय के बाद किसी भी तरह की हिंसा को अनुचित माना जाने लगा. लोगों को सांसारिक सुखों से विरत होकर त्याग और सादगी अपनाने पर जोर दिया गया . इसका व्यापक प्रभाव जनमानस पर हुआ उन्हें शांति और सद्भावना पूर्ण जीवन मिला और लोग अहिंसक होते चले गए.

      जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव में आकर कई राजाओं ने भी इसे अपना लिया और और वे युद्ध से विरत रहने लगे. इसका परिणाम यह हुआ, कि सैन्य बल भी कमजोर हुआ और रक्षा क्षेत्र में नए हथियारों और उपकरणों का विकास लगभग पूरी तरह से बंद हो गया.

      प्राचीन काल में भारत का साम्राज्य पूरे जंबूद्वीप में था, चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में चाणक्य की राष्ट्रनीति के कारण अफगानिस्तान, ईरान और अरब उसके साम्राज्य का हिस्सा था, जो सम्राट अशोक के शासनकाल तक ज्यों का त्यों रहा.

      महाराजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। भारत के वामपंथी और इस्लामिक इतिहासकारों ने तो भारत के इतिहास को पूरी तरह से विकृत कर दिया है. इससे अच्छा और विश्वसनीय वर्णन तो विदेशी इतिहासकारों ने किया है. विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है कि उस समय उनका शासन अरब और मिश्र तक तक फैला था। संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है

      मगध के प्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य अपने अंतिम दिनों में जैन हो गए थे और उन्होंने पूरी तरह से हिंसा का परित्याग कर दिया था. उनके पौत्र अशोक महान भारतीय इतिहास का एकमात्र ऐसा सम्राट था जिस के शासनकाल में किसी भी विदेशी आक्रांता ने भारत की तरफ आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं की थी, लेकिन वह कलिंग युद्ध की भीषण मारकाट और नरसंहार से इतना दुखी हुए कि उन्होंने भी बौद्ध धर्म अपना लिया और राज्य के सैन्य बल और सीमाओं के रक्षण पर ध्यान दिया जाना लगभग बंद हो गया . उनका पूरा ध्यान बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार पर था उन्होंने अपने बेटे और बेटी को भी इसी काम पर लगा दिया और बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिए बौद्ध भिक्षु के रूप में उन्हें अनेक देशों में भेजा गया.

      कहते हैं कि “यथा राजा तथा प्रजा” . प्रजा भी अपना पौरुष भूलती जा रही थी, सेना में भर्ती न होने के कारण नव युवकों में देशभक्ति की भावना भी कम हो रही थी और शारीरिक सौष्ठव प्राथमिकता में नहीं था. भारत की अहिंसक प्रवृत्ति और कमजोर रक्षा तंत्र पर विदेशियों की नजर थी और इसका फायदा उठाते हुए मोहम्मद बिन कासिम ने भारत पर पहला आक्रमण किया यद्यपि उसका इरादा सिर्फ लूटपाट करना था, सत्ता स्थापित करना नहीं .

      अफगानिस्तान सभी लोग बौद्ध धर्मावलंबी थे, उन्हें पराजित करने और लूटने में इन विदेशी आक्रांताओं को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी. इसके बाद विदेशी लुटेरों का अनवरत क्रम शुरू हो गया. महमूद गजनवी ने 17 बार सोमनाथ मंदिर को लूटा और यहां के अनेक मंदिरों को तोड़ा संपत्तियां लूटी, भारत के राजघरानों में जमा अकूत धन-दौलत लूटी और वापस चला गया. वह इतनी बार भारत में लूटने के इरादे से आया लेकिन एक बार भी भारतीय राजाओं ने एक होकर उसे मुंह तोड़ जवाब नहीं दिया .

      इससे भारत की कमजोरी बुरी तरह से उजागर हो गई थी और इसके बाद तो जैसे विदेशी आक्रमणों का न खत्म होने वाला सिलसिला शुरू हो गया .

      मोहम्मद गोरी ने भी वही किया. पृथ्वीराज चौहान ने उसे कई बार हराया और वह हार कर वापस चला जाता रहा लेकिन पृथ्वीराज चौहान सहित भारत के किसी भी राजा ने उसका पीछा करके उसे सदा सर्वदा के लिए समाप्त करने की कोशिश नहीं की. इसका परिणाम यह हुआ कि तराइन के युद्ध में उसने पृथ्वीराज चौहान को उसके एक रिश्तेदार और कन्नौज के राजा जयचंद की सहायता से पराजित कर दिया.

      पृथ्वीराज चौहान की आंखें फोड़ दी गई और उसे बंदी बनाकर घसीटते हुए ले गया. यहां तक कि अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जिस की दरगाह पर हजारों हिंदू प्रतिवर्ष चादर चढ़ाने जाते हैं, के आदेश के अनुसार उसकी पत्नी संयोगिता को नग्न करके मोहम्मद गौरी के बहसी सैनिकों को दुष्कर्म के लिए सौंप दिया गया. किसी भी भारतीय राजा ने प्रतिरोध नहीं किया यहां तक कि कन्नौज के राजा जयचंद ने भी नहीं जबकि पृथ्वीराज चौहान की पत्नी संयोगिता उसकी बेटी थी. गोरी ने बाद में जयचंद को भी हराया और उसके पुत्र  की भी बहुत निर्मलता से हत्या कर दी थी.

      भारतीय राजा आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सदैव तत्पर रहते थे और इसके लिए उन्हें अगर शत्रु की सहायता भी करनी पड़ जाए तो करते थे.

      भारतीय समाज भी वर्ण और जातियों में बुरी तरह विभाजित था. देश की रक्षा करने का दायित्व केवल क्षत्रिय समुदाय पर था जिसकी जनसंख्या बहुत कम थी . धीरे-धीरे समस्त उत्तर भारत पर आक्रांताओं ने कब्जा किया और यहां पर सत्ता स्थापित कर ली.

      बंगाल राज्य के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और बहुत थोड़े से सैनिकों की मदद से बिना किसी प्रतिरोध के मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अपना शासन स्थापित कर लिया था . 1757 में इतिहास ने फिर एक बार अपने आप को दोहराया और ईस्ट इंडिया कंपनी के मात्र 300 सैनिकों ने प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला की अट्ठारह हजार सैनिकों की विशाल सेना को मीर जाफर की सहायता से हरा दिया. अंग्रेजों के इन 300 सैनिकों ने 18000 हजार भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया और सड़क के रास्ते से बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद ले गए. रास्ते के दोनों ओर भारी भीड़ तमाशा देखने के लिए उमड़ पड़ी, किसी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया .

      क्लाइव लायड ने अपने संस्मरण में लिखा है कि उस समय वहां उपस्थित जनसमूह ने अगर एक छोटा कंकण भी फेंक दिया होता तो अंग्रेजों का भारत से अस्तित्व ही खत्म हो गया होता. इसी कायरता, बुजदिली, समझौता वादी स्वभाव और आपसी मतभेदों के कारण भारत में पहले मुस्लिम आक्रांताओं और लुटेरों ने सत्ता स्थापित की और बाद में भारत पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया .

      थोड़े से अंग्रेजों ने भारतीय मूल के सैनिकों और भारतीय मूल के सरकारी कर्मचारियों की मदद से 200 वर्ष तक भारत पर शासन किया. भारतीयों ने ही भारतीयों पर अत्याचार किए. विश्व इतिहास में ऐसा कहीं भी देखने में नहीं आता कि उस देश की बहुसंख्यक जनता ने कभी प्रतिरोध न किया हो.

      हांगकांग जैसे छोटे से देश के लोग आज भी भारतीयों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते क्योंकि कुछ हजार अंग्रेजों ने करोड़ों भारतीयों पर शासन किया और भारतीयों ने ही भारतीयों पर अत्याचार किए, यातनाएं दी. भारत के विपरीत हांगकांग के मूल निवासियों ने अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने से साफ इंकार कर दिया था वहां के मूल निवासी न तो कभी सेना या पुलिस में शामिल हुए और न ही कभी सरकारी कर्मचारी बने क्योंकि वह अपनों पर अत्याचार नहीं कर सकते थे.

      अंग्रेजों ने साम दाम दंड भेद की नीति अपनाई और भारतीयों द्वारा किसी भी संभावित प्रतिरोध से बचने के लिए स्वयं ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करवाई जिसका प्रचारित उद्देश्य भारत की जनता को आजादी दिलाना था लेकिन असली उद्देश्य भारत में अगले 100 साल तक और शासन करना था . अपने मिशन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों ने गांधी जी को भी दक्षिण अफ्रीका, से हिंदुस्तान बुला लिया क्योंकि अंग्रेज दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा अंग्रेजी सत्ता की सहायता करने से अत्यंत प्रभावित थे.

      गांधीजी के आने के बाद भारत में भी अहिंसा का दक्षिण अफ्रीकी प्रयोग शुरू हो गया जिसकी अंग्रेजों को अत्यंत आवश्यकता थी.

      1885 में कांग्रेस की स्थापना के 61 वर्ष बाद 1947 में भारत को आजादी नसीब हो सकी, इसलिए नहीं कि कांग्रेस ने बहुत जोरदार आंदोलन चलाएं बल्कि इसलिए कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गई थी, और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय कारणों से वह भारत में शासन जारी रखने की स्थिति में नहीं थे. अगर द्वितीय विश्व युद्ध नहीं हुआ होता तो अंग्रेज कांग्रेस और गांधीजी की सहायता से शायद आज भी शासन कर रहे होते.

      निष्कर्ष :

      • हिंदू ही क्यों ? भारत राष्ट्र क्यों गुलाम हुआ ? क्या अब भी यह समझना बहुत मुश्किल है?
      • सनातन धर्म की अति शन्तिप्रियता, नैतिकता, सदाचार, जैन और बौद्ध धर्म की अहिंसा और त्याग की भावना ने हिंदुओं के साहस और वीरता को इतना गहरा आघात पहुंचाया जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती. आज भी किसी हिंदू के घर में सब्जी काटने वाले चाकू के अलावा शायद ही कोई हथियार मिले.
      • वर्णों और जातियों में विभाजित हिंदू समाज कभी एकजुट होकर आक्रांताओं का मुकाबला नहीं कर सका और आपस की इस फूट ने आक्रांताओं का काम आसान कर दिया.
      • हमने इतिहास से भी कुछ नहीं सीखा. सीखना क्या हमने तो सही इतिहास लिखना भी नहीं सीखा. राष्ट्र विरोधी इतिहासकार रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब के अनुसार भारत केवल अंग्रेजों का गुलाम हुआ था जैसे मुस्लिम आक्रान्ताओं को भारत ने स्वयं आप्मंत्रित करके सत्ता सौपी थी.

      • हिंदू समाज में आज भी वही सब कारक पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक स्थिति में विद्यमान हैं, हमने समाज के रूप में कुछ भी नहीं सीखा है. हम आज भी मानसिक रूप से गुलाम ही हैं और शायद यह गुलामी हमारे खून में आ गयी है. अगर हमने इस बीमारी का उपचार अब भी नहीं किया तो अब हमें गुलामी नहीं मर मिटने के लिए तैयार रहना होगा.

      • शिव मिश्रा

      बीमार है ! सर्वोच्च न्यायालय

        बीमार है ! सर्वोच्च न्यायालय | हर पल मिट रही है देश की हस्ती | अब बहुत समय नहीं बचा है भारत के इस्लामिक राष्ट्र बनने में अमेरिका के नवनिर्...