रविवार, 14 जुलाई 2013

हिमालय से भी ऊंचा और राजनीति से भी नीचा

उत्तराखंड मे प्रकृति के रौद्र रूप ने जो विनाश लीला की है उसकी कल्पना करना भी संभव नहीं है । कितने लोग प्रभावित हुए और कितने लोग मारे गए इसकी सही जानकारी उपलब्ध नही है । उत्तराखंड विधान सभाध्यक्ष के अनुसार मरने वालों की संख्या 10 हजार से भी अधिक है किसी ने कहा ये संख्या इससे भी अधिक है। रुद्र प्रयाग व केदारनाथ गए जिले के अधिकारियों ने इस संख्या को बहुत अधिक होने का अनुमान बताया।  किन्तु प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा है कि मरने वालों की सही संख्या का कभी पता नहीं चल सकेगा । शायद सबसे विश्वसनीय और सही बात यही है । प्रकृति के इस तांडव से चमत्कारिक रूप से बच कर आए प्रत्यक्ष दर्शियों और बचाव अभियान मे शामिल लोगो खासतौर से सैन्यकर्मियों से हुई बातचीत से घटना की  विकरालता और बीभत्सता का अंदाजा लगाया जा सकता है। निसंदेह यह इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय और प्राकृतिक आपदाओं मे से एक है।
    16 जून की रात और 17 जून 2013 को सुबह हुए इस हादसे के बाद बचाव अभियान शुरू होने मे कतिपय कारणों से काफी समय लगा। एक कारण तो है दुर्गम पहाड़ी इलाको की भौगोलिक संरचना, संचार माध्यम और संपर्क मार्गों का कटना। दूसरा सबसे बड़ा कारण है इस तरह की आपदाओं से निपटने की कोई अच्छी  तैयारी न होना । तीसरा कारण है विभिन्न एजेंसियों मे तात्कालिक बेहतर तालमेल न होना । कहने की आवश्यकता नहीं कि अगर बचाव अभियान जल्दी और नियोजित तरीके से शुरू हुआ होता तो और भी बहुतों की जान बचायी जा सकती थी । लेकिन जैसी हमारी राजनैतिक व्यबस्था है, और जैसी हमारे देश की अवस्था है, उसमे गंभीर और दूरगामी मसलो पर गंभीरता न होना आश्चर्य जनक नहीं, अवश्यंभावी है । इसलिए इस तरह की विभीषिकाओं से पूरी सक्षमता और तैयारियों से निपटने, जान माल के होने वाले नुकशान  को न्यूनतम करने और तुरन्त अधारभूत ढांचा खड़ा कर पुनर्वास करने की क्षमता हम कब तक विकसित कर पाएंगे, कहा नहीं जा सकता।   
    उत्तराखंड त्रासदी मे सेना और इंडो तिब्बत बोर्डर पुलिस के जवानो ने बहुत ही बहदुरी, जवांजी और कर्तव्य परायणता से लोगो का बचाव किया। घायलो, बुजुर्ग व्यक्तियों और बच्चों को अपनी पीठ, कंधे पर बैठा कर निकाला । एक घटना का जिक्र आवश्यक है, लकड़ी और रस्सियों के एक अस्थायी पुल पर, जिसमे तख्ते कम होने के कारण बड़े बड़े रिक्त स्थान थे और जिससे होकर निकलने पर पानी मे गिर जाने का खतरा था, कई जवान पंक्ति बद्ध होकर पेट के बल लेट गए और उनकी पीठ पर पैर रखते हुए आपदा मे फंसे हुए लोग निकले । ये दृश्य जो भी देखता वह यह जरूर कहता कि ये देश के सच्चे सपूत हैं । इनको देख कर मन मे श्रद्धा उत्पन्न होती है । ऐसे एक नहीं अनेक वाकये है जहां इन जवानो ने अपनी जान की बाजी लगा कर मुशीबत मे फंसे लोगो को निकाला । धन्य है ऐसे जवान और ऐसी सेना । ऐसे बहुत से और लोग है जो स्वयं इस आपदा मे फंसे थे फिर भी उन्होने तमाम अजनबियों की जान अपनी जान जोखिम मे डाल कर बचाई। ये सभी इस देवभूमि मे देवदूत के रूप मे थे । इनकी इंसानियत, पराक्रम, लगन और साहस ने इनका कद हिमालय से भी ऊंचा कर दिया है ।
    केदारनाथ धाम मे जो बादल फटे वो पानी के नहीं, कहर और मुशीबतो के बादल थे। जिसके साथ दुखों के पहाड़ भी टूट टूट कर गिर रहे थे। नदियां ऐसे उफन पड़ी जैसे अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए, मानो प्रकृति अपने खिलाफ किए गए मानवीय अन्याय और शोषण का भरपूर बदला लेना चाह रही थी । जीवन मे एक एक पैसा जोड़ कर जुटाये गए गृहस्थी के सामान जल-प्रवाह मे बह गए और अटूट मेहनत से बनाए  भवन ताश के पत्तों की तरह ढह गए । हर ओर मौत और विनाश का भयंकर तांडव हुआ । तबाही के इस मंजर मे जो भी सैलाव के सामने पड़ा नष्ट हो गया । इनमे स्थानीय लोग और दूसरे प्रदेशों से आए श्रद्धालु दोनों थे । लाशों के ढेर मे दबे रहकर जब कोई जिंदा बच गया तो उसे अपनी ज़िंदगी पर विश्वास ही नहीं हुआ। शायद इसे ही कहते है ज़िंदगी और मौत के बीच का बहुत छोटा फासला । जो बचे थे या जो बच सकते थे उन्हे बचा लिया गया है और इसीके साथ बचाव अभियान समाप्त कर दिया गया है । मृतको के बारे मे एक अधिकारी का बयान “ जहां जिंदा लोगों की गिनती नही वहाँ लाशों की गिनती कौन करेगा ” सत्य किन्तु हैरान करने वाला था । बहुत लाशों का सामूहिक दाह संस्कार कर दिया गया है लेकिन दुर्भाग्य से अभी भी बहुत ऐसे है जिनकी लाशे निकाली नही जा सकी है क्योंकि ये मलबे के ढेर मे दबी है और मलबा हटाने के लिए वैज्ञानिकों से परामर्श किया जाएगा । लेकिन आज भी हजारो लोग अपनों के आने का इंतजार कर रहे है। बहुत सी माँए जिनके बेटे केदारनाथ धाम  रोजी रोटी या  अपनी पढ़ायी के लिए कमाई करने गए थे, उनके वापस आने का इंतजार कर रही है। बहुत सी पत्नियाँ अपने पतियों का, बच्चे अपने माता पिता या भाई बहिनों का इंतजार कर रहे हैं । बहुत से लोग तशवीरें हाथ मे लिए देहरादून, हरिद्वार या ऋषिकेश मे घूम घूम कर अपनों को ढूड रहे हैं और इस बात का जबाब भी कि ऐसे कैसे इस आपदा को यों ही गुजर जाने दिया गया ? पता नहीं उनका इंतजार कब खत्म होगा ? होगा भी या नहीं।
    इस आपदा मे एक काम बहुत अच्छी तरह से हुआ और वह है राजनैतिक रोटियाँ सेंकने का । कई दलों ने राहत सामिग्री से भरे ट्रकों को झंडी दिखा कर रवाना किया जैसे ये आपदा मे नही बल्कि देशाटन के लिए जा रहें हों । ऐसे कई ट्रक डीजल न होने से कई दिन रास्ते  मे ही खड़े रहे और कई ट्रको की खाद्य समिग्री तो पहुँचते पहुँचते खराब हो गई थी ।  काफी समिग्री बांटने मे हुयी देरी के कारण पड़े पड़े खराब हो गई थी। भला हो स्वयं सेवी संगठनों का जिन्होने सबसे पहले जो कुछ भी उनसे हो सका पहुंचाया। गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी भी प्रभावित इलाको के दौरे पर पहुंचे। उनके हेलेकोप्टर को प्रभावित इलाकों मे  उतरने नही दिया गया तो उन्होने हवाई सर्वेक्षण ही किया । मोदी जाएँ और चर्चा न हो, सियासत न हो, हो ही नही सकता । 18 हजार गुजरातियों को बचाने की मीडिया मे खबर आने के बाद तो तूफान खड़ा हो गया । उन्हे तरह तरह की उपाधियों से विभूषित किया गया । लेकिन इसका प्रभाव ये हुआ कि लगभग हर बड़े दल के नेताओं ने हवाई सर्वेक्षण किए और हर दल मे अपने अपने प्रदेश के लोगो के ले जाने की होड लग गई । हरिद्वार और देहरादून मे बसो की भीड़ हो गई । चूंकि मोदी ने चार्टड हवाई जहाज से भी देहरादून से अहमदाबाद तक ले जाने की अपने प्रदेश के प्रभावितों के लिए व्यवस्था की थी, कई दल इस अभियान मे कूद पड़े और अपने अपने प्रदेश वासियो के लिए हवाई जहाज की व्यवस्था कर ली । कई दलों के शीर्ष नेता देहरादून हवाई अड्डे पर यात्रियों को  अपने अपने जहाज मे बैठाने के लिए झगड़ते देखे गए जैसा कि आमतौर पर टैंपो चालको के बीच सवारिया भरने को लेकर होता है । कई सियासी दल आपसी वाक्युद्ध मे इतना उलझे कि सभी समाचार पत्रो और टीवी पर छा गए और जो समय और जगह  आपदा प्रबंधन पर विश्लेषण के लिए उपयोग होता, सूचनाए देने के लिए स्तेमाल होता, बलात छिन गया। इससे बचाव अभियान प्रभावित नही हुआ होगा, नही माना जा सकता । बहुत से लोग इस बात का जबाब भी ढूड रहे है कि  राजनीति का निम्नतम स्तर क्या हो सकता है ?
प्रकृति की इस महाविनाश लीला के बीच मानवीय समवेदनाओं की कसौटी पर एक और कृत्य इंसानियत को कलंकित कर गया। खबर है कि कुछ लोगो ने अस्सीम संकट की इस घड़ी मे घायलो को लूटा । महिलाओ से  अभद्रता की, उनके गहने जेवर लूट लिए और उनकी इज्जत पर हमला किया। कुछ घायल जिन्हे सहायता की सख्त जरूरत थी, इस छीना झपटी मे बच नही सके । लाशो से अंगूठिया और बालिया निकालने के लिए इन दानवीय लुटेरों ने उनके कान और अंगुलियाँ काट ली । ऐसे कई लोगो को सेना के जवानो ने स्वर्ण आभूषणो और बहुत नकदी के साथ पकड़ा। मानवीय मूल्यो की इतनी गिरावट ओफ ! शायद ये अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गयी है, राजनीति से भी नीचे ।
    सही अर्थों मे राहत और बचाव का कार्य अभी खत्म नहीं हुआ है। उजड़े हुए लोगो को बसाना, उन्हे जीविकोपार्जन मे सक्षम बनाना, बहुत चुनौती पूर्ण कार्य है। बहुत से बच्चे अनाथ हो गए है उन्हे पढ़ाना, लिखाना और समाज की मुख्यधारा मे शामिल करना, बहुत बड़ा लक्ष्य है । लेकिन इसे सभी को मिलकर पूरा करना है । केवल सरकारें इस कार्य को पूरा नहीं कर सकती । इसमे सभी के सहयोग की आवश्यकता है । आइये हम सब मिलकर इस कार्य मे सहयोग करें, पुनीत कार्य समझ कर नहीं बल्कि अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर ॥****॥    
- शिव प्रकाश मिश्रा  
 

1 टिप्पणी:

  1. Respected sir,
    Apka chintan and mannan sachmuch aditiya hai.
    As human memory is short, we are going to forget this event gradually,you draw our attention once again and inspired me a lot and upto soul. May God bless you with long life and sound health to you and your chintan & lekhan.
    With sincere regards.
    Pradeep

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