सनातन संस्कृति धार्मिकता आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता का समावेश है। लगभग हर तीज त्यौहार में मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी संदेश छुपे होते हैं , जिन्हें भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए इन त्योहारों का बहुत बड़ा योगदान होता है ।
होली का त्यौहार भी ऐसे महान संदेश से ओतप्रोत है । इस त्यौहार को दो भागों में समझ सकते हैं -
- होलिका दहन और
- रंगों का उत्सव
होलिका दहन का बहुत सारगर्भित संदेश है कि मनुष्य को अहंकार नहीं पालना चाहिए क्योंकि अहंकार का अंत होना निश्चित होता है. होलिका दहन अहंकार और आस्था के बीच का युद्ध है जिसमें अहंकार अपनी जलाई हुई आग में स्वयं भस्म हो जाता है किंतु आस्था का कवच जीवन में सार्थकता प्रदान करता है।
हिंदू सनातन वर्ष के अंतिम दिन मनाए जाने वाले इस त्यौहार में प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षा भी की जाती है कि वह पूरे वर्ष में अहंकार वस किए गए सभी त्रुटि पूर्ण कार्यों की समीक्षा करें और अपने अहंकार और अज्ञानता को होली की आग में भस्म कर दे और नए वर्ष में नई शुरुआत करें जिसके केंद्र में प्रेम, हर्षोल्लास और आपसी सौहार्द हो ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप नाम के एक राक्षस ने अपनी तपस्या से ब्रह्मा जी को अत्यंत प्रसन्न किया किंतु ब्रह्मा जी द्वारा अमर होने का वरदान न दिए जाने के बाद भी उसने यह वरदान प्राप्त कर लिया कि उसकी मृत्यु न कोई मनुष्य कर सके न कोई जानवर, न रात में हो न दिन में , न घर में हो न बाहर, न पृथ्वी पर हो न आसमान में।
यह लगभग अमर होने जैसा ही वरदान था और इसके कारण हिरण्यकश्यप में इतना अहंकार आ गया कि उसने अपने आप को भगवान घोषित कर दिया और अपने संपूर्ण राज्य में किसी भी अन्य देवता की पूजा पाठ पर रोक लगा दी।
विडंबना देखिए ऐसे व्यक्ति के घर में उसका पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। यह बात हिरण्यकश्यप को बिल्कुल पसंद नहीं थी और जब प्रहलाद पर उसके समझाने बुझाने का कोई असर नहीं हुआ तो उसने प्रहलाद को जान से मारने का आदेश दे दिया। प्रहलाद को मारने के लिए अनेक प्रयास किए गए किंतु सफलता नहीं मिली .
तब हिरण्यकश्यप की बहन जिसका नाम होलिका था और जिसे यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में रहकर भी सुरक्षित रह सकती थी, ने अपने भाई हिरण्यकश्यप की सहायता करने के उद्देश्य से प्रहलाद को अपनी गोद में बैठा कर जलती चिता में बैठने का षड्यंत्र रचा ताकि इस तरह से प्रहलाद को मारा जा सके।
किंतु जब किसी वरदान का उपयोग इसी का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है तो वह फलीभूत नहीं होता इसलिए होलिका जो प्रहलाद की बुआ थी , जल गई लेकिन भगवान के परम भक्त प्रहलाद सुरक्षित बच गए। बाद में हिरण्यकश्यप का विष्णु भगवान् ने नरसिंह रूप में अवतरित होकर वध किया . प्रहलाद राजा बने और युगों तक अच्छे शासक की भूमिका के बाद आज भी वह ध्रुव तारे के रूप में अमर हैं.
इस घटना को पूरे मानव जाति को चिरकाल तक याद रखने के लिए प्रतिवर्ष हिंदू कैलेंडर के अंतिम माह फागुन के अंतिम दिन (जो पूर्णिमा होता है) होलिका दहन किया जाता है।
फागुन के बाद चैत्र मास की शुरुआत तो होती है जो नए वर्ष का पहला माह होता है लेकिन इस नए नए वर्ष के नए माह के पहले दिन से नए माह की शुरूआत नहीं होती ।
क्यों शुरू नहीं होता है नया वर्ष होली के तुरंत बाद?
चूंकि चैत्र मॉस के पहले पंद्रह दिन ( प्रथम पक्ष ) कृष्ण पक्ष होता है और सनातन संस्कृति में नए वर्ष की शुरुआत अंधकार से करना उचित नहीं माना गया इसलिए नया वर्ष शुक्ल पक्ष शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होता है। जिसे नव रात्र कहा जाता है .
माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के शुक्ल प्रतिपदा में की थी और यह समय ऐसा होता है जब मां आदिशक्ति जिन्हें प्रकृति माना गया है, के विभिन्न रूपों की उपासना की जाती है और विधि-विधान पूर्वक कलश की स्थापना करके घंटा -घड़ियाल और शंख ध्वनि के बीच विश्व कल्याण की कामना की जाती है।
होली और रंगों का महत्त्व -
- पुराने और नए वर्ष के बीच 15 दिन के इस समय कृष्ण पक्ष को समाज में प्रेम के रंग भरने के लिए, आपसी सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए और सामाजिक ताने-बाने में नए नए कलेवर भरने के लिए उपयोग किया जाता है।
- रंगों का इस त्यौहार का आधार और ढंग बेहद मनोवैज्ञानिक है इतना कि यह लोगों के दिलों के बीच की दूरियां समाप्त करके प्रेम और सौहार्द उत्पन्न करने में उत्प्रेरक का काम करता है ।
- सौहार्द विकसित करने, लोगों को निराशा और हताशा से मुक्त करने और प्रसन्न चित्त होकर पुन: विश्व बंधुत्व की भावना के साथ सामाजिक ढाँचे में फिट हो जाने का इतना सटीक मनोवैज्ञानिक उपाय विश्व की किसी अन्य संस्कृति उस प्राचीन युग में सोचा भी नहीं जा सकता था जब भारत में यह प्रचलित हुआ था ।
- विभिन्न पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में निकटता, गहनता और सहजता लाने का इससे उत्कृष्ट उदाहरण नहीं मिलता । रंगों के उत्सव की शुरुआत संभवत उस समय से ही हो गई थी जब रंगों का ज्ञान और प्रचलन शुरू हुआ था ।
- ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे पता चलता है कि अयोध्या में जब राम का राज्य था उस समय भी होली के रंगों का यह त्यौहार प्रचलित था । कृष्ण काल में रंगों का यह उत्सव विभिन्न रूपों में प्रेम का पर्याय बन गया और आज भी ब्रज की होली संसार के प्रसिद्ध प्रेम पर्वों में से एक है।
प्रत्येक युग में और कालखंड में विभिन्न लेखकों, मनीषियों और कवियों ने अपनी अपनी रचनाओं में होली को विभिन्न भावनात्मक रंगों का चरित्र चित्रण अपने अपने अनुसार किया है।
देश के विभिन्न हिस्सों में लोकगीतों, स्थानीय भाषा के गीतों में इसे लोक परंपराओं की तरह तराशा और संजोया गया है। होली में गाए जाने वाले प्रसिद्ध फाग या फाल्गुनी गीत, अवधी, भोजपुरी, बृज भाषा और अन्य स्थानीय बोलियां में संकलित हैं जिनका श्रवण ही मनुष्य को आनंद से ओतप्रोत कर देता है। इनमें धार्मिक , सामाजिक और श्रंगारिक सभी तरह के गीत हैं .
होली से सम्बंधित बड़ी संख्या में गीत और संगीत हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं की फिल्मों में स्थान दिया गया है और कुछ जगह तो इनका चित्रण इतना लाजबाब है कि लोग थिरकने लगते हैं .
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- शिव मिश्रा
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सुंदर अति सुंदर वर्णन।
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