शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

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रंजन विहीन अधीर कांग्रेस - स्वत: समाप्ति की ओर

 


संवेदनाहीन कांग्रेस का बौद्धिक क्षरण

लंबे समय से कांग्रेस परिवारवाद की गंभीर बीमारी का शिकार तो है लेकिन अनुशासनहीनता, पलायन, जड़ता के बाद अब मूढ़ता ने भी कांग्रेस को घेर रखा है. 1885 में एक अंग्रेज ए ओ ह्यूम  द्वारा कांग्रेस का गठन इस उद्देश्य से किया गया था कि इससे भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए वार्ता करने हेतु एक माध्यम उपलब्ध कराए जा सकेगा और स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा अंग्रेजी शासन के विरोध की धार को भी कुंद किया जा सके और आंदोलनों के फलस्वरूप सार्वजनिक संपत्तियों को होने वाले नुकसान को रोका जा सकेगा. शुरुआती दौर में कांग्रेस अंग्रेजों के हाथ का खिलौना थी लेकिन जैसे जैसे इसमें राष्ट्रवादी नेताओं का जुड़ाव होता गया स्वतंत्रता आंदोलन की धार दिन प्रति दिन और तेज होती गई.

अंग्रेजों ने बहुत चतुराई से दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी को स्पीड ब्रेकर के रूप में भारत बुला लिया. भारत आकर उन्होंने अंग्रेजी सरकार और आंदोलनों के बीच समन्वय बनाना शुरू कर दिया और धीरे धीरे वह कांग्रेस के निर्विवाद नेता बन गए. कांग्रेस पर एक तरह से उनका पूरा पूरा आधिपत्य हो गया. उन्होंने कांग्रेस को जैसा चाहा वैसा चलाया और हमेशा अंग्रेजी सरकार से टकराव का रास्ता टालने का काम किया जो अंग्रेजी सरकार का उद्देश्य था. इसीलिए कांग्रेस बनने के बाद भी 60 वर्ष तक अंग्रेजी शासन बड़े आराम से भारत में बना रहा लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब अंग्रेजों को सुभाष चंद बोस, तथा अन्य क्रांतिकारियों के दबाव तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदलती परिस्थितियों और ब्रिटेन के लिए भारत की सत्ता गैर लाभकारी हो जाने के कारण भारत छोड़ना पड़ा तो गांधीजी ने कांग्रेस को समाप्त कर देने का प्रस्ताव दिया था. इसका कुछ भी अर्थ लगाया जा सकता है एक तो  अंग्रेजों का भारत से शासन खत्म हो गया था, इसलिए कांग्रेस का बने रहना अंग्रेजों की आवश्यकता नहीं थी और दूसरा चूंकि  भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हो चुकी थी इसलिए भी कांग्रेस के गठन का उद्देश्य पूरा हो गया था, इसलिए भी कांग्रेस का समाप्त हो जाना  उचित था.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद  भी नेहरू ने कांग्रेस को खत्म नहीं होने दिया और  गांधी के निधन के बाद कांग्रेस पूरी तरह से उनके कब्जे में आ गई थी. तब से लेकर आज तक कांग्रेस पर नेहरू परिवार का वर्चस्व कायम है. नेहरू की नीतियों के कारण कई बड़े नेता कांग्रेस छोड़ने लगे थे और ये सिलसिला इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल में और बढ़ गया. यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इंदिरा गाँधी स्वयं कांग्रेस के  विभाजन का कारण बनी और उन्होंने विभाजित कांग्रेस के एक धड़े पर अपना साम्राज्य खड़ा किया. जिसके बाद उनके कब्जे वाली कांग्रेस पूरी तरह से परिवारवादी पार्टी बन गई.

1975 में आपातकाल लगाने और उसकी ज्यादतियों के विरोध में जनता का गुस्सा चरम पर था और इसे भांपते हुए कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी छोड़ दी थी. ये सिलसिला राजीव गाँधी के शासनकाल में भी चलता रहा जब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में कई बड़े नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी थी. कांग्रेस ने 1991 में पीवी नरसिंहा राव और 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाई लेकिन दोनों ही बार सरकार जाने के बाद कई नेताओं ने पार्टी छोड़ी. 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से कांग्रेस से पलायन का सिलसिला और तेज हो गया जो अब तक जारी है. ऐसा लगता है कि अब कांग्रेस में वही नेता बचे हैं जिनका कोई विशेष जनाधार नहीं है और जिन्हें गाँधी परिवार से अलग होकर अपना कोई भविष्य दिखाई नहीं देता. वैसे तो कांग्रेस में कभी भी गाँधी परिवार के कट्टर समर्थकों की कमी नहीं रही लेकिन इंदिरागांधी के उदय के बाद से लेकर अब तक गाँधी परिवार के अति विश्वासपात्र ही सत्ता संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं.

कांग्रेस में होते रहे इस तरह के पलायन से न केवल प्रखर और तेजस्वी नेता कांग्रेस से निकलते चले गए बल्कि समाज के बौद्धिक वर्ग का जुड़ाव भी कांग्रेस से धीरे धीरे कम होता चला गया. गाँधी परिवार के नेताओं में भी क्रमिक रूप से बुद्धि, विवेक और राजनीतिक सूझबूझ की कमी होती चली गयी. सोनिया गाँधी का विदेशी मूल का होना उनके विरुद्ध जाता है और लगभग 54 साल पहले किसी भारतीय से विवाह करने के बाद भी आज तक ठीक से हिंदी न बोल पाना भी उनके जनता से जुड़ाव न हो पाने का एक प्रमुख कारण हैं. उनके बाद कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गाँधी भी अब तक भारत की राजनीति में कोई छाप नहीं छोड़ सके हैं. अक्सर अपनी अविवेकपूर्ण टिप्पणियों से अपनी  और कांग्रेस की जगहंसाई कराते हैं. वह अपने  गैर जिम्मेदार वक्तव्यों से अक्सर जनता के कोपभाजन का शिकार भी बनते हैं. 50 वर्ष की उम्र पार करने के बाद भी उनमें राजनैतिक परिपक्वता, सूझबूझ और  सुलझे हुए नेता के लक्षण दूर दूर तक नजर नहीं आते.

राहुल के बाद ट्रम्प कार्ड के तौर पर प्रियंका वॉड्रा पर दांव लगाना भी कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा नहीं हुआ क्योंकि उनकी राजनीति में आने से पहले ही उनके पति रॉबर्ट वाड्रा अपनी कारगुजारियों से देश में कुख्यात हो चुके थे जिसका भूत कभी प्रियंका वाड्रा का साथ नहीं छोड़ता. उत्तर प्रदेश में २०१७ और २०२२ में हुए विधान सभा चुनाव और २०१९ के  लोकसभा चुनाव की कमान संभालने के बाद भी वह प्रदेश में पार्टी का जनाधार भी नहीं बचा सकी. उत्तर प्रदेश से पार्टी का केवल एक लोकसभा सांसद हैं और वे स्वयं सोनिया गाँधी है, विधानसभा में पार्टी के केवल दो विधायक हैं और विधान परिषद से पार्टी का सफाया हो चुका है. पार्टी की आशा के विपरीत उन्होंने प्रदेश में जो कुछ भी किया वह काम कम कारनामे ज्यादा है. कांग्रेस ने तुष्टिकरण की पराकाष्ठा पार करने के बाद हिंदुत्व का चोला ओढ़ने की कोशिश जरूर की और राहुल और प्रियंका खूब मंदिर परिक्रमा करते रहे और अपना गोत्र बताते रहे लेकिन स्थिति हास्यास्पद होती गयी.

चापलूसो,चाटुकारों और पारिवारिक निष्ठावान नेताओं पर भरोसा करने वाले गाँधी परिवार ने पार्टी के बुद्धिमान और तेजस्वी नेताओं की हमेशा से ही उपेक्षा की और देश की राजनीति के बदलते समीकरणों में ऐसे सभी नेता एक एक करके पार्टी छोड़ते चले जा रहे हैं. शायद अब केवल ऐसे ही लोग बचे हैं जिन्हें अभी कहीं और ठिकाना नजर नहीं आता. कांग्रेस को अभी भी इस सबसे कोई चिंता नहीं है और अभी भी  अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे नेताओं को ही बैठाया जा रहा है जो केवल परिवार के प्रति निष्ठावान है.

लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी भी इसी श्रेणी के नेता है जो कांग्रेस की प्रतिष्ठा केवल सदन में ही  नहीं बल्कि समूचे देश में  जनता की नजरों में गिराने का काम बड़ी मेहनत, सिद्दत  और निष्ठा से करते चले आ रहे हैं. उन्होंने धारा 370 हटाने का विरोध करते हुए कहा था कि जब मामला संयुक्त राष्ट्र में विचाराधीन है तो इसे कैसे हटाया जा सकता है. उन्होंने यह भी कहा था कि पाकिस्तान को विश्वास में लिए बिना यह काम करना देश हित में नहीं है. उन्होंने लद्दाख और जम्मू कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश बनाने का भी विरोध किया था. नया मामला यह है कि अधीर रंजन चौधरी ने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपत्नी कहकर संबोधित किया. उन्होंने पहले राष्ट्रपति शब्द स्तेमाल किया थी बाद में जानबूझ कर राष्ट्रपत्नी कहा जैसे कि पहले जो कहा था वह गलत था, "राष्ट्रपति नहीं राष्ट्रपत्नी...  हिन्दुस्तान की राष्ट्रपत्नी जी सभी के लिए है उनके लिए क्यों नहीं है. इस पर लोकसभा में काफ़ी हो हल्ला हुआ, और सोनिया गाँधी और स्मृति इरानी में काफी नोकझोंक भी हुई. यद्यपि अधीर रंजन चौधरी ने यह तो कहा कि उनसे चूक हो गयी लेकिन उन्होंने साफ शब्दों में माफी नहीं मांगी. यही नहीं कांग्रेस के नेता उदयराज और रेणुका चौधरी ने भी कहा कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है. इससे पहले कांग्रेस के नेता अजय कुमार ने भी द्रोपदी मुर्मू के बारे में विवादास्पद बयान दे चुके हैं. 

अधीर रंजन का पिछला रिकॉर्ड बहुत ख़राब है, उनकी जबान नहीं फिसलती बल्कि  उनके पास फिसला हुआ दिमाग है. पहले भी इंदिरा और मोदी तुलना करते  हुए उन्होंने कहा था कि कहाँ मां गंगा ( इंदिरा जी ) और कहाँ गंदी नाली (मोदी). ये सभी बयान  गांधी परिवार के सदस्यों से मिलते जुलते हैं, जैसे जहर की खेती, मौत का सौदागर, नाली का कीड़ा आदि . हो सकता है  इसीलिये उन्हें  लोकसभा में कांग्रेस का नेता पद दिया गया हो.         

आजादी के 75 साल तक कांग्रेस ने जिस आदिवासी समाज की सुधि नहीं ली, उस समाज की प्रथम राष्ट्रपति और देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति का चुनाव में विरोध करके कांग्रेस पहले ही पूरे देश को गलत संदेश दे चुकी है, रही सही कसर अधीर रंजन ने पूरी कर दी. पता नहीं कभी ऐसा समय आएगा भी या नहीं जब कांग्रेस का ब्रेन ड्रेन रुकेगा और पार्टी परिवारवाद की छाया से निकलकर वह अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व का निर्वहन कर पाएगी या गांधी की इच्छानुरूप स्वत: समाप्त हो जायेगी.

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                 - शिव मिश्रा  

            responsetospm@gmail.com

 

 

 

 

शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

योगी के विरुद्ध षड्यंत्र






योगी की तपस्या और उ.प्र. की समस्या

उत्तर प्रदेश में पिछले 5 साल से अधिक समय से मुख्यमंत्री रहते हुए योगी आदित्यनाथ ने कानून व्यवस्था सहित प्रदेश की शासन व्यवस्था में कई उल्लेखनीय कीर्तिमान स्थापित किए जिसमें सबसे प्रमुख है - सांप्रदायिक दंगों से मुक्ति, माफियाओं पर कठोर शिकंजा और भ्रष्टाचार रहित सरकार. इसके लिए योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री के रूप में कड़ी तपस्या की है, और जिसके परिणाम स्वरूप जनता में उनकी छवि बेहद कुशल और निष्पक्ष प्रशासक  की बनी और  सत्ता में उनकी पुनः वापसी हुई. आज पूरे देश में बुल्डोजर बाबा के नाम से विख्यात योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री मोदी के बाद दूसरे सबसे बड़े लोकप्रिय नेता बन गए हैं. लोग उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. सोशल मीडिया को अगर जन सामान्य की इच्छा और अभिव्यक्ति की बानगी देखा जाए तो पूरे देश में ज्यादातर लोग उन्हें मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद का सबसे उपयुक्त उम्मीदवार मानते हैं. ऐसे में ठीक है कि उत्तर प्रदेश के  मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल पूरे भारत में जनता की कसौटी पर हमेशा कसा जाता है और इससे योगी की जिम्मेदारी ही नहीं, पूरे भारत की जनता के प्रति जवाबदेही और भी बढ़ जाती है. उनकी निष्पक्षता, कर्मठता, ईमानदारी और सन्यासी के रूप में सनातन संस्कृति प्रति समर्पण पर किसी को कोई भी संदेह नहीं है किन्तु  राज्य सरकार के स्तर पर हुई एक भी राजनीतिक और प्रशासनिक चूक से जनता आहत होती है जो योगी की छवि पर भी प्रतिकूल असर डालती है.  

हाल  में उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के स्थानांतरण में हुई गड़बड़ियों के कारण उपजी परिस्थितियों ने इस बात को रेखांकित किया है कि वह प्रदेश की नौकरशाही के मकड़जाल और भ्रष्टाचार के षड्यन्त्र से मुख्यमंत्री के पद को पूरी तरह से अलग करने में सफल नहीं हो पा रहे है. ठीक इसी समय एक राज्य मंत्री के इस्तीफ़े ने घटनाक्रम को बेहद जटिल और अपयशकारी बना दिया है. स्थानांतरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे सभी अधिकारी और कर्मचारी संतुष्ट नहीं हो सकते लेकिन मृतक कर्मचारियों का स्थानांतरण, एक ही कर्मचारी का एक से अधिक जगह स्थानांतरण, और नीति के विरुद्ध स्थानांतरण निश्चित रूप से संबंधित प्रशासनिक अधिकारियों की अक्षमता और घोर लापरवाही का ज्वलंत उदाहरण है. यह इस बात का भी प्रमाण है कि विभाग और उनके नियंत्रक  प्राधिकारी आज भी गंभीर विषयों पर उदासीनता का रवैया अपना रहे हैं.

बड़ी बड़ी कंपनियों और प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों के  स्थानांतरण आदेश जारी किए जाने से पहले एक लंबी प्रक्रिया का पालन किया जाता है जिसके अंतर्गत अनुकंपा, प्रशासनिक और तकनीकी आधार पर किए जाने वाले स्थानांतरणों की अलग अलग सूची बनाई जाती है जिसका कई स्तर पर सत्यापन और प्रमाणन किया जाता है ताकि गलती की कोई संभावना न रहे. प्रशासनिक और तकनीकी आधार पर किए जाने वाले स्थानांतरण पर गहन मंथन किया जाता है और कर्मचारियों अधिकारियों की उपयोगिता को हमेशा ध्यान में रखा जाता है. सुविधा के अनुसार छोटे छोटे समूहों में दो तीन बार में  स्थानांतरण किए जाते हैं, ताकि स्थानांतरण प्रक्रिया से सामान्य कामकाज प्रभावित न हो और मेले जैसा माहौल भी न बने. स्थानांतरण करने का उद्देश्य उत्पादकता बढ़ाना और लंबे समय तक एक ही जगह रुके रहने के कारण निजी स्वार्थ विकसित न होने देना होता है. केवल औपचारिकता निभाने के लिए स्थानांतरण करना बिल्कुल भी उचित नहीं है क्योंकि स्थानांतरण से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है.

सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में क्या कोई इस बात पर भरोसा कर सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास उसके कर्मचारियों का सही डेटा भी उपलब्ध नहीं है अन्यथा कम से कम मृतक कर्मचारियों के स्थानांतरण जैसी शर्मनाक घटना नहीं होती. पहले भी प्रदेश में मृतक कर्मचारियों की चुनाव ड्यूटी लगती रही है और ये  हास्यास्पद कारनामे आज भी पहले की तरह ही हो रहे हैं. कर्मचारियों का डिजिटल रिकॉर्ड न होने के कारण न जाने कितने फर्जी शिक्षक, कर्मचारी और अधिकारी उत्तर प्रदेश सरकार के कार्यालयों में विधिवत कार्य कर रहे हैं, जो व्यवस्था पर बदनुमा दाग है. ऐसा नहीं हो सकता है कि इस स्थानांतरण में हुई गड़बड़ियां केवल मानवीय भूल, अक्षमता और प्रशासनिक चूक है, बल्कि इसमें भ्रष्टाचार का भी बहुत बड़ा खेल हो सकता  है.  साथ ही साथ मुख्यमंत्री की बेदाग छवि को नुकसान पहुंचाना और विभिन्न मंत्रियों के बीच खाई पैदा करना भी एक उद्देश्य हो सकता है. स्वाभाविक है कि इस सबके पीछे केवल छोटे अधिकारी ही नहीं बल्कि प्रदेश की जिम्मेदार बड़े अधिकारी भी शामिल हो सकते हैं. प्रदेश में पहले भी स्थानांतरण के सालाना जलसे को आंधी के आम की तरह लूटने और अपनी जेब भरने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. हो सकता है आपकी बार ऐसा न हुआ हो लेकिन फिर इतनी गड़बड़ियां क्यों?  

अबकी बार हुए स्थानांतरण में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि संबंधित मंत्री भी इसका विरोध कर रहे हैं स्वाभाविक है कि इन मंत्रियों की भी स्वीकृति नहीं ली गई होगी जो मान्य लोकतांत्रिक व्यवस्था के सर्वथा विपरीत है क्योंकि अगर कोई मंत्री अपने विभाग के लिए उत्तरदायी हैं तो वह अपने विभाग के कर्मचारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए उत्तरदायी क्यों नहीं है. इसका मतलब यह बिलकुल भी नहीं है कि हर ट्रांसफर मंत्री स्तर पर ही स्वीकृत किया जाएगा किंतु कर्मचारियों की कैटेगरी के अनुसार विभिन्न अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी जा सकती है जो  विभागाध्यक्ष / संबंधित मंत्री के लिए जवाबदेह हों. कोई भी विभागाध्यक्ष उस विभाग के मंत्री से बड़ा तो नहीं हो सकता और जब मंत्री स्वयं इस स्थानांतरण की आलोचना कर रहे हो तो  स्थिति बहुत ही विचित्र और गंभीर हो जाती है. आखिर वे कौन अधिकारी हैं जिन्होंने संबंधित विभागों के स्थानांतरण को स्वीकृति प्रदान की और मंत्रियों को भरोसे में नहीं लिया? क्यों न  स्थानांतरण में हुई गड़बड़ियों के लिए उनके विरुद्ध सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए जो उदहारण बन सके? ऐसी कार्रवाई करते समय यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कहीं ये जिम्मेदारी भी ऐसे अधिकारियों को न दे दी जाए जो स्वयं भी इस तरह की गड़बड़ी में शामिल रहे हो और कार्रवाई के नाम पर एक बार फिर सरकार की छवि को चोट पहुँचाए. योगी जी को यह ध्यान रखना चाहिए कि पहले भी कई सरकारों में तबादला उद्योग सुनाई पड़ता था, जिसमें सरकार के मंत्री भी शामिल रहते थे. वर्तमान स्थानांतरण में की गई गड़बड़ियां कहीं उसी उद्योग को पुन: स्थापित करने का प्रयास तो नहीं है.

एक राज्य मंत्री के इस्तीफ़े ने न केवल स्थानांतरण में हुई गड़बड़ियों बल्कि सरकार के उच्चाधिकारियों द्वारा मंत्रियों की बात की अनदेखी करने के मुददे को सुर्खियों में ला दिया है. संबंधित मंत्री द्वारा अपने त्यागपत्र को केंद्रीय गृह मंत्री को भेजने और उसे मीडिया में सार्वजनिक करने के राजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं, फिर भी प्रदेश के उच्च अधिकारियों पर लगाए गए उनके आरोप इसी बात की पुष्टि करते हैं कि प्रदेश के अधिकारी किसी की भी नहीं सुनते, न जनता और न मंत्री, तो ये अधिकारी किसके प्रति जिम्मेदार हैं. इसके निवारण के लिए ही मुख्यमंत्री ने कई मंत्री समूह बनाकर विभिन्न क्षेत्रों में भेजे थे जिन्होंने आकर अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंपी थी, उस पर क्या कार्रवाई हुई यह तो नहीं मालूम लेकिन स्थितियों में  बहुत सुधार हुआ हो ऐसा नहीं लगता. इस विषय पर अत्यधिक गंभीरता पूर्वक कार्रवाई करने और शीर्ष स्तर पर अधिकारियों के स्वार्थपूर्ण गठजोड़ को तोड़ने की अत्यंत आवश्यकता है, अन्यथा सरकार की प्रतिष्ठा पर और अधिक चोट होगी. सत्ता के गलियारों के परे यह विषय अक्सर चर्चा में रहता है कि प्रदेश के कई अधिकारी मुख्यमंत्री योगी की भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति से खुश नहीं हैं, और इस कारण कई बार उनके द्वारा जानबूझकर मुख्यमंत्री की छवि को नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया जाता है. इसका संज्ञान किसी और को नहीं, स्वयं मुख्यमंत्री को लेना होगा और उन्हें ये सूत्र हमेशा याद रखना चाहिए कि शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति हमेशा अकेला होता है, और इसलिए कई बार ऐसे मौके आते है जब उसे स्वयं से संवाद करना होता है और तदनुसार स्वयं ही निर्णय करना पड़ता है.

विधानसभा चुनाव से कुछ पहले से कई अधिकारियों ने बदलाव की आहट भांपकर अपनी स्वामिभक्ति और निष्ठा का भी स्थानांतरण करना शुरू कर दिया था जो भ्रष्टाचार और स्वार्थ में लिप्त अधिकारियों की बहुत स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है. ऐसे अधिकारी ही भ्रष्ट और आपराधिक कृत्यों में लिप्त अपने साथियों और शुभचिंतकों  को बचाने का प्रयास करते रहते हैं, सरकार किसी भी दल की हो, ये तंत्र हमेशा इसी तरह काम करता रहता है अन्यथा ऐसा नहीं हो सकता था कि भ्रष्टाचार और हत्या के मामले में नामजद एक आईपीएस अधिकारी आज तक पकड़ा नहीं जाता, अपने आधिकारिक आवास और कार्यालय में धर्मांतरण जैसी गतिविधियों में लिप्त एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जाती. ऐसे स्वार्थी अधिकारियों ने ही योगी के पिछले कार्यकाल में ऐसी स्थिति बना दी थी जब भाजपा ने मुख्यमंत्री बदलने पर भी गंभीरता से विचार किया था और एक टीम लखनऊ भेज दी थी.

देश की अधिकांश जनता योगी आदित्यनाथ को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखती हैं. दक्षिण भारत के लोगों में भी मैंने उनके प्रति लोगों में बहुत उत्साह देखा है. यदि  योगी जी को मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक की अपनी यात्रा पूरी करनी है तो जनता जो चाहती है, जनता को जो पसंद है, वैसा ही करते रहने होगा क्योंकि केवल जनता का समर्थन ही उन्हें उस ऊँचाई तक ले जा सकता है. प्रदेश में अच्छे, निस्वार्थ और निष्पक्ष अधिकारियों की कमी नहीं है, उन्हें गंभीरता पूर्वक अपने आस पास देखना चाहिए और जहाँ जरूरत हो वहाँ तुरंत बदलाव करना चाहिए और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से अपनी टीम का निर्माण करना चाहिए ताकि इस तरह की अनावश्यक दुर्घटनाओं से बचा जा सके.

-    शिव मिश्रा  responsetospm@gmail.com


शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

आयेगा तो यशवंत ही - द्रौपदी Vs यशवंत सिन्हा.अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह चु...

हामिद अंसारी- भारत का गद्दार

हामिद अंसारी- भारत का गद्दार 

मुख्तार अंसारी के चचा हामिद अंसारी का पूरा जीवन संदेह के घेरे में रहा है. उपराष्ट्रपति बन जाने के बाद भी यह महाशय कट्टरता, धर्मान्धता, जिहाद और गजव़ा ए हिन्द की सोच से बाहर नहीं आ सके सके. ये वही व्यक्ति है जिसने ईरान के राजदूत रहते हुए दूतावास में नियुक्ति खुफिया एजेंसी रॉ के ४ अधिकारियों के बारे में ईरान सरकार को गुप्त रूप से सूचित कर दिया था, जिसके कारण इन अधिकारियों को ईरान की खुफिया एजेंसियों ने अगवा कर लिया और बमुश्किल उनकी जान बच सकी. भारत से नफरत इनके रोम रोम में भरी हैं लेकिन सोनिया गांधी इन्हें राष्ट्रपति बनाना चाहती थीं. जानिए विस्तार से . #ShiveMishra #शिवमिश्रा #HamHindustanee #हमहिन्दुस्तानी

रविवार, 10 जुलाई 2022

सर्वोच्च न्यायालय या अन्यायालय

 सर्वोच्च न्यायालय या अन्यायालय

नूपुर शर्मा प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की टिप्पणियों ने केवल न्यायपालिका को  ही नहीं, पूरे देश को शर्मसार कर दिया है. उनकी टिप्पणियों से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा तो गिरी ही, राष्ट्रीय एकता अखंडता और अस्मिता को जितना नुकसान कट्टरपंथी और जिहादी कई वर्षों में  नहीं पहुंचा सके थे, उतना नुकसान इन न्यायाधीशों ने अपनी अज्ञानता, बड़बोलेपन और निरंकुशता से एक क्षण में कर दिया. इन की टिप्पड़ियों ने कट्टरता, धर्मान्धता और “सर तन से जुदा” करने वाली मांग पर न्यायिक मुहर लगा दी. किसी भी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से इस तरह की टिप्पणियां आश्चर्यचकित करने वाली है. इस बात का विश्वास नहीं किया जा सकता कि इन न्यायाधीशों को यह नहीं मालूम था कि उनकी टिप्पणियों का क्या परिणाम निकलेगा, इसलिए इस बात की जांच की जानी आवश्यक है कि ऐसा किसी स्वार्थपूर्ति के लिए किया गया या अज्ञानता बस. दोनों ही परस्थितियों में इन न्यायाधीशों को पद पर बने रहने का नैतिक आधार नहीं है.

इस घटना ने एक बार फिर सर्वोच्च न्यायलय और उच्च न्यायालयों में  न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रकिया पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं. जो न्यायाधीश भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और गैर पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया से चुनकर आया हो, उससे निष्पक्ष और पारदर्शी न्याय की अपेक्षा करना कितना खतरनाक हो सकता है, यह इस घटना ने दिखा दिया.         

भारत की सामान्य जनता में  न्यायपालिका की प्रतिष्ठा वैसे भी धरातल पर हैं और उसका प्रमुख कारण है तारीख पर तारीख और कदम कदम पर भ्रष्टाचार. कहावत है कि देर से मिला न्याय, न्याय नहीं होता  लेकिन अब तो इतना विलंब हो रहा है कि कई बार तो पीढ़ियां गुजर जाती है और मुकदमा प्रारंभिक सुनवाई से आगे नहीं बढ़ पाता. यह न्याय नहीं अन्याय की पराकाष्ठा है.  भारत में इस समय कुल लंबित मामले 4.78 करोड़ हैं, इनमें से 1,77,189 मामले 30 वर्ष से भी अधिक समय से लंबित हैं, और मज़े की बात यह है कि इनमें से कुछ मामले जेल में निरुद्ध कई  लोगों की जमानत के लिए है. कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि कोई व्यक्ति 30 वर्ष से अधिक समय से  जेल में बंद है और उसकी जमानत याचिका पर आज तक सुनवाई ही नहीं हुई. कुछ लोग जमानत का इंतजार करते करते मर गए और बाकी लोगों की  जमानत पर सुनवाई  ज़िंदा रहते हो पाएगी, यह भी निश्चित नहीं कहा जा सकता. उच्च न्यायालयों में इस समय  लगभग 60 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में 70 हजार  से भी अधिक मामले लंबित हैं. 30 वर्ष से अधिक के जो भी मामले लंबित हैं, उनमें 70 हजार से अधिक मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं. यह सभी सूचनाएं नेशनल ज्यूडिशियल डाटा  ग्रिड और सर्वोच्च न्यायलय की वेबसाइट पर उपलब्ध है.

ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय को इस सब की परवाह नहीं है. कितने ही मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) आये  और चले गए लेकिन न्यायपालिका की गाड़ी पटरी पर नहीं आ सकी. ऐसा लगता नहीं कि किसी भी मुख्य न्यायाधीश ने  लंबित मुकदमों की  समस्या से निपटने के लिए कोई रणनीति बनाई हो और  सरकार को उस पर चलने  का सुझाव दिया हो. कई मुख्य न्यायाधीश सिर्फ न्यायाधीशों की कमी का सार्वजनिक रूप से रोना रोते और आंसू पोंछते चले गए. किसी ने न्यायिक सुधार और न्यायपालिका की जवाबदेही की ना तो बात की और न ही कभी कोई ठोस  सुझाव दिया कि मुकदमों  के बढ़ते बोझ को कैसे कम किया जाए और कैसे एक निश्चित समय सीमा में  मुकदमों  का निपटारा किया जाय.  और तो और किसी भी न्यायाधीश ने आज तक इस बात का विरोध नहीं किया कि अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश जैसे राजसी ठाठ बाठ का अब  क्या औचित्य है? स्पष्ट है कि अपनी स्वार्थपूर्ति में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश भी किसी से पीछे नहीं है.

नूपुर शर्मा प्रकरण अब भारत में बच्चे बच्चे को पता है. ज्ञानवापी मस्जिद में काशी विश्वनाथ मंदिर कि अवशेष मिलने के बाद कुछ चरमपंथी मुस्लिम नेता  कोई न कोई बड़ा विवाद खड़ा करने का बहाना ढूंढ रहे थे और  जल्द ही उन्हें नूपुर शर्मा के टीवी डिबेट में मिल गया. बस फिर क्या था तलवारें खिंच गई, देश में मोदी भाजपा विरोधी और विदेशों में भारत विरोधी माहौल बनाया जाने लगा. भाजपा ने दबाव में आकर नूपुर शर्मा को पार्टी से निकाल  दिया लेकिन मामला शांत नहीं होना था तो नहीं हुआ क्योंकि कट्टरपंथी मांग कर रहे थे कि गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा.

इसके बाद जुमे की जंग हुई जो कानपुर से होकर प्रयागराज और तमाम शहरों में फैल गई. ऐसा लगता है कि जैसे कुछ स्वार्थी धार्मिक और राजनैतिक लोग दंगा, फसाद, और गृह युद्ध जैसे हालत बनाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और समय समय अपनी तैयारियों का परीक्षण भी करते रहते हैं. आखिर यह  देश संविधान और कानून से चलेगा या मजहबी कानून और जूनून से. हाल में बहुत सी घटनाएं ऐसी हुई है जिन्हें  विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया जितना देश की एकता अखंडता कायम रखने के लिए लिया जाना चाहिए था. इसका परिणाम यह निकला कि इस तरह की घटनाएं अब जल्दी जल्दी हो रही है, और  आम होती जा रही हैं. चाहे केरल में एक व्यक्ति के हाथ काट देने का मामला हो,  कमलेश तिवारी की जघन्य और निर्ममता पूर्वक की गई हत्या का मामला  हो और अब उदयपुर में कन्हैयालाल तेली और अप्म्रवती में उमेश कोल्हे का सर तंग से जुदा करने की दुस्साहसिक वारदातें, ये सभी केवल कानून और व्यवस्था की शिथिलता का मामला नहीं, बल्कि कट्टरपंथियों के सामने शिथिल पड जाने का मामला है. उदयपुर की घटना से  पहले भी वीडियो पोस्ट किया गया  था और उसके बाद भी वीडियो में  खून से सने हुए हथियार लहराते हुए न केवल इस घटना  की जिम्मेदारी ली गयी थी  बल्कि ये नारा भी बुलंद किया गया था कि  गुस्ताखे रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा. ... उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को भी चुनौती दी कि उनकी तलवार उनकी गर्दन तक भी पहुंचेगी. यह सब कट्टरपंथियों के बढ़ते हौसले का परिचायक है, जिसका कारण राजनैतिक इच्छाशक्ति की शिथिलता और राजनैतिक स्वार्थ के लिए एक वर्ग विशेष की हर अच्छी बुरी बात का अंध समर्थन करने के साथ साथ सबका विश्वास पाने की तीव्र अभिलाषा भी है.   

 नूपुर शर्मा के विरुद्ध विभिन्न राज्यों में पुलिस में  एफआईआर दर्ज की गई हैं और  अब यह एक फैशन हो गया है कि राजनीतिक आधार पर विरोधी दलों या खास दलों का विरोध करने वाले लोगों को सबक सिखाने के लिए एफआईआर दर्ज की जाती है और इस तरह एक ही मामले में पूरे देश भर में सैकड़ों एफआईआर दर्ज हो जाती है. कानून व्यवस्था और न्यायिक दृष्टि से देखा जाए तो एक ही मामले के लिए इतनी सारी एफआइआर अलग अलग जगहों पर दायर किया जाना न्यायोचित नहीं है. एफआइआर की अंतिम परिणति मुकदमा चलाने की होती है ऐसे में एक अपराध के लिए सैकड़ों मुकदमे, सैकड़ों जगह नहीं चलाये जा सकते. एक मुकदमा तो इस जन्म में खत्म नहीं हो पाता इतने सारे मुकदमे खत्म करने के लिए किसी व्यक्ति को  कई जन्म लेने पड़ेंगे और जब लोग सर तन से जुदा करने के लिए पीछे पड़े हो, तो  इस व्यक्ति का क्या हाल होगा, यह समझना भी मुश्किल नहीं.

अपनी जान को गंभीर खतरे को देखते हुए नूपुर शर्मा ने  देश भर में उनके खिलाफ़ दायर की गईं  बहुत सारी एफआईआर को एक साथ संयुक्त  करके उनकी सुनवाई दिल्ली में की जाने की सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दी थी. सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी सुनवाई करते हुए कई टिप्पणियां की जिनका याचिका से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं था  और दबाव बना कर याचिका इस आपत्ति के साथ वापस करवा दी, कि इसे उच्च न्यायलय में दाखिल किया जाय. सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश को यदि यह बात नहीं मालूम कि विभिन्न उच्च न्यायालयों के कार्य क्षेत्र में दायर  की गयी एफआईआर के सन्दर्भ में दिल्ली  उच्च न्यायलय की कोई  भूमिका नहीं तो यह न्यायाधीशों की गुणवत्ता पर भी  प्रश्न खड़े करता है.      

न्यायाधीशों  ने एक कदम आगे जाते हुए कहा कि अगर आप (नुपुर या भाजपा) किसी दूसरे के विरुद्ध एफआईआर लिखवाते हैं तो वे तुरंत गिरफ्तार हो जाते हैं और जब एफआईआर आपके विरुद्ध हुई है तो आपको कोई छूने की हिम्मत क्यों नहीं कर रहा है. हर एफआईआर पर अगर गिरफ्तारी आवश्यक होती तो कई न्यायाधीश भी नियुक्ति से पहले जेल पहुंच गए होते. इस तरह की बाते या तो राजनीति प्रेरित व्यक्ति करता है या फिर बदले की भावना प्रेरित व्यक्ति करता है. इससे बचा जाना चाहिए था. इसी तरह के  आरोप तमाम मुस्लिम राजनेता और विपक्षी पार्टियों के लोग लगा रहे हैं, वही भाषा न्यायाधीशों की है, जिससे बहुत गलत सन्देश चला गया है और सर्वोच्च न्यायलय की छवि धूल धूसरित हो गयी है. 

सर्वोच्च न्यायालय ने  किसी कानूनी पेचीदगी का जिक्र नहीं किया केवल  व्यक्तिगत पसंद नापसंद के आधार पर टिप्पणियां की जो बेहद आपत्तिजनक, अपमानजनक, न्यायविरुद्ध, और गैर कानूनी हैं. कोई भी सामान्य बुद्धि और विवेक का व्यक्ति इस का विश्लेषण कर सकता है और निहातार्थ समझ सकता है. यह सर्वोच्च न्यायलय की गारिमा की सबसे बड़ी गिरावट है.

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- शिव मिश्रा (responsetospm@gmail.com)

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भारत को आज भी लूटते हैं - कभी आक्रांता बनकर कभी शरणार्थी बनकर .

 

भारत को आज  भी लूटते हैं :

पहले आक्रांता बनकर आते थे अब आते हैं शरणार्थी बनकर .







भारत में हिंदू या मुसलमान में अशिक्षा और  अज्ञानता आज भी चरम पर है और इसका फायदा उठाकर नीम हकीम पीर फकीर साधु और बाबा लोगों को ठगने का काम करते हैं, जिन्हें  ठगा जाता है उन्हें अब भोला  भाला भी नहीं कहा जा सकता.

आज बात करते हैं एक ऐसे ही एक लुटेरे व्यक्ति की जो अफगानी मूल का शरणार्थी  है. खुद को चिश्ती सूफी घराने का बताने वाले सैयद जरीफ का पूरा नाम ख्वाजा सैयद जरीफ चिश्ती मोउनुद्दीन था। ख्वाजा सैयद चिश्ती उर्फ जरीफ बाबा. जिसकी अभी कुछ दिन पहले येवला तालुका के औद्योगिक उपनगर चिचोंडी खुर्द में हत्या हो गई है और इसलिए यह लुटेरा नकली और धोखेबाज  बाबा सुर्खियों में आ गया है.

भारत सरकार द्वारा दिए गए शरणार्थी के दर्जे पर चार साल पहले ये भारत आया था. जांच में सामने आया है कि अफगानिस्तान से आने के बाद बाबा कुछ दिन दिल्ली, फिर कर्नाटक और अब पिछले डेढ़ साल से नासिक के येवला के एक छोटे से गांव में रह रहा था और यह अपने आप को मोईनुद्दीन चिश्ती का वंशज बताता था। तालिबान द्वारा फांसी का डर बता कर भारत में 'शरणार्थी' बनने में कामयाब हुआ था.

जरीफ बाबा पहले तो राजस्थान के अजमेर गए. वहां कुछ दिन रहने के बाद कर्नाटक विजयापुरा का रुख किया. फिर कर्नाटक में एक छोटा सा मकान लेकर वहां लोगों को जोड़ने लगे. कलबुर्गी में जब उन्हें लेकर एक विवाद शुरू हुआ तो वह अपना सबकुछ समेटकर महाराष्ट्र के नासिक आ गए. नासिक में वह काफी लोकप्रिय हो गए. लोग उन्हें जानने लगे. काफी भीड़ उनके इर्द गिर्द इकट्ठी होने लगी. बडे़ पैमाने पर यहां उनके फॉलोवर बनने लगे. वैसे बाहर से भी लोग उनके पास काफी आते थे.

इसकी हत्या की जांच तो पुलिस करेगी लेकिन उससे पहले ही इसके साथ ही रहना अंदाज में लोगों को गुमराह कर धोखाधड़ी करके अच्छी खासी दौलत कमाने का मामला सामने आया है और शायद यही कारण हो सकता है उसकी हत्या का.

ये धोखेबाज  चिश्ती जरीफ बाबा बहुत ही हाईटेक और तेज दिमाग था. वे स्वयं या अपने शागिर्दों के माध्यम से यूट्यूब ट्विटर फेसबुक इंस्टाग्राम व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के दूसरे माध्यमों का भरपूर उपयोग करता था और इसके सहारे ही ग्राहक फंसाने का काम करता था. उसने कई यूट्यूब चैनल बना रखे थे, जिसमें कई लाख सब्सक्राइबर थे फेसबुक पर सब खातों में मिलकर  5 लाख और इंस्टाग्राम पर 17.5 हजार से ज्यादा फॉलोअर्स थे। यूट्यूब पर उनके 6 करोड़ से ज्यादा व्यू थे।

भारत में चाहे हिंदू हों या मुसलमान सभी में अंधविश्वास की भरमार है और यही उन्हें धर्म का ग्राहक बनाकर ऐसे नकली पीर फकीर और बाबाओं के पास ले जाती है और उनकी दुकान चल निकलती है. भारत अंधविश्वास का व्यापार करने वाले नकली पीर फकीरों और बाबाओं के लिए बहुत बड़ा बाजार है.

यह नकली पीर फकीर जरीफ बाबा बॉलीवुड के तीनों खान के नाम का इस्तेमाल कर करोड़ों की कमाई कर रहा था. अपने वीडियो में वह  लोगों को बताता था कि तीनों खान आज इस मुकाम पर हैं वह सिर्फ उसके कारण है. ये सही है कि तीनों खान भी बहुत अंधविश्वासी हैं और इन सभी ने किसी न किसी मंच पर गंडा  ताबीज और पीर फकीर के फायदे वाली बातें की हैं जिसकी क्लिपिंग्स लगाकर यह वीडियो बनाता था. यह  अपने आप को अजमेर शरीफ की दरगाह में दफन ख्वाजा मैनुद्दीन चिश्ती का वंशज बताता था और नियमित रूप से अजमेर शरीफ और निज़ामुद्दीन औलिया तथा अन्य प्रसिद्ध दरगाहों  पर जाता था लेकिन इसका उद्देश्य केवल अपने  लिए ग्राहक बनाना होता था. इसके लिए किसने कई मार्केटिंग एजेंट भी बना रखे थे कुछ हमेशा इसके साथ रहते थे और गुणगान करते रहते थे और कई लोगों को फंसाकर इसके पास लाते थे.

इसके अपने नजदीकी लोग ही इसको देवतातुल्य बनाते थे इसको फूलों की माला पहनाते थे और इसके ऊपर पुष्प वर्षा करते थे नोटों की बारिश करते थे और देखा देखी आने वाले श्रद्धालु भी ऐसा ही करते थे और अच्छी खासी रकम देकर जाते थे. इसके फॉलोवर्स में पुलिस और प्रशासन के अधिकारी भी थे एक वीडियो में एक आईपीएस अधिकारी को भी इससे प्रसाद लेते देखा जा सकता है. यह है अपनी बैठक में कई राजनेताओं की फोटो भी बदल बदल कर लगाता था सोशल मीडिया पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की कमरे में लगी तस्वीर वाली उसकी फोटो वायरल हो रही है. हो सकता है उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद उसने जल्दी से ये फोटो लगा ली हो.

इस अफगान शरणार्थी और तथाकथित जरीफ बाबा की उम्र 30- 35 वर्ष के आसपास थी, लंबी कद काठी और गोरा चिट्टा चेहरा और फैशनेबल धार्मिक स्टाइल के मुरीद हो रहे थे लोग. अपनी बोलने की शैली, लुक और लोगों के इलाज करने के तरीके की वजह से मध्यम और निम्न मध्यमवर्गी लोगों में खासे लोकप्रिय हो गए थे. सूफी लिबास में डांस करते हुए फिल्मी स्टाइल में दर्शकों को लुभाने के सारे लटके झटके इस्तेमाल करते थे। इसके अलावा वह  झाड़फूंक के जरिए महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के इलाज का दावा करते थे।

-वह  लोगों को मरने से बचने के उपाय बताता था लेकिन उसे खुद अपनी मौत के बारे में पता नहीं था.

-लोगों को 150 वर्ष तक जिंदा रहने के नायब तरीका भी बताता था लेकिन खुद ज़िंदा नहीं रह सका .

- बच्चों बुजुर्गों और महिलाओं को छूकर उनके सिर पर हाथ रखकर हर बीमारी का इलाज करता था, भविष्य बताता था 

-तंत्र मंत्र के माध्यम से भी हिंदू और मुसलमान दोनों का इलाज करता था

-हिंदू और मुसलमान दोनों को ही बेवकूफ बनाने के लिए वह अलग अलग तरीके इस्तेमाल करता था

-बाबा ने कुछ दिन पहले ही जल्दी से जल्दी रुपया कमाने का एक नया धंधा अपनाया था. वह लोगों को उनके नाम से दुआ फूंककर कीमती स्टोन पवित्र करता था और बेचता था.

इन सब कारणों से उनके पास पूरे देश से आने वालों का तांता लगा रहता था. उसका जीवन बहुत रहस्यमय था उसने अर्जेंटीना मूल की एक एक विदेशी युवती से शादी की थी जिसका वीजा 2023 तक वैध हैं और पुलिस उससे पूछ्ताछ कर रही है. एक विदेशी और अफ़गान शरणार्थी होने के नाते वह इंटेलिजेंस ब्यूरो की राडार पर था।

 

इस तथाकथित बाबा ने लोगों को विश्वास दिला रखा था कि वह अजमेर शरीफ के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की वंश का सदस्य है और इसलिए उसके शागिर्द भीड़ में उसका गुणगान करते हुए कहते थे कि गरीब नवाज ने भारत में दीन और ईमान का प्रचार किया और ईमान वालों की संख्या बढ़ाई अब जरीफ बाबा चिस्ती ईमान वालों का ईमान मजबूत करेंगे.

अपने लगभग 4 साल के भारत प्रवास के दौरान तथाकथित जरिए बाबा ने पांच करोड़ रुपये से भी ज्यादा पैसे कमाएँ. उसके श्रद्धालु भक्तों के अलावा विदेश स्थित कुछ संस्थाएँ भी आर्थिक मदद करती थी.  उन्हें दान से भी खूब पैसा मिलता था. दान देश-विदेश दोनों जगहों से आता था.

 इस नकली फकीर जफीर  बाबा अंदर एक साथ दिमाग था और वे बहुत हाईटेक लेटेस्ट और अपडेटेड रहता था. उसने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके खुद को सुर्खियों में ला दिया और अपने लिए अच्छे समाचारों का जखीरा लगा दिया. उसने भारत आकर और दरगाहों पर जाकर किस बात का हुनर सीख लिया था कि यहाँ पर पीर फकीर का धंधा आराम से चलाया जा सकता है और इसलिए वह इसी काम में लग गया था और लोगों को बेवकूफ बनाकर ज्यादा से ज्यादा पैसे ऐंठना उसके व्यवसाय का प्रमुख अंग था. भारत में अंधविश्वासी लोगों की भरमार है और अधिकांश लोगों के पास अपनी अपनी समस्याएं हैं जिन्हें वह चमत्कार के जरिए ठीक करने की अपेक्षा रखते हैं और इसलिए यह दुआओं के ज़रिए चमत्कारों बहुत मांग है और स्वाभाविक तौर पर इस तरह की कारगुजारियों के लिए बहुत बड़ा बाजार है.

देखना है कि इसके शिष्य इसे साईं बाबा या अजमेर के  ख्वाजा गरीब नवाज बनाने की कोशिश न करें, 

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- शिव मिश्रा 



एक और अफगान लुटेरा चिस्ती भारत में - नकली पीर फ़कीरों व बाबाओं के जाल से...

शनिवार, 2 जुलाई 2022

सर्वोच्च न्यायालय भी बहुत डरा हुआ है.

 



भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी कितना  डरा हुआ है, इसका पता हम सबको नहीं है.  

नूपुर शर्मा प्रकरण अब भारत में बच्चे बच्चे को पता है. ज्ञानवापी मस्जिद में काशी विश्वनाथ मंदिर कि अवशेष मिलने के बाद मुस्लिम समुदाय कोई न कोई बड़ा विवाद खड़ा करने का बहाना ढूंढ रहे थे और  जल्द ही उन्हें नूपुर शर्मा के टीवी डिबेट में मिल गया. बस फिर क्या था तलवारें खिंच गई, देश में मोदी भाजपा विरोधी माहौल बनने लगा और विदेशों में भारत विरोधी. मोदी और भाजपा ने दबाव में आकर नूपुर शर्मा को पार्टी से निकाल  दिया लेकिन मामला शांत नहीं हुआ क्योंकि शांतिप्रिय धर्म के लोग मांग कर रहे थे कि गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा, सर तंन से जुदा.

जुमे की जंग की शुरुआत कानपुर से होकर प्रयागराज और तमाम शहरों में फैल गई. ऐसा लग रहा है कि जैसे एक वर्ग  हमेशा दंगा, फसाद, और गृह युद्ध  लिए तैयार करता रहता है और समय अमे पर इसका परीक्षण भी करता है. दुकानें मकान जलाने मैं किसी को कोई संकोच नहीं होता, सार्वजनिक संपत्तियों की तो बात ही क्या की जाए. आखिर यह  देश संविधान और कानून से चलेगा या मजहबी कानून से . हाल ही में बहुत सी घटनाएं ऐसी हुई है जिन्हें  विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया जितना देश की एकता अखंडता कायम रखने के लिए लिया जाना चाहिए था. इसका परिणाम यह निकला कि इस तरह की घटनाएं अब जल्दी जल्दी हो रही है, आम होती जा रही हैं. चाहे केरल में एक व्यक्ति के हाथ काट देने का मामला हो महाराष्ट्र में एक व्यक्ति का सिर धड़ से जुदा कर देने का मामला हो, लखनऊ में कमलेश तिवारी की जघन्य और निर्ममता पूर्वक की गई हत्या का मामला हो और अब उदयपुर में कन्हैयालाल तेली का सर तंग से जुदा करने की दुस्साहसिक वारदात जिसमे जिहादी आतंकियों ने न केवल कन्हैया लाल के सिर को तन से जुदा किया उन्होंने घटना के  पहले भी वीडियो पोस्ट किया था और उसके बाद भी वीडियो में  खून से सने हुए हथियार लहराते हुए न केवल इस घटना का की जिम्मेदारी ली  बल्कि ये नारा भी बुलंद किया कि  गुस्ताखे रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा .... उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को भी चुनौती दी कि उनकी तलवार उनकी गर्दन तक भी पहुंचेगी.

 नूपुर शर्मा के विरुद्ध विभिन्न राज्यों में पुलिस ने एफआईआर दर्ज की गई अब यह एक फैशन हो गया है कि राजनीतिक आधार पर विरोधी दलों या खास दलों का विरोध करने वाले लोगों को सबक सिखाने के लिए एफआईआर दर्ज की जाती है और इस तरह एक ही मामले में पूरे देश भर में सैकड़ों एफआईआर दर्ज हो जाती है. कानून व्यवस्था और न्यायिक दृष्टि से देखा जाए तो एक ही मामले के लिए इतनी सारी एफआइआर अलग अलग जगहों पर दायर किया जाना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता. एफआइआर की अंतिम परिणति न्यायालय में मुकदमा चलाने की होती है ऐसे में एक अपराध के लिए सैकड़ों मुकदमे और सैकड़ों जगह .. सोचिए किसी साधारण परिवार का व्यक्ति अगर चाहे भी तो इतनी जगह और कोर्ट कचहरी में नहीं जा सकता उसे तो इतनी जगह हाजिर होने के लिए अपने मुकदमे लड़ने के लिए कई जन्म लेने पड़ेंगे. एक मुकदमा तो इस जन्म में खत्म नहीं हो पाता इतने सारे मुकदमे खत्म करने के लिए उसे कितने  जन्म लेने पड़ेंगे और जब लोग सर तन से जुदा करने के लिए पीछे पड़े हो, तो  इस व्यक्ति का क्या हाल होगा बड़ी आसानी से समझा जा सकता है.

नूपुर शर्मा के साथ भी ऐसा हुआ पूरे देश भर में उनके खिलाफ़ बहुत सारी एफआईआर दर्ज की गई है जिसके लिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया था कि उनकी सारी एफआईआर को एक साथ क्लब करके उनकी सुनवाई दिल्ली में की जाए ताकि उनकी जान को जो गंभीर खतरा है उसे कुछ हद तक कम किया जा सके. सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी सुनवाई करते हुए कई टिप्पणियां की और उनके इस अर्जी को खारिज कर दिया.

 सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नूपुर शर्मा की जान को खतरा है,  वे स्वयं देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन गई है. तो क्या देश की सुरक्षा के खतरे को टालने के लिए नूपुर शर्मा को जेहादियों के हवाले कर दिया जाए ताकि उनका सिर तन  से जुदा कर दिया जाए ? क्या चाहता है सर्वोच्च न्यायालय?

 सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उदयपुर की घटना नूपुर शर्मा के कारण हुई है. पूरे  देश में जो कुछ हो रहा है वह उसके लिए जिम्मेदार है? तो फिर सर्वोच्च न्यायालय को एनआईए और विभिन्न जांच एजेंसियों को आदेश देना चाहिए था कि वो जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है उन्हें छोड़ दें वो तो निर्दोष है क्योंकि जिसमे कन्हैया लाल की हत्या हुई गला रेतकर, उसमें ना तो सांप्रदायिकता है नहीं धर्मांधता है, ना ही कानून को अपने हाथ में लेने का कोई कारण है. उसका मूल कारण तो नूपुर शर्मा है.  न्यायाधीश ने कहा कि नूपुर शर्मा को पूरे देश से टीवी पर जाकर माफी मांगनी चाहिए उन्होंने जो माफी मांगी है बहुत देर से और सशर्त  मांगी है. नूपुर शर्मा को माफी पूरे देश से ही क्यों मांगनी चाहिए, पूरे संसार से क्यों नहीं ? क्योंकि इस्लाम तो एक अंतरराष्ट्रीय धर्म है, 57 इस्लामिक राष्ट्र हैं और लगभग सभी देशों में मुसलमान रहते हैं. इसलिए अच्छा तो यह होगा कि भारतीय टीवी ही नहीं दुनिया भर के टीवी पर जाकर नूपुर शर्मा सर्वसाधारण से माफी मांगे.

 सर्वोच्च न्यायालय ने नूपुर शर्मा की सीधे सर्वोच्च न्यायालय आने पर भी आपत्ति प्रकट की और कहा कि ऐसा लगता है इससे ज़ाहिर होता है कि वे बहुत अड़ियल और अभिमानी है और उनके सामने वे समझते हैं कि मजिस्ट्रेट छोटे हैं. जज ने एक कदम आगे जाते हुए कहा कि अगर आप किसी दूसरे के विरुद्ध एफआईआर लिखवाते हैं तो वे तुरंत गिरफ्तार हो जाते हैं और जब एफआईआर आपके विरुद्ध हुई है तो आपको कोई छूने की हिम्मत क्यों नहीं कर रहा है. इस तरह की  जो बातें न्यायाधीश ने कही शायद इससे बचा जाना चाहिए था. इस से  दलगत विरोध की गंध आती है क्योंकि इसी तरह का आरोप तमाम मुस्लिम राजनेता और विपक्षी पार्टियों के लोग लगा रहे हैं, वही भाषा न्यायाधीश की है.

सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय में किसी कानूनी पेचीदगी का जिक्र नहीं किया गया है. केवल  व्यक्तिगत पसंद नापसंद के आधार पर टिप्पणियां की गई है और इस तरह देश का कोई भी सामान्य बुद्धि और विवेक का व्यक्ति इस का विश्लेषण कर सकता है.

ट्विटर पर सर्वोच्च न्यायालय के विरुद्ध लोग तरह तरह की टिप्पणियां कर रहे हैं और मुझे लगता है शायद हिंदुओं की कोई भावना नहीं होती और इसलिए हिंदू धर्म की कोई कितनी भी निंदा  करें, हिंदू देवी देवताओं का कोई कितना भी अपमान करें, उनकी भावनाएँ आहत नहीं हो सकती. इस देश में जब हिंदुत्व और हिंदू देवताओं को गाली दी जाती है तो इसे  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार कहा जाता है और यही धर्मनिरपेक्षता की खूबसूरती बताई जाती है लेकिन अगर यह कभी दूसरे धर्म की तरफ मुड़ जाती है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय भी दबाव में आ जाता है. जब देश का सर्वोच्च न्यायालय भी इतना डरा हुआ है इतना भयभीत हैं और उसे लगता है कि नूपुर शर्मा के बयान से देश की सुरक्षा को खतरा है तो फिर अब क्या बचता है? यह  देश इस रूप में कब तक बचता है, कहा नहीं जा सकता.

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- शिव मिश्रा