हिंदू समाज के 500 वर्षों से अधिक के अनवरत संघर्ष, लाखों पुण्यात्माओं की प्राणाहुति और करोड़ों श्रद्धालुओं की तपस्या के फलस्वरूप राममंदिर का भव्य स्वरूप एक बार फिर अयोध्या में अवतरित होने हेतु आतुर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जनवरी, 2024 को राम लला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के अंतिम आयोजन में भाग लेंगे और फिर करोड़ों भारतवासियों का सपना साकार हो जायेगा. अयोध्या को सतयुग में वैवस्वत मनु ने स्थापित किया था. यहाँ राम का जन्म हुआ था, यहाँ उन्होंने अपना बाल्यकाल बिताया और बनवास से वापस आने के बाद यहाँ के राजा भी बने. उनके राम राज्य को आज भी लोकतांत्रिक कल्याणकारी व्यवस्था का सर्वोत्तम मापदंड माना जाता है. 1528 के विध्वंश के बाद 22 जनवरी 2024 को पहली बार भगवान राम के बाल स्वरूप की पूजा अर्चना विशाल आधुनिक मंदिर में अत्यंत भव्यता के साथ होगी.
राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की तरफ से प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेने के लिए लगभग दस हजार अतिथियों को निमंत्रण पत्र भेजे गए हैं. इनमे राजनीति से लेकर खेल साहित्य सिनेमा सभी क्षेत्रों के व्यक्ति शामिल हैं. इसके अलावा तेरह अखाड़ों के महंत 6 दर्शनों दर्शनाचार्य, चारों पीठों के शंकराचार्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारी मंदिर निर्माण में लगे कारीगर मजदूर सेवा प्रदाता और कोठारी बंधुओं के माता पिता आदि को आमंत्रित किया गया है. राजनीति की जिन हस्तियों को बुलाया गया है उनमें सभी पूर्व प्रधानमंत्री, दोनों सदनों के नेता विपक्ष, राज्यों के मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय दलों के अध्यक्ष और प्रमुख राजनैतिक नेता शामिल हैं. जिनको आमंत्रित किया गया है उनमें से कुछ आएँगे और कुछ नहीं आएँगे लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो आना चाहते हैं लेकिन उन्हें निमंत्रण पत्र ही नहीं मिला है. राजनैतिक गलियारों में समारोह को लेकर अनावश्यक विवाद खड़ा किया जा रहा है.
निमंत्रित में जिन लोगों के आने से मना किया है उनमें वामपंथी सीताराम येचुरी तथा वृंदा करात हैं, जिन्होंने इस आधार पर आने से मना कर दिया है कि भाजपा और मोदी राममंदिर निर्माण और समारोह का राजनीतिकरण कर रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और एचडी देवगौड़ा स्वास्थ्य कारणों से नहीं आ सकेंगे, तो राम का अस्तित्व नकारने वाली कांग्रेस के नेता सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, खड्गे और अधीर रंजन चौधरी जैसे कांग्रेसी नेताओं के लिए धर्म संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है. अगर वे जाते हैं तो भाजपा के जाल में फंस जाएंगे और अगर नहीं जाते है तो उन पर हिंदू विरोधी ठप्पा लग जाएगा. समझा जाता है कि मुस्लिम वोटों के सहारे कर्नाटक और तेलंगाना में सत्ता प्राप्त करने वाली कांग्रेस के नेता किसी न किसी बहाने आने से परहेज करेंगे. केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन वोट बैंक तथा अन्य घोषित सनातन विरोधी होने के कारण समारोह में शामिल नहीं होंगे. सबसे अधिक हो हल्ला ऐसे दल मचा रहे हैं जिन्हें निमंत्रण नहीं दिया गया है, उनमें शिवसेना के उद्धव ठाकरे, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव शामिल हैं. राम मंदिर पर निर्णय के पूर्व सर्वोच्च न्यायालय से निर्णय न देने की गुहार लगाने वाले और राम को काल्पनिक बताने वाले कपिल सिब्बल मंदिर निर्माण से आहत तो बहुत हैं लेकिन कहते हैं कि राम उनके दिल में हैं.
श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने सामान्य जनमानस में अयोध्या में पूजित अक्षत का वितरण प्रारंभ कराया है, जो सुविधानुसार अयोध्या आने का निमंत्रण भी है और प्राण प्रतिष्ठा समारोह के दिन को त्योहार के रूप में मनाने का आग्रह भी है. इसको लेकर श्रद्धालुओं में खासा उत्साह है, जिससे स्पष्ट है कि सामान्य जनमानस ने सुविधानुसार अयोध्या आकर रामलला के दर्शनों का निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया है. प्राणप्रतिष्ठा समारोह का दिन निश्चित रूप से सभी के लिए ऐतिहासिक होगा. इस सन्दर्भ में ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय की यह टिप्पणी कि यह दिन 15 अगस्त 1947 जैसा ही महत्त्व पूर्ण है, सर्वथा उपयुक्त है.
2019 में राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद न्यास का गठन और उसके बाद मंदिर निर्माण की प्रक्रिया जितनी शीघ्रता और समर्पण की भावना से की गई है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है. इन प्रयासों का ही परिणाम है कि अयोध्या में रामलला का भव्य मंदिर इतने कम समय में बनकर तैयार हो गया है. अयोध्या के नियोजित विकास और आधारभूत संरचनाओं के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार के संबंधित विभाग भी प्रशंसा के पात्र हैं. योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री और गोरक्षनाथ पीठ के पीठाधीश्वर के रूप में अयोध्या में अनगिनत यात्राएं करके मंदिर निर्माण और विकास कार्यों की देख रेख और समीक्षा करने में जो अथक परिश्रम किया है, वह अपने आप में अतुलनीय और अनुकरणीय उदाहरण है.
वे सभी बहुत सौभाग्यशाली हैं जो निमंत्रण पाकर इस गौरवशाली क्षण के साक्षी बनेंगे लेकिन हम सभी सामान्य भारतीय भी परम सौभाग्यशाली हैं जिनके जीवनकाल में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हुआ. सब कुछ सपने जैसा लग रहा है क्योंकि जब देश मुगलों या अंग्रेजों के अधीन था तो मंदिर निर्माण अत्यन्त मुश्किल था लेकिन स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की स्वार्थपूर्ण राजनीति के कारण मंदिर निर्माण लगभग असंभव लगने लगा था. अब, जब जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है तो यह देश की स्वतंत्रता के कारण नहीं, राजनीतिक इच्छा शक्ति से निर्मित कानून द्वारा भी नहीं, और बहुसंख्यक हिन्दुओं की ज़ोर जबरदस्ती द्वारा भी नहीं हो रहा है, बल्कि यह सर्वोच्च न्यायालय के 2019 में दिए गए निर्णय द्वारा बन रहा है.
सभी को मालूम है कि 1528 में मुस्लिम आक्रांता बाबर ने भगवान श्री राम के जन्म स्थान पर बने भव्य मन्दिर को तोड़ा था. उसका इरादा मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाना नहीं था क्योंकि उस समय अयोध्या में एक भी मुसलमान नहीं था. अजेंडा धारी इतिहासकारों द्वारा बताये जाने वाले इस झूठ में कोई दम नहीं है कि मुस्लिम आक्रांता हिंदू मंदिरों को लूटपाट के इरादे से तोड़ते थे. अगर ऐसा होता तो सोमनाथ मंदिर को 17 बार क्यों तोड़ा जाता. तोड़े गए मंदिर के स्थान पर मंदिर न बनाए जा सके इसलिए इन आक्रांताओं ने मंदिर तोड़कर उस जगह को अपने कब्जे में लेने के उद्देश्य से उलटा सीधा निर्माण किया. राम मंदिर के संदर्भ में मस्जिद पक्ष ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका कि 1528 से 1858 तक 330 वर्षों की अवधी में उनका किसी भी तरह का अधिकार था जबकि अंग्रेजों के राजस्व रिकॉर्ड तथा अन्य विदेशी यात्रियों के संस्करणों में हिंन्दुओं द्वारा पूजा अर्चना का उल्लेख है और हर जगह यह जन्म भूमि के नाम से संदर्भित है. यहाँ तक कि अकबर ने हनुमान टीला को छह बीघा जमीन का जो पट्टा दिया था उसमें भी इस स्थान को जन्मस्थान के रूप में संदर्भित किया गया है. 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने अवध का शासन अपने अधीन कर लिया था और इसके बाद ही विवाद और मुकदमें शुरू हुए और 15 अगस्त 1947 तक लगभग 90 वर्ष की अवधि में अनेक मुकदमें दर्ज हुए लेकिन मस्जिद पक्ष स्वामित्व प्रमाणित करने के लिए एक भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं करा सका.
2019 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसला दिए जाने तक अगर कोई नया साक्ष्य शामिल हुआ था तो वह था भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट जिसमें स्पष्ट उल्लेख था कि कथित मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष उपलब्ध है. न्यायालय द्वारा जिन साक्ष्यों का संज्ञान लिया गया वह सब पहले से ही उपलब्ध थे, जिनमें अंग्रेजी शासन के राजस्व रिकॉर्ड, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांत और आक्रान्ताओं द्वारा स्वयं लिखवाई गई पुस्तकें थी. पुरातत्व रिपोर्ट ने उपलब्ध साक्ष्यों को और मजबूती प्रदान की. जिनके आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर पक्ष को भूमि का स्वामित्व सौंपा. चूँकि कथित मस्जिद का विलोपन हो गया था इसलिए मस्जिद के निर्माण के लिए अन्यत्र भूमि उपलब्ध कराने की व्यवस्था भी की. मुस्लिम पक्ष को भी यह मालूम था कि यह राम जन्म भूमि है और उनके पास स्वामित्व का कोई प्रमाण नहीं है. इसलिए यह स्थान हिंदुओं को दे देना चाहिए लेकिन तत्कालीन सरकार तथा उनके शैक्षणिक सलाहकार और मार्गदर्शक वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. सरकार के संरक्षण में उन्होंने झूठे विमर्श गढ़े, गलत बयानी की और इतिहासकार के रूप में न्यायालय में भी खड़े होकर न्याय प्रक्रिया को गुमराह और विलंबित करने का हर संभव प्रयास किया. अंततोगत्वा सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय निर्णय सुनाया जिससे अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ.
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला बहुत सीधा और सरल है. अगर इसका गहन अध्ययन करें तो एक प्रश्न अवश्य उभरता है कि यह विवाद इतना लम्बा क्यों खींचा गया, जब साक्ष्य थे तो ये फैसला 60-70 वर्ष पहले क्यों नहीं किया जा सकता था. विवाद जान बूझ कर खींचा गया और सांप्रदायिकता का विषाक्त वातावरण बनाया गया. इससे देश को बचाया जा सकता था. राम मंदिर का न्याय निर्णय और निर्माण, अब इतिहास हो रहा है लेकिन अन्य महत्त्व पूर्ण मंदिरों यथा ज्ञानवापी और कृष्णा जन्म भूमि का निर्णय भी इसी तरह किन्तु यथा शीघ्र हो इसका प्रयास होना चाहिए जिससे सांप्रदायिक कटुता की विषाक्तता से देश को बचाया जा सके.
~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
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