नेताजी, भारतीय गणतंत्र और आजादी का अमृत
महोत्सव
वैसे तो यह संयोग है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती ( 23 जनवरी ) के तीन दिन बाद गणतंत्र दिवस आता है लेकिन शायद यह बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत को आजादी
मिलने और
उसके कारण गणतंत्र की स्थापना का
सौभाग्य नेताजी के कारण ही मिला है. ऐसे समय जब भारत स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना
रहा है, नेताजी की 125 वीं जयंती और उसके बाद
पड़ने वाला ७३ वां
गणतंत्र दिवस काफी उत्साहजनक रहा. इसका कारण था प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी
द्वारा दिल्ली में राजपथ पर नेताजी की
प्रतिमा की स्थापना की घोषणा और उनकी
होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण करना.
नेताजी की प्रतिमा उसी स्थान पर स्थापित की
जाएगी जहां कभी ब्रिटिश के राजा जॉर्ज पंचम की मूर्ति लगाई गई थी, जो स्वतंत्र भारत में 1968 तक इंडिया गेट पर पूरे
शान शौकत के साथ लगी रही और इसे हटाया भी तभी गया जब राष्ट्रवादी लोगों ने ब्रिटेन
के राजा की इस प्रतिमा को क्षत-विक्षत
करके इस पर कालिख पोत दी थी . लोगों के भारी रोष के कारण इसे दिल्ली स्थिति कोरोनेशन पार्क में रख दिया गया था. तबसे इंडिया गेट पर विशेष
रूप से बनाई गई यह छतरी खाली पड़ी थी. इसके
बाद कई कांग्रेसी सरकारें आई और गई लेकिन
कोई भी सरकार उस स्थान पर किसी अन्य
प्रतिमा को रखने का साहस नहीं जुटा सकी यद्यपि
इंदिरा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू की, और मनमोहन सरकार ने
इंदिरा गांधी की प्रतिमा लगाने पर गंभीरता से विचार किया लेकिन बात आगे
नहीं बढ़ सकी.
आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिटेन के राजा की प्रतिमा की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा लगाने का निर्णय लिया जिसका पूरे देश में तहे दिल से स्वागत किया गया. लोगों ने यह भी मांग की है कि ब्रिटेन की राजा के नाम पर बने राजपथ का नामकरण भी आजाद हिंद पथ किया जाय जो पूरी तरह उचित है. कहना अनुचित नहीं होगा कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस को उनकी 125 वीं जयंती पर भारत में उन्हें पहले से ज्यादा और बहुत गर्मजोशी से याद किया गया.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती और सत्ता हस्तांतरण के 75 वर्ष बाद, उनकी मौत का रहस्य आज
भी बरकरार है. भारत को स्वतंत्रता दिलाने का
श्रेय नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज को जाता है. चंद्रशेखर
आजाद, भगत सिंह और
राजगुरु जैसे अनेक क्रांतिकारियों का
संघर्ष और बलिदान भी स्वतंत्रता दिलाने
में मेल का पत्थर साबित हुआ. क्लेमेंट अटली जो
१९४५ से १९५१ तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे, ने भारत यात्रा के दौरान बताया था कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने में प्रथम
द्रष्टया नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी
आजाद हिन्द सेना का बहुत बड़ा हाथ था जबकि
अहिंसा और सत्याग्रह आन्दोलन की भूमिका अत्यंत सीमित थी. जनरल जी डी बक्शी ने भी
अपनी किताब "बोस एन इंडियन
समुराई" में बहुत विस्तार से इस बात
का उल्लेख किया है कि भारत की आजादी में नेताजी और उनकी आजाद हिन्द फौज का सबसे
बड़ी भूमिका थी.
सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में, सोशल मीडिया
की सक्रियता और तमाम गुप्त दस्तावेजों के सार्वजनिक कर दिए जाने से जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे यह बात बिल्कुल
स्पष्ट हो गई है कि "दे दी हमें आजादी बिना खडक बिना
ढाल" केवल एक जुमला है और भारत को स्वतंत्रता दिलाने में इसकी और भारत
छोड़ो आंदोलन की कोई खास भूमिका नहीं थी.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नवंबर 1945 में लाल किले में हुए आई
एन ए के वार ट्रायल के दौरान जब ऐसे पोस्टर देखे गए जिसमें लिखा था कि अगर आजाद हिंद फौज के किसी
भी सैनिक को फांसी पर लटकाया जाता है तो
एक भी अंग्रेज भारत से जिंदा वापस नहीं जाएगा. तब ब्रिटिश सरकार ने इस बात को शिद्दत से महसूस किया कि अब भारत में
और अधिक शासन करना संभव नहीं है. १८५७ के
स्वतंत्रता संग्राम से सहमें अंग्रेज परिवारों में असुरक्षा की भावना घर कर
गई और कुछ अंग्रेज परिवार भारत छोड़कर
वापस जाने लगे. नौसेना के विद्रोह ने इस बात को और पुख्ता कर दिया कि यदि सेना
ने विद्रोह किया तो भारत में शासन करना तो दूर की बात, अंग्रेजों
को जान बचा कर भागना भी संभव नहीं हो पाएगा. यह भी एक तथ्य है
लालकिला में हुए वॉर ट्रायल में किसी को भी फांसी की सजा नहीं सुनाई गयी थी.
अंग्रेजों ने भारत से सुरक्षित निकलने की योजना बनायी, सत्ता हस्तातंरण
जिसका महत्वपूर्ण भाग था.
यह बात समझने योग्य है कि भारत में अंग्रेजों
ने भारतीयों के माध्यम से ही
क्रूरतायें की और शासन किया. कुल मिलाकर लगभग 5000 अंग्रेज ही भारत में थे, जो
उच्च पदों पर थे. उन्होंने सेना तथा सरकारी विभागों में भारतीयों को नियुक्त किया और उनकी स्वामिभक्ति
से ही भारत पर शासन किया. इसलिए आनन-फानन में ब्रिटिश सरकार ने सत्ता छोड़ने का
निर्णय लिया और कांग्रेस से वार्ता करके उसे अपनी शर्तों पर सत्ता हस्तांतरण करने
का फैसला किया और सत्ता के लालच में कांग्रेश, विशेषकर जवाहरलाल नेहरू ने सभी शर्तों को सहर्ष को स्वीकार कर लिया. यह अब कोई छिपी बात नहीं है कि अंग्रजों ने कांग्रेस का गठन अपनी सत्ता को निष्कंटक बनाने व अनवरत चलाने
के लिए किया था और ब्रिटिश सरकार
को गांधी के बाद सबसे अधिक प्रिय जिन्ना और जवाहरलाल नेहरू ही थे. नेहरु और जिन्ना लार्ड माउंट बैटन से अपनी निकटता के कारण सत्ता के शिखर पर पहुंचे लेकिन सही
अर्थों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ही अविभाज्य भारत के मुखिया थे और उनकी सरकार को कई देशों ने
मान्यता भी दी थी.
यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिन लोगों
को अंग्रेजों ने सत्ता का हस्तांतरण किया
उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक नायकों
नेताजी सुभाष चंद्र बोस और
क्रांतिकारियों के नाम इतिहास से
मिटाने का पाप किया ताकि आजादी दिलाने का
एक मात्र श्रेय गांधी और नेहरू जैसे
कांग्रेसी नेताओं के नाम सुरक्षित किया जा
सके और इसी कारण नेताजी की मौत का रहस्य आज भी
रहस्य बना हुआ है.
नेताजी की मृत्यु से संबंधित तीन
विचारधाराएं हैं. पहली विचारधारा के
अनुसार नेताजी की मौत 18 अगस्त 1945 ताइवान में एक हवाई
दुर्घटना हो गई थी जब वह जापान जा रहे थे. दूसरी विचारधारा के अनुसार द्वितीय
विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी सोवियत रूस चले गए थे जहां उन्हें
गिरफ्तार करके साइबेरिया की एक जेल में रखा गया था और वही उनकी मौत हो गई. तीसरी
विचारधारा के अनुसार नेताजी सोवियत रूस गए थे और वहां ताशकंद समझौते के समय लाल बहादुर शास्त्री के साथ उनकी मुलाकात भी
हुई थी. यह भी कहा जाता है कि शास्त्री जी उन्हें अपने साथ भारत लाना चाहते
थे लेकिन ताशकंद में शास्त्री जी की मृत्यु हो गई. छद्म वेश में कुछ समय बाद नेताजी भारत वापस आ गए और फैजाबाद
में गुमनामी बाबा के रूप में रहते रहे.
गुमनामी बाबा की मृत्यु के बाद उनके पास से
बरामद सामान में वह सब कुछ मिला जिससे उनके नेताजी होने की पुष्टि होती है, लेकिन चूंकि अटल
सरकार द्वारा गठित मुखर्जी आयोग को गुमनामी बाबा और नेता जी के डीएनए में
समानता की पुष्टि नहीं हो सकी इसलिए अधिकारिक रूप से इस विचारधारा को भी स्वीकार
नहीं किया गया. उनके छद्म
वेश में सन्यासी के रूप में रहने का कारण लोग कयास लगते थे कि तत्कालीन
केंद्र सरकार ने ब्रिटेन के साथ
गुप्त समझौता किया था कि यदि नेताजी सुभाष
चंद्र बोस भारत में जिंदा पाए जाते हैं तो उन्हें गिरफ्तार करके ब्रिटिश सरकार को
सौंप दिया जाएगा. जन सामान्य को विश्वास था कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू कभी भी ऐसा नहीं कर सकते हैं, लेकिन अभी इस तरह की
बातें सामने आ रही हैं, कि सत्ता
हस्तांतरण के समय एक गुप्त समझौता किया गया था जिसमें इस तरह की शर्त भी हो सकती
है. इसके पहले गठित दो आयोग शाहनवाज आयोग
(१९५६) और खोशला आयोग(१९७०) ने नेता जी की
मृत्यु का रहस्य सुलझाने के गंभीर प्रयास नहीं किये.
यद्दपि मोदी सरकार द्वारा राजपथ पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने से
देश ने नेताजी के एक बड़े कर्ज का छोटा सा फर्ज अदा करने का कार्य किया गया है
लेकिन सरकार को चाहिए कि वे नेता जी की मृत्यु के
रहस्य की गुत्थी तुरंत सुलझाए और इसके लिए आवश्यक है कि सत्ता हस्तांतरण के समय हुए गुप्त समझौते को
तुरंत सार्वजनिक करें और नेताजी की आजाद हिंद फौज के खजाने को लूटने वाले नेताओं
के नाम भी उजागर करें क्योंकि इस खजाने
में भारतीय महिलाओं द्वारा नेता जी को दिए गए अपने सुहाग के स्वर्ण आभूषणों का भी
दान शामिल था. इसलिए इस खजाने को लूटने और
व्यक्तिगत और राजनैतिक इस्तेमाल करने वाले
भारतीय नेताओं के नाम जनता को जानने का अधिकार है, जिनमें से कुछ को आधुनिक भारत का निर्माता और भाग्य विधाता भी
कहा जाता है.
नेताजी सुभाष
चंद्र बोस को वह स्थान मिलना ही चाहिए जिसके वह वास्तविक हकदार हैं और जिसे
स्वार्थी राजनेताओं द्वारा इतिहास से उनका नाम मिटा कर वंचित करने का महापाप किया गया है.
- - शिव मिश्रा
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