मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

केजरीवाल आतंकवादियों से हाथ क्यों मिलाते हैं?

सत्ता का सिंहासन अरविंद केजरीवाल के लिए के लिए एक ऐसा नशा हो गया है, जिसे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकते हैं आतंकवादियों से संबंध भी बना सकते हैं और खुद भी आतंकवादी बन सकते हैं. कुछ भी कर सकते हैं. ( ये जानते हुए भी कि आपके पास पढने के लिए समय नहीं होता, मैं विस्तार से लिख रहा हूँ )

अब तो उन्होंने स्वयं भी स्वीकार कर लिया है कि वह एक प्यारे आतंकवादी (स्वीट टेररिस्ट), हैं जिसने अस्पताल बनवाए हैं, स्कूल कॉलेज बनवाए हैं, लोगों की भलाई के लिए मुफ्त में चीजें दी हैं. आदि आदि.

यह सब उन्होंने कुमार विश्वास द्वारा किए गए खुलासे के कई दिन बाद बहुत सोच विचार के बताया लेकिन फिर भी कुमार विश्वास के आरोपों पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा.

शातिर राजनीतिज्ञ की तरह अपने ऊपर लगे आरोपों को ही हथियार बना लिया. कुछ लोग कह सकते हैं कि कुमार विश्वास ने चुनाव के वक्त ही यह सब क्यों बताया तो इसका जवाब कुमार विश्वास ने स्वयं दिया और यूट्यूब पर उनका वीडियो भी उपलब्ध है कि उन्होंने लगभग 2 साल पहले यह घटना बताई थी लेकिन उस समय किसी ने इसका संज्ञान नहीं लिया और अब क्योंकि चुनाव हो रहे हैं लोगों ने इस आरोप को हाथों हाथ ले लिया.

केजरीवाल ने दिल्ली के मतदाताओं को मुफ्त में कई चीजें देने की घोषणा की थी और कुछ दिया भी. वही सब घोषणाएं पंजाब में चुनाव के पहले की.

प्रश्न यह है कि जब आम आदमी समझता है कि यह सब कुछ अच्छा नहीं, देश हित में नहीं, तो फिर केजरीवाल ऐसा क्यों करते हैं ?

इसे समझने के लिए हमें यह जानना जरूरी है यह केजरीवाल पढ़े-लिखे चालाक व्यक्ति हैं और सत्ता के लालची भी लेकिन ऐसा करने वाले वह न तो भारत के पहले व्यक्ति हैं और न हीं विश्व के. अनेक देशों में ऐसा ही कुछ हो चुका है, सत्ता के संघर्ष में कई देश बिखर चुके हैं, लेकिन सत्ता प्राप्त करने वालों ने कभी इसकी चिंता नहीं की. एक ऐसा ही उदाहरण सोवियत रूस का है और वह है लेनिन का ?

रिचर्ड पाइप्स एक अमेरिकन इतिहासकार हैं जिन्होंने रूसी क्रांति पर एक किताब लिखी है जो पूरे विश्व में बहुत प्रसिद्ध है. इस पुस्तक का नाम है "थ्री व्हाईस ऑफ दि रशियन रिवॉल्यूशन" (Three Whys of the Russian Revolution) . इस पुस्तक में लेनिन के बारे में जो कुछ भी बहुत पहले लिखा गया है, वह काफी हद तक अरविंद केजरीवाल से मिलता जुलता है .

मेरे कहने का मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि अरविंद केजरीवाल इस किताब को पढ़कर लेनिन की कॉपी कर रहे हैं. इस किताब के पेज संख्या 44 और 45 के संबंधित भाग की फोटो नीचे है जिसके हाई लाइट को ध्यान से पढ़िए

( इसका हिन्दी में मतलब है कि लेनिन को अपने देश की बिल्कुल चिंता नहीं थी वह किसी भी व्यक्ति को कुछ भी देने के लिए तैयार रहता था और इसमें बिल्कुल भी दिमाग नहीं लगाता था कि क्या होगा क्योंकि उसे विश्वास था कि लूट की लूट बड़ी बात नहीं, स्वयं खत्म हो जाएगी और सब कुछ अपने आप समाप्त और सामान्य हो जाएगा .

उसे मलूम था कि देश के अल्पसंख्यक स्वतंत्रता मांग सकते थे, आत्म निर्णय के अधिकार की मांग कर सकते थे, अलग राज्य बनाने की मांग कर सकते थे, इसके लिए वह गारंटी भी देने के लिए तैयार था. इसके पीछे धारणा यह थी ऊपर बैठे लोग इस पर खुद जो करना है करें.

यह सब उसके लिए वरदान सिद्ध हुआ क्योंकि उससे प्रतियोगिता करने वाला कोई राजनेता नहीं था, कर भी नहीं सकता था. अपना उल्लू सीधा करने के लिए वह किसी के भी साथ सांठगांठ करने के लिए तैयार था चाहे वे विदेशी शक्तियां ही क्यों न हों, और देश गुलाम क्यों न हो जाए.

जर्मनी ने फ्रांस और इंग्लैंड के गद्दारों को भी अपने साथ मिलाने के लिए इस तरह की कोशिश की थी.)

केजरीवाल क्या कर सकते हैं क्या नहीं कर सकते हैं, इसका फैसला आप स्वयम कर सकते हैं लेकिन सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि भारत में शिक्षा का स्तर अभी भी जागरूकता के स्तर पर नहीं पहुंच पाया है और इसलिए न तो लोग ज्यादा पढ़ते / लिखते हैं और न ही चीजों को सही परिपेक्ष में समझने की कोशिश करते हैं.

ऐसा न करने देने के लिए बहुत सारी शक्तियां हर जगह सक्रिय रहती हैं, कोरा पर भी, जो आपके लिखने, पढने और सोचने की दिशा बदल देते हैं . आप चटनी और चाय बनाने, पानी पीने की विधि जानने और आज क्या देखा, क्या नहीं देखा में उलझ जायेंगे और अपना कीमती समय बर्बाद करेंगे . कभी दिल दिमाग लगायेंगे तो कोरा मॉडरेटर बीच में आ जाएगा, क्यों कि कोरा का अपना एजेंडा है.

जब राष्ट्रहित में अपेक्षित एक जैसी विचारधारा रखने वाले शिक्षित लोगों के बीच भी विभाजन होगा, तो देश को विभाजित होने में कितना समय लगेगा?

References- Three Whys of Russian Revolution by Richard Pipes


हिजाब के पीछे क्या है ?

 हिजाब न कभी मुद्दा था और न इस समय है, इस्लामिक राष्ट्रों में भी इस पर इस कदर  यह एक बहुत बड़ी अंतराष्ट्रीय  साजिश का हिस्सा है, जो संभवत तथाकथित  धर्मनिरपेक्ष और बहुतायत  हिंदुओं को समझ में नहीं आएगा. कर्नाटक उच्च न्यायलय ने हिजाब की अनुमति के लिए 4 मुस्लिम छात्राओं की ओर से दायर एक याचिका विचारार्थ  स्वीकार कर ली किन्तु  तुरंत कोई राहत देने से इंकार कर दिया और साथ ही निर्णय आने तक किसी भी विद्यालय में हिजाब पर रोक लगा दी है. इससे निराश कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए और उन्होंने उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाने और इस पर तुरंत सुनवाई की मांग की. सर्वोच्च न्यायालय ने तुरंत सुनवाई से इनकार करते हुए एक स्थानीय मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा न बनाने का अनुरोध किया. 


हिजाब विवाद की शुरुआत भले ही अभी हाल की दिखाई पड़ती हो लेकिन इसकी तैयारी सितंबर २०२१  से की जा रही थी जब पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया  की सहयोगी संगठन केंपस फ्रंट ऑफ इंडिया ने कर्नाटक के विद्यालयों में सदस्यता अभियान शुरू किया. ये तथा कथित पीड़ित  चारों लड़कियां सितंबर माह से ही केंपस फ्रंट ऑफ इंडिया की सदस्य हैं और ट्विटर पर उनके हैशटैग अभियान का हिस्सा हैं और उसके सभी देश विरोधी ट्वीट को कॉपी पेस्ट करके ट्वीट करती  हैं. पीएफआई और सीएफआई दोनों ही शाहीन बाग और उसकेबाद  दिल्ली दंगे की तर्ज पर ही हिजाब विवाद को फैलाकर राष्ट्रीय बनाने की कोशिश की  है. 
अतीत में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा उन्हें  मिले  समर्थन के प्रति आश्वस्त इन संगठनों इन चारों में से एक  मुस्लिम लड़की के साथ अल्लाहुअकबर करते हुए वीडियो शूट किया जिसे वायरल किया गया. भगवाधारी युवकों के बारे में छानबीन की जा रही है लेकिन पुलिस का अनुमान है इसमें भी कई लड़के भी फ़िल्मी है. इनका एक निर्देशक इन युवकों को नियंत्रित करता हुआ देखा जा सकता है. हड़बड़ी में शूट किए गए इस वीडियो में फिल्मकार इस लड़की को चप्पल पहनाना और किताबें देना भूल गए और इस वीडियो की असलियत और उसके पीछे छिपी साजिश का पता लगाने में महत्वपूर्ण सूत्र बने.   

भारत का इतिहास जानबूझकर ऐसा लिखा गया था जिससे  बहुसंख्यक हिंदूओ को वास्तविकता से कभी परिचित न होने दिया जाए और सनातन संस्कृति और हिंदूओं  के सर्वमान्य तथ्यों को इस प्रकार  गलत ढंग से प्रस्तुत किया जाए ताकि वे कभी न असलियत जान सकें और  न हो सके. समाज की  इसी बुराई के कारण ही भारत को मुस्लिम आक्रांताओं का गुलाम होना पड़ा और बाद में अंग्रेजों का भी. इन दोनों मामलों में एक बात समान थी कि दोनों ने ही हिंदुओं में फूट डालकर हिंदुओं के माध्यम से ही हिंदुओं पर शासन किया. अन्यथा क्या इतनी विशाल आबादी वाले देश पर कुछ हजार सैनिकों वाले मुस्लिम आक्रांता और केवल  ४-५ हजार  अंग्रेज अपना शासन स्थापित कर पाते ?

1857 में जब स्वतंत्रता का  प्रथम संग्राम हुआ तो भारत के स्वतंत्र होने की संभावना बहुत ज्यादा थी क्योंकि यह सशस्त्र सैन्य विद्रोह के कारण शुरू हुआ था लेकिन हिंदू मुस्लिम विवाद खड़ा हो गया. मुस्लिम नेताओं का मत था की स्वतंत्रता के बाद अगर सकता हिंदुओं के हाथ में जाती है तो मुस्लिमों को क्या मिलेगा अगर संघर्ष के बाद हिंदुओं के अधीन ही रहना है तो अंग्रेजों के अधीन रहना क्या बुरा है. आंदोलन शुरू होने के पहले ही खत्म ना हो जाए इसलिए हिंदू नेताओं ने मुस्लिम नेताओं को मनाने की कोशिश की तो उन्होंने शर्त रख दी कि  स्वतंत्रता के बाद दिल्ली का  सिंहासन उसी को मिले जिससे अंग्रेजों ने छीना है, यानी मुगलों को. यह भी एक शर्त थी  कि आंदोलन का नेतृत्व भी कोई मुस्लिम ही करें. 

अंग्रेजों से छुटकारा पाने के लिए हिंदू  नेताओं ने  समझौता कर लिया. इस प्रकार आंदोलन का नेतृत्व दिल्ली के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय के हाथों में दे दिया गया. उस समय उनकी उम्र 80 वर्ष के लगभग थी और  वह अपने पजामें  का नाड़ा भी अपने हाथ से नहीं बांध पाते थे.  इसलिए आंदोलन की सफलता तो संदिग्ध हो ही गई थी लेकिन इससे भी आगे बढ़कर बहादुर शाह जफर ने अपने स्वार्थ के कारण आंदोलनकारियों के साथ गद्दारी की और आंदोलनकारियों की  गतिविधियों की सारी सूचनाएं अंग्रेजों को प्रेषित करने लगे. लाल किला जिस पर उनका मालिकाना हक था, ₹1लाख पर अंग्रेजों को सैनिक छावनी के लिए किराए पर दे दिया. 

1885 में अंग्रेजों ने कांग्रेस की स्थापना भारतीयों को लटकाने भटकाने के लिए की थी ताकि स्वतंत्रता चाहने वालों को बातचीत के लिए एक मंच उपलब्ध करा दिया जाए जिससे 1857 जैसा विद्रोह पुनः ना उभर सके. अंग्रेजों ने कांग्रेस में उन्हीं नेताओं को उभरने दिया पर महत्त्व दिया जो उनके काम के थे. जातियों में बटे हिंदू समाज को विभाजित करने के अतिरिक्त अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच भी खाई बढ़ाने का काम किया. इसका परिणाम यह हुआ कि मुस्लिमों के लिए अलग देश की मांग उठाई गई. खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस के समर्थन न देने से गुस्साए एक मुस्लिम नेता जौहर अली (जिनके नाम से आजम खान ने रामपुर में एक निजी विश्वविद्यालय की स्थापना की है) ने अफगानिस्तान के शासक को पत्र लिखा कि वह हिंदुस्तान पर आक्रमण कर दें और हिंदुस्तान के सभी मुस्लिम उनका साथ देंगे.

पाकिस्तान के रूप में अलग देश की मांग स्वीकार हो जाने के बाद भी मुस्लिम संतुष्ट नहीं थे और उस समय मुस्लिम लीग के एक बड़े नेता ने कहा कि पाकिस्तान उनकी आखिरी मांग नहीं है. मुस्लिमों को एक  बड़े नेता और शायर अल्लामा इकबाल, जिनकी तराने ज्यादातर भारतीय गुनगुनाते हैं उनका असली गाना इस प्रकार था-  "चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा" हालांकि बाद में बहुत दबाव पड़ने पर उन्होंने बदलाव किया  लेकिन फिर भी उनके दिल में था वह निकलता जरूर था  "हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का इशारा, सज्दा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर" .  इसमें इकबाल को दोष देना बेकार है क्योंकि यह इस्लाम के अनुसार ही है, जिसका पालन करते हुए कई देश इस्लामिक बना दिए गए और  इस्लाम की उत्पत्ति के बाद आज पूरी दुनिया में  ५७ मुस्लिम देश हैं और दुनियां की  दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुसलमानों की है.

 यह तब तक चलता रहेगा जब तक पूरी पृथ्वी पर दुनिया के सभी देश मुस्लिम शासित नहीं हो जाते. गजवा ए हिंद की परिकल्पना इसी दिशा का एक छोटा सा कदम है. कश्मीर और केरल में प्रयोग किए गए और इन प्रयोगों को पश्चिम बंगाल सहित अन्य राज्यों में दोहराया गया. इस तरह के प्रयोग जहां जहां संभव हैं वहां किए जायेंगे  और इनसे उपजी परिस्थितियों का राजनीतिक दोहन और समर्थन करने  तथा अपनी राजनैतिक शक्ति बढ़ाने के लिए  छोटे बड़े मुस्लिम नेता देश में चारों तरफ घूम रहे हैं. चाहे चुनाव हो,  सोशल मीडिया, टीवी या इलेक्ट्रोनिक मीडिया या कुछ और  हो, सभी जगह अलग तरह की आवाज बुलंद की जा रही है.  सभी राजनीतिक दल वोटों  के लालच में इन्हें  समर्थन भी दे रहे हैं, भाजपा एकमात्र इसका अपवाद  है इसलिए वैश्विक रूप से मोदी और भाजपा के विरुद्ध सुनियोजित अभियान चला कर लांछित भी किया जा रहा  है.  

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में देशभर के मुल्ला और मौलवी भाजपा के विरुद्ध तकरीरे कर रहे थे और उन्हें अपने उद्देश्य में सफलता भी मिली. इस सफलता से उत्साहित होकर ही पांच राज्यों के चुनाव में प्रभाव  देखने  के उद्देश्य से और कर्नाटक विधानसभा के आगामी चुनाव को ध्यान में रखते हुए सांप्रदायिक विवाद खड़ा किया गया है. यह बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय साजिश है जिसके अंतर्गत अन्य देशों में भी भारत की सनातन संस्कृति की  सहिष्णुता को  अपमानित करने के लिए इस मुद्दे को तूल दिया जा रहा है. 

 देश में हर छोटे  बड़े शहर में प्रदर्शन हो रहे हैं और कांग्रेश, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस सहित लगभग सभी दलों ने हिजाब की मांग का समर्थन किया  है और यह दल इन प्रदर्शनों में बढ़-चढ़कर भाग भी ले रहे हैं. एक छोटी सी जगह उडुपी से उठाये गए  इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर सफलतापूर्वक प्रसारित कर दिया गया है. यह भविष्य में घटने वाली किसी  बड़ी योजना का एक छोटा सा प्रयोग है कि  कैसे किसी छोटी सी स्थानीय घटना को व्यापक रूप दिया जा सकता है. नई  दवाइयां और सॉफ्टवेयर के प्रयोग ऐसे ही किए जाते हैं. यह अप्रत्यक्ष रूप से देश की न्याय व्यवस्था को भी प्रभावित करने की कोशिश है.  भारत सरकार को इस मुद्दे को अत्यंत गंभीरता से लेना चाहिए. 

जब  देश में हिजाब की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन हो रहे हैं, पूरा देश आक्रोशित है, यह उचित समय है कि  सरकार को समान नागरिक संहिता कानून  लागू करने की दिशा में तुरंत आगे बढ़ना चाहिए. अगर वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो इस तरह की घटनाएं  हर उस देश में हुई थी, जो आज मुस्लिम  देश हैं. वहां भी  इस तरह की छोटी-छोटी घटनाओं को बड़ा बनाकर धरना प्रदर्शन और मजहबी  एकजुटता बनाने का काम होता रहा है. मजहब को खतरे में बताया जाता रहा है, विक्टिम कार्ड भी खेला जाता रहा है और इसके साथ सरकार पर दबाव बनाकर ज्यादा से ज्यादा अधिकार हासिल करने, संसाधनों पर कब्जा करने और जनसंख्या बढ़ाने का काम भी अनवरत किया जाता  रहा है.  धीरे-धीरे कितने ही ऐसे देश आज इस्लामिक राष्ट्र बन गए हैं. भारत इस वैश्विक षड्यंत्र का अगला निशाना है. 

विभाजन के बाद भारत में लगभग तीन करोड़ मुसलमान और 30 करोड़ हिन्दू  थे जो अब बढ़ कर  क्रमश:  30 और 100 करोड हो गयी है और अल्पसंख्यकों का अनुपात १०% से बढ़कर ३०% हो गया है. यदि अन्य देशों के  उदाहरण ध्यान में रखे  जाए तो हिंदू और मुस्लिम जनसंख्या का प्रतिशत धीरे-धीरे उस स्तर पर जा रहा है जहां से अन्य  देशों  में आंतरिक अव्यवस्था फैलाकर मजहबी प्रभुत्व बढ़ाने की कोशिश होती है. गांव कस्बों और राज्यों पर कब्जा करते हुए पूरे देश पर कब्जा कर लिया जाता है.

भारत में स्थिति अत्यंत  दुखद  और दुर्भाग्य पूर्ण है. राजनीतिक और अन्य कारणों से हिंदू समाज में विभाजन पहले से और अधिक गहराता जा रहा है. राजनीतिक दल अपने स्वार्थ में अंधे होकर भविष्य में  आने वाले बड़े संकट को अनदेखा कर रहे हैं. सभी देशभक्तों,  चाहे वह किसी भी  धर्म के क्यों न हों, विशेषतय: सनातन धर्मियों को, तुरंत सचेत होने की आवश्यकता है अन्यथा आने वाले संकट को टालना बहुत मुश्किल हो जाएगा.
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गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

भारत में बनेगी हिजाबी प्रधान मंत्री

  भारत में बनेगी हिजाबी प्रधान मंत्री : यह खतरे का आगाज ही नहीं, बल्कि खतरा आपके सामने मुहं बाए खड़ा है.

वैसे तो असदुद्दीन ओवैसी दादा / परदादा मंगेश ब्राह्मण थे, लेकिन धर्मांतरण के बाद ओवैसी परिवार का आचरण हिंदुस्तान और हिंदुओं के लिए तैमूर लंग से कम नहीं रहा है. ओवैसी का संबंध हैदराबाद के रजाकार संगठन से है, जो हैदराबाद में निजाम के इशारे पर हिंदुओं पर अत्याचार करता था और उन्हें मौत के घाट उतारता था. ओवैसी के पिता मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन के अध्यक्ष थे, जिसने रजाकार संगठन के साथ मिलकर हैदराबाद रियासत के भारत में विलय का विरोध किया था.

यह सभी हैदराबाद को स्वतंत्र देश बनाना चाहते थे या फिर उसका विलय पाकिस्तान में करना चाहते थे. हिंदुओं के खून खराबा और मारकाट से भरा यह विरोध उतना ही उग्र था जैसा कि देश का विभाजन. इस कारण भारत को स्वतंत्रता मिलने के एक साल बाद अक्टूबर 1948 में सेना की कार्यवाही के बाद ही हैदराबाद का भारत में विलय किया जा सका.

इसके बाद रजाकार संगठन और मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन पर प्रतिबंध लगा दिया गया. 1957 में इनके पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने इस पार्टी को दोबारा शुरू किया पार्टी के नाम में आल इंडिया जोड़कर इसे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन कर दिया.

नाम बदलने के बाद भी पार्टी की सोच आज भी बेहद संकीर्ण संप्रदायिक और पाकिस्तानी विचारधारा की है. ये सब हिंदुस्तान में इसलिए नहीं है कि इनके दिल बदल गए या इन्होंने अलगाववादी प्रवृत्ति छोड़ दी बल्कि इसलिए हैं कि इनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है और जिस दिन विकल्प होगा यह फिर एक नये देश की मांग करेंगे. इस लिए इनकी पार्टी बीच-बीच में 15 मिनट के लिए पुलिस हटाने, 15 करोड़ मुसलमान 100 करोड़ हिंदुओं पर भारी पड़ेंगे जैसे तराने गुनगुनाते रहते हैं.

ज्यादातर लोगों को यह बात मालूम नहीं होगी कि जिन लोगों ने आगे बढ़ चढ़कर पाकिस्तान बनाने की मांग की थी, उनमें से कोई भी व्यक्ति पाकिस्तान नहीं गया था. आपको जानकर हैरत होगी कि विभाजन के बाद भारत वाले भूभाग में लगभग चार करोड़ मुसलमान थे, जिन्हें पाकिस्तान जाना था, लेकिन गए केवल 72 लाख और उसमें भी लगभग 60 लाख लोग पंजाब से गए और बाकी पूरे हिंदुस्तान से गए. दक्षिण भारत के राज्यों से तो कोई भी नहीं गया और आज यही लोग कहते हैं कि यहां की मिट्टी में उनका खून मिला हुआ है. इस सब के लिए महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने सरदार पटेल और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की पूरी आबादी की अदला-बदली की बात नहीं मानी और आज देश में फिर विभाजन कारी ताकतें सक्रिय हैं.

अल्लामा इकबाल, जौहर अली आदि ने तो यहां तक कहा था कि पाकिस्तान उनकी आखिरी मांग नहीं है. विभाजन की त्रासदी के बाद मिली. आजादी के तुरंत बाद पश्चिम बंगाल और असम मैं इतनी आपाधापी की गई कि यह दोनों राज्य हाथ से फिसलते फिसलते बचे और कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा चला भी गया.

कश्मीर में जिस तरह से मुस्लिम मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में हिंदुओं का रक्तपात हुआ, संपत्तियां लूटी गयीं, महिलाओं के साथ दुराचार हुआ और इसका परिणाम हिन्दुओं के पलायन के रूप में हुआ. केरल में भी वही दोहराया गया और यही कार्य पश्चिम बंगाल में किया गया. आज अनेक राज्यों में मुस्लिम जनसंख्या सरकार बनाने की स्थिति में है.

पूरे भारत में मुसलमानों की जनसंख्या बहुसंख्यक लोगों की जनसंख्या का लगभग 30% है और यह संख्या ही खतरे का निशान है. ईरान, इराक, अफगानिस्तान और कुछ अन्य देशों में ऐसा ही हुआ जैसा आजकल भारत में हो रहा है और आज यह सभी इस्लामिक देश हैं.

असदुद्दीन ओवैसी आजाद भारत में जिन्ना की भूमिका में है और दुर्भाग्य से हर राजनीतिक दल जवाहरलाल नेहरु की भूमिका में है, सत्ता की लालसा और मुस्लिम वोटों के लालच में देश के भविष्य को गिरवी रखने का कार्य कर रहे हैं.

कर्नाटक के उडुपी में साजिशन रची गई एक घटना हिजाब को मुद्दा बना लिया गया और यह हिजाब उड़ता हुआ उत्तर प्रदेश के चुनाव में पहुंच गया. सारे राजनीतिक दलों ने इसे हाथों-हाथ लपक लिया. जहां समाजवादी पार्टी से हिजाब पर हाथ लगाने वालों के हाथ काटने का बयान दिया गया, प्रियंका वाड्रा ने हिजाब के समर्थन में कहा कि यह महिलाओं का अधिकार है कि वह हिजाब पहनती हैं या बिकनी. असदुद्दीन ओवैसी ने चुनाव में इसे बड़ा मुद्दा बना दिया और इस समय उत्तर प्रदेश में ज्यादातर मुसलमान हिजाब के पक्ष में ही गोलबंद होकर मत दे रहे हैं. सारे मुद्दे गौण हो गए हैं अब भाजपा बनाम सभी दल हो गए हैं.

ओवैसी का बयान कि "एक दिन भारत में हिजाबी प्रधानमंत्री बनेगा" बहुत गंभीर है और यह एक पूर्व नियोजित षडयंत्र की तरफ इशारा करता है. इस बयान का यह मतलब कतई नहीं है कि आज की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर कोई मजहबी प्रधानमंत्री बनेगा क्योंकि ऐसा होने में किसी को कोई भी समस्या नहीं है क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और लोकतांत्रिक व्यवस्था से चुनकर कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है.

इसके पहले भी भारत के अनेक राज्यों में मुस्लिम मुख्यमंत्री और हिजाबी मुख्यमंत्री भी हुए हैं. 1980 में आसाम में अनवर तैमूर पहली महिला मुस्लिम मुख्यमंत्री बनी और मुफ्ती महबूबा सईद तो बकायदा मुख्यमंत्री रहते हुए भी हिजाब पहनती थीं. मुस्लिम पुरुष मुख्यमंत्रियों की एक लंबी फेहरिस्त है. इसलिए ओवैसी के बयान को किसी भी हालत में सामान्य बयान नहीं माना जा सकता. अपने बयान में ओवैसी ने यह भी साफ कर दिया कि हो सकता है कि उस समय तक वह शायद जिंदा ना रहें, लेकिन यह होगा जरूर. स्पष्ट है कि उनका इशारा सीधे-सीधे उस स्थिति और परिस्थिति की ओर है जब मुसलमान भारत में बहुसंख्यक होंगे और देश में हिजाबी प्रधानमंत्री बनेगा यानी इस्लामिक राष्ट्र और उसका रास्ता ghazwa-e-hind से होकर जाता है.

मुझे भी लगता है कि शायद यह होकर ही रहेगा, समय चाहे जो भी लगे. मैंने अब तक दुनिया के 20 देशों की यात्रा की है और वहां के मूल निवासियों से बात करने में अपने देश और अपनी संस्कृति के प्रति जितनी निष्ठा और समर्पण देखा है, वैसा हिंदुओं में देखने को नहीं मिलता. बड़ी संख्या में ऐसे हिंदू मिलेंगे जिनका अपने निजी स्वार्थ या विभिन्न कारणों से इतना नैतिक पतन हो चुका है कि वह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वह क्या कर रहे हैं और इस कारण वे जाने अनजाने में इन षड्यंत्रकारियों के साथ ही खड़े नजर आते हैं.

ऐसे में असदुद्दीन ओवैसी के बयानों से खतरे का आगाज भले ही हो लेकिन उन्होंने अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अनवरत चलाए जा रहे षड्यंत्र की सच्चाई बयान की है. अब यह आप पर निर्भर करता है कि इसे अस्वीकार करें या रोकने के लिए कुछ करें.

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- शिव मिश्र 



केजरीवाल ने पंजाब चुनाव में खालिस्तान अलगाववादियों का सहयोग लिया

 

लोग शायद भूलने लगे होंगे अन्ना हजारे को, और उनके द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन को. लोगों को अब यह भी ठीक से याद नहीं होगा यह आंदोलन किस लिए किया गया था? स्वयं अरविंद केजरीवाल भी यह सब भूल गए हैं.

अन्ना हजारे द्वारा शुरू किए गए आंदोलन की लोकप्रियता को अरविंद केजरीवाल ने पूरी तरह से भुनाया और अन्ना हजारे को दूध की मक्खी की तरह फेंक दिया. लोगों को शक हुआ कि कहीं यह राजनीतिक आंदोलन तो नहीं है, तो अरविंद केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाकर लोगों को विश्वास दिलाया कि वह राजनीति में नहीं आएंगे, लेकिन आ गए .

जब उन्होंने राजनीतिक पार्टी बनाई तो बड़ी-बड़ी बातें की, शुचिता और ईमानदारी स्थापित करने कीबड़ी-बड़ी बातें करके लोगों की आशायें आसमान में चढ़ा दी. अभावों में जीने वाले लोग बहुत आशावादी होते हैं और उन्हें हमेशा किसी ने किसी चमत्कार की आशा बनी रहती है. लोगों ने अरविंद केजरीवाल से भी चमत्कार की उम्मीद लगा ली.

अरविंद केजरीवाल के साथ सामान्य लोग ही नहीं, पढ़े लिखे जागरूक और समाज सेवा का जज्बा रखने वाले लोग भी शामिल हो गए.

पार्टी को दिल्ली राज्य की सत्ता तो हासिल हो गई लेकिन केजरीवाल का बौनापन, न्यूनता और वैचारिक संकीर्णता उनका पीछा नहीं छोड़ रही थी. अपने से बड़े कद के अपने साथियों से उहे कुर्सी और राजनीतिक अस्तित्व के लिए हमेशा खतरा दिखाई पड़ता था.

इसलिए उन्होंने एक-एक करके सभी ऐसे लोगों को पार्टी से निकाल बाहर किया चाहे वह योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे शातिर आदमी हों या कुमार विश्वास जैसे विद्वान साहित्यकार.

ऐसे लोग सत्ता पाने के लिए कितना गिर सकते हैं और क्या क्या कर सकते हैं इसका अंदाजा लगाना भी बहुत मुश्किल है.

कुमार विश्वास ने ए एन आई को दिए इंटरव्यू में जो रहस्योद्घाटन किए हैं वह सभी देशभक्त नागरिकों के लिए बहुत व्यथित और विचलित करने वाले हैं. पिछले पंजाब विधानसभा चुनाव के समय भी आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने की काफी हवा बनाई गई और केजरीवाल ने पाकिस्तान समर्थित खालिस्तान की मांग करने वाले संगठनों से जो सीमा पार से पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ मिलकर कार्य करते हैं, से भी वित्तीय सहित हर तरह की सहायता ली.

कुमार विश्वास जैसे पार्टी सदस्यों ने जब उन्हें इसके संभावित खतरे से आगाह किया तो केजरीवाल ने जवाब दिया कि इन्हें आपस में लड़वाकर वह स्वयं पंजाब के मुख्यमंत्री बन जाएंगे और खालिस्तान आंदोलनकारियों के कारण यदि पंजाब भारत से अलग होकर खालिस्तान बन जाता है तो वह खालिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री बनेंगे. 

इंटरव्यू के लिए क्लिक करे 

https://twitter.com/i/status/1493846434164383745

इससे बड़ी नीचता और कुछ नहीं हो सकती. केजरीवाल, ओवैसी, महबूबा मुफ्ती और फारूक अब्दुल्ला मुफ्ती में क्या फर्क है. बाकी लोग तो भूमिका बना रहें हैं लेकिन केजरीवाल तो योजना बना रहे हैं?

राजनीति में स्वच्छता और इमानदारी की मिसाल कायम करने वाला व्यक्ति सत्ता पाने के लिए इस कदर बेकरार है कि कि देश बेचने या तोड़ने से कोई परहेज नहीं है.

आज दिल्ली में जगह जगह शराब की दुकानें खुल गयी हैं, अविकसित और कच्ची कॉलोनियों में भी दुकान खुली है. शराब का सिंडिकेट केजरीवाल की सरपरस्ती में काम कर रहा है. यदि पंजाब की जनता भूलवश केजरीवाल को सत्ता सौंप देती है, तो ड्रग और धर्मांतरण से कराह रहे पंजाब का क्या हाल होगा, कहना मुश्किल है.

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- शिव मिश्रा 

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

भारत का बजट २०२२ : एक द्रष्टिकोण

 विकासोन्मुख बजट में आत्मविश्वास की झलक



मेरी याद में यह पहला बजट है जो राजनीतिक रूप से तटस्थ (पॉलिटिकली न्यूट्रल) है, अन्यथा  आम तौर से यह धारणा बन गई है कि केंद्रीय  बजट रेवड़ियां  बांटने का त्यौहार होता है. इसलिए उद्योगपति, व्यापारीमिडिल क्लास विशेषतय:  नौकरी पेशा वर्ग हर व्यक्ति, बजट की तरफ आशा भरी निगाहों से देखता है और कुछ न कुछ पाने के लिए अपेक्षा करता है. बजट पर शेयर मार्केट की प्रतिक्रिया भी  तुरंत देखने को मिलती है. अतीत में कई  बार बजट के कारण सेंसेक्स उछला  और कई बार भारी  गिरावट से बंद हुआ और कई बार तो ऐसा भी हुआ कि  बजट शुरू होते ही शेयर मार्केट चढ़ने लगा और बजट समाप्त होने तक धडाम  हो गया .

इस बार बजट के  राजनीतिक रूप से तटस्थ और लोकलुभावन न होने पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि 5 राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं जिसमें उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण राज्य है क्योंकि दिल्ली के सिंहासन का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही निकलता है. इस बात के लिए मोदी सरकार की जितनी तारीफ की जाए, कम है. मोदी का यह  इस साहसिक बजट उनके इस आत्मविश्वास को  भी रेखांकित  करता है कि वह उत्तर प्रदेश में  पार्टी की विजय को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त हैं और अन्य राज्यों में भी चुनाव को लेकर चिंतित  नहीं हैं. 

अपने कार्यकाल में मोदी ने अपने  फैसलों  से कई बार  लोगों को चौंकाया है क्योंकि तुरंत लाभ पहुंचाने वाली  योजनाओं के बजाय  उन्होंने आम लोगों के जीवन की मूलभूत समस्याओं को छूआ है और उनके दर्द को सहलाया है. इसलिए जनता नें उन्हें  दूसरी बार भी  और ज्यादा बहुमत से सत्ता में पहुंचाया. मोदी का  जनता पर और जनता का मोदी  पर विश्वास कायम है.  इससे यह सन्देश भी  साफ़ है कि  लंबी अवधि की प्रभावी राजनीति तभी की जा सकती है जब करोड़ों गरीब देशवासियों के  जीवन में कुछ सुधार किया जाय.

बजट पेश किये  जाने से  पहले  कांग्रेस नें भविष्यवाणी की थी  कि यह चुनाव पूर्व बजट होगा यानी कांग्रेस को  आशा थी कि  इसमें घोषणाओं का अंबार होगारेवड़ियों  की भरमार होगी लेकिन बजट के बाद सपा नेता रामगोपाल यादव  ने कहा यह बजट  एकदम बेकार है, सोचा था उत्तर प्रदेश में चुनाव है तो कुछ तो देंगे, लेकिन कुछ नहीं दिया. इसका मतलब लोगों को समझ में नहीं आया कि बजट में क्या है क्या  नहीं. कांग्रेस के अर्थशास्त्री और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने प्रतिक्रिया दी कि यह बजट अब तक का सबसे  पूंजीवादी बजट  है क्योंकि इसमें गरीब शब्द केवल दो बार आया है. इसे कहते हैं कोरी राजनीति, जिसे लोग अब समझने लगे हैं.   

बजट के राजनीतिकरण से राजस्व का ज्यादातर भाग कर्मचारियों के वेतन-भत्ते, पेंशन तथा अनुदान में ही चला जाता है, और पूंजीगत निवेश के लिए बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती. इस कारण मूलभूत संरचना सहित लंबी अवधि की परियोजनाओं पर ध्यान नहीं दिया जा पाता है. कई बार राजनैतिक अस्थिरता, गठबंधन की सरकार भी रेवड़ियां बाँटने का कारण होता है. सौभाग्य से अब यह नहीं है क्योंकि मोदी की पूर्ण बहुमत की सरकार है.  इसलिए सरकार साहसिक फैसले लेने में सक्षम है और सरकार ऐसा कर भी रही है. अबकी बार का बजट ऐसा है जिसमें  प्रत्यक्ष तौर पर किसी को कुछ  मिलता दिखाई नहीं  पड़ता है, यानी न तो लोलीपोप हैं और न आंकड़ो की बाजीगरी लेकिन है बहुत कुछ सबके लिए.  मेरा हमेशा से मानना  रहा है कि भारत में हमेशा से अर्थ व्यवस्था पर राजनीति हाबी  रही है और  देश के पिछड़ेपन  का कारण भी यही हैं. ज्यादातर सालों के  बजट में निरंतरता का आभाव होता आया है, जो अबकी बार दूर हो गया लगता है.

इस बजट में सरकार के  पूंजीगत खर्चों को बढ़ाकर ७.५ लाख कर दिया है, जो पिछले साल की तुलना में ३५.५% अधिक है.  इससे निजी निवेशको का भी भरोसा बढेगा और वे निवेश के लिए आगे आयेंगे. इससे रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे. राजकोषीय घाटा ६.९% लक्ष्य से मामूली अधिक है.  गति  शक्ति परियोजना  के अंतर्गत 25000 किलोमीटर रोड बनाने का प्रावधान किया गया है और इसके लिए ₹2 लाख करोड़  का आवंटन किया गया है. मोदी सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रीय राजमार्गएक्सप्रेस वे आदि में उल्लेखनीय कार्य हुआ है, और इसका श्रेय नितिन गडकरी को भी जाता है, जिनके कारण भारत में इस समय  प्रतिदिन 40 किलोमीटर हाईवे बनाया जा रहा है, जो अगले वित्त वर्ष में बढ़ाकर 50 किलोमीटर प्रतिदिन कर दिया जाएगा.  

कांग्रेस को शायद आज याद नहीं है कि 1971 में इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ के नारे से ही सत्ता प्राप्त की थी, और  मोदी तो सचमुच  गरीबों के दर्द को समझने और उसका उपचार करने का प्रयास कर रहे हैं. गरीब लोगों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान आज भी  बुनियादी जरूरत है. मोदी ने गरीबों के लिए ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आवास उपलब्ध कराए हैं,  मुफ्त  राशन दिया है, ग्रामीण अंचल में  महिलाओं को रसोई गैस उपलब्ध कराई है और  शौचालय उपलब्ध कराने काम किया है. हर गांव में बिजली उपलब्ध करा दी गई है. अब हर गांव में “हर घर में नल का जल” उपलब्ध कराने का प्रयास किया जा रहा है. बजट में नल से  5.5 करोड़ घरों में पानी पहुंचाने का प्रावधान किया गया है. प्रधानमंत्री योजना के अंतर्गत 80 लाख नए मकान बनाने का प्रावधान भी किया गया है. नारी सशक्तिकरण को प्राथमिकता दी गई है. बेहतर बुनियादी ढांचे और सुविधाओं वाली आंगनबाड़ियों को उच्चीकृत  करने का प्रावधान किया गया है. एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य है 2025 तक सभी गांवों तक ऑप्टिकल फाइबर बिछाने का लक्ष्य जिससे ग्रामीण भारत की तस्वीर बदल जाएगी. 5G स्पेक्ट्रम की शुरुआत की इसी वर्ष की जाएगी जो ग्रामीण क्षेत्रों में भी उपलब्ध होगी.

अटल सरकार के समय शुरू की गई नदी जोड़ो परियोजना कार्य को आगे बढ़ाया गया है और उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी की समस्या के निराकरण के लिए केन बेतवा परियोजना को शुरू किया गया है. इससे बुंदेलखंड के लोगों की पानी की बहुत पुरानी समस्या का समाधान हो सकेगा.

खेती में महत्वपूर्ण बदलाव के लिए लाए गए तीनों कृषि कानून वापस होने के बाद ऐसा लगने लगा था कि शायद मोदी सरकार ने कृषि सुधारों की तरफ से कदम खींच लियें हैं लेकिन इस बजट के माध्यम से कृषि सुधारों को जारी रखने की सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय मिलता है.  खेती में  आधुनिक तकनीक से उत्पादन बढ़ाने और उससे किसानों की आय बढ़ाने पर जोर दिया गया है. स्टार्टप के माध्यम से निजी निवेश बढ़ाने पर भी जोर दिया गया है.  गंगा के किनारे किनारे 5 किलोमीटर क्षेत्र में  केमिकल मुक्त खेती की शुरुआत होगी जिससे किसानों की आय के साथ साथ लोगो को केमिकल मुक्त कृषि  उपज  उपलब्ध हो सकेगी. बिचौलियों को दूर करने के उद्देश्य न्यूनतम समर्थन मूल्य की राशि सीधे किसानों के खाते में भेजी जाएगी. कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए ड्रोन के इस्तेमाल, ऑर्गेनिक खेती और तिलहन के उत्पादन पर जोर दिया जाएगा. इस सबसे खेती में सुधार  होगा और किसानो की आय बढ़ेगी .

बजट का सबसे प्रभावी और आकर्षक भाग है डिजिटलीकरण पर जोर देना, जो आत्मनिर्भर भारत की उमीदों के अनुरूप है. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा डिजिटल करेंसी की शुरुआत की जाएगी. करोना काल में शुरू हुई ऑनलाइन पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए 200 नहीं टीवी चैनल शुरू करने की पहल की गई है. शिक्षकों को डिजिटल प्रणाली का प्रशिक्षण दिया जाएगा.  75 जिलों में डिजिटल बैंक की स्थापना की जाएगी. बजट में डिजिटल यूनिवर्सिटी बनाने का संकल्प लिया गया है. चिप युक्त  डिजिटल इ-पासपोर्ट जारी करने की घोषणा की गई है जो डिजिटल क्षेत्र में भारत  की मजबूत स्थित प्रदर्शित करता  है. प्रदूषण कम करने के लिए इलेक्ट्रिक व्हीकल  को बढ़ावा दिया जाएगा और नए चार्जिंग स्टेशन बनाए जाएंगे जहाँ  बैटरी स्वैप सिस्टम लागू किया जाएगा. 

बजट की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें न तो  कोई  बड़ी राहत दी गई है और न ही कोई बोझ डाला गया है. क्रिप्टोकरंसी को यद्यपि कानूनी मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन इसे कर के दायरे में लाया गया है और इसके लाभ पर 30% टैक्स लगाया गया है. डिजिटल एसेट्स  ट्रांसफर करने पर भी  टैक्स देना होगा. रिटर्न भरते समय कई छोटे-मोटे लाभ खासतौर से डिजिटल मोड़ से प्राप्त लाभ प्राय: छूट जाते हैं जिसे आयकर रिटर्न में परेशानी होती है. इसे देखते हुए बजट में आयकर रिटर्न में 2 वर्ष तक सुधार करने का मौका दिया गया है.

निश्चित रूप से बजट में किये गए ये उपाय भविष्योंमुखी  है और इनसे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी लेकिन इन उपायों के साथ ही लालफीताशाही और इंस्पेक्टर राज को ख़त्म करने की दिशा में भी सक्रियता से काम करना होगा ताकि ‘ईज ऑफ़ डूइंग बिज़नस” में सुधार कर निवेशकों, निर्माता कंपनियों और पूरे विश्व को सन्देश दिया जा  सके  और  स्वतंत्रता के सौवे वर्ष २०४७ तक देश को   सशक्त – समर्थ भारत   बनाने का अपना सपना पूरा कर सके. 

-    शिव मिश्रा

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