सोमवार, 19 दिसंबर 2022

न्याय पर कोलीजियम का कहर

 

न्याय पर कोलीजियम का कहर 

इस बिषय को विस्तार से समझने के लिए You Tube पर तीन विडियो देखना उपयोगी होगा 


कोलेजियम  पार्ट 1




कोलेजियम पार्ट 2




कोलेजियम पार्ट 3  


कोलीजियम व्यवस्था को लेकर आजकल सरकार और सर्वोच्च न्यायालय आमने सामने हैं. पूरे मामले से ऐसा भ्रम  उत्पन्न होता है कि जैसे सर्वोच्च न्यायालय न्यायपालिका को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है और मोदी सरकार न्यायपालिका को अपनी मुट्ठी में करने के लिए  कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त करना चाहती है. दरअसल यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति कोई प्रक्रिया नहीं दी गई है ओर मोदी सरकार द्वारा बनाए गए कानून को 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था.

कोजियम व्यवस्था मजबूरी में न्यायपालिका को राजनैतिक दबाव से मुक्त करने के लिए 28 अक्तूबर 1998 को तीन न्यायाधीशों के एक फैसले द्वारा कोलेजियम व्यवस्था यह प्रभाव में लाई गई थी. इस व्यवस्था को स्वयं न्यायाधीशों ने लागू किया और इसका संविधान  से कोई लेना देना नहीं है। उस समय  इस व्यवस्था को लागू करना साहसिक कदम था और  बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इसकी सराहना की गयी थी. मुझे लगता है कि राजनीतिक दबाव और दखलंदाजी से त्रस्त सर्वोच्च न्यायलय ने अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए यह कदम बेहद मजबूरी में उठाया था और उस समय यह आवश्यक भी था क्योंकि तब तक सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु कोई कानून नहीं बना सकी थी और मनमाने ढंग से न्यायाधीस्शों की नियुक्ति के जा रही थी. अब परस्थितियाँ बदल गयी है, और इस व्यवस्था में अनेक स्वार्थ और भाई भतीजावाद हावी हो गया है किन्तु यह व्यवस्था नहीं बदल रही. न्यायिक स्वतंत्रता की आड़ मे पिछले 24 सालों से इस व्यवस्था के अंतर्गत उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के लिए  न्यायाधीशों को नियुक्त किया जा रहा है।

 यह जान लेना आवश्यक है कि आजादी के 50 वर्ष बाद  सर्वोच्च न्यायालय को कोलेजियम व्यवस्था लाने की क्या मजबूरी थी? उस समय तक कुछ  वर्षों कुछ छोड़कर ज्यादातर समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही. इस पूरे कालखंड में सर्वोच्च न्यायालय सामान्यतय: केंद्र सरकार के दबाव में काम करता रहा, उसका कारण भी केंद्र सरकार द्वारा न्यायाधीशों की मनमानी नियुक्ति और उसके प्रसाद स्वरूप राजनैतिक निर्णय प्राप्त करना था.   आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि केंद्र में सत्तारूढ़ कोई राजनीतिक दल अपने किसी राजनीतिक कार्यकर्त्ता को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना सकता है, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा किया. इंदिरा गाँधी का शासनकाल तो इस मामले में बहुत  कुख्यात हैं, जो कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा.  

एक थे के एस हेगड़े, जो कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य थे, जिन्हें कांग्रेस ने त्यागपत्र दिलवाकर  मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया. प्रोन्नति पाकर वे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी बन गए. इंदिरा गांधी द्वारा मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने में उनकी वरिष्ठता की अनदेखी किए जाने से नाराज होकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था  और कांग्रेस उम्मीदवार के विरुद्ध बैंगलोर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत कर लोक सभा पहुँच गए. यानी एक सांसद उच्च न्यायलय और सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बन गया और फिर चुनाव जीत कर संसद पहुंच गया. 

कांग्रेस के एक अन्य राज्यसभा सदस्य थे बहरुल इस्लाम जो १९५६ से कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे, को इंदिरा गाँधी ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया था, जहाँ वह मुख्य न्यायाधीश भी बनाये गए. उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्ति होने के बाद श्रीमती गाँधी ने  उन्हें पुनः सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया, जो बहुत असामान्य था.  उन्होंने सहकारी बैंक घोटाले में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को बरी कर दिया था.  सर्वोच्च न्यायालय से त्यागपत्र दिलवाकर श्रीमती गांधी  ने उन्हें फिर राज्यसभा का सदस्य बना दिया ।

राजनीति और न्यायपालिका के  इतने बड़े  घालमेल की कोई भी तारीफ नहीं कर सकता.  सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राज्यसभा भेजने, राज्यपाल और उप राष्ट्रपति बनाने के अलावा आयोगों का अध्यक्ष बनाने का खेल कांग्रेस ने बहुत ही बेईमानी और अमर्यादित ढंग से खेला, फिर भी न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा  जैसे न्यायाधीश भी इसी व्यवस्था  की देन हैं, जिन्होंने सभी प्रलोभनों और दबावों को दरकिनार करते हुए इंदिरा के विरुद्ध फैसला दिया जिससे उनकी संसद सदस्यता ख़त्म हो गयी.  

मुम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस अभय थिप्से  नें सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गुजरात के भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा किया था और मालेगांव विस्फोट मामले में कहा था कि ये विस्फोट हिंदू संगठनों द्वारा किया गया है। उनके फैसले में कांग्रेस की राजनीति की झलक थी. २०१८ उन्होंने त्यागपत्र देकर कांग्रेस पार्टी ज्वॉइन की, और नीरव मोदी के मामले में  ब्रिटेन की अदालत को झूठा हलफनामा भी दिया जिसे ब्रिटिश अदालत ने पकड़ लिया और विश्व भर में  भारतीय न्यायपालिका की किरकिरी हुई.

मुझे लगता है कि कोलेजियम व्यवस्था शायद इसी राजनीतिक घालमेल को दूर करने के लिए बेहद मजबूरी में लाई गई होंगी, जिसमें  कालांतर में स्वार्थ बस कई विसंगतिया आ गई.   न्यायाधीशों की नियुक्ति का यह कोलेजियम पैनल सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में चलाया जाता है जिसमें चार  अन्य न्यायाधीश सदस्य होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय  और उच्च न्यायालयों के सभी न्यायाधीश अपनी अपनी सिफारिशें कोलेजियम को भेजते हैं, जहाँ उन पर विचार करके अंतिम निर्णय लिया जाता है और उसे केंद्र सरकार को नियुक्ति के लिए भेज दिया जाता है।

स्पष्ट है कि सभी न्यायाधीश अपने कार्यकाल में संपर्कों के आधार पर किसी न किसी की नियुक्ति करवा लेते हैं. न्यायाधीशों की नियुक्ति की इस व्यवस्था में सरकार की कोई भूमिका नहीं है, जो  भेजे गए नामों को पुनर्विचार के लिए सर्वोच्च न्यायालय को वापस तो कर सकती है लेकिन यदि सर्वोच्च न्यायालय फिर से उन्ही नामों  की सिफारिश करता है तो सरकार को उनकी नियुक्ति करना बाध्यकारी होता है। इसलिए सरकार कई विवादित नामों को लंबे समय तक लटकाए रहती है, और यही सर्वोच्च न्यायालय से अनबन का मुख्य कारण है.

यदि उच्च न्यायालयों  और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का रिकॉर्ड खंगाला जाए तो पता चलता है  कि कुछ परिवारों के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी न्यायाधीश बनते जा रहे हैं. मुख्य न्यायाधीश का बेटा भी मुख्य न्यायाधीश बन जाता है. एक कहावत प्रचलन में है कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कोई भी ऐसा न्यायाधीश नहीं होता है जो बिना किसी जस्टिस अंकल के नियुक्त हुआ हो. भाई भतीजावाद की ऐसी बीमारी तो शायद ही किसी सरकारी विभाग में हो. इस सब के बाद भी  उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में नैतिकता कम हठधर्मी ज्यादा दिखाई पड़ती हैं. कई न्यायाधीश अपनी ऊट पटांग टिप्पणियों और वक्तव्यों के लिए कुख्यात रहते हैं. ऐसा तभी हो संभव है जब उन्हें लगता हो कि उनके ऊपर कोई भी नहीं, जो लोकतंत्र के लिए स्वयं गंभीर  खतरा है. ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि इतनी लाभदायक कोलेजियम व्यवस्था को सर्वोच्च न्यायालय कैसे छोड़ सकता है जिसमें हर न्यायाधीश का लाभ होता हो.  

पिछले कुछ समय से कानून मंत्री किरण रिजिजू कॉलेजियम व्यवस्था पर अपनी बेबाक टिप्पणियां कर रहे हैं, यद्यपि उसमें  कहीं भी सर्वोच्च न्यायालय के प्रति असम्मान, अवज्ञा या अवमानना परलक्षित नहीं होती फिर भी उनकी टिप्पणियों से सर्वोच्च न्यायालय बहुत  तिलमिलाया हुआ है.

इसमें कोई संदेह नहीं की कोलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत एक न्यायाधीश ही दूसरे न्यायाधीश की नियुक्ति करता है, जो दुनिया के किसी भी देश में नहीं होता. इस प्रक्रिया में  पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव है. तकनीकी आधार पर देखा जाए तो इन न्यायाधीशों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, कॉलेजियम केवल चयन करके नाम भेजता है. प्रश्न है की जब सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया पर एकाधिकार  है, और  वह इतना सक्षम है तो फिर सीधे इन चयनित न्यायाधीशों की नियुक्ति क्यों नहीं कर देता, केंद्र सरकार को नाम भेजने की क्या आवश्यक्ता? इसका सीधा सा मतलब है की नियुक्ति तो  केंद्र सरकार ही करती है किन्तु चयन का एकाधिकार सर्वोच्च न्यायालय ने जबरन अपने पास रखा है.

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का इससे बड़ा दुरुपयोग और कुछ नहीं हो सकता. सर्वोच्च न्यायालय, न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर संसद से ऊपर नहीं हो सकता. लोकतंत्र मेँ कानून बनाने का और संवैधानिक पदों को भरने का अधिकार संसद  के पास है. न्यायाधीशों के वेतन भत्ते ओर सेवा नियमावली आदि का निर्धारण संसद करती है. इससे कोई भ्रम नहीं है कि न्यायाधीश भी अन्य केन्द्रीय कर्मचारियों के सामान ही सरकारी कर्मचारी हैं. चूंकि  सभी संवैधानिक पदों पर नियुक्तियाँ सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं,  जिसमें न्यायाधीश भी शामिल है,  स्पष्ट है कि कोलेजियम  व्यवस्था न तो संवैधानिक है और न हीं संवैधानिक पदों पर नियुक्ति की चयन प्रक्रिया के अनुरूप है.

न्यायपालिका पर राजनीतिक स्वार्थ हावी न हो, और सर्वोच्च न्यायालय संविधान और कानून के रक्षक की भूमिका निभा सके, इसके लिए आवश्यक है कि कोई न कोई ऐसा फॉर्मूला बनाया जाए जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी निष्पक्ष और भाई भतीजावाद से मुक्त बनाया जा सके. इसके लिए जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय और सरकार मिल बैठकर ऐसी किसी व्यवस्था पर सहमत हों.

-    शिव मिश्रा

 

 

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