शनिवार, 29 जुलाई 2023

विपक्ष का इंडिया, न इंडिया और न भारत

 



विपक्ष का इंडिया, न इंडिया और न भारत

 

विपक्षी एकता की जो बैठक बैंगलोर में हुई उसका सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही की कांग्रेस ने अपने गठबंधन के पुराने नाम यूपीए से मुक्ति पा ली क्योंकि यूपीए भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता का पर्याय बन कर पूरी दुनिया  कुख्यात हो गया था. इसलिए कांग्रेस ने इस गठबंधन का नाम इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायन्स (आई.एन.डी.आई.ए.) जिसका छोटा रूप इंडिया होता है, रख लिया. बताया गया है कि इंडिया नाम का सुझाव राहुल गाँधी ने दिया था लेकिन  बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि यह नाम आया कहाँ से. दरअसल राहुल गाँधी और कांग्रेस को चुनाव में विजय दिलाने के उद्देश्य से इस समय कई विश्व स्तरीय सलाहकार फर्म काम कर रही है, जो  इस तरह के सनसनीखेज, आई कैचिंग और भावनात्मक मुद्दों को ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल करने के लिए चुनाव तक सुझाव देती रहेंगी. अमेरिकन फर्मों  का समन्वय सैम पित्रोदा कर रहे हैं, वहीं  से यह सुझाव आया.

इंडियन नाम रखने के पीछे एक और कारण बताया जा रहा है कि इस नाम को भाजपा के राष्ट्रवाद की काट के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा. इससे गठबंधन राष्ट्रभक्ति ओत प्रोत दिखाई पड़ेगा तब  इंडिया बनाम भाजपा, इंडिया बनाम मोदी, इंडिया बनाम एनडीए  आदि के नारों के साथ मोदी के राष्ट्रवाद को पीछे ढकेला जा सकेगा और  “सबका साथ, सबका विकास, जैसे लोकप्रिय नारे  की धार को कुंद किया जा सकेगा. कांग्रेस तथा उसके गठबंधन साथियों ने पहले दिन से ही इस मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया और चक दे इंडिया, जीतेगा इंडिया आदि प्रतीकात्मक नारों से गठबंधन को राष्ट्रवाद से जोड़ने की कोशिश शुरू कर दी. इन दलों को ऐसा लगता है कि  कोई भी राष्ट्रभक्त इंडिया का कोई विरोध नहीं कर सकेगा तथा इंडिया नाम के कारण ही 2024 के लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार हो जाएगी. गठबंधन के कई छोटे छोटे दल तो इतने खुश हैं कि उन्हें लगता है जैसे सरकार बनने ही वाली है.

गठबंधन के इस इंडिया नाम से भ्रम तो फैलेगा ही लेकिन यह अन्यथा भी आपत्तिजनक है और कानून का उल्लंघन भी. गठबंधन के नेता इंडियन नाम पर जश्न मना रहे हैं और इसे उचित भी ठहरा रहे हैं कि  फिर मोदी ने मेक इन इंडिया क्यों बनाया, स्किल इंडिया क्यों बनाया, अटल सरकार ने शाइनिंग इंडिया नाम क्यों दिया. ये तर्क नहीं कुतर्क है. कांग्रेस के इस इंडिया की तुलना संविधान में वर्णित इंडिया दैट इज भारत से की जा रही है और डुगडुगी पीटी जाने लगी है  कि अब मोदी का मुकाबला इंडिया से है. इस संबंध में दिल्ली में एक एफआईआर दर्ज की गई है और समझा जाता है कि कई एडवोकेट पीआईएल दाखिल करने की तैयारी कर रहे हैं. 1950 के “दी एम्ब्लेम्स एंड नेम्स (प्रीवेंसन ऑफ इम्प्रॉपर यूज़ ) एक्ट, 1950 में  यह कानूनी प्रावधान है कि इंडिया नाम व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता है, जहाँ कहीं इस नाम का उपयोग किया जाता है उसमें इंडिया के साथ आगे या पीछे कुछ और शब्द जोड़ने चाहिए ताकि  ऐसा भ्रम न रहे की ये राष्ट्रीय संगठन है जो इंडिया का प्रतिनिधित्व करता है. तकनीकी तौर पर देखा जाए तो विपक्षी गठबंधन का ये इंडिया किसी राजनीतिक पार्टी का नाम नहीं है ये राजनीतिक पार्टियों के गठबंधन का शार्ट फार्म या छोटा रूप है, और इसका इंडिया या भारत से कोई लेना देना नहीं है. लेकिन, अगर विपक्षी गठबंधन केवल ‘INDIA’ नाम से किसी संस्था, वेबसाइट, कंपनी या संगठन को रजिस्टर कराने जाता है तो उसके विरुद्ध कार्रवाई संभव है और तब कानूनी प्रावधान के अनुसार इस  नाम के इस्तेमाल करने पर रोक लगाई जा सकती है. अगर ये मामला कोर्ट में जाता है तो भी शायद गठबंधन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि उस समय इसे आई.एन.डी.आई.ए. के रूप में बताया जाएगा. निश्चित रूप से इस  भ्रम का फायदा कांग्रेस उठाएगी. चुनाव में इस तरह के  भावनात्मक प्रतीकों, नारों का इस्तेमाल करना कांग्रेस को बहुत अच्छी तरह से आता है. कांग्रेस का चुनाव चिन्ह पहले दो बैलों की जोड़ी, उसके बाद बछड़े को दूध पिलाती गाय और उसके बाद आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ. इस तरह इंडिया शब्द से कुछ न कुछ फायदा तो गठबंधन को जरूर होगा.

विपक्षी  दलों की बंगलुरु मीटिंग को अगर देखा जाए तो कांग्रेस ने बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से  केसीआर, केजरीवाल और ममता बनरजी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनने से रोकने के लिए नीतीश कुमार का इस्तेमाल किया और बड़े सलीके से गठबंधन की बागडोर अपने हाथ में ले ली. नीतीश कुमार नाराज बताए जाते हैं क्योंकि उनको यह एहसास हो गया है कि उनका इस्तेमाल किया जा रहा है. इस बैठक में पवार भी पावरलेस दिखाई पड़े. इसकी संभावना बहुत प्रबल है कि अगर सुप्रिया सुले को लेकर प्रधानमंत्री की तरफ से कोई बड़ा आश्वासन दिया जाता है तो शरद पवार को लुढ़कने में बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा.

ममता बेनर्जी ने राहुल को अपना फेवरेट बताकर सरेंडर कर दिया. राहुल को 2 साल की सजा हुई है, और अगर यह बरकरार रहती है तो वह  6 साल तक चुनाव नहीं लड सकेंगे फिर भी उनको ले कर कांग्रेस और दूसरे दल इतना सकारात्मक कैसे है. क्या उन्हें  लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय राहुल गाँधी को राहत दे ही देगा. केजरीवाल के साथ दिल्ली और पंजाब का मसला है, कांग्रेस दिल्ली पूरी तरह से केजरीवाल के  हवाले करने के लिए तैयार हैं लेकिन पंजाब के रोड़ा  है. सजायाफ्ता लालू यादव का भरपूर साथ कांग्रेस को मिल रहा है क्योंकि क्योंकि नीतीश कुमार को कांग्रेस का एजेंट बनाने में उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. गठबंधन के अन्य छोटे दलों  की केंद्रीय महत्वाकांक्षा नहीं है और कांग्रेस पर आश्रित रहेंगे क्योंकि उन्हें तो भाजपा से अपना हिसाब किताब बराबर करना है. चाहे फारूक अब्दुल्ला हो, महबूबा मुफ़्ती, मुस्लिम लीग या कम्युनिस्ट पार्टियां, मोदी समान रूप से सबके निशाने पर हैं. मुंबई में होने वाली आगामी बैठक में सब कुछ कांग्रेस प्रयोजित ही होगा और गठबंधन का नेतृत्व पूरी तरह से कांग्रेस के हाथों में आ जाएगा. सीटों का बंटवारा होने के पहले ही कांग्रेस गठबंधन के साथी दलों को यह संदेश देना चाहती है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके कितने सहयोगी हैं जो हर हाल में में मोदी को हटाना चाहते हैं.

आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक सोशल मीडिया तथा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विमर्श बनाने वाली सलाहकार फार्मों द्वारा  गठबंधन के “इंडिया” का जमकर प्रचार किया जाएगा ओर इसे राष्ट्रवादी प्रतीक चिन्ह के रूप में मोदी के विरुद्ध खड़ा किया जाएगा. मोदी विरोध में तड़प रहे गैर सरकारी संगठन और जॉर्ज सोरोस का टूलकिट गैंग भारत में मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है. आने वाले दिनों में भाजपा शासित राज्यों में दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ नाटकीय घटनाएं होने की संभावना है, जिसका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस को राजनीतिक फायदा पहुंचाना हो सकता है. सबसे अधिक वे राज्य प्रभावित होंगे जहाँ विधानसभा के चुनाव होने हैं और जहाँ लोकसभा की सीटों की संख्या अधिक है.

मणिपुर में हो रही हिंसा भी राजनैतिक प्रभाव से मुक्त नहीं मानी जा सकती विशेषतय: तब, जब विपक्ष लगातार मणिपुर हिंसा के नाम पर मोदी की महत्वपूर्ण और काफी पहले से निर्धारित विदेश यात्राओं को भी राजनीतिक दुष्प्रचार का केंद्र बनाता रहा हो. मणिपुर में 4 मई को हुई वीभत्स और अमानवीय घटना का वीडियो सोशल मीडिया में संसद के मानसून सत्र के ठीक एक दिन पहले वायरल किया गया, जिसका निहितार्थ समझना मुश्किल नहीं है. संसद के अंदर और बाहर जमकर कोहराम मचना स्वाभाविक था. विपक्ष को संसद की कार्यवाही बाधित करने का एक मुद्दा मिल गया और भाजपा और मोदी को जिम्मेदार बता कर देश दुनिया में दुष्प्रचार कर मोदी की छवि धूमिल करने का मौका भी मिल गया.

मणिपुर के वीडियो पर  सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकार को सख्त किन्तु असामान्य चेतावनी दी जिसने विपक्ष के हौसले और बुलंद कर दिए. यद्यपि मणिपुर की घटना पूरे देश को शर्मसार करने वाली है लेकिन ऐसी अनेक घटनाएं पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव, और पंचायत चुनाव में भी हुई. राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी हुई लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने कभी स्वतः संज्ञान नहीं लिया. ये मानने का कोई कारण नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी में कोई राजनीतिक संदेश छिपा होगा, लेकिन सोशल मीडिया में यह अफवाह बहुत दिनों से गर्म है कि सर्वोच्च न्यायालय 2024 के लोकसभा चुनाव का अजेंडा तय करेगा. राहुल गाँधी की सजा , धारा 370, दिल्ली सरकार ऑर्डिनेंस जैसे कई महत्वपूर्ण मामले सर्वोच्च न्यायालय विचाराधीन हैं जिनके निर्णय सरकार के विरुद्ध आने की संभावना व्यक्त की जा रही है.

केंद्र और राज्य सरकारों, खासतौर से भाजपा शासित को बहुत  सतर्क रहने की आवश्यकता है ताकि राजनीतिक उद्देश्य के लिए सांप्रदायिक और जातिगत विद्वेष भड़काने वाली घटनाएँ  प्रयोजित न की जा सके जिससे राष्ट्र  की एकता, अखंडता और अस्मिता को अक्षुण रखा जा सके.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~



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