सोमवार, 29 मार्च 2021

होली का त्यौहार क्यों मनाते हैं ? रंगों का इस त्यौहार में क्या महत्ता है ?

 


सनातन संस्कृति धार्मिकता आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता का समावेश है। लगभग हर तीज त्यौहार में मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी संदेश छुपे होते हैं , जिन्हें भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए इन त्योहारों का बहुत बड़ा योगदान होता है ।

होली का त्यौहार भी ऐसे महान संदेश से ओतप्रोत है । इस त्यौहार को दो भागों में समझ सकते हैं -

  • होलिका दहन और
  • रंगों का उत्सव

होलिका दहन का बहुत सारगर्भित संदेश है कि मनुष्य को अहंकार नहीं पालना चाहिए क्योंकि अहंकार का अंत होना निश्चित होता है. होलिका दहन अहंकार और आस्था के बीच का युद्ध है जिसमें अहंकार अपनी जलाई हुई आग में स्वयं भस्म हो जाता है किंतु आस्था का कवच जीवन में सार्थकता प्रदान करता है।

हिंदू सनातन वर्ष के अंतिम दिन मनाए जाने वाले इस त्यौहार में प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षा भी की जाती है कि वह पूरे वर्ष में अहंकार वस किए गए सभी त्रुटि पूर्ण कार्यों की समीक्षा करें और अपने अहंकार और अज्ञानता को होली की आग में भस्म कर दे और नए वर्ष में नई शुरुआत करें जिसके केंद्र में प्रेम, हर्षोल्लास और आपसी सौहार्द हो ।

एक पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप नाम के एक राक्षस ने अपनी तपस्या से ब्रह्मा जी को अत्यंत प्रसन्न किया किंतु ब्रह्मा जी द्वारा अमर होने का वरदान न दिए जाने के बाद भी उसने यह वरदान प्राप्त कर लिया कि उसकी मृत्यु न कोई मनुष्य कर सके न कोई जानवर, न रात में हो न दिन में , न घर में हो न बाहर, न पृथ्वी पर हो न आसमान में।

यह लगभग अमर होने जैसा ही वरदान था और इसके कारण हिरण्यकश्यप में इतना अहंकार आ गया कि उसने अपने आप को भगवान घोषित कर दिया और अपने संपूर्ण राज्य में किसी भी अन्य देवता की पूजा पाठ पर रोक लगा दी।

विडंबना देखिए ऐसे व्यक्ति के घर में उसका पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। यह बात हिरण्यकश्यप को बिल्कुल पसंद नहीं थी और जब प्रहलाद पर उसके समझाने बुझाने का कोई असर नहीं हुआ तो उसने प्रहलाद को जान से मारने का आदेश दे दिया। प्रहलाद को मारने के लिए अनेक प्रयास किए गए किंतु सफलता नहीं मिली .

तब हिरण्यकश्यप की बहन जिसका नाम होलिका था और जिसे यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में रहकर भी सुरक्षित रह सकती थी, ने अपने भाई हिरण्यकश्यप की सहायता करने के उद्देश्य से प्रहलाद को अपनी गोद में बैठा कर जलती चिता में बैठने का षड्यंत्र रचा ताकि इस तरह से प्रहलाद को मारा जा सके।

किंतु जब किसी वरदान का उपयोग इसी का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है तो वह फलीभूत नहीं होता इसलिए होलिका जो प्रहलाद की बुआ थी , जल गई लेकिन भगवान के परम भक्त प्रहलाद सुरक्षित बच गए। बाद में हिरण्यकश्यप का  विष्णु भगवान् ने नरसिंह रूप में अवतरित होकर   वध किया . प्रहलाद राजा बने और युगों तक अच्छे शासक की भूमिका के बाद आज भी वह  ध्रुव तारे के रूप में अमर हैं. 


इस घटना को पूरे मानव जाति को चिरकाल तक याद रखने के लिए प्रतिवर्ष हिंदू कैलेंडर के अंतिम माह फागुन के अंतिम दिन (जो पूर्णिमा होता है) होलिका दहन किया जाता है।

फागुन के बाद चैत्र मास की शुरुआत तो होती है जो नए वर्ष का पहला माह होता है लेकिन इस नए नए वर्ष के नए माह के पहले दिन से नए माह की शुरूआत नहीं होती ।

क्यों शुरू नहीं होता है नया वर्ष होली के तुरंत बाद?

चूंकि चैत्र मॉस के पहले पंद्रह दिन ( प्रथम पक्ष ) कृष्ण पक्ष होता है और सनातन संस्कृति में नए वर्ष की शुरुआत अंधकार से करना उचित नहीं माना गया इसलिए नया वर्ष शुक्ल पक्ष शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होता है। जिसे नव रात्र कहा जाता है .

माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के शुक्ल प्रतिपदा में की थी और यह समय ऐसा होता है जब मां आदिशक्ति जिन्हें प्रकृति माना गया है, के विभिन्न रूपों की उपासना की जाती है और विधि-विधान पूर्वक कलश की स्थापना करके घंटा -घड़ियाल और शंख ध्वनि के बीच विश्व कल्याण की कामना की जाती है।

होली और  रंगों का महत्त्व - 

  • पुराने और नए वर्ष के बीच 15 दिन के इस समय कृष्ण पक्ष को समाज में प्रेम के रंग भरने के लिए, आपसी सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए और सामाजिक ताने-बाने में नए नए कलेवर भरने के लिए उपयोग किया जाता है।
  • रंगों का इस त्यौहार का आधार और ढंग बेहद मनोवैज्ञानिक है इतना कि यह लोगों के दिलों के बीच की दूरियां समाप्त करके प्रेम और सौहार्द उत्पन्न करने में उत्प्रेरक का काम करता है ।
  • सौहार्द विकसित करने, लोगों को निराशा और हताशा से मुक्त करने और प्रसन्न चित्त होकर पुन: विश्व बंधुत्व की भावना के साथ सामाजिक ढाँचे में फिट हो जाने का इतना सटीक मनोवैज्ञानिक उपाय विश्व की किसी अन्य संस्कृति उस प्राचीन युग में सोचा भी नहीं जा सकता था जब भारत में यह प्रचलित हुआ था ।
  • विभिन्न पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में निकटता, गहनता और सहजता लाने का इससे उत्कृष्ट उदाहरण नहीं मिलता । रंगों के उत्सव की शुरुआत संभवत उस समय से ही हो गई थी जब रंगों का ज्ञान और प्रचलन शुरू हुआ था ।
  • ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे पता चलता है कि अयोध्या में जब राम का राज्य था उस समय भी होली के रंगों का यह त्यौहार प्रचलित था । कृष्ण काल में रंगों का यह उत्सव विभिन्न रूपों में प्रेम का पर्याय बन गया और आज भी ब्रज की होली संसार के प्रसिद्ध प्रेम पर्वों में से एक है।





प्रत्येक युग में और कालखंड में विभिन्न लेखकों, मनीषियों और कवियों ने अपनी अपनी रचनाओं में होली को विभिन्न भावनात्मक रंगों का चरित्र चित्रण अपने अपने अनुसार किया है।

देश के विभिन्न हिस्सों में लोकगीतों, स्थानीय भाषा के गीतों में इसे लोक परंपराओं की तरह तराशा और संजोया गया है। होली में गाए जाने वाले प्रसिद्ध फाग या फाल्गुनी गीत, अवधी, भोजपुरी, बृज भाषा और अन्य स्थानीय बोलियां में संकलित हैं जिनका श्रवण ही मनुष्य को आनंद से ओतप्रोत कर देता है। इनमें धार्मिक , सामाजिक और श्रंगारिक सभी तरह के गीत हैं .

होली से सम्बंधित बड़ी संख्या में गीत और संगीत हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं की फिल्मों में स्थान दिया गया है और कुछ जगह तो इनका चित्रण इतना लाजबाब है कि लोग थिरकने लगते हैं . 



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                 - शिव मिश्रा 

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शुक्रवार, 26 मार्च 2021

योगी के 4 साल : क्या है यूपी का हाल ?

 



योगी आदित्यनाथ द्वारा  उत्तर प्रदेश के  मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालना   प्रदेश के बाहर लोगों के लिए कौतूहल बना हुआ था.  मुझे याद आता है कि  मुंबई की तरह ही देश के अन्य शहरों में भी व्यक्तिगत बातचीत में लोग  मुझसे अक्सर पूछते थे “ और भाई ! क्या है यूपी के हाल”. स्वाभाविक था कि उनके दिल और दिमाग में  एक  संशय  था कि बिना किसी पूर्व प्रशासनिक अनुभव के यह व्यक्ति उत्तर प्रदेश जैसा  विशाल प्रदेश, जिसको पिछली सरकारों ने बद से  बदहाल बना दिया है, कैसे संभाल पाएगा ? ऐसा सोचने वालों की  आशंका  निराधार नहीं थी क्योंकि पूर्ण बहुमत की भाजपा  सरकार 25 साल बाद  बनी थी. इसके पहले 1992 में कल्याण सिंह की पूर्ण बहुमत की सरकार थी जिन्होंने विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद, त्यागपत्र दे दिया था. 


2017 में योगी सरकार से पहले   सपा और बसपा की सरकारें मुख्यतः:  मुस्लिम वोट बैंक के सहारे बनी  सरकारें मानी जाती थी और इसलिए इन सरकारों में  तुष्टिकरण अपने चरम पर होता था. इन सरकारों के भ्रष्टाचार की कहानियां आज भी लोगों की जुबान पर हैं.  कई मामलों की जांच चल रही है और कई मंत्री और अधिकारी सलाखों के पीछे हैं. नकल, भर्ती परीक्षाओं में धांधली  और नियुक्तियों में अनियमितता आम बात थी.  कानून व्यवस्था की हालत यह थी कि माफिया उद्योग अपने चरम पर था.  पुलिस  हमेशा अपने आप को सरकार के हिसाब से ढाल लेती है इसलिए  सरकार के हिसाब से ही कार्य करती थी. तुष्टिकरण के कारण इन सरकारों के कार्यकाल  मूर्तियों  लगाने,  हज हाउस बनवाने और कब्रिस्तान के अच्छे  रखरखाव  के लिए हमेशा याद किए जाते हैं यद्दपि इन्होने अच्छे कार्य भी किये होंगे . 


इस परिपेक्ष में उत्तर प्रदेश की जनता की अपेक्षाएं योगी आदित्यनाथ से बिल्कुल अलग और बहुत ज्यादा थीं, जिन्हें पूरा करना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती थी.  इस बीच उन  लोगों की बेचैनी कुछ और ज्यादा बढ़ गई  जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही  परेशान थे.  भारत के यह तथाकथित  धर्मनिरपेक्ष, बुद्धिजीवी और महान सामाजिक क्रांतिवीर  लगभग हर  सार्वजनिक मंच,  सोशल मीडिया और टीवी डिबेट  में  योगी को एक हिंदू अतिवादी  और आपराधिक  गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने लगे.  दुर्भाग्य से इसी समय गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में  ऑक्सीजन की कमी के कारण बच्चों की मौत का मामला सुर्खियों में आ गया. योगी द्वारा छोड़ी गई गोरखपुर संसदीय सीट पर भाजपा का प्रत्याशी भी नहीं जीत सका.  इस सबसे  भाजपा केंद्रीय नेतृत्व  भी चिंतित हो उठा.  इन परेशानियों  के बावजूद योगी अपने कार्य में पूरी लगन और ईमानदारी से  डटे रहे. अपनी हिंदुत्ववादी छवि से हिले डुले बिना, विकास की गति को धीमा नहीं होने दिया  और अपने काम के केंद्र बिंदु में मानवीय दृष्टिकोण को प्रमुखता दी.  भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति,  तुरंत निर्णय, उनकी  ईमानदार और बेदाग छवि ने लोगों को बहुत प्रभावित किया. 


इसका परिणाम यह हुआ कि निकाय चुनाव में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली.  2019 के लोकसभा चुनाव में सपा, बसपा और लोकदल के गठबंधन के बावजूद भाजपा 62 सीटें प्राप्त करने में कामयाब रही और इस तरह योगी ने प्रशासन और संगठन पर अपनी क्षमता  की छाप छोड़ी.   सरकार के कार्यकाल का तीसरा साल  कोविड-19  के बीच गुजरा जो  किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था. दिल्ली सरकार द्वारा सुनियोजित तरीके से श्रमिकों को  डीटीसी की बसों में  बैठा कर उत्तर प्रदेश  की सीमा पर छोड़ देने के कारण  स्थिति  विकराल हो गई थी  लेकिन योगी ने इस समस्या का समुचित समाधान किया और हजारों बसों द्वारा न केवल उत्तर प्रदेश के श्रमिकों को उनके घर तक पहुंचाया बल्कि बिहार के भी  श्रमिकों को बिहार सीमा तक पहुंचाने का कार्य किया.  इसके साथ ही कांग्रेस की प्रदेश प्रभारी प्रियंका वाड्रा की  बस स्टंट  की राजनीति को भी विफल कर दिया.  कोटा में पढ़ रहे प्रदेश के बच्चों को भी  सकुशल घर पहुंचाने का सराहनीय कार्य किया गया.   बाहर से आए श्रमिकों और  कामगारों के लिए ठहरने खाने-पीने और वित्तीय सहायता के यथासंभव उपाय किए गए. 


 24 करोड़ की जनसंख्या वाले प्रदेश में  सरकार के कोरोना  प्रबंधन ने लोगों का दिल जीत लिया.   उत्तर प्रदेश के कोरोना निपटने के तरीकों  की प्रशंसा  विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी की है.   प्रधानमंत्री ने भी कई अवसरों पर इस मामले में योगी की तारीफ की है. 


विभिन्न आंदोलनों में सार्वजनिक संपत्ति को  हुई क्षति  की वसूली के  नवोन्मेषी  तरीके  की सभी जगह सराहना हुई, दिल्ली सहित अन्य राज्य भी इस तरीके पर अमल करने की कोशिश कर रहे हैं और इस वजह से उत्तर प्रदेश जैसे विशाल प्रदेश में संशोधित नागरिकता कानून के नाम पर फैलाये  जा रहे उपद्रवों का  आंशिक असर हुआ. 


योगी की  “ठोंक  दो”  की नीति की पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन गई, क्योंकि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष,  शांतिदूत  और आंदोलन जी की वर्ग ने  इसका बहुत दुष्प्रचार किया  लेकिन सबसे मजेदार बात यह है कि प्रदेश में और प्रदेश के बाहर उच्च शिक्षित  और विद्वान लोगों ने भी व्यक्तिगत बातचीत में इसकी तारीफ की. 


इस नीति के कारण ही  अपराधियों के हौसले पस्त हुए  और कई तो स्वयं ही जेल चले गए.  माफियाओं के विरुद्ध चलाये  गये  अभियान की पूरे भारतवर्ष में  सराहना हो रही है  और सार्वजनिक भूमि पर कब्जा करके बनाई गई   भू माफियाओं की संपत्ति पर पर बुलडोजर चलवा  कर जमींदोज कर देना  लोगों में सरकार के साहस और प्रदेश के कानून और व्यवस्था के प्रति  विश्वास स्थापित करता है.   सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर  इन कार्यों की वजह से योगी को  प्रदेश की राजनीति का नायक  बना दिया है.  आज लोगों की धारणा है कि मोदी  थका थका कर  निपटा देते हैं और  योगी  दौड़ा-दौड़ा कर निपटा देते हैं.  योगी मोदी ही की तरह सोशल मीडिया के  उभरते हुए महानायक हैं  और इस कारण लोगों ने  मोदी के बाद योगी  के प्रधानमंत्री  बनने की  कामना करनी शुरू कर दी है,  यद्यपि यह भाजपा का आंतरिक मामला है और अभी  लोकसभा चुनाव भी  बहुत दूर हैं  और मोदी के पास समय भी है.  योगी आज  मोदी और अमित शाह के बाद  भाजपा के तीसरे सबसे बड़े स्टार प्रचारक हैं  और हर राज्य के चुनाव में उनकी बेहद मांग रहती है.  यह सब  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में इन पिछले 4 सालों में बनी हुई उनकी छवि और लोकप्रियता के कारण ही है.  इसलिए यह कहना   अतिशयोक्ति  नहीं होगा कि वह  देश के श्रेष्ठतम मुख्यमंत्रियों में से एक हैं और कम से कम  भाजपा शासित राज्यों के लिए रोल मॉडल है. 


 उत्तर प्रदेश की राजनीति भी  ऐसे  काल खंड से गुजर रही है जिसमें  लोगों ने पूर्व मुख्यमंत्रियों का  अहंकार  बहुत नजदीक से देखा है.  बसपा प्रमुख मायावती  जब  मुख्यमंत्री  होती हैं  तभी वह  प्रदेश के किसी सदन की सदस्यता ग्रहण  करती  है अन्यथा  राज्यसभा  या  लोकसभा में बैठना पसंद करती  हैं.  सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव  भी उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए मुख्यमंत्री  न रहने पर लोकसभा  के सदस्य हैं.  इन दोनों लोगों की विशेषता  यह है कि वह अपने अलावा किसी को भी मुख्यमंत्री पद के काबिल नहीं समझते  और इसलिए बार-बार  सिर्फ अपनी सरकार के कार्यकाल का गुणगान करते रहते हैं.  राजनीति  शतरंज के खेल की तरह होती है  और हमेशा सीधी दिशा में नहीं चलती.  आज अगर विपक्ष पर निगाह डालें  तो ऐसा लगता है कि योगी ने विपक्ष को भी “ठोक दिया है”.


कांग्रेस जिसका कोई  खास अस्तित्व प्रदेश में नहीं बचा है और दूर-दूर तक कोई भविष्य भी नजर नहीं आता है  लेकिन  उसने  योगी के विरुद्ध प्रियंका वाड्रा को  मुख्यमंत्री का चेहरा बना  कर उतार दिया है,  जो किसी न किसी स्टंट  द्वारा सुर्खियों में बने रहने का अवसर ढूंढती रहती  हैं.  विशेष बात यह है कि मीडिया में उनकी चर्चा अखिलेश यादव और मायावती से ज्यादा होती है. आसानी से समझा जा सकता है कि अगले चुनाव में  योगी के समक्ष विपक्ष कोई  बड़ी चुनौती नहीं है. 


सरकार की उपलब्धियों में  माफियाओं के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही,  महिला सुरक्षा,   कानून व्यवस्था में सुधार, गौ संरक्षण, उद्योगों  और निवेश के अनुकूल वातावरण,  शिक्षा और रोजगार में  उत्तरोत्तर  सुधार,  मूलभूत संरचना का तेजी से विकास और अर्थव्यवस्था में गति, अयोध्या, प्रयागराज और वाराणसी में अनेक विश्व स्तरीय आयोजन  आदि अनेक  कारण हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण है - अनुभूति (परसेप्शन),  यानी लोगों की प्रदेश के बारे में धारणा बदल  रही है. 


मेरे विचार से यह बहुत बड़ी उपलब्धि है और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. 

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               - शिव मिश्रा 
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गुरुवार, 18 मार्च 2021

बाटला हाउस का फैसला : छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुंह काला

आखिर अदालत ने उन सभी छद्म धर्मनिरपेक्ष नेताओं के मुहं पर करारा  तमाचा मारा है जिन्होंने  2008 में हुए बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताया था  यद्यपि उस समय केंद्र में कांग्रेस का शासन था  और दिल्ली पुलिस केंद्र के अधीन  होती है.  सत्ता हासिल करने के लिए देश की एकता और अखण्डता का सौदा करने वाले  इन स्वार्थी नेताओं ने शहीद पुलिस इंस्पेक्टर  मोहन चंद्र शर्मा की शहादत पर भी प्रश्न चिन्ह लगा  दिया था और समूची पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल कमजोर  करने का काम किया था.

अदालत ने बाटला एनकाउंटर को इसे "दुर्लभ मामलों में सबसे दुर्लभ मामला कहा और मुठभेड़ में पुलिस इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की हत्या करने वाले  इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी अरीज़ खान को मौत की सजा का आदेश दिया। 

आतंकी  अरिज   खान  उर्फ़  जुनैद कभी आतंक की फैक्ट्री कहे जाने वाले आजमगढ़ का निवासी है और , दिल्ली, राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में 2008 के सिलसिलेवार विस्फोटों का मास्टरमाइंड भी हैं। 2008 में राष्ट्रीय राजधानी के अलावा जयपुर और अहमदाबाद जैसे शहरों को भी उसने बम धमाको से दहला दिया था, जिसमें १६५ लोग मारे गए थे और ५०० से भी अधिक घायल हुए थे . उस पर इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस के अलावा रु 15 लाख का इनाम घोषित किया गया था। 

इस तरह की घटनाओं में शामिल आतंकवादियों की  शैक्षणिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि को लेकर जो  अन्वेषण की गई हैं  उनके तथ्य आश्चर्यजनक रूप से चिंतित करने वाले हैं.  आरिफ नाम के इस  आतंकवादी  ने मुजफ्फरनगर के एसडी इंजीनियरिंग कॉलेज से बीटेक  किया है  और यह यह  एक विस्फोटक विशेषज्ञ है।  इसके चाचा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं  और परिवार के ज्यादातर सदस्य अच्छी शैक्षणिक पृष्ठभूमि के हैं.  फिर सवाल उठता है कि ऐसे लोग अपने कैरियर बनाने की वजह आतंक की दुनिया  में क्यों प्रवेश  करते हैं ?  लोग लाख  कहें कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता लेकिन ज्यादातर आतंकी धर्म से प्रभावित होकर या धार्मिक कृत्य करने के लिए ही  आतंक की दुनिया में प्रवेश करते हैं .  मदरसों में दी  जारी  शुरुआती शिक्षा इसका एक बड़ा कारण हो सकता है.  अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष वसीम रिजवी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है जिसमें उन्होंने मदरसे में दी जा रही खतरनाक धार्मिक शिक्षा पर सवाल उठाया है और 26 आयतों का जिक्र किया है जिनके कारण कम उम्र के नौनिहालों का   मस्तिष्क प्रभावित करने का कार्य किया जाता है.  जो भी हो सरकार को चाहिए कि समान नागरिक संहिता लागू हो ना हो लेकिन  पूरे देश में  समान शिक्षा व्यवस्था  जरूर लागू होनी चाहिए. 

 उस समय राजनेताओं के एक बड़े समूह ने जिनकी  गिद्ध दृष्टि हमेशा मुस्लिम वोट बैंक पर रहती है  ने न केवल बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी करार दिया था बल्कि मुस्लिम युवकों की हत्या के लिए दिल्ली पुलिस को दोषी ठहराया था. 

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने उस समय कहा था  कि मैंने  जब बाटला हाउस  हादसे की तस्वीरें  के सोनिया गांधी को दिखाई  तो उनके आंसू फूट पड़े और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा कि कृपया यह फोटो हमें मत दिखाइए. 






कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी कहां पीछे रहने वाले थे उन्होंने भी कांग्रेस के तुष्टिकरण आन्दोलन को और आगे बढ़ाया “मैं शुरू से इस बात को  कह रहा हूं, उस  पर मैं आज भी कायम हूं, मेरी नजर में यह एनकाउंटर सही नहीं है”.

तृणमूल कांग्रेस की सर्वे सर्वा  ममता बनर्जी ने कहा था कि बाटला हाउस फेक एनकाउंटर है.  यह कहने के लिए  कोई कहे कि तुम्हारा  गर्दन ले लेंगे  तो हम गर्दन दे देंगे. अगर यह एनकाउंटर सच साबित होता है तो हम राजनीति छोड़ देंगे.” आज कोई हमसे पूछे कि इतना बड़ा झूठ बोलने के बाद अब जबकि मामला  पूरी तरह  सच साबित  हो गया है तो वह राजनीति में क्यों है ?  


अभी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने कहा बाटला हाउस एनकाउंटर के ऊपर जो प्रश्न  चिन्ह लगे हैं, पुलिस एनकाउंटर के बाद जो बातें बोलती है और जो  थ्योरी  देती है वह सही नहीं हैं .  इसलिए पूरी कौम को बदनाम करना उचित नहीं है. 


 यह  कुछ नाम है, वैसे तो ज्यादातर  राजनीतिक दलों ने इस मुठभेड़ को फर्जी बताया था.  इन सब नेताओं के बयानों से यह पूरी तरह स्पष्ट है कि हर कोई  बेहद जल्दबाजी में  था ताकि  तुष्टीकरण की प्रतियोगिता में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके. आम आदमी पार्टी ने तो कुछ मुस्लिम नेताओं के साथ बैठक कर उनको आश्वासन दिया कि उन्होंने प्रशांत भूषण के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन किया था जिसने  इतने प्रमाण इकट्ठे कर लिए हैं,  जिन से आसानी से सिद्ध होता है कि यह फर्जी मुठभेड़ थी  और वह सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करके एक स्वतंत्र जांच कमेटी बनाने की मांग रखेंगे ताकि पीड़ित पक्ष  ( मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों ) को न्याय मिल सके. 

यह सब भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण के  नये निम्न स्तर के अलावा कुछ भी नहीं था, राष्ट्र की कीमत पर वोटों की फसल काटने वाली स्वार्थी राजनेताओं यह जान कर भी अंजान बने रहे  कि आतंकवादियों का अंतिम उद्देश्य क्या था?  दिल्ली पुलिस के एक इंस्पेक्टर का मरना उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता.  कुछ नेताओं को देख कर तो ऐसा लगता है कि शायद   उनका  जन्म ही  अराजकता फैलाने और मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए हुआ है. 

कहते हैं कि समय का पहिया हमेशा घूमता रहता है. कुछ लोग शहर अपने आप को समय के अनुकूल डाल लेते हैं और कुछ लोगों को समय बदलने के लिए मजबूर कर देता है.  भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के उदय होने के बाद हिन्दू जन  जागरण की जो ज्योति प्रज्वलित हुई थी वह   उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ के उदय से और प्रखर होकर ज्वाला बन चुकी हैं. इसकी शुरुआत राहुल की मंदिर परिक्रमा, जनेऊ धारी ब्राह्मण बनने, और  गोत्र की खोज करने  और प्रचारित करने से हुई. इस प्रक्रिया में लगातार तेजी आती जा रही है . अरविंद केजरीवाल जिन्होंने ढांचे की जगह राम मंदिर बनाने का विरोध किया था, शाहीन साजिश में नकारात्मक भूमिका निभाई ,  किन्तु दिल्ली चुनाव के समय हनुमान भक्त हो गए और राम मंदिर के शिलान्यास के समय निमंत्रण की बाट जोह रहे थे और  अब दिल्ली के बुजुर्गों को राम मंदिर दर्शन के लिए अयोध्या भेजने की योजना बना रहे हैं . 

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस  का मुख्यमंत्री  चेहरा प्रियंका गांधी  संगम  में   डुबकी  लगा रही हैं  और पूजा पाठ कर रही हैं.  पश्चिम बंगाल में मस्जिद के  इमामों को वेतन और भत्ते स्वीकृत करने, दुर्गा विसर्जन पर रोक लगाने, सरस्वती पूजा रोकने ,  जय श्री राम के नारे  पर  आग बबूला होने और पिछले १० वर्षों से तुष्टिकरण की सारी सीमाएं लांघने के बाद अब सार्वजनिक मंचों पर चंडी पाठ  कर  रही है,  मंदिर परिक्रमा शुरू कर रही हैं,  अपने आप को  हिंदू और  ब्राह्मण बता रही हैं. 

क्यों हो रहा है यह सब ? क्योंकि अब खेल के नियम बदल रहें हैं. अब   हिन्दुओं में तुष्टिकरण के विरुद्ध  जागरूकता और एकजुटता बढ़  रही है . राजनीति के  बेईमान  परजीवी अब तक 30% थोक वोट बैंक  के सहारे चुनाव जीतते थी और बची खुची कमी चुनाव में दंगा फसाद करने और मतपत्र लूटने से कर  लिया जाता था जिसके लिए बाहुबलियों से अनुबंध भी कर लिया जाता था. ईवीएम के कारण बाहुबलियों का खेल ख़तम हो गया है. अब 30 % वोटों के  सहारे चुनाव जीतना मुश्किल है तब जबकि  उसके भी कई दावेदार मैदान में आ गए  हों . . 

पहले इन नेताओं को लगता था  कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है इसलिए कुछ भी कह कर और कुछ भी करके निकल जाएंगे किन्तु  अब समय बदल  गया है, अब  जनता  इन पर लगातार नजर रख रही है  और सवाल पूछ रही है.इसलिए अब हिन्दू बनना जरूरी है. लगता है कि हिंदुस्तान के अच्छे दिन आ रहे हैं .  

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- शिव प्रकाश मिश्रा

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सोमवार, 8 मार्च 2021

पश्चिम बंगाल चुनाव इस बार इतने महत्त्व पूर्ण क्यों हो गए हैं ?

 



पश्चिम बंगाल के स्थिति दिन प्रतिदिन  बहुत ख़राब होती जा रही है , ऐसा लगता है कि सत्ता के लालच में राजनैतिक दल देश के इस भूभाग को कश्मीर बनाने में गुरेज नहीं कर रहे हैं. देखिये एक संक्षिप्त विश्लेषण.


  बंगाल 12 वीं शताब्दी तक भारत ही नहीं दुनिया में  समृद्धि शाली राज्यों में गिना जाता था. यह राज्य जितना आर्थिक रूप से समृद्ध था उतना ही कला संस्कृति और प्रगतिशील सोच में भी समृद्ध था. कहा जाता था कि बंगाल जो आज सोचता है पूरी दुनिया उसे कल सोच पाएगी. उस समय बौद्ध धर्म के प्रभुत्व वाले इस शांतिप्रिय  राज्य में 1204 में मोहम्मद बख्तियार खिलजी ने आक्रमण किया और  चूंकि  हिंदू राजा आपस में ही एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते थे, इस आक्रमण  का सभी ने सामूहिक  सामना नहीं किया और परिणाम स्वरूप बंगाल मुस्लिम आक्रांताओं के कब्जे में आ गया. बख्तियार खिलजी ने न केवल अपना साम्राज्य स्थापित किया बल्कि   तलवार की नोक पर बड़ी संख्या में धर्मांतरण करवाया  जिसके कारण बंगाल मुस्लिम बाहुल्य राज्य हो गया. 

लगभग 550 वर्षों तक गुलाम रहने के बाद भी कोई  हिंदू राजा या हिंदू वीर सेनानी राज्य को आक्रांताओं  के चंगुल से मुक्त नहीं करा सका. 1757 में प्लासी की लड़ाई द्वारा  ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया.  सत्ता  की डोर एक आक्रांता से दूसरे आक्रांता को स्थानांतरित हो गई. मुस्लिम आंदोलनकारियों के दबाव में अंग्रेजी सत्ता ने  1905 में बंगाल का विभाजन किया और  मुस्लिम बाहुल्य आबादी वाले भाग  को पूर्वी बंगाल  का नाम दिया गया व दूसरे का नाम दिया गया पश्चिम बंगाल.  राष्ट्रवादी हिंदुओं केअत्यधिक विरोध के कारण 1911 में विभाजन तो रद्द कर दिया गया लेकिन प्रशासनिक विभाजन बना रहा. 1947 में भारत के विभाजन के समय इसी  आधार पर  मुस्लिम बाहुल्य  पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान को दे दिया गया जो   पूर्वी पाकिस्तान बना  और बाद में  आज के बंगला देश के नाम से एक और इस्लामिक देश भारत के पड़ोस में बन  गया.  जैसा कि अवश्यंभावी था, बांग्लादेश के इस्लामीकरण के बाद  हिंदुओं के विरुद्ध भयानक अत्याचार किए गए जिनका उल्लेख  बंगलादेशी  लेखिका तसलीमा नसरीन ने अपनी किताब " लज्जा " में किया है . पढ़कर आपके रोंगटे काँप जायेंगे. हिन्दू महिलाओं और बच्चियों  को उनके घरों से उठा लिया जाता था. उनके के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और यहां तक कि हिन्दू  पुरुषों के गुप्तांग  भी काटे  गए. तसलीमा नसरीन के खिलाफ कट्टरपंथी आंदोलित हो गए और उनके खिलाफ फतवे जारी किये गए. उनकी किताब प्रतिबंधित कर दी गयी  और उन्हें बांग्लादेश से निकाल दिया गया. उन्हें भागकर कोलकाता में शरण लेनी पडी लेकिन कट्टरपंथियों के दबाव में  कांग्रेस शासन में  कोलकाता  भी छोड़ना पडा और उनकी किताब भारत में भी प्रतिबंधित कर दी  गयी.       


बंगाल का दुर्भाग्य देखिए कि मुस्लिम आक्रांताओ  के आक्रमण और 550 के मुस्लिम शासन और लगभग 200 वर्षों की अंग्रेजी शासन की बाद भी बंगाल में जो राष्ट्रवाद की भावना की मशाल जलती रही, उसे  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बुझाने के हर संभव प्रयास किए जाने लगे. इसके पीछे पाकिस्तान और विदेशी शक्तियों के साथ साथ  देश के स्वार्थी और लालची राजनीतिक नेताओं ने  राष्ट्रवाद और नैतिकता  को तिलांजलि देकर सत्ता प्राप्ति के लिए तुष्टीकरण की आड़ में एक और बंटवारे को निमंत्रण दे डाला . 


पाकिस्तान के  पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी किताब "द मिथ ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस" में  लिखा है कि विभाजन के समय पाकिस्तान ने पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के रूप में जो दो हिस्से  लिए थे , उनका रणनीतिक महत्व है. पूर्वी  पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल में अवैध घुसपैठ करा कर पश्चिम बंगाल की जनसंख्या में असंतुलन पैदा करना है और कालांतर में इस राज्य को पूर्वी  पाकिस्तान में मिलाना था . इसी तरह पश्चिमी पाकिस्तान में समूचे जम्मू कश्मीर को मिलाने की योजना  शामिल है.  इसलिए "हंस के लिए पाकिस्तान लड़के  लेंगे हिंदुस्तान" की पृष्ठभूमि आज भी जिंदा है, लेकिन यह हिंदुस्तान का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि बिना खड़क बिना ढाल, ठेके पर आजादी दिलाने वाली कांग्रेस ने इस ओर  पूरी तरह से आंख बंद कर ली जिसका परिणाम आज देश के सामने है. 


कांग्रेस  ने  अपने शासनकाल में तुष्टिकरण की सारी सीमाएं लांग दी और बांग्लादेश से आने वाले अवैध घुसपैठियों को वोट  बैंक बनाकर  पश्चिम बंगाल और असम के सीमांत जिलों में लगातार आश्रय देते रहे जिसके कारण असम और पश्चिम बंगाल के कई जिलों में जनसंख्या का घनत्व बदल गया और स्थानीय निवासी अपनी पहचान के लिए छटपटाने लगे. आसाम मे अवैध घुसपैठियों  के विरुद्ध आंदोलन होने लगा जिसके कारण पश्चिम बंगाल  बांग्लादेशी अवैध घुसपैठियों का सबसे बड़ा केंद्र  बन गया. आज बांग्लादेश की सीमा से लगे हुए अनेक  जिले मुस्लिम बाहुल्य जिले हो गए  हैं और इनका प्रभाव १००  से अधिक विधानसभा सीटों पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता  है. 


कांग्रेश के बाद सत्ता में आए वामपंथियों ने तो और दो कदम आगे जाकर खुलकर इन अवैध बांग्लादेशियों का साथ दिया. 90 के दशक में जब महाराष्ट्र की पुलिस मुंबई से अवैध बांग्लादेशियों को पकड़कर उन्हें बांग्लादेशी सीमा पर छोड़ने जा रही थी तो हावड़ा  रेलवे स्टेशन पर वामपंथी नेताओं ने  महाराष्ट्र पुलिस को घेर लिया और  हंगामा किया.  पुलिस के कब्जे से सभी घुसपैठियों को वामपंथी छुड़ा ले गए.  सोचिये इन अवैध घुसपैठियों के लिए और क्या  क्या नहीं किया होगा . 


आज भी  पश्चिम बंगाल में भाजपा के अलावा सभी दल मुस्लिम वोट बैंक के सहारे ही  चुनावी  वैतरणी पार करने की कोशिश कर रहे हैं.  संवैधानिक  आढ़ में भारत  की छद्म धर्मनिरपेक्षता की विडंबना देखिए की फुरफुरा  शरीफ के जिहादी मौलवी अब्बास सिद्दीकी जिन्होंने कोविड-19 के संक्रमण काल में जुमे की नमाज के बाद दुआ मांगी थी कि इससे भारत में  50 करोड लोग ( हिन्दू )  मर जाएं, विधानसभा के चुनाव में भाग लेने के लिए इंडियन सेक्युलर  फ्रंट बनाया है, और सभी राजनीतिक दल  गठबंधन करने के लिए उसके पीछे पड़े रहे. जहां ममता बनर्जी ने  करोड़ों  रुपयों की सहायता फुरफुरा  शरीफ दरगाह को देकर इस  जिहादी मौलबी को अपने पक्ष में करने की कोशिश की लेकिन सीट बंटवारे को लेकर बात नहीं बन सकी वहीं  कांग्रेस और वामपंथियों ने घुटने टेक कर इस साम्प्रादायिक उन्मादी और देश विरोधी मौलबी से समझौता कर लिया. यह  धर्मनिरपेक्ष भारत की  घिनौनी और बेहद  खतरनाक तस्वीर है, और यही तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों की कड़वी सच्चाई भी  है. कांग्रेश ने भारत विभाजन के तुरंत बाद ही मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन कर लिया था और वामपंथियों के हवाले पूरी शिक्षा व्यबस्था और इतिहास लेखन का कार्य सौंप दिया था जिसके कारण आर्य बाहरी आक्रमणकारी  बना दिए गए, अकबर व औरंगजेब महान  बना दिए  गए और  शिवाजी और महाराणा प्रताप को   लुटेरा और आतंकवादी बना दिया गया.  ताजमहल भारत की पहिचान बन गया और अयोध्या में मर्यादा पुरषोत्तम राम अपना अस्तित्व प्रमाणित  करने के लिए अदालतों के चक्कर लगाते रहे.  


पश्चिम बंगाल के इन चुनावों में एक और बेहद महत्वपूर्ण घटनाक्रम होने जा रहा है और वह है भारत के स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष,  एआईएमआईएम यानी आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन  (जिसका अर्थ है मुस्लिमों के लिए समर्पित संगठन) के  मुखिया, और हैदराबाद के रजाकार  संगठन से गहरा संबंध रखने वाले और जिन्ना के रास्ते पर  चलकर हिंदुस्तान में मुस्लिम क्रांति लाने वाले असदुद्दीन ओवैसी का प्रवेश. ओवैसी ने भी फुरफुरा  शरीफ के इसी शांतिदूत से समझौता करने का प्रयास किया लेकिन बात नहीं बन सकी. जाहिर है ओवैसी भी  अब सिर्फ मुस्लिमों का वोट पाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाएंगे. ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी राज्य के चुनाव में 3 बड़े राजनीतिक दल या गठबंधन मुस्लिम वोटों के लिए आपस में लड़ेंगे.  कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जो केवल भारत में ही संभव है  कि 30% मुस्लिम मतों के लिए तुष्टिकरण की सारी सीमाएं पार कर दी जाती है किंतु 70% हिंदुओं की भावनाओं को पूरी तरह  अनदेखा कर दिया जाता है.  दुर्गा विसर्जन की तिथियों और मुहूर्त  को दरकिनार कर मुहर्रम जुलूस के कारण  रोक  दिया जाता है, जय श्रीराम के नारे का विरोध किया जाता है, मस्जिदों के इमामों  और अजान लगाने वालों के लिए वेतन और भत्ते की व्यवस्था की जाती है, मस्जिदों, मदरसों, दरगाहों आदि पर करदाताओं के पैसे की बर्षात कर दी  जाती है जिसके कारण पूरे राज्य में गली कूंचों में  मदरसों और मस्जिदों की बाढ़ आ जाती है, उनकी गतिविधियों को पूरी तरह  नजरअंदाज किया जाता है, बांग्लादेश के अवैध घुसपैठियों और रोहिंग्याओं का तहे दिल से स्वागत किया जाता है. सीमांत जिलों से हिंदुओं का पलायन शुरू हो चुका है. यह सब  शुभ संकेत नहीं है और पश्चिम बंगाल में कश्मीर जैसे हालत होने में बहुत कम समय बाकी है. 


ऐसे में किसी ऐसी सरकार की अत्यंत आवश्यकता है जो न केवल तुष्टिकरण रोके बल्कि तेजी से परिवर्तित हो रहे जनसंख्या घनत्व को रोके ताकि न  केवल पश्चिम बंगाल के वर्तमान स्वरूप को बनाए रखा जा सके बल्कि भारत की एकता और अखंडता को सुनिश्चित किया जा सके. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि  वर्तमान परिस्थितियों में भाजपा के अतिरिक्त यह कार्य कोई भी राजनैतिक दल  नहीं कर सकता है. 


भाजपा  के वरिष्ठ नेताओं  विशेषतय: भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन मुद्दों को  बखूबी रेखांकित किया है जिसका लोगों पर बहुत तेजी से असर हुआ है. यही कारण है कि भाजपा की राजनीतिक जमीन में निरंतर सुधार हो रहां  हैं.  पिछले लोकसभा चुनावों की तुलना में राज्य में भाजपा के पक्ष में तेजी से हवा चल रही है और तृणमूल के  कई नेता और ममता बनर्जी के निकट सहयोगी भाजपा में शामिल हो रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बिग्रेड ग्राउंड में हुई रैली में जितना जन सैलाब उमड अगर यह राज्य के लोगों की आकांक्षा का प्रतीक है तो परिवर्तन संभव है.  किसी जमाने के डिस्को डांसर और बॉलीवुड के सुपरस्टार मिथुन चक्रवर्ती ने भाजपा का झंडा  फहराते  हुए फिल्म अंदाज में उपस्थित जनसमूह को परिवर्तन का सीधा सीधा संकेत दे दिया. प्रधानमंत्री की यह रैली प्रदेश में हुई अब तक की सबसे विशाल  रैली थी, जिससे विपक्षी खेमे में चिंता व्याप्त हो गई है.


इससे पहले यहां उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने  भी जय श्री राम के उद्घोष के साथ उत्तर प्रदेश की कानून और व्यवस्था के समक्ष नतमस्तक होते अपराधियों की बानगी प्रस्तुत की जिसे प्रदेश की शांत प्रिय जनता में  नई आशा का संचार  हुआ.  लोगों को मालूम हुआ कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में एक सन्यासी की सादगी और दृढ़ संकल्प ने न केवल उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया है बल्कि अपराधियों और माफियाओं के हौसले पस्त  कर दिए हैं. उत्तर प्रदेश में योगी राज में माफियाओं और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध जितनी कड़ी कार्यवाही हुई है उतनी आजादी के बाद किसी भी सरकार में नहीं हुई है. आर्थिक विकास के मामले में भी प्रदेश ने  छलांग लगाते हुए नया कीर्तिमान स्थापित किया है. भाजपा शासित  प्रदेश का उत्तर प्रदेश मॉडल पश्चिम बंगाल के लोगों में आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. 



पश्चिम बंगाल में इस बार अगर सत्ता परिवर्तन नहीं होता है तो संभवत मुस्लिम तुष्टिकरण के  नए आयाम गढे  जाएंगे और जिसके परिणाम स्वरूप स्थितियां और भयावह होती जाएंगी जो आगे चलकर निश्चित रूप से भारत की एकता और अखंडता के लिए गंभीर चुनौती बनेगी. इसलिए सभी राष्ट्रवादी लोगों को चाहिए कि इन चुनावों को "अभी नहीं तो कभी नहीं" के रूप में किसी दल की सरकार बनाने के लिए नहीं अपितु भारत की  एकता और अखण्डता अक्षुण्ण बनाये  रखने के लिए अपना योगदान देना चाहिए . 

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- शिव मिश्रा 

स्वतन्त्र लेखक और  चिन्तक 

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