शनिवार, 27 अप्रैल 2024

क्या मोदी भटक गए हैं ? या भटक गए थे?

 मोदी के तेवर बदल गयें हैं और भाषण भी, क्या मोदी भटक गए हैं ? या भटक गए थे?

लोकसभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के तुरंत बाद मोदी की भाषा और शैली अचानक बदल गई और उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र से मुस्लिम तुष्टीकरण से संबंधित कई तथ्यों पर जनता के सामने खुलकर अपनी बातें रखी. जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस पिछड़े और दलितों का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को देना चाहती है, तो खलबली मच गई. उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस आर्थिक सर्वेक्षण करवाकर सम्पन्न लोगों का धन घुसपैठियों में बांटना चाहती है तो सहसा लोगों को विश्वास नहीं हुआ. उसके बाद राहुल गाँधी के सलाहकार सैम पित्रोदा, जो उनके पिता राजीव गाँधी के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे, ने विरासत टैक्स का मुद्दा उठाते हुए कहा कि अमेरिका में जब कोई व्यक्ति मरता हैं तो उसकी संपत्ति का 55% हिस्सा सरकार ले लेती है. भारत में ऐसा टैक्स नहीं है, जिसके लिए योजना बनाई जा सकती है. पूरा देश सन्न रह गया. राहुल गाँधी ने हाल ही में तेलंगाना की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था वह केवल जातिगत जनगणना नहीं करायेगे, वह आर्थिक और संस्थागत सर्वेक्षण भी करवाएंगे जो देश का एक्स रे होगा, जिससे पता चल सकेगा किसके पास कितनी संपत्ति है, किसकी कितनी हिस्सेदारी है. इसके बाद वह क्रांतिकारी कदम उठाएंगे. प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस के घोषणापत्र, राहुल गाँधी के भाषण और सैम पित्रोदा के बयान की कड़ियां जोड़ते हुए मुस्लिम तुष्टीकरण, दलितों और पिछड़ों का आरक्षण छीन कर मुस्लिमों को देने और सम्पन्न लोगों द्वारा मेहनत से कमाई गई संपत्ति को घुसपैठियों में बांटने का मुद्दा जोर शोर से उठाया. इसके बाद तो चुनावी मैदान का पूरा परिदृश्य बदल गया.

जहाँ विपक्ष इसे ध्रुवीकरण करने की कोशिश बता रहा था, वही मोदी भक्त गदगद थे और सोशल मीडिया पर चर्चा कर रहे थे कि असली मोदी वापस आ गए हैं. यह सही है कि मोदी जिन वादों और इरादों के साथ पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आए थे, उन्हें धीरे धीरे भूलने लगे थे. सबका साथ, सबका विकास तक तो ठीक रहा लेकिन जब से यह “सबका साथ, सबका विकास, सब का विश्वास और सब का प्रयास” बन गया, लोग हैरान भी थे और परेशान भी, जो धीरे धीरे उदासीनता में बदल रही थी. पहले चरण के कम मतदान से यह स्पष्ट रूप से दिखाई भी पड़ा. कहना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री मोदी के अचानक इस बदले व्यवहार का कारण क्या है, क्योंकि अब तक मोदी सिर्फ और सिर्फ विकास की बात करते रहे हैं और भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने की बात करते रहे हैं. इसलिए इस पर सियासत तो होगी. सामान्यतः सभी राजनैतिक दल मुस्लिमों के विरुद्ध कोई भी बयान देने से बचते हैं, चाहे मामला देश के लिए कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो. अनेक अवसरों पर राजनीतिक स्वार्थ के लिए तुष्टिकरण की पराकाष्ठा पार करते हुए राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने में भी कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने संकोच नहीं किया. इसका परिणाम ये हुआ कि बहुसंख्यक हिंदू अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बन गए हैं. क्या कोई कांग्रेस द्वारा बनाए गए पूजा स्थल कानून, वक्फ बोर्ड कानून, और अल्पसंख्यक आयोग कानून को भूल सकता है. गनीमत इतनी रही कि कांग्रेस अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में सांप्रदायिक हिंसा कानून पारित नहीं करवा सकी अन्यथा हिंदुओं की स्थिति कितनी बदतर हो चुकी होगी उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.

प्रधानमंत्री मोदी का यह आरोप बहुत गंभीर हैं कि कांग्रेस पिछड़ों और दलितों का आरक्षण छीन कर मुस्लिमों को देना चाहती है. राजनीति की विडंबना देखिए कि पिछड़ों की राजनीति करने वाले और जातिगत जनगणना की जोरशोर से मांग करने वाले क्षेत्रीय दल इस मामले पर पूरी तरह चुप हैं लेकिन दलितों और पिछड़ों में बेचैनी स्पष्ट देखी जा सकती है. नेहरू गाँधी का मुस्लिम प्रेम किसी से छिपा नहीं है. यद्यपि नेहरु ने मुसलमानों को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का समर्थन नहीं किया था लेकिन कांग्रेस इस मोहपाश से कभी बाहर नहीं आ सकी और 1960 से ही इस दिशा में प्रयासरत हैं. इसका पहला प्रयोग अविभाजित आंध्र प्रदेश में किया गया जब 1994 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय भास्कर रेड्डी ने बड़ी चालाकी से बिना कोटा निर्धारित किए मुसलमानों की कुछ जातियों को सरकारी आदेश से ओबीसी में शामिल कर दिया. इससे हिन्दू ओबीसी वर्ग का लाभ अपने आप कम हो गया. 2004 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी ने मुसलमानों को 5% कोटा निर्धारित करते हुए ओबीसी वर्ग में आरक्षण दे दिया, जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया क्योंकि इससे आरक्षण की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा पार हो गयी थी. 2005 में आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने फिर एक बार विधानसभा में अधिनियम पारित करके शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए ओबीसी के अंतर्गत 5% का कोटा निर्धारित कर दिया. इसे आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने रद्द कर दिया.

इसके बाद भी कांग्रेस नहीं रुकी और 2007 में मुसलमानों की 14 श्रेणियों को ओबीसी की मान्यता देते हुए 4% कोटा निर्धारित कर दिया और इसके लिए अध्यादेश जारी कर दिया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाते हुए सरकार की गंभीर आलोचना की. 2014 में तेलंगाना के गठन के बाद टीआरएस के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण का कोटा बढ़ाते हुए 12% करने का प्रस्ताव विधानसभा में पारित किया और इसे केंद्र सरकार की अनुमति के लिए भेजा जिसे भाजपा सरकार से अनुमति नहीं मिल सकी. इसके बाद कांग्रेस की कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने समय समय पर मुसलमानों की अनेक जातियों को बिना कोटा निर्धारित किए ओबीसी वर्ग में शामिल कर दिया, जिसके अंतर्गत उन्हें आज भी आरक्षण प्राप्त हो रहा है. इससे हिंदू समुदाय के ओबीसी वर्ग का आरक्षण अपने आप कम हो गया, और उन्हें खासा नुकशान हुआ. हाल ही में बिहार की बहु प्रचारित जातिगत सर्वे में समूचे मुस्लिम समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामिल किया गया था जिसके आधार पर भविष्य में इन्हें ओबीसी श्रेणी के अंतर्गत बिना कोटा निर्धारित किए आरक्षण देने की मंशा रही होगी.

कांग्रेस ने 2004 के अपने घोषणापत्र में लिखा था कि उसने कर्नाटक और केरल में मुसलमानों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में इस आधार पर आरक्षण दिया है कि वे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भी मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में इस तरह की सुविधा प्रदान करने के लिए कृत संकल्पित है. 2009 के कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र में भी इस वायदे को दोहराया गया है. 2014 के घोषणापत्र में भी कांग्रेस ने लिखा था कि कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के मामले में कई कदम उठाए हैं. सरकार न्यायालय में लंबित इस मामले की प्रभावी ढंग से पैरवी करेगी और सुनिश्चित करेगी कि उचित कानून बनाकर इन नीति को राष्टीय स्तर पर लागू किया जाए. इससे बिलकुल स्पष्ट है कि मुसलमानों को आरक्षण देना कांग्रेस की सोंची समझी नीति है, जिस पर दशकों से काम किया जा रहा है.

जहाँ तक लोगों की संपत्ति छीनकर बांटने का प्रश्न है, कांग्रेस का अतीत इस मामले में भी बहुत दागदार है. 1953 में जवाहर लाल नेहरू ने सम्पदा शुल्क अधिनियम लागू किया था जिसमें जिसमें विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत अधिकतम 85% तक शुल्क वसूला जाता था. यानी मालिक की मृत्यु के बाद संपत्ति का 85% भाग सरकार हड़प लेती थी. यह कानून तीन दशक तक चलता रहा और राजीव गाँधी ने इसे तब समाप्त किया जब उन्हें इंदिरा गाँधी की परिसंपत्तियां मिलनी थी. राहुल गाँधी ने अपने कई भाषणों में इस ओर संकेत किया था और जिस एक्स रे की बात राहुल गाँधी कर रहे थे उसका खुलासा उनके सलाहकार सैम पित्रोदा ने कर दिया. यद्यपि कांग्रेस ने उनका निजी विचार बताते हुए मामले को दबाने की कोशिश की लेकिन लोग चिंतित हैं और सियासत गर्म हो गयी है.

बहुत कम लोगों को याद होगा कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी जो वित्त मंत्री भी थीं ने आयकर का बोझ इतना बढ़ा दिया था कि वह सरचार्ज सहित 97.75% पहुँच गया. पत्रकार वार्ता में जब उनसे पूछा गया कि आयकर का इतना बोझ लोग और कंपनियां कैसे सह पाएंगी तो उनके वित्त सचिव ने जवाब दिया था कि अभी भी 2.25% आय तो बच रही हैं. यहीं से कालेधन की अर्थव्यवस्था की शुरुआत हुई जिसने देश की प्रगतिशील और ईमानदार अर्थव्यवस्था का गला घोंट दिया और देश को कई दशक पीछे धकेल दिया. इसके बाद इंदिरा जी ने वामपंथियों के दबाव में उद्योगों का अंधाधुंध राष्ट्रीयकरण किया जिसने देश की अर्थव्यवस्था की जड़ें हिला दी. कपड़ा मिलों के अधिग्रहण और उन्हें मिलाकर राष्ट्रीय कपड़ा निगम बनाने की सनक ने देश में औद्योगिक वातावरण चौपट कर दिया. सरकार को अरबों रुपए का निवेश इन बीमार मिलों में करना पड़ा, जो नहीं चल सकी और अंत में कौड़ियों के मोल बेचनी पड़ी जिससे देश का अरबों रुपया स्वाहा हो गया.

अगर दोपहर का भूला शाम को वापस आ गया है तो उससे नाराज नहीं होना चाहिए बल्कि उसे इतना संबल देने की आवश्यकता है कि वह फिर भटकने न पाये. इसी में आपका भला और सबकी भलाई है.

आज आवश्यकता इस बात की है के सभी मतदान करना सुनिश्चित करें क्योंकि आपका एक वोट आपका ही नहीं आपके राष्ट्र का भविष्य तय करेगा. महंगाई बेरोजगारी, जाति पांति और मुफ्तखोरी से ऊपर उठकर वोट करें. सोच समझकर वोट करें, और देश के लिए वोट करें. देश बचेगा तो ही आप बच सकेंगे और सनातन संस्कृति भी बच सकेगी.

~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~

सोमवार, 22 अप्रैल 2024

श्रीराम मंदिर निर्माण का प्रभाव

 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर निर्माण का प्रभाव भारत में ही नहीं, पूरे ब्रहमांड में और प्रत्येक क्षेत्र में दृष्ट्गोचर हो रहा है. जो आस्थावान थे, वे तो हमेशा पक्ष में थे लेकिन जो मंदिर नहीं चाहते थे, वे भी विरोधस्वरूप ही सही, आज श्रीराम से जुड़ गए हैं.

अयोध्या में भगवान श्रीराम के नव निर्मित भव्य मंदिर में 22 जनवरी 2024 को प्राणप्रतिष्ठा के बाद जहाँ पूरे भारत का माहौल राममय हो गया है, वहीं राजनीतिक लाभ लेने की होड़ में पक्ष-विपक्ष के बीच बहस और विवादों की एक लंबी श्रृंखला चल निकली है. कुछ लोगों ने प्राण प्रतिष्ठा समारोह के आमंत्रण का बहिष्कार किया तो कुछ ने बाद में जाकर दर्शन किए, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आज भी अयोध्या में राम मंदिर न जाने को अपनी पार्टी की धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ जोड़कर अप्रत्यक्ष रूप से वर्ग विशेष के वोटों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं. इसी कड़ी में कुछ राजनीतिक दलों द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि मंदिर से न तो रोजी रोटी मिलेंगी और न ही देश का विकास होगा. भाजपा के लिए राममंदिर हमेशा से एक मुख्य मुद्दा रहा है, और इन चुनावों में उसके द्वारा मंदिर निर्माण का श्रेय लिया जा रहा है, जिसका अवसर विपक्ष ने बैठे बिठाये उपलब्ध करा दिया है. आशा की जानी चाहिए कि चुनावों के समापन के बाद विवादों का समापन भी हो जाएगा.

इस बीच राम जन्मोत्सव का त्योहार भी आ गया और 500 वर्षों बाद ऐसा संभव हो सका कि जब भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव बहुत श्रद्धा और धूमधाम से नव निर्मित मंदिर में मनाया गया. अपने ही गर्भगृह में विराजमान होने के लिए संघर्ष कर रहे रामलला के जन्म का उद्बोधन “भये प्रगट कृपाला, दीनदयाला कौशल्या हितकारी....” अंतिम बार 22 दिसंबर 1949 की रात सुना गया था, जब एक चमत्कारिक घटना द्वारा रामलला प्रकट हुए थे. उसके बाद मंदिर निर्माण में कितनी बाधाएं खड़ी की गई, कितने राजनैतिक षड्यंत्र रचे गए, कितनी बार न्याय भटका, लटका और अटका, सब कुछ शायद रामभक्तों के धैर्य की अंतिम परीक्षा थी. अब यह सब इतिहास के पन्नों में सिमट चुका हैं. भव्य मंदिर निर्माण का सपना साकार हो गया है और हर विशुद्ध भारतीय के ह्रदय में अपने जीवनकाल में रामलला को अपने मूल स्थान पर भव्य मन्दिर में प्रतिष्ठित होता देखने का इतना आत्मसंतोष है, जिसका वर्णन करना संभव नहीं है.

इस अवसर पर पौराणिकता, धार्मिकता और वैज्ञानिकता के सम्मिश्रण से रामलला का सूर्याभिषेक किया गया जिसने लोगों को भावविभोर कर दिया. सूर्य की किरणों ने एक वैज्ञानिक संयंत्र के माध्यम से रामलला का मस्तक पर तिलक लगाया, जिसका निर्माण भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रूडकी के बेज्ञानिको में किया था. रामलला के इस मंदिर में अन्य कई उन्नत तकनीक इस्तेमाल की गई है जिसका वर्णन वैदिक ग्रंथों में मिलता है. भारत के अन्य अति प्राचीन मंदिरों में वास्तुकला, खगोलशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र और ज्यामितीय गणनाओं का प्रयोग आज भी लोगों को आश्चर्यचकित करता है. मदुरई स्थित मीनाक्षी मंदिर के खंभों को छूने से हर खंभे से अलग अलग तरह की ध्वनि तरंगे निकलती है. वैज्ञानिक परीक्षणों में ये सिद्ध हो चुका है की इन खंभों से अलग अलग वेवलेंथ की ध्वनि तरंगे उत्पन्न होती हैं जिनमे आपस में सामंजस्य हैं, लेकिन इनका प्रयोजन आज भी समझ से परे है. चिदम्बरम स्थित नटराज मंदिर में भगवान नटराज की मूर्ति एक विशेष नृत्य मुद्रा में स्थापित है, जिससे उस समय के पोलस्टार अगस्तय सहित अन्य ग्रहों की स्थिति का आकलन होता है. पूरे भारत में इस तरह के कई मंदिर हैं जिनमें स्थान चयन से लेकर वास्तुकला और आराध्य की मूर्ति की स्थापना तक ऐसे अनगिनत वैज्ञानिक दृष्टिकोण शामिल हैं जिनसे ग्रहों की स्थिति, खगोलीय घटनाएं, पृथ्वी पर होने वाली विषम घटनाओ के प्रतिरोधक उपाय आदि अनेक ऐसे विषय हैं जिनसे हजारों वर्ष पूर्व सनातन धर्म में समाहित वैज्ञानिकता परिलक्षित होती है. दुर्भाग्य से आक्रांताओं ने इनमें से कई वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मंदिरों ओर पुस्तकालयों में उपलब्ध पांडुलिपियों को नष्ट कर दिया. अंग्रेजों ने भी भारतीय संस्कृति से जो नकल कर सकते थे किया और शेष को ढकने या नष्ट करने का कार्य किया. स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेजों के जमाने की स्थिति में कोई भी परिवर्तन आज तक नहीं हो सका है. प्राचीन सनातन संस्कृति के अनेक वैज्ञानिक रहस्य समेटे इन मंदिरों से जुड़ें रहस्यों पर शोध करना तो दूर, वैज्ञानिक, सामाजिक और अर्थव्यवस्था को गति देने वाले इन अति महत्वपूर्ण मंदिरों पर सरकारी कब्जा है और उनके दानपात्र की राशि, अंग्रेजों की तरह ही आज भी सरकार हड़प रही है.

रामराज्य सुशासन के प्रतीक के रूप में पूरे विश्व में स्वीकार्य है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से लेकर महात्मागाँधी तक, रामराज्य की अवधारणा निरंतर हमारी संस्कृति के उच्च आदर्शों का मानक रही है. आज भी सभी को राम राज्य जैसी स्वतंत्रता और अधिकार तो चाहिए, किन्तु दायित्वों के नाम पर तरह तरह के कुतर्क देकर राम को ही लांछित करने लगते हैं. रामराज्य के लिए जिस राजनीतिक व्यक्तित्व विकास एवं पारिस्थितिक परिवेश परिवर्तन की प्रक्रिया अपेक्षित है, उसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। राम ने अव्यवस्था फैलाने वाले राक्षसों है को दंडित किया और जहाँ आवश्यक हुआ उनके राज्य में, उनके गृहनगर में उनका संहार किया. जिसे आज की भाषा में घर में घुसकर मारना कहते हैं. वनों में ऋषि मुनियों को आतंकित करने वाले आक्रांता राक्षसों का विनाश किया. इसके लिए स्थानीय निवासियों, वनवासियों और वानरों को संगठित किया और रावण जैसे शक्तिशाली राजा का सर्वनाश किया. आज के राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थ के लिए कुतर्कों के आधार पर राम के चरित्र को परिभाषित करते हैं और समाज द्रोहियों, राष्ट्रद्रोहियों और शत्रु देशों का बचाव करते हैं.

राम मंदिर की न्यायिक कार्यवाही के दौरान राम को काल्पनिक बता कर पूरे मामले को संदिग्ध बनाने की भरपूर कोशिश की गई. आज दुनिया भर में रामायण और महाभारत पर शोध किए जा रहे हैं. ऐसे शोध भारत में कम विदेशों में ज्यादा हो रहे हैं. भारतीय मूल के अमेरिका में बसे एक शोध वैज्ञानिक नीलेश ओक ने 600 से अधिक प्रामाण देकर ये सिद्ध किया है कि राम और रावण का युद्ध 24 दिसम्बर 12,209 बीसीई ( ईसा से12,209 वर्ष पहले) से 7 जनवरी 12208 बीसीई यानी आज से 14,233 वर्ष पहले हुआ था. इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कई खगोलीय घटनाएँ, ग्रहों की स्थिति, भौगोलिक परिवर्तन, बाल्मिकी रामायण में वर्णित घटनाओं के आधार पर, समुद्र विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, खगोलशास्त्र, मौसम विज्ञान, पुरातत्व विज्ञान, आदि का सहारा लेकर नवीनतम वैज्ञानिक उपकरणों और साधनों का उपयोग किया गया है. अपने शोध के आधार उन्होंने रामायण से संबंधित कुछ तारीखों की बिल्कुल सटीक गणना की है, जो वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाक्रम, सामाजिक और भौगोलिक परिवेश, खगोलीय घटनाएं और अन्य पुराणो में संदर्भित तिथियों से पूरी तरह मिलते हैं इसलिए अब तक हुए शोध की सबसे स्वीकार्य तिथियां हैं.

श्री ओक के शोध पत्र के अनुसार भगवान श्री राम का जन्म 29 नवंबर, 12,240 बीसीई में हुआ था. श्री राम के जन्म के समय अयोध्या और उसके आसपास जैसा मौसम था, वातावरण था, कृषि, वन व्यवस्था और सरयू की स्थिति थी, उसका आकलन वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में किया गया है. महर्षि वाल्मीक ने उल्लेख किया है कि श्री राम का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र, अभिजीत महूर्त में हुआ। इन हजारों वर्षों मे पृथ्वी की भौगोलिक संरचना बदल गई, मौसम बदल गया लेकिन बाल्मिकी रामायण में उल्लिखित राम का जन्म उसी समय तिथि को मनाया जाता है और आज हो रहे शोध में हज़ारों वर्षों से चली आ रही है इस परंपरागत तिथि का बहुत महत्त्व है. इसे सनातन संस्कृति और वैदिक व्यवस्था की उन्नतशीलता ही कहना होगा कि भगवान श्री राम का जन्म चंद्रमास आधारित उसी तिथि पर आज भी मनाया जाता है, जो हमारी संस्कृतिक सभ्यता की प्राचीनता और पौराणिकता को रेखांकित करता है. ये वामपंथियों और नेहरूवियन इतिहासकारों के झूठ की पोल खोल देता हैं कि आर्य बहार से भारत में आये और भारतीय सभ्यता का विकाश सिकंदर द्वारा भारत के आक्रमण के बाद तब हुआ जब भारतीय यूनानियों के संपर्क में आये. इसके विपरीत आर्य भारत से सेन्ट्रल एशिया और यूरोप गए जहाँ कि भाषाओँ में संस्कृत से निकटता प्रमाणित होती है.

श्री नीलेश ओक ने रामायण की महत्वपूर्ण घटनाक्रमों की तिथियों की गणना और आकलन किया है. उनके अनुसार विश्वामित्र 4 दिसंबर 12,224 बीसीई को अयोध्या पधारे. 7 दिसंबर 12,224 बीसीई को ताड़का वध हुआ. 9 से 14 दिसंबर 12,224 बीसीई के बीच विश्वामित्र द्वारा किए गए महायज्ञ को संरक्षित किया. 15 दिसंबर 12,224 बीसीई को मिथिला के लिए प्रस्थान किया. 19 दिसंबर 12,224 बीसीई को राम ने शिव धनुष उठाया. राम और सीता का विवाह 4/5 जनवरी 12,223 बीसीई को संपन्न हुआ. राम का वनगमन 20/21 दिसंबर 12,223 बीसीई को हुआ. 25/26 दिसंबर 12,223 बीसीई को राजा दशरथ की मृत्यु हो गई. 10 अप्रैल 12,222 बीसीई को चित्रकूट में भारत मिलाप हुआ. नल सेतु या रामसेतु का निर्माण 8 से 18 दिसंबर 12,209 बीसीई के मध्य पूरा हुआ. 7 जनवरी 12,208 बीसीई को राम रावण युद्ध समाप्त हुआ और राम पुष्पक विमान से अयोध्या लौटे. राम भरत मिलन और राम का राज्याभिषेक 13 जनवरी12,208 बीसीई को हुआ. सोचिये अगर रामेश्वरम से अयोध्या की लगभग 4000 किमी (हवाई दूरी लगभग 3000 किमी) की यात्रा आज की जाय तो फ़ास्ट ट्रेन से कम से कम ४ दिन, और सड़क मार्ग से एक सप्ताह लगेगा लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद एक दो दिन बाद श्रीराम लक्षमण वापस चले होंगे और राज्याभिषेक से एक दो पहले सभी लोग पहुंच गए होंगे. इससे उस समय विमान की उपलब्धता और वैकल्पिक ऊर्जा से चलने की संभावना उत्साहजनक रूप से बढ़ गयी है. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में इस सम्बन्ध में शोध किया जा रहा है.

12,196 बीसीई में लवकुश द्वारा राम के समक्ष रामायण गान किया, जिससे इस समय तक रामायण की सम्पूर्णता भी प्रमाणित होती है, और रामायण की प्राचीनता और वास्विकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालों को उचित उत्तर मिल गया है.

राम मंदिर निर्माण के बाद यद्यपि पूरे देश में खुशी का माहौल है लोगों में नई ऊर्जा का संचार हुआ है और सभी खासे उत्साहित है. यह बहुत बड़ी उपलब्धि है लेकिन देश में राक्षसी प्रवत्तियां कम हो रही हो, ऐसा नहीं हैं. इनका आक्रोश और आतंक बढ़ता जा रहा है. केवल सोशल मीडिया पर ही नहीं, हर गली के किसी न किसी मोड़ पर कोई न कोई राक्षस किसी न किसी रूप में मिल सकता है, जिससे सावधान रहने की आवश्यकता है. जरूरत इस बात की है कि राम राज्य की पारिकल्पना करने वाली सरकार भी इन राक्षसों के विनाश की वही नीति लागू करे जो श्री राम ने की थी, अन्यथा न तो राष्ट्र का सामर्थ्य बढेगा और न ही राम राज्य का सपना कभी पूरा हो सकेगा.

~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~

क्या कांग्रेस का घोषणा पत्र मुस्लिम लीग का है

 







कांग्रेस का घोषणापत्र खतरे की घंटी है, यह घोषणा पत्र से आसानी से समझा जा सकता है.

कांग्रेस के घोषणापत्र से पूरे देश में हो हल्ला मचा है लेकिन कांग्रेस इससे बेफिक्र चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं. उन्हें लगता है कि 2004 की तरह कांग्रेस सहयोगियों की मदद से सत्ता पर कब्जा जमाने में सफल हो जाएगी. वैसे तो घोषणा पत्र में 5 न्याय 25 गारंटी और 300 से ज्यादा वायदे शामिल करके 48 पेज की एक पुस्तिका निकाली है लेकिन हम यहाँ केवल उन बिंदुओं पर बात करेंगे जो राष्ट्र, सनातन संस्कृति और हिंदुओं के पूरी तरह से विरुद्ध हैं.

भाजपा ने कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र को मुस्लिम लीग का घोषणापत्र बताते हुए तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जिसके घोषणापत्र में शामिल कई मुददे, मुस्लिम लीग द्वारा 1936 में जारी किए गए घोषणापत्र से मिलते हैं. 1936 में मुस्लिम लीग के चुनाव घोषणापत्र ने कहा गया था कि वे मुसलमानों के लिए सीरिया कानून की मांग करेंगे. कांग्रेस ने अपनी घोषणा पत्र में मुसलमानों के पर्सनल कानून को सुरक्षित रखने का वायदा किया है. मुस्लिम लीग ने कहा था कि वह भारत में बहुसंख्यक वाद के विरुद्ध किसी भी स्थिति तक जाकर संघर्ष करेगी. कांग्रेस में कहा है कि भारत में बहुसंख्यकवाद के लिए कोई स्थान नहीं है और वह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कृतसंकल्पित है. मुस्लिम लीग ने कहा था कि वह मुसलमानों को विशेष छात्रवृत्तियां और विशेष रोजगार देने के लिए संघर्ष करेंगी. कांग्रेस ने वायदा किया है कि वह सुनिश्चित करेंगी कि अल्पसंख्यकों को शिक्षा, स्वास्थ, सरकारी नौकरी, लोक निर्माण अनुबंध, कौशल विकास, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों में बिना किसी भेदभाव के उचित अवसर प्राप्त हो. कांग्रेस ने प्रत्यक्ष तौर पर घोषित कर दिया है कि वह संविधान के अनुच्छेद 15 16 25 28, 29 और 30 में अल्पसंख्यकों को मिलने वाले मौलिक अधिकारों का आदर करेगी और उन्हें बरकरार रखेगी. वह भाषाई आधार पर मुसलमानों को दी जा रही उन सुविधाओं का आदर करेगी और उन्हें अनवरत जारी रखेगी. यानी मदरसा शिक्षा, उर्दू, फारसी, अरबी की पढ़ाई तथा संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में उर्दू फ़ारसी अरबी और इस्लामिक अध्ययन जैसे विषयों को शामिल रखा जाएगा. सभी परिचित है कि इसके क्या दुष्प्रभाव हो रहे हैं, मुस्लिम परीक्षार्थी और मुस्लिम परीक्षक हो तो सिविल सेवा में सफलता कितनी आसान है इसका अंदाजा बहुतों को नहीं है. मुस्लिम छात्रों को विदेश में अध्ययन के लिए मौलाना आजाद छात्रवृत्ति को लागू करेंगे और छात्रवृत्ति की संख्या बढ़ाई जाएगी. मुसलमानों को ऋण प्राप्त करने में कोई कठिनाई ना हो इसके लिए विशेष योजनाएं बनाई जाएगी.

कांग्रेस ने वायदा किया है की भोजन, पहनावे, प्यार और शादी में हस्तक्षेप नहीं करेंगे. समझा जा सकता है कि इस वाक्य में हर शब्द तुष्टिकरण के लिए जोड़ा गया है. भोजन का सीधा मतलब है गोहत्या को कानूनी जामा पहनाना और उन राज्यों में जहाँ गो रक्षक दल द्वारा समुदाय विशेष के गो तस्करों को कानून के दायरे में लाकर कार्रवाई सुनिश्चित की जाती है, उस पर रोक लगाना. इसका एक और मतलब है कि बड़ी संख्या में बूचड़खाने फिर खुल जाएंगे. होटल और रेस्टोरेंट में सामन्य रूप से गोमांस परोसा जा सकेगा. पहनावे की स्वतंत्रता का मतलब है बुर्का, हिजाब, नकाब आदि को प्रतिबंध मुक्त करना. जहाँ समुदाय विशेष की महिलाओं का जीवन मुश्किल होगा वही आतंकवादी भी बुर्के की आड़ में बड़े आसानी से कहीं भी कभी भी विस्फोट कर सकेंगे. फिर उसी युग की शुरुआत हो सकती है जब लावारिस वस्तुओं को न छूने के लिए चेतावनी प्रसारित की जाती थी. घोषणा पत्र में प्यार की स्वतंत्रता का वायदा किया गया है यानी लव जेहाद के विरुद्ध कुछ बोलने या पुलिस द्वारा कानूनी कार्रवाई करने का युग समाप्त हो जाएगा और धड़ल्ले से बड़ी संख्या में हिंदू लड़कियों का धर्मांतरण कराया जा सकेगा. धर्मांतरण के मुददे पर पूरा देश उद्वेलित है. फ्रिज, अटैची, बैग और बोरों में टुकड़ों टुकड़ों में मिल रही लाशों के बावजूद, कांग्रेस जागरूकता और रोकथाम उपाय करने का अधिकार भी हिंदुओं को नहीं देना चाहती.

घोषणापत्र में शादी में हस्तक्षेप न करने का वायदा ये संकेत देता है कि हाल ही में असम सरकार द्वारा बाल विवाह पर रोक लगाने के फैसले से नाराज हुए कट्टरपंथियों को खुश करना हैं. असम सरकार ने कम उम्र की मुस्लिम बच्चियों के विवाह पर रोक लगाते हुए उन्हें बेहतर जीवन यापन के लिए समाज की मुख्यधारा में शामिल किया है. मुस्लिम तुष्टीकरण की कांग्रेस की परंपरागत सोच को आगे बढ़ाते हुए अनेक जगह उन्हें सुविधाएं सहूलियतें देने का वायदा किया गया है और इस तरह देखा जा सकता है कि पूरे घोषणापत्र में सबसे अधिक महत्त्व अल्पसंख्यकों को ही दिया गया है.

इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कुछ अजीबोगरीब कार्य करने की प्रस्तावना की है. इनमें एक है भारतीय महिला बैंक की पुनर्स्थापना, जिसका लगातार घाटा उठाने और कोई सार्थक परिणाम न देने के कारण वर्ष 2016 में भारतीय स्टेट बैंक के साथ विलय कर दिया गया था. कांग्रेस ने यह भी वायदा किया है की पुलिस, जांच और खुफिया एजेंसियां की सख्ती और बेलगाम शक्तियों को कम किया जाएगा. कानून को ढाल बनाकर मनमानी तलाशी, जब्ती, कुर्की और अंधाधुंध गिरफ़्तारियां तथा बुलडोजर न्याय समाप्त किया जाएगा. इसका अर्थ हुआ कि प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, एनआईए तथा अन्य खुफिया एजेंसियों द्वारा की जा रही कार्रवाई दुष्प्रभावित होगी. बुलडोजर न्याय के लिए लांछित किए जाने वाले उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक संपत्तियों पर अवैध कब्जे और माफिया संस्कृति पर इससे बहुत अंकुश लगा है लेकिन कांग्रेस परेशान है. कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित आरक्षण की 50% सीमा को समाप्त करने का भी वायदा किया है. यक्ष प्रश्न यह है कि यह सुविधा किस समुदाय के लिए प्रस्तावित की जा रही है. यदि ध्यान से सोचेंगे तो एक ही उत्तर मिलेगा, मुस्लिम समुदाय. यह भी प्रस्तावित किया गया है कि आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों को मिल रहा 10% का आरक्षण का बिना किसी भेदभाव के सभी जातियां सभी समुदाय उपयोग कर सकेंगे. सोचिये प्रभावित कौन होगा. कथित रूप से उच्च जातियां ही प्रभावित होंगी, जिनके विरोध में जेएनयू, जामिया और एएमयू में नारे लगाए जाते हैं और कांग्रेस समर्थन करती है. घोषणा पत्र में कहा गया है कि कांग्रेस मानहानि के जुर्म को अपराध मुक्त कर देगी. यह बिंदु खासतौर से राहुल को ध्यान में रखकर बनाया गया है कि अगर भविष्य में भी वे किसी के विरुद्ध कुछ भी कहते रहे हैं और कानून के शिकंजे में न फंसे. कांग्रेस ने एक देश चुनाव को पूरी तरह खारिज कर दिया है जिसका अर्थ है कि वह राष्ट्रीय फिजूलखर्ची के लिए संवेदनशील नहीं है और दूसरा हो सकता है कि जिस धारा 356 जिसका उपयोग कांग्रेस आपने हित में संविधान लागू होने के बाद से ही करती आई है वह धड़ल्ले से होता रहेगा.

शायद सभी को स्मरण भी न हो कि 1991 में कांग्रेस की नरसिम्हा राव (जिन्हें इस वर्ष भारत रत्न से सम्मानित किया गया है) की सरकार ने अल्पमत में होते हुए भी सनातन धर्म, संस्कृति और मुस्लिम तुष्टिकरण पराकाष्ठा पार करते हुए हिन्दुओं के विरुद्ध तीन बड़े कानून बनाये थे. पूजा स्थल कानून द्वारा 15 अगस्त 1947 को धर्म स्थलों की जो स्थिति थी उसकी यथास्थिति बनाए रखने का कानून था, इस कानून द्वारा दसवीं शताब्दी से लेकर 15 अगस्त 1947 तक हिंदू धर्मस्थलों में आक्रान्ताओं द्वारा की गयी तोड़फोड़ को कानूनी मान्यता प्रदान कर दी गई थी. बहुसंख्यकों की बेबसी देखिए कि वे अदालत भी नहीं जा सकते हैं, लेकिन किसी ने आवाज नहीं उठायी. नरसिम्हा राव सरकार का दूसरा कुख्यात कानून वक्फ बोर्ड का था जिसके द्वारा वक्फ बोर्ड को ये अधिकार है कि वे बिना किसी साक्ष्य के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के किसी भी संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित कर सकते हैं. जिलाधिकारी बिना किसी प्रतिवाद के उस संपत्ति का कब्जा प्राप्त कर वक्फ बोर्ड को उपलब्ध कराएंगे. भारतीय संसद, हैदराबाद का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा सहित देश की न जाने कितनी संपत्तियों पर वक्फ बोर्ड का कब्जा है. तीसरा कानून अल्पसंख्यक आयोग का संवैधानिक दर्जा प्रदान करना था, जिसने अंधाधुंध आर्थिक, कानूनी और राजनैतिक सहायता देकर मुस्लिम हितों का संरक्षण किया.

कांग्रेस शासनकाल में सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक 2011 कानून बनते बनते रह गया. अगर ये कानून पास हो जाता तो हिंदुओं की स्थिति औरंगजेब के शासनकाल से भी बदतर हो जाती. इस विधेयक में सांप्रदायिक हिंसा होने पर केवल बहुसंख्यक हिंदुओं को जिम्मेदार मानने का प्रावधान था. इसमें सजा और जुर्माना दोनों ही प्रस्तावित थे. अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यक महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाने पर भी उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता था. हिंदू मुसलमानों के लिए अलग अलग अदालतों का प्रावधान था और पूरा ढाँचा अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए बनाया गया था. सौभाग्य से उस समय यह विधेयक पास नहीं हो सका लेकिन कांग्रेस के शस्त्रागार में ये आज भी ये उपलब्ध है. यदि अगर अगली सरकार कांग्रेस की आती है तो ये विधेयक भी पास भी हो सकता है.

अधिकांश लोगों ने कांग्रेस की इस घोषणा पत्र का अवलोकन नहीं किया होगा. कांग्रेस इतनी बेशर्मी से मुस्लिम एजेंडा लागू करने जा रही और यह सारी चीजे मिलकर गज़वा ए हिंद योजना को मजबूत करेगी. पीएफआई के अनुसार भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने का कार्य 2047 तक पूरा किया जाना है लेकिन कांग्रेस इससे बहुत पहले ही पूरा करने को आतुर है. इसलिए मतदान करते समय अपना नहीं, राष्ट्र का ध्यान रखें. राष्ट्र बचेगा तभी हम सब बच पाएंगे.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ऐक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के फैसले पर लगाई रोक


हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ निर्णय चर्चा में रहे जिनमें न्यायिक सर्वोच्चता के साथ साथ न्यायिक अतिसक्रियता भी परलक्षित हुई, जिससे लोगों ने तरह तरह के कयास लगाने शुरू कर दिए.

कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ऐक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के फैसले पर रोक लगा दी. रोक लगाते हुए उसने जो टिप्पणी की वह गंभीरतो है ही, कयासों को हवा देने वाली भी हैं, कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला कि मदरसा बोर्ड की स्थापना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन है, सही नहीं हो सकता. बड़ी हैरानी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय तुरंत इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि उच्च न्यायालय का निर्णय सही नही है. अब वह पूरे मामले की फिर से सुनवाई करेगा, तब तक वर्तमान व्यवस्था चलती रहेगी. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय कब आएगा इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है और यह मुकदमा भी 80 हजार लंबित मुकदमे में शामिल हो जाएगा और अनंतकाल तक पडा रह सकता है. ज्ञातव्य है कि 22 मार्च 2024 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के समानांतर मदरसा शिक्षा बोर्ड का कानून बनाना धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध है. चूँकि उ.प्र.मदरसा शिक्षा बोर्ड उत्तर प्रदेश में संचालित मदरसों की इस्लामिक शिक्षा व्यवस्था का उत्तरदायित्व संभालता है, जिसमे केवल मुस्लिम छात्र पढ़ते है, इस तरह की सरकारी व्यवस्था एक देश दो विधान वाली है.

ज्ञानवापी के मामले में पूरे देश ने देखा कि कैसे भारतीय पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण को अनावश्यक विलंब का सामना करना पड़ा. सर्वोच्च न्यायालय ने मामला सेशन अदालत से लेकर जिला न्यायाधीश की अदालत को स्थानांतरित किया. दो कदम आगे और चार कदम पीछे चलने की प्रक्रिया से मामला कई बार उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के गलियारों से गुजरा और कीमती समय बर्बाद हुआ. नई पीढ़ी के लोग इससे आसानी से समझ सकते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का 1950 में शुरू हुआ मुकदमा 2019 तक (लगभग 70 वर्ष) तक क्यों लटका रहा.

नेशनल जुडिशल डेटा ग्रिड पर प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में इस समय लगभग 80 हजार मुकदमे लंबित हैं, इसमें 50 हजार से अधिक मुकदमे एक साल से अधिक समय से लंबित है. कुछ मुकदमे 40 वर्ष से भी अधिक समय से लंबित है. लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि जितने मामलों का निपटारा होता है उससे अधिक नए मामले आ जाते हैं. अगर लंबित मामलों का विश्लेषण करें तो यह बिलकुल स्पष्ट है कि 2013 के बाद साल दर साल मुकदमो की संख्या बढ़ती जा रही है. पिछले वर्ष 2023 के 10481 मुकदमे लंबित हैं, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. सभी उच्च न्यायालयों मे मिलाकर 62 लाख मुकदमे लंबित हैं, जिनमे लगभग 80% एक वर्ष से अधिक समय से लंबित है, बड़ी संख्या में मामले कई दशकों से लंबित हैं. वर्तमान समय में सभी न्यायालयों में मिलाकर 4.4 करोड़ मुकदमे लंबित है, इनमें राजस्व, चकबंदी, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर, विभिन्न त्रय्बुनल के मुकदमे शामिल नहीं है.

सर्वोच्च न्यायालय में 80 हजार से भी अधिक मुकदमे लंबित होने के वास्तविक कारण हो सकते हैं लेकिन असाधारण रूप से जनता को अंग्रेजों के जमाने के ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश खटकते हैं जिस पर सोशल मीडिया में जमकर विरोध किया जाता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और ये व्यवस्था पूरे शान-ओ-शौकत के साथ चलती जा रही है. मुकदमों के शीघ्र निपटान के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोई वैकल्पिक व्यवस्था या प्राथमिक स्तर पर सरलीकृत व्यवस्था का सुझाव दिया गया हो ऐसा भी नहीं है. तो फिर इन लंबित मुकदमो की जिम्मेदारी किसकी है, इसका भी समुचित उत्तर नहीं मिलता. ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में गंभीर नहीं है. न्याय की आश में पीढ़ियां गुजर जाती हैं लेकिन मुकदमें ज्यों के त्यों चलते रहते हैं. कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कुछ ऐसे मुकदमे भी लंबित हो जिनसे दोनों पक्ष के पैरवीकार मर खप गए हो और मुकदमे तारीख का इंतजार कर रहे हो.

लंबित मुकदमों के बढ़ते जाने का एक सबसे बड़ा कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के निर्णयों पर रोक लगाना हो सकता है. आखिर सभी न्यायाधीश कोलिजियम की कथित बेहतरीन व्यवस्था से निकले हैं तो इतना विरोधाभास या अविश्वास क्यों. जनहित याचिकाओं को बढ़ावा देना भी प्रमुख कारण है. प्रभावशाली, धनाढ्य और राजनीतिक व्यक्तियों तथा मुस्लिम संगठनों को सर्वोच्च वरीयता प्रदान करना भी, बड़ा कारण है. जनहित याचिकाएं हमेशा से विवादों के घेरे में रहती आई है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ जनहित याचिकाएं बहुत ही महत्वपूर्ण और जनहित में दायर की गई होती है लेकिन कुछ याचिकाएं ऐसी होती हैं जो प्रथम दृष्टया स्वार्थ पूर्ण लगती हैं. हाल में एक ऐसी जनहित याचिका दायर की गई जिनमें कोलेजियम द्वारा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को भेजी गई सूची को निश्चित समय सीमा में स्वीकृत प्रदान करने से संबंधित थी. समझा जा सकता है कि जनहित याचिकाकर्ता का सर्वोच्च न्यायालय से, या कोलिजियम सूची में नामित सदस्यों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कितना गहरा संबंध है.

हाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक निर्णय में चुनाव आयुक्तों सहित कुछ अन्य नियुक्तियों के लिए बनी कमेटी में मुख्य न्यायाधीश को एक सदस्य घोषित किया था. कितनी हास्यास्पद बात है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसने खुद किसी कमेटी का सामना नहीं किया, कोई साक्षात्कार नहीं दिया, वह इन कमेटियों का सदस्य बनना चाह रहा है ताकि नियुक्तियां पारदर्शी हो सके.

सर्वोच्च न्यायालय की अतिसक्रियता या संसद के अधिकारों के अतिक्रमण करने का एक संगीन मामला तब सामने आया जब उसने संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को निरस्त कर दिया. कारण बताया गया कि यह संविधान विरोधी है. हाल में इलेक्टोरल बांड का 2019 में बना कानून भी असंवैधानिक बता कर निरस्त कर दिया है. इन सभी पर राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर कर चुके थे. अगर सर्वोच्च न्यायालय संसद से भी सर्वोच्च है तो क्यों न उसे लोकसभा, राज्यसभा के साथ तीसरे सदन की मान्यता दे दी जाय और जब तक सर्वोच्च न्यायालय अनुमति न दे कोई नया कानून न बनाया जाय. ऐसा विश्व में किसी देश में नहीं होता है. सर्वोच्च न्यायालय पर जो आरोप लगते हैं उसका कारन इस तरह के पक्षपाती दिखने वाले फैसले ही होते हैं.

1991 में पारित पूजा स्थल कानून में यह व्यवस्था है कि देश के धार्मिक स्थलों का जो स्वरूप 15 अगस्त 1947 को था उसे यथारुप बनाए रखा जाएगा. क्या कोई ऐसा कानून बनाया जा सकता है जो 43 वर्ष पीछे से लागू किया जाए. इस कालखंड में अगर हिंदुओं ने अपने उन धर्म स्थलों का पुनः प्राप्त कर जीर्णोद्धार कर लिया होता, जिन पर मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़फोड़ कर मस्जिदे बना दी थी, तो कितने विषम स्थिति उत्पन्न हो गई होती. वक्फ बोर्ड का कानून भी किसी भी दृष्टिकोण से न तो संवैधानिक है और न ही धर्मनिरपेक्षता के अनुरूप लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इन सब पर खामोश रहा, खामोश हैं और खामोश रहेगा. मंदिरों पर सरकारी नियन्त्रण और उनके चढ़ावे को हड़पने का जो कानून जवाहर लाल नेहरू ने बनाया था उस पर भी सर्वोच्च न्यायालय को कभी कोई आपत्ति नहीं हुई. संविधान की प्रस्तावना में इंदिरा गाँधी द्वारा “सोसलिस्ट सेक्युलर” जोड़ने पर भी उसे कोई समस्या नहीं. ऐसा क्यों.

कई ऐसे मौकों पर जब न्यायपालिका को सक्रिय होकर अपनी राष्ट्रीय भूमिका अदा करना चाहिए था, सर्वोच्च न्यायालय निष्क्रिय रहा. लंबे समय तक शाहीन बाग में चले सीएए विरोधी आंदोलन के कारण दिल्लीवासियों को हुई भयानक असुविधाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने कोई निर्देश देने की बजाय अपने वार्ताकार भेज दिये. न्यायपालिका के इस अभिनव प्रयोग की प्रशंसा नहीं की जा सकती. किसान आंदोलन के नाम पर दिल्ली घेरकर बैठे कुछ आंदोलनकारियों और असामाजिक तत्वों के धरने प्रदर्शन पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने जो रवैया अपनाया उससे भी न्यायपालिका की गरिमा की गंभीर क्षति हुई.

धारा 370 हटाने के विरोध में दायर की गई लगभग 40 याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने 16 दिन तक लगातार सुनवाई की. यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने धारा 370 हटाने पर मुहर लगा दी लेकिन संसद द्वारा पारित कानूनों की इतनी सूक्ष्म विवेचना और उस पर लगाए जाने वाले समय को कम किया जा सकता था.

मेरा अपना मत है कि पांच सात न्यायाधीशों की पीठ संसद, जो भारत के 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, द्वारा बनाये गए किसी कानून को निरस्त करने की हकदार नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय न्यायपालिका में तो सर्वोच्च है लेकिन देश में सर्वोच्च है, इस गलतफहमी से जितनी जल्दी हो सके बाहर आ जाने में ही उसकी और देश की भलाई है.

~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~