मंगलवार, 24 अगस्त 2021

राम भक्त कल्याण सिंह - “राम काज कीन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम"

  


राम भक्त कल्याण को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !

कल्याण सिंह अब हमारे बीच नहीं है, यह अफवाह नहीं हकीकत है, लेकिन जब तक अयोध्या में राम मंदिर रहेगा और राम मंदिर के संघर्ष का इतिहास रहेगा, वह इस लोक में हमेशा विराजमान रहेंगे. उन्हें समस्त हिन्दू जनमानस और राम भक्तों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि. जय श्रीराम

कल्याण सिंह कौन थे ? उनका जन्म कहां हुआ था? उनकी शिक्षा दीक्षा कहां हुई? उन्होंने राजनीति में कब प्रवेश किया? यह सब महत्वपूर्ण है, लेकिन सबसे अधिक महत्वपूर्ण वह है जब समूचे विश्व में कल्याण सिंह का महामानव स्वरूप देखा और वह तिथि थी ६ दिसम्बर १९९२, जब उन्होंने साफ ऐलान कर दिया था कि वह अयोध्या में एकत्रित लगभग चार लाख राम भक्त कारसेवकों पर गोली नहीं चलाएंगे क्योंकि ऐसा करने से हजारों लोगों की जान जाएगी, भारी नरसंहार होगा. उन्होंने यह आदेश पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को लिखित में दे दिया. अयोध्या से लखनऊ और लखनऊ से दिल्ली तक राजनीतिक माहौल बेहद तनावपूर्ण और गहमागहमी भरा रहा लेकिन दृढ़ निश्चचयी कल्याण सिंह अपने फैसले पर अटल रहे.

उस दिन पूरी दुनिया ने जाना कि कल्याण सिंह जैसे महामानव सैकड़ों वर्षो में जन्म लेते हैं. राम मंदिर से बाबर का अतिक्रमण उनके शासनकाल में ही हटाया गया इसलिए सही अर्थों में राममन्दिर की नींव उन्होंने ही रखी. अगर 6 दिसंबर १९९२ को बाबर का अतिक्रमण नहीं हटाया गया होता तो शायद राम मंदिर बनने का सपना आज भी साकार नहीं हुआ होता.

दिसंबर 1992 को दोपहर होते-होते अयोध्या में कारसेवक विवादित परिसर में घुस गए और वह गुम्बदों पर चढ़ गए . उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक ने कल्याण सिंह से गोली चलाने की अनुमति देने का आग्रह किया जिसे उन्होंने ठुकरा दिया और स्पष्ट किया कि अन्य सभी तरह के विकल्प आजमाये जाएं लेकिन गोली नहीं चलेगी. दोपहर तक कारसेवकों ने तीनों गुंबदों को ढहा दिया और राम मंदिर से आतंकी बाबर का अतिक्रमण पूरी तरह से साफ कर दिया गया.

कल्याण सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दाखिल कर यह जरूर कहा था कि वह विवादित ढांचे की सुरक्षा करने का हर संभव प्रयास करेंगे और यही उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में भी कहा था लेकिन यह साफ-साफ कह दिया था कि वह कारसेवकों पर गोली नहीं चलाएंगे इसलिए उनका मस्तिष्क इस विषय में पहले से ही पूरी तरह साफ था और कहीं कोई भ्रम की गुंजाइश नहीं थी.

विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद उन्होंने इस घटना की पूरी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली और साफ साफ शब्दों में कहा कि उन्होंने गोली न चलाने का लिखित आदेश दिया था और जो हुआ उसमें किसी भी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी की कोई भूमिका नहीं है. “ इस घटना में कोई कार्यकर्ता, नागरिक, राम भक्त कारसेवक जिम्मेदार नहीं है, घटना की पूरी जिम्मेदारी मेरी है. किसी का कोई दोष नहीं, कोई कसूर नहीं, कोई कमी नहीं। सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूं। कहीं कोई दंड देना हो तो किसी को ना देकर मुझे दिया जाए।”

कल्याण सिंह का ये बेबाक और बेहद जिम्मेदारी भरा बयान भला कौन भूल सकता है? विवादित ढांचा गिरने के बाद उन्होंने कहा था कि उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित गाइडलाइंस का पूरी तरह से पालन किया है और यदि विवादित ढांचे की रक्षा नहीं की जा सके तो इसकी पूरी जिम्मेदारी लेते हुए मैंने त्यागपत्र दे दिया है.

उन्होंने कहा कि “ ढांचा नहीं बचा इसका मुझे कोई गम नहीं, न मुझे इसका खेद है और ना ही प्रायश्चित नो रिग्रेट नो रिपेंटेंस नो सॉरी नो ग्रीफ . 6 दिसंबर की घटना राष्ट्रीय गर्व का विषय है” [

उन्होंने कहा था कि "राम मंदिर राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न है विवादित ढांचा गिराए जाना सैकड़ों बरसों से हिंदू जनमानस की दबी कुचली भावनाओं का स्वत: स्फूर्त विस्फोट है, इसमें कोई धोखा नहीं कोई षड्यंत्र नहीं है."

अपनी जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया. यह छोटा काम नहीं . ऐसे समय जब ज्यादातर लोग कुर्सी से चिपके रहते हैं और मुख्यमंत्री बने रहने के लिए क्या क्या जतन नहीं करते हैं, उन्होंने हंसते-हंसते अपनी सत्ता कुर्बान कर दी और कहा भी कि यह सरकार राम के कार्य के लिए ही बनी थी और राम काज के लिए ऐसी हजारों सरकारे कुर्बान की जा सकती हैं.

इस्तीफा देने के बाद भी कल्याण सिंह पर सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना का मामला चला और उन्हें 1 दिन के लिए तिहाड़ जेल भी जाना पड़ा.

कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे - पहली बार 24 जून 1991 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और विवादित ढांचा गिर जाने के बाद अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए उन्होंने 6 दिसंबर 1992 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था.

दूसरी बार वह सितंबर 1997 से नवंबर 1999 तक मुख्यमंत्री रहे उनके दोनों कार्यकाल बेहद घटना प्रधान रहे.

अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने स्कूलों में भारत माता की प्रार्थना और वंदे मातरम को अनिवार्य किया और नकल विरोधी कानून बनाया क्योंकि उस समय शिक्षा का स्तर रसातल में था पूरी शिक्षा व्यवस्था गैस पेपर और नकल के भरोसे थी. नकल विरोधी कानून के अंतर्गत नकल करने और कराने वाले दोनों जेल जाने लगे जिसका ज्यादातर लोगों ने स्वागत किया लेकिन कुछ लोगों ने विरोध भी किया. मुलायम सिंह जैसे कुछ राजनेताओं ने तो यहां तक कहा कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वह नकल विरोधी कानून को समाप्त कर देंगे . उनका पहला कार्यकाल उनके कुशल प्रशासक होने का साक्षी बना.

दूसरी बार बसपा और भाजपा के 6 -6 महीने के मुख्यमंत्री के आधार पर मायावती ने 6 महीने का अपना मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा कर लिया और उसके बाद कल्याण सिंह का नंबर आया वह मुख्यमंत्री बने लेकिन 1 महीने बाद ही मायावती ने समर्थन वापस ले लिया. राज्यपाल रोमेश भंडारी ने 2 दिन के अंदर उन्हें बहुमत साबित करने का आदेश दिया और कल्याण सिंह ने सदन में बहुमत साबित भी कर दिया लेकिन विपक्षी दलों ने सदन में जमकर हंगामा किया जिसे आधार बनाकर राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने अस्वीकार कर दिया.

21 फरवरी 1998 को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर उनके कैबिनेट मंत्री जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. राज्यपाल के इस फैसले के विरोध में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई लखनऊ में अनशन पर बैठ गए. मामला उच्च न्यायालय तक गया और उच्च न्यायालय ने राज्यपाल के आदेश पर रोक लगा दी और मुख्यमंत्री के रूप में कल्याण सिंह की पुनः ताजपोशी सुनिश्चित कर दी.

कल्याण सिंह हमेशा राष्ट्रीय सेवक संघ में सक्रिय रहे और पूर्णकालिक सदस्य के रूप में काम करते 1975 में आपातकाल के दौरान 21 माह तक जेल में बंद रहे. भारतीय जनता पार्टी के राजनीति में मजबूत होने की बात होगी तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी का नाम ऐसा है जो कभी भी भुलाया नहीं जा सकता. उनके साथ उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह एक ऐसा नाम है जिन्हें उत्तर प्रदेश की राजनीति में तो कम से कम नहीं भुलाया जा सकता. कल्याण सिंह ने भाजपा को उस मुकाम पर लाकर खड़ा किया था कि पार्टी ने 1991 में अपने दम पर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी और कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री बने थे .

पार्टी के शीर्ष नेतृत्व खासतौर से अटल बिहारी वाजपेई से अनबन हो जाने के कारण कल्याण सिंह ने दिसंबर 1999 में भाजपा छोड़ दी और मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. विरोधी राजनीतिक ध्रुव पर पले बढ़े दोनों नेताओं में बहुत दिनों तक तालमेल नहीं रह सका और 2004 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेई के अनुरोध पर वह भाजपा में पुनः शामिल हो गए. 2009 में एक बार फिर उन्होंने भाजपा छोड़ दीऔर एटा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय सांसद चुने गये। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी से हुई वार्ता के आधार पर उन्होंने पुनः भाजपा मैं शामिल हो गए. 4 सितंबर 2014 को उन्हें राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया . कुछ समय तक उनके पास हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल का अतिरिक्त कार्यभार भी रहा.

राज्यपाल के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वह फिर भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में सक्रिय हो गए .

अस्पताल में भर्ती होने से कुछ समय पहले कल्याण सिंह ने कहा था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा अब अपराजेय बन गई है. केंद्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा का कोई विकल्प नहीं है. कई पार्टियां बन रही, फिर टूट रही हैं. ऐसे में लोगों का विश्वास किसी अन्य दल पर नहीं बचा है. सपा-बसपा की सत्ता में वापसी के सवाल पर कल्याण सिंह ने कहा कि प्रदेश में अब इन दोनों दलों की वापसी संभव नहीं है. ये पार्टियां और इनके नेता जनाधार व जनता का विश्वास खो चुके हैं. भाजपा अपने काम के दम पर आगे बढ़ रही है. भाजपा के उप्र में वर्तमान में सबसे ज्यादा सदस्य बन चुके हैं. देश में मोदी और प्रदेश में योगी का कोई विकल्प ही नहीं है, बल्कि कोई पात्र भी नहीं है.

अस्वस्थ होने के बाद उन्हें लखनऊ के मेदांता अस्पताल में भर्ती कराया गया था और इस बीच उनकी मृत्यु की एक झूठी खबर फैल गई, लेकिन २१ अगस्त 2021 को सायंकाल 9:00 बजे वह इस लोक से विदा हो गए.प्रधानमंत्री, भाजपा अध्यक्ष और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों, विपक्षी नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की.

राम के प्रति उनकी श्रद्धा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले ही उन्होंने हाथ उठाकर जय श्री राम कहा और अस्पताल कर्मचारियों से हाथ उठाकर जय श्री राम कहलवाया. इसका एक फोटो सोशल मीडिया में वायरल हो रहा है बताया जाता है कि इसके बाद उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए.

वैसे तो अयोध्या में भगवान श्री राम के मंदिर के साथ उनका नाम हमेशा जुड़ा रहेगा लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ये घोषणा करके कि अयोध्या से राम मंदिर जाने वाले मार्ग को कल्याण सिंह मार्ग नाम दिया जाएगा, उनका नाम सदा सर्वदा केलिए रामंदिर के साथ जोड़ दिया है . अब श्रद्धालु उनके रास्ते पर चलकर ही राम मंदिर पहुंचेंगे और भगवान श्री राम के दर्शन करेंगे.

तुलसीदास द्वारा हनुमान जी के लिए रचित चौपाई उनके लिए बिल्कुल सटीक बैठती है

“राम काज कीन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम”

राम काज पूरा करने के बाद ही उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा .

सनातन धर्म के महा मानव रामभक्त कल्याण को समस्त हिंदू जनमानस की विनम्र श्रद्धांजलि और शत-शत नमन ..


सोमवार, 16 अगस्त 2021

तालिबान का हुआ अफगानिस्तान

 


आखिर वही हुआ जिसकी आशंका  थी और संभावना भी,   तालिबान ने  पूरे अफगानिस्तान को अपने कब्जे में कर लिया है.  ताजा समाचार यह है कि तालिबान ने बिना किसी विशेष  विरोध के समूचे अफगानिस्तान पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लिया है. तालिबान के सूत्रों ने  बताया है कि  शीघ्र  ही  अफगानिस्तान को “इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान”  घोषित कर दिया जाएगा.  


मैं वैश्विक राजनीति मामलों का विशेषज्ञ तो नहीं हूं लेकिन मुझे यह बड़ा हास्यास्पद लगा कि एक तरफ समझौता वार्ता चलती रही, दुनिया की तमाम तथाकथित शक्तियां वार्ता करती रही  और दूसरी तरफ तालिबान  अफगानिस्तान के  राज्यों पर कब्जा करते हुए  काबुल पहुंच गया और  और राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करके पूरे अफगानिस्तान पर अपना परचम फहरा दिया.  इसके बाद वार्ता ख़त्म. ऐसा लगता है कि यह वार्ता शायद तालिबान को अफगानिस्तान पर  विजय सुनिश्चित करने के लिए ही  आयोजित की गई थी. किसी भी मुस्लिम देश ने इस पर कोई भी विपरीत प्रतिक्रिया नहीं दी है,   तो क्या यह समझा जाए  कि पूरा इस्लामिक जगत तालिबान के  अफगानिस्तान पर कब्जे का समर्थन करता है?  


 जैसा कि  हमेशा होता आया है, संयुक्त राष्ट्र संघ जो  पूरे विश्व का  मुखिया है वह देखता ही रह गया और देखता ही  रहेगा. 

  • क्या संयुक्त राष्ट्र संघ   केवल भाषण देने की जगह  भर रह गया है?  
  • यदि कोई  आतंकवादी संगठन  किसी  देश  पर  आक्रमण करके कब्जा  कर ले  तो क्या संयुक्त राष्ट्र संघ तमाशा देखता रहेगा?  
  • उस राष्ट्र के नागरिकों के मानवाधिकार का क्या होगा  जिसकी संयुक्त राष्ट्र संघ बार-बार दुहाई देता रहता है?
  •  जो भी हो  संयुक्त राष्ट्र संघ  अपनी भूमिका का सही  सही निर्वहन  नहीं  कर रहा है  और न ही मानवता के प्रति कोई  सदाशयता ही  दिखा रहा है? फिर क्या औचित्य  है ऐसे वैश्विक संगठन का? 


ज्यादातर शक्तिशाली देश अपने राजनयिकों और नागरिकों को अफगानिस्तान से निकालने में जुट गए हैं,जिससे स्पष्ट है  कि  अपने देश के नागरिकों के लिए तो वह  अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं  लेकिन  अफगान नागरिकों के लिए उनके मन में कोई दर्द  और पीड़ा नहीं है जिसका मतलब साफ़  है कि उनका मानवता से कोई लेना देना नहीं है. 

 

 अफगानिस्तान के  समृद्ध  और सक्षम लोग पहले ही भाग चुके थे और  बचे हुए लोगों में जो लोग  देश छोड़ सकते हैं,  वह जहां कहीं संभव है भाग रहे हैं.  जिनके पास कोई विकल्प नहीं है वह तालिबान का स्वागत कर रहे हैं और उनके समर्थन में तालियां बजा रहे हैं. 

                       https://twitter.com/i/status/1427204278695997442



  • एक सवाल यह भी उठता है  कि केवल 70 हजार  आतंकवादियों के दम पर तालिबान ने अमेरिका और नाटो सैनिकों द्वारा प्रशिक्षित लाखों सैनिको वाली अफगान सेना को बिना लडे ही  आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर  कैसे कर दिया? 

  • क्या अफगान सेना और सरकार में तालिबान समर्थित लोग थे? 

  • क्या अफगानिस्तान का एक बहुत बड़ा  वर्ग  तालिबान  की मानसिकता के अत्यंत नजदीक है?  


इन सभी प्रश्नों का उत्तर  हम सभी को  ढूंढना होगा.   


पूरा घटनाक्रम ऐसा लग रहा है  जो शायद  1000 वर्ष पहले भारत में  हुआ होगा ,  आक्रमणकारी आंधी की तरह आते थे और तूफान की तरह विजयी  हो जाते थे,  कुछ भारतीय राजा  लड़ते थे और कुछ  बिना लडे  ही   पराजय स्वीकार कर लेते थे और बड़ी संख्या में लोग  तमाशबीन होते थे या  आक्रमणकारियों का  स्वागत करते थे.  


तालिबान का दोबारा अफगानिस्तान पर कब्जा लगभग 20 साल बाद हुआ है और इन 20 सालों में अमेरिका   के नेतृत्व में नाटो की सेनाएं अफगानिस्तान में रहीं  और उन्होंने तालिबान को रोके  भी रखा और   अफगान सेनाओं को भविष्य  मैं तालिबान की चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रशिक्षित भी किया.  सबसे आश्चर्यजनक घटना क्रम  यह रहा कि तालिबान को  पूरे अफगानिस्तान में  कहीं भी  बहुत ज्यादा प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा  और  उसकी सबसे आसान  विजय काबुल पर  रही जहां  अफगान राष्ट्रपति  अशरफ गनी  स्वयं  भाग खड़े हुए . उनके जहाज को तजाकिस्तान ने  तालिबान के दबाव में  ने अपने यहां उतरने की  अनुमति नहीं दी.  बताया जा रहा है कि वह अब अमेरिका जाएंगे. 


 तालिबान वस्तुत:  एक आतंकवादी संगठन है, जिसने 20 वर्ष पहले भी अफगानिस्तान पर कब्जा करके   अमानुषिक  कानून लागू कर लोगों पर  भयानक  अत्याचार किए थे.  आज इतने साल  बाद भी तालिबान न केवल  मौजूद है बल्कि पहले से ज्यादा शक्तिशाली भी है.   


  • कौन हैं इसके पीछे ? 

  • कौन   इन्हें  टैंक, बख्तरबंद गाड़ियां  और अत्याधुनिक हथियार  देता है? 

  • कौन इनकी फंडिंग करता है? 

यह समझना मुश्किल नहीं 


सबसे बड़ी बात अमेरिका ने तालिबान से वार्ता की थी  और उसके बाद ही अफगानिस्तान छोड़ने का फैसला किया था. 


क्या तालिबान का कब्जा अमेरिका की डील का एक हिस्सा है?   


हो सकता है  कि  इसके बारे में अफगान  सेना के उच्चाधिकारियों को मालूम  था इसीलिए तालिबान आतंकवादियों का कोई प्रतिरोध नहीं हुआ और सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया. 


यह सही है कि अफगानिस्तान में  बने रहना अमेरिका के लिए आर्थिक रूप से बहुत बड़ा बोझ था,  लेकिन अचानक  अफगानिस्तान की जनता को उसके हाल पर छोड़ देना क्या  धोखा देने जैसा नहीं है? क्या अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश के लिए नैतिक रूप से यह सही कदम है?


काफी समय  तक अमेरिका के राष्ट्रपति बिडेन इस पर  मौन रहे जिससे संदेह गहरा गया किन्तु जब उन्होंने मुह खोला तो ऐसा लगा कि किसी छोटे गरीब देश का स्वार्थी राजनयिक बोल रहा हो. उन्होंने कहा कि अमेरिका का उद्देश्य अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण करना कभी नहीं था और न ही अमेरिका  वहां जबाबी कार्यवाही के लिए था. हम वहां आतंकवाद के मुकाबले के लिए थे और वह पूरा हो गया था.  उन्होंने यह भी जोड़ा कि सैनिको को वापस बुलाने का फैसला भी ट्रम्प का था. इससे अमेरिका की अफगानिस्तान में हुई हार, १९७५ में विएतनाम में हुई हार से भी ज्यादा अपमान जनक और शर्मनाक बन  गयी.       

ऐसी हालत में बेचारे अफगान नागरिक जो तालिबान के समर्थक नहीं  हैं,  मजबूरी में  यदि तालिबान का समर्थन करें तो इसमें क्या आश्चर्य होगा?   

   

पिछले तालिबान शासन में  सबसे ज्यादा  अत्याचार महिलाओं पर हुए थे और वह फिर शुरू हो गए हैं.  राज्यों पर कब्जा करते समय ही तालिबान आतंकियों ने अफगान  पुलिस और सरकारी कर्मचारियों से  घर की 15 वर्ष से 45 वर्ष की महिलाओं को  सौंप देने का हुक्म सुनाया था.  स्थानीय मस्जिदों से  लाउडस्पीकर द्वारा जनता से भी यही आग्रह किया गया था. अभी तो शुरुआत है लेकिन यह भी एक तथ्य है कि  काबुल हवाई अड्डे पर भागने के लिए पुरुष तो है लेकिन  महिलायें नहीं हैं. क्यों? कहाँ गयी अफगान महिलायें? ज्यदातर टीवी चैनेल ने अपने यहाँ से महिला एंकर और कर्मचारियों  को हटा दिया है या वे बुर्के में बुरी  तरह लिपटी हैं.     

 जहां तक भारत का प्रश्न है,  उसने अफगानिस्तान की पुनर्रचना में  लगभग  तीन अरब  डॉलर  का निवेश किया है  और  और इस समय ४०० से अधिक बड़ी परियोजनाओं पर  भारत काम कर रहा है.  अब उसके न केवल  इस  निवेश पर संकट के बादल गहरा गए  हैं,  बल्कि चाबहार पोर्ट से अफगानिस्तान को जोड़ने और  अफगानिस्तान के  माध्यम से पश्चिम एशिया  में  व्यापारिक  सामान  की पहुंच बनाने का सपना  अधर में लटक गया है.  यद्यपि तालिबान ने कहा है  कि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत ने बहुत अच्छा काम किया है और उसे  चिंतित होने  की आवश्यकता नहीं है  लेकिन यदि उसने सैन्य मामलों में हस्तक्षेप किया तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा.  


भारत ने  कभी भी तालिबान को मान्यता नहीं दी  और तालिबान ने कभी इसके लिए प्रयास भी नहीं किया बल्कि इसके विपरीत वह  आतंक का पर्याय बनने के लिए मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ता रहा.  उसके पाकिस्तान की सरकारों से बेहद मधुर संबंध रहे और उनकी आड़ में भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों को प्रश्रय देता रहा. 


बदले  माहौल में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान  में  स्थिरता लाने के लिए  नई सरकार को हर संभव सहायता देने का बिना मांगे वचन दे दिया है  और उसके एक अन्य दोस्त टर्की ने भी कहा है कि वे पाकिस्तान के साथ मिलकर अफगानिस्तान को हर संभव सहायता देगा. तालिबान खान के नाम से मशहूर हो रहे इमरान ने तालिबान कब्जे करने को अफगानिस्तान का स्वतन्त्र होना बताया. रूस और चीन ने ने भी कहा है  कि काबुल पहले से बेहतर है.   ये सब तालिबान को  सकारात्मक संदेश 


सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि ऐसे समय में तालिबान  रूस और चीन को भरोसे में लेकर कदम बढ़ा रहा है लेकिन भारत से अभी तक कोई भी ऐसी पहल नहीं की है


 निवेश के अलावा भारत के लिए दूसरा सबसे बड़ा चिंता का कारण है शरणार्थियों की समस्या जो पाकिस्तान के रास्ते भारत में  प्रवेश कर सकते हैं.  भारत में पहले ही बड़ी संख्या में अफगान लोग हैं  इनमें विद्यार्थी व्यापारी और अन्य लोग शामिल है जिन्होंने वीजा बढ़ाने के लिए आवेदन कर रखा है.  अफरातफरी के माहौल में भारत सरकार पर अफगानिस्तान से हिंदू और सिखों को वापस लाने का  नैतिक  दबाव  भी बढ़ता जा रहा है. 

 

एक तीसरा कारण  है  कि यदि नई तालिबान सरकार  और पाकिस्तान चीन के मधुर संबंध बनते हैं  तो भारत न  केवल सामरिक दृष्टि से पिछड़ जाएगा बल्कि  उस पर  तालिबान आतंकियों का  दबाव भी बढ़ सकता है  क्योंकि  तालिबान आतंकवादी  अफगानिस्तान पर कब्जा करने का  टारगेट पूरा करने के बाद खाली नहीं  बैठेंगे और वह  दूसरा टारगेट  बनाएंगे जो गजवा ए हिंद भी हो सकता है.  



आज जब भारत में काफी लोग  लोग तालिबान के समर्थन में खड़े हो गए हैं तो कल्पना करिए  कि यदि  महमूद गजनवी की तरह तालिबान भारत पर आक्रमण कर देता है तो कितने लोग तालिबान के समर्थन में खड़े हो जायेंगे? 

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- शिव मिश्रा


बुधवार, 11 अगस्त 2021

भारत छोडो से भारत जोड़ो तक.

 

भारत छोडो  से भारत जोड़ो  तक. 


दुनिया के इतिहास में
8 अगस्त कई कारणों से महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत के लिए अभी तक इसका महत्व केवल  इसलिए रहा है क्योंकि 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की थी लेकिन भारत में पहली बार 8 अगस्त 2021  को एक सकारात्मक पहल की  शुरूआत हुई  और वह है  200 से भी अधिक ऐसे पुराने बेकार और वेवस  कानूनों को बदलना जिन्हें  अंग्रेजों ने  अपनी सत्ता संचालन हेतु भारतीयों का दमन करने के लिए बनाए थे.  इससे  कोई  इनकार नहीं कर सकता कि इन कानूनों  से   बदलते वैश्विक परिवेश में  आतंकवादी और देश विरोधी  घटनाओं को देखते हुए  समुचित बदलाव की तुरंत  आवश्यकता है.

इस आंदोलन का आवाहन  सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता  अश्विनी उपाध्याय ने किया था और कई राष्ट्रवादियों ने इसे समर्थन  दिया था. उपाध्याय को पीआईएल मैन के रूप में जाना जाता है. उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण जनहित याचिकाएं दायर की जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया. उन्होंने  6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए स्कूलों में योग  अनिवार्य बनाने और धोखे से  धर्मांतरण  पर प्रतिबंध लगाने की जनहित याचिकाएं  भी  शामिल हैं। उनकी याचिकाओं में स्कूलों में राष्ट्रगान  अनिवार्य बनाना और हिंदी को देश भर के स्कूलों में अनिवार्य भाषा बनाना भी शामिल है। अगस्त 2019 में  मोदी सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने  वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से पहले उपाध्याय ने सितंबर 2018 में इस धारा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका दायर की थी। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय  में दायर पांच याचिकाओं के माध्यम से, उपाध्याय ने देश में समान नागरिक संहिता के लिए पहल की  है। मार्च 2021 में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को  उन याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने का आदेश दिया  जो शादी की उम्र, तलाक, उत्तराधिकार, रखरखाव और गोद लेने से संबंधित हैं।  2015 में उपाध्याय द्वारा दायर एक जनहित याचिका के  आधार पर एक अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपराधियों को राजनीति से बाहर निकालने पर फैसला दिया था.

 

वैसे तो अश्विनी उपाध्याय अतीत में भाजपा से जुड़े रहे हैं और संभवत आज भी उनका जुड़ाव  भाजपा से हो लेकिन इस आंदोलन को राजनैतिक तरह से आयोजित नहीं किया गया था अन्यथा इस आन्दोलन का स्वरुप और बृहद हो सकता था. इस आंदोलन का उद्देश्य  सांकेतिक रूप से दिल्ली में जंतर मंतर पर प्रदर्शन करना और सरकार से मांग करना और नागरिकों को जागरूक करना था.   यह विषय राष्ट्रवादियों के हृदय के बहुत करीब था इसलिए सोशल मीडिया के इस युग में इसने  स्वाभाविक रूप से बहुत बड़े  जनमानस  को झकझोर दिया  और  व्यापक समर्थन भी  हासिल किया. चूंकि पूरा कार्यक्रम बहुत व्यवस्थित रूप से तैयार नहीं किया गया था और कई प्रखर राष्ट्रवादियों ने इस आंदोलन से  कुछ दिन पहले से ही दूरी बनाना शुरू कर दिया था, इसलिए आयोजन के अच्छे इंतजाम नहीं किए जा सके थे.  यहां तक कि वक्ताओं के लिए न तो  समुचित मंच था  और न ही भीड़ को नियंत्रित करने का कोई उपाय. फिर भी  इस प्रदर्शन में पूरे भारत से लो पहुंचे और जंतर मंतर पर  हजारों की भीड़ जमा हो गई.  एक अनुमान के अनुसार लगभग  40 से  50 हजार  लोगों ने इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया जो  किसी भी प्रदर्शन के हिसाब से काफी ठीक-ठाक भीड़ थी.

लगभग 10  बजे  शुरू हुए इस आयोजन को दिल्ली पुलिस ने  १२ बजे  इस आधार पर रुकवा दिया  कि उन्होंने दिल्ली पुलिस से अनुमति नहीं ली है.  अगर दिल्ली पुलिस की यह बात सही है तो यह आयोजन कर्ताओं की  बड़ी चूक थी लेकिन चूंकि  यह आयोजन बहुत  अनुभवी लोगों द्वारा नहीं किया गया था इसलिए ऐसा हो जाना संभव है. सवाल यह  उठता है कि  यदि पुलिस ने इस आयोजन की अनुमति नहीं दी थी  तो वहां इतनी बड़ी संख्या में लोग कैसे एकत्रित होने दिए गए और बड़ी संख्या में पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवान कैसे तैनात हो गए?   प्रश्न तो यह भी है कि जिन्होंने  पहले इस आयोजन में शामिल होने के लिए स्वीकृति दी  थी वे  ऐन वक्त पर क्यों  नहीं पहुंचे?  लोगों में धारणा पनप रही है कि शायद ऐसा  केंद्र सरकार के  दबाव में हुआ होगा और इसी कारण दिल्ली पुलिस ने भी इस आयोजन को  बीच में ही रुकवा दिया. लेकिन ऐसा होने से उस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और उदारपंथी समूह  के हौसले बुलंद हो गए जो इस तरह की मुहिम को रोकने और बदनाम करने के लिए हमेशा सक्रिय  रहते हैं और इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं.       

 

आयोजन की शाम एक संदिग्ध वीडियो सामने आया  जिसमें  मुस्लिम विरोधी भड़काऊ नारे लगाए जा रहे थे.  यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल जरूर हुआ लेकिन इस वीडियो की जानकारी  लोगों को तब हुई  जब असदुद्दीन ओवैसी ने इस पर बेहद कड़ी प्रतिक्रिया दी और इसके बाद तो भारत के  तथाकथित  धर्मनिरपेक्ष उदारपंथी   लोगों ने  इस पर बेहद जहरीली  और स्तरहीन  बातें शुरू कर दी.  मजे की बात यह है कि सोशल मीडिया में काफी  पहले से गहन चर्चा के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया ने इसे कोई खास महत्व नहीं दिया था  और इस कारण उनका  कोई भी  रिपोर्टर  इस आयोजन में शामिल नहीं था.   इस विवादित संदिग्ध  वीडियो के वायरल होने के  तुरंत बाद लगभग सभी ने इसे लपक लिया और एक खास किस्म के मीडिया,  जिन्हें भारत और मोदी विरोध  के लिए जाना जाता है, में  इस आयोजन के विरुद्ध आक्रामक दुष्प्रचार शुरू हो गया   और  आयोजकों को गिरफ्तार करने की मांग होने  लगी.  जैसा हमेशा होता है इस मौके का फायदा उठाकर  कुछ राजनीतिक दलों ने,  सरकार को घेरने के उद्देश्य से  मुस्लिमों की सुरक्षा की दुहाई  देने  शुरू कर दी.  हद तो तब  हो गई जब  लोगों ने कहा कि यह दिल्ली में दंगा भड़काने और मुस्लिमों का नरसंहार करने की सोची समझी साजिश का हिस्सा है.  

अश्विनी उपाध्याय ने दिल्ली पुलिस से अनुरोध किया कि इस वीडियो की जांच की जाए और अगर यह वीडियो असली है तो उसमें शामिल लोगों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई हो और यदि  वीडियो फर्जी पाया जाता है तो उन लोगों को तलाशा जाए जिन्होंने इसे बनाया और माहौल बिगड़ने के लिए वायरल किया  है और उनके विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जाए. इस बीच असदुद्दीन ओवैसी के अलावा आप के विधायक अमानतुल्लाह खान ने लिखित रूप में पुलिस से शिकायत की  और अश्वनी उपाध्याय को गिरफ्तार करने की मांग की.  हमेशा की तरह  दिल्ली में एक  विशेष वर्ग तुरंत सक्रिय हो गया,  और जिस   विशिष्ट मीडिया ने इस आयोजन को नजरअंदाज किया  था उसने इस वायरल वीडियो  पर  डिबेट की झड़ी लगा दी.  संभवत: चहुतरफा  दबाव के कारण दिल्ली पुलिस ने  10 अगस्त को  तड़के सुबह 3:00 बजे  अश्विनी उपाध्याय को  थाने  बुलाया और उनके अन्य पांच   सहभागियों सहित कई घंटे पूछताछ की और बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.  ऐसा सोचना  सही नहीं होगा कि बिना केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय की जानकारी के  दिल्ली पुलिस इतना बड़ा कदम उठा सकती है. 

 

अश्विनी उपाध्याय  द्वारा शुरू की गई  पुराने   निरर्थक कानूनों को बदलने  की मुहिम  का विरोध करने का कोई कारण नहीं है. आज भी  ऐसे कानून है जिनमें अन्य समुदायों को तो धार्मिक  स्वतंत्रता है  लेकिन बहुसंख्यक हिंदुओं पर तरह तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं, हिन्दुओं के  मंदिर आज भी सरकारी नियंत्रण में हैं . इससे धार्मिक विद्वेष के साथ साथ सामाजिक विषमता भी  पैदा हो रही  है.  मंदिरों की स्वतंत्रता एक अहम मुद्दा है, शिक्षा  व्यवस्था  में भी   समानता की आवश्यकता है क्योंकि इस  समय   विभिन्न राज्यों, बोर्डों और विश्वविद्यालयों में अलग-अलग प्रकार के पाठ्यक्रम है जिससे नौकरियों हेतु होने वाली प्रतियोगिताओं में  गरीब और वंचित वर्ग के लोगों को खासी असुविधा होती है और धीरे-धीरे इन का प्रतिनिधित्व भी खत्म होता जा रहा है. अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था धार्मिक संकीर्णता और क्षेत्रीयता को भी बढ़ावा दे रही  है. 

समय आ गया है कि देश की  जरूरत के अनुसार नए कानून बनाए जाएं. आज पूरे विश्व में प्रचलित संविधान और कानून हमारे सामने हैं और उनकी सारी अच्छी बातें लेकर हम एक अच्छी व्यवस्था बना सकते हैं, एक  अच्छे और मजबूत देश का  निर्माण कर सकते हैं. इससे दिन प्रतिदिन  बढ़ रही अराजकता  और अस्थिरता  को रोक कर  देश की संप्रभुता की रक्षा की जा सकती है.

ऐसे बहुत से कानून आज भी प्रचलित हैं जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी सुविधा और सत्ता कायम रखने के लिए बनाए थे, कुछ कानून तो औरंगजेब के शासनकाल के समय के भी हैं.  स्वाभाविक है कि इन सब का  भारतीय हितों से कोई लेना-देना नहीं था. इंडियन पैनल कोड में ऐसे बहुत सी धाराएं हैं जिनका अब कोई औचित्य नहीं रह गया है या ऐसे बहुत सी  धाराएं जो इसमें होनी चाहिए, जो  नहीं है. इस कारण पुलिस जो मुख्यतया इंडियन पेनल कोड के हिसाब से ही आगे बढ़ती है उसके हाथ भी बंध जाते हैं . जब कभी पुलिस ऐसे अपराधियों के विरुद्ध मुकदमे कायम  करती है तो वे इन अप्रभावी  कानूनों की आड़ में न्यायालय से साफ बच निकलते हैं. जब कानून ही सक्षम नहीं होगा तो कानून का शासन भी सक्षम नहीं हो सकता और जब मुकदमे निपटने में ही दसियों साल  लग जाएं तो भला कौन ऐसे कानूनों की  परवाह  करेगा?

 

दिल्ली पुलिस द्वारा  जंतर-मंतर पर हुए विरोध प्रदर्शनों  और  तथाकथित रूप से उस में लगाए गए भड़काऊ नारों  के आधार पर अश्विनी उपाध्याय को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन इस प्रदर्शन में शामिल बिहार के साधु स्वामी  नरेशानंद,  जो  गाजियाबाद के डासना स्थित शिव-शक्ति मंदिर में  ठहरे हुए थे   पर  चाकुओं से जानलेवा हमला किया गया। दुर्भाग्य से पुलिस इन हमलावरों को अभी तक गिरफ्तार नहीं कर सकी है. इस  मंदिर  के  महंत यति नरसिंहानंद को पहले भी जान से मारने की साजिश हो चुकी है.  इस मंदिर पर पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था रहती है और इसके बाद भी इस तरह की वारदात बेहद  चिंतित करने  वाली है. इन दोनों घटनाओं  का आपस में सम्बन्ध है.  

अश्विनी उपाध्याय की गिरफ्तारी  पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई हैं जहां मुस्लिम संगठनों ने इसकी प्रशंसा की वहीं हिंदू संगठनों और आम जनमानस ने  केंद्र सरकार के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की है.  प्रथम दृष्टया अश्वनी उपाध्याय और उनकी टीम द्वारा  किए गए आयोजन  से सरकार या किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए लेकिन समान कानूनों  और अन्य मांगों से  भारत का एक वर्ग विशेष  चिंतित था  जो शुरू से ही इस आयोजन को विफल करने की  कोशिश में लगा था.   इसलिए वायरल वीडियो की सच्चाई संदिग्ध है.  दिल्ली पुलिस द्वारा उपाध्याय की गिरफ्तारी से  इस वर्ग विशेष के  प्रयासों को  सफलता मिल गई है, लेकिन देश के  बहुसंख्यक  वर्ग में सरकार के प्रति   यह संदेह  उत्पन्न  हो गया है   कि भाजपा  हिंदू वोटों के  लिए  हिंदूवादी होने का ढोंग करती  है पर असल में वह  उसी तरह धर्मनिरपेक्ष  है जैसी  कांग्रेस.  शाहीन बाग,  जेएनयू और जामिया मिलिया में जिस तरह के  राष्ट्र विरोधी  और भड़काऊ भाषण हुए,  15 मिनट के लिए पुलिस हटाने की मांग,  100 करोड़ लोगों पर 20 करोड़ के भारी पड़ने  के दावे,  और  हाल में पश्चिम बंगाल तथा केरल में हुई वीभत्स घटनाओं पर केंद्र सरकार का रुख बहुत  निराश करने वाला  रहा.  दिल्ली के तबलीगी मौलाना साद को तो जैसे दिल्ली पुलिस भूल ही  गई है.  लाल किले पर मजहबी  ध्वजा फहराने,  किसानों के आंदोलन में खालिस्तानी नारे लगाने, और दिल्ली को बंधक बनाने वालों के विरुद्ध सरकार और दिल्ली पुलिस ने कुछ खास  नहीं किया.

सरकार को सांप्रदायिक और भड़काऊ नारे लगाने वाले  असामाजिक और राष्ट्र विरोधी तत्वों के खिलाफ सख्त कार्यवाही अवश्य  करना चाहिए  पर  उसे यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि उसके अनावश्यक रूप से  प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष  दिखाई पड़ने और “सबका विश्वास”  के   प्रयास देश हित में नहीं है. उसे बहुसंख्यक वर्ग की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है  जिससे   आगामी विधानसभा  और लोकसभा चुनाव में  भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है.   ऐसे में जब देश को मोदी सरकार की आवश्यकता है तो उसे भी देश की आवश्यकताओं का ध्यान अवश्य रखना चाहिए.

-    शिव मिश्रा

( लेखक स्टेट बैंक के  सेवानिवृत्त टॉप-एग्जीक्यूटिव और समसामयिक विषयों के लेखक हैं)

रविवार, 1 अगस्त 2021

भारत में जल्द आ सकती है डिजिटल करेंसी

 क्या भारत में डिजिटल करेंसी  शुरू होने वाली है?

शायद हां  लेकिन डिजिटल करेंसी की चर्चा कोई नई नहीं है बहुत दिनों से इस पर चर्चा हो रही है और सिर्फ भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशों में इस पर विचार किया जा रहा है.  रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर की रविशंकर के  व्याख्यान के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि अब अब शायद रिजर्व बैंक  इस दिशा में ज्यादा गंभीर मालूम पड़ता है और इसकी गंभीरता के  समुचित कारण हैं क्योंकि आधुनिक वित्तीय व्यवस्था में  कागज के बने  नोटों के   अलावा बहुत सारी चीजें  डिजिटल हो चुकी हैं  जैसे शेयर सर्टिफिकेट,  बॉन्ड, बैंकिंग ट्रांजैक्शंस  आदि.   कैश  का लेनदेन ज्यादातर विकसित  देशों में बहुत कम हो चुका है  और भारत में भी इस दिशा में काफी प्रगति हुई है.  कोविड-19 के लॉक डाउन के दौरान  ज्यादातर लोगों ने डिजिटल ट्रांजैक्शन की मदद से ही अपने सामान्य खर्चे किए.  इसलिए यह उचित समय  प्रतीत होता है जब प्रायोगिक तौर पर ही सही   रिजर्व बैंक   केंद्रीय बैंक डिजिटल  करेंसी (CBDC)  की शुरुआत करें 

क्या है सेंट्रल बैंक  डिजिटल  करेंसी ?

सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी वर्तमान कागज की मुद्रा से सर्वथा अलग नहीं होगी बल्कि यह उसका डिजिटल रूप ही होगी.   अंतर केवल  इतना  होगा कि  वर्तमान कागज की मुद्रा हम अपने  वॉलेट / पॉकेट  में रख सकते हैं,  डिजिटल मुद्रा को डिजिटल वॉलेट में रखना होगा.  वर्तमान व्यवस्था की तरह इसका नियंत्रण भी रिजर्व बैंक के पास ही रहेगा. 

(A CBDC is the legal tender issued by a central bank in a digital form. It is the same as a fiat currency and is exchangeable one-to-one with the fiat currency. Only its form is different)


डिजिटल करेंसी की आवश्यकता क्यों ? 

डिजिटल करेंसी समय की मांग है और दुनिया के कई देशों के केंद्रीय बैंक समवेत स्वर में इस बात को स्वीकार करते हैं कि   डिजिटल करेंसी की  मांग  बढ़  रही है. ऐसे समय में जब प्राइवेट डिजिटल करेंसी जैसे बिटकॉइन आदि  का लेन देन कई देशों में  अत्यधिक लोकप्रिय हो रहा है,  जिसे कानूनी मान्यता भी नहीं मिली है और जिस की विश्वसनीयता भी नहीं है. ऐसे में  केंद्रीय बैंक द्वारा जारी की गई  डिजिटल  करेंसी,  जिसकी केंद्र सरकार द्वारा  गारंटी दिए जाने के कारण विश्वसनीयता होगी  और यह   प्राइवेट  डिजिटल करेंसी  का  समुचित विकल्प होगी.   यद्यपि  यह  प्राइवेट डिजिटल करेंसी  की मांग और प्रसार कम कर सकेगी इसकी संभावना काफी कम है  क्योंकि  कई सरकारें,  जहां फिएट करेंसी प्रचलन में है,  प्राय:  अधिक मुद्रा प्रिंट करती हैं और जिसके  पीछे कोई रिजर्व आदि भी नहीं होता  और इस कारण लोगों का रुझान प्राइवेट करेंसी की तरफ बना रहेगा. 

फिर भी  चूंकि  डिजिटल करेंसी  की प्रिंटिंग  और प्रेषण की लागत,  वर्तमान कागज की करेंसी की तुलना में  लगभग नगण्य होगी,  केंद्रीय बैंकों के अनुसार  डिजिटल करेंसी राष्ट्रीय हित में लिया गया बड़ा कदम होगा. 

 डिजिटल करेंसी राष्ट्र के लिए नुकसानदायक भी हो सकती है

  • अगर केंद्र सरकार द्वारा जारी  डिजिटल करेंसी लोकप्रिय हो जाती है तो  हो सकता है कि लोग अपने बैंक खातों से  रुपए  निकालकर डिजिटल करेंसी में बदल कर रखने लगे.  
  • चूंकि  डिजिटल करेंसी में कोई ब्याज आदि का भुगतान नहीं होता है इसलिए भारत में इसके खतरे कम है क्योंकि यहां बैंकों में जमा राशि पर कुछ ब्याज दिया जाता है लेकिन कई ऐसे देश हैं जहां पर बैंकों में जमा राशि पर कोई ब्याज देय  नहीं होता है और  कई देशों में ब्याज की दर नकारात्मक होती है, वहां इसकी संभावना बहुत ज्यादा है. 
  •  फिर भी अगर बैंक खातों से पैसा निकल कर डिजिटल करेंसी की तरफ जाता है तो बैंकों की ऋण देने की क्षमता  बुरी तरह प्रभावित  होगी जो अर्थव्यवस्था के विकास में  अवरोध होगा. 

डिजिटल करेंसी के  प्रभाव  और संभवित रूपरेखा

बैंक  खातों  से  धनराशि  निकालकर  डिजिटल करेंसी में बदलने  का खतरा  वास्तव में  बहुत गंभीर है,  और अगर ऐसा होने लगता है तो विभिन्न देशों को इन पर कई नियंत्रण लगाने होंगे.  इनमें कुछ इस तरह के प्रावधान हो सकते हैं

  •  प्रत्येक व्यक्ति के लिए डिजिटल करेंसी की अधिकतम सीमा

  •  डिजिटल करेंसी  रखने पर  शुल्क

  • डिजिटल करेंसी से ज्यादा से ज्यादा खर्च करने पर प्रोत्साहन 

  •  बैंकों से धन राशि निकालने पर  शुल्क 

  •  इसके बाद भी यदि बैंकों से धन राशि निकासी की  प्रवृत्ति बनी रहती है तो  वाणिज्यिक बैंकों को  उनकी क्षमता बनाने के लिए सरकार को सहायता प्रदान करनी होगी.

  • कोई ऐसी व्यवस्था भी विकसित की जा सकती है जिसके अंतर्गत डिजिटल करेंसी दोबारा फिर वाणिज्यिक बैंकों में आ सके और उसे ऋण के रूप में लोगों को दिया जा सके. 

 बैंकिंग व्यवस्था

  • डिजिटल करेंसी के  प्रचलन के बाद  बैंकों की स्थिति बिगड़ सकती है.  उनकी  लाभप्रदता  और  ऋण देने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो सकती है. 

  • वर्तमान व्यवस्था में भुगतान के लिए  बैंक  एक आवश्यक अंग है  किंतु  डिजिटल करेंसी से भुगतान ऐसे ही होगा जैसे की नकद  और इसलिए बैंक की मध्यस्थता की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी, जिसके राष्ट्र के लिए  गंभीर  खतरे भी हो सकते  हैं. 

  • किसी भी बैंक में अफवाह मात्र से  उसके  ग्राहक सभी जमा धनराशि तुरंत निकालने की कोशिश करेंगे जिससे बैंक लड़खड़ा जाएगा. 

   अर्थव्यवस्था

  •  अगर बैंकों के माध्यम से भी  डिजिटल  करेंसी जारी की जाती है  तो भी  बैंकों को और अधिक लिक्विडिटी की आवश्यकता होगी और ऋण क्षमता बढ़ाने के लिए सरकार से आर्थिक सहायता की आवश्यकता  पड़ेगी.

  • डिजिटल करेंसी पर नेगेटिव इंटरेस्ट लगा कर  लोगों को  ज्यादा  खर्च करने  के लिए प्रेरित  किया जा सकता है . 

  • डिजिटल करेंसी के  प्रचलन  के बाद   cyber-attacks के खतरे बढ़ जाएंगे क्योंकि  क्योंकि डिजिटल करेंसी का फ्रॉड लगभग जेब कटने जैसा होगा जिसमें नकद मुद्रा  सीधे  जेब कतरे  के पास पहुंच जाती है. 

  • इसलिए  डिजिटल करेंसी के साथ  लोगों में साइबर सुरक्षा की जागरूकता बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है, जबकि भारत जैसे देश में जहां वित्तीय साक्षरता ही पर्याप्त नहीं है, यह अत्यंत मुश्किल कार्य है.

 भारत में डिजिटल करेंसी का भविष्य 

भारत सरकार द्वारा नियुक्त अंतर मंत्रालय  समिति ने डिजिटल करेंसी जारी करने का सुझाव दिया है और रिजर्व बैंक इस दिशा में व्यापक प्रयास कर रहा है .

यद्यपि  डिजिटल करेंसी का प्रचलन बिल्कुल करेंसी नोट की तरह ही होगा  फिर भी इसे प्रभावित होने वाले अनेक कानूनी प्रावधानों में समुचित संशोधन करना पड़ेगा  और तदनुसार एक व्यापक कानूनी तंत्र विकसित करना पड़ेगा ताकि डिजिटल करेंसी   का नियंत्रण   प्रभावी ढंग से किया जा सके  और अर्थव्यवस्था को किसी संभावित नुकसान से बचाया जा सके. 

डिजिटल करेंसी के बहुत फायदे हैं.  इससे करेंसी नोट प्रिंट करने और विभिन्न स्थानों पर पहुंचाने का खर्चा बचेगा लेकिन इससे रोजगार के कुछ अवसर भी  कम होंगे  और सकल घरेलू उत्पाद  भी प्रभावित होगा.   

वित्तीय लेन-देन में यद्यपि  सेटलमेंट संबंधी खतरे  कम हो जाएंगे किंतु    वाणिज्यिक बैंकों की भूमिका सीमित हो जाएगी  जो अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक भी हो सकता है. 

बैंकों को  लिक्विडिटी  और ऋण क्षमता  बनाए रखने के लिए  सरकार से और अधिक वित्तीय सहायता की आवश्यकता पड़ेगी.   भारत जैसे  कम वित्तीय साक्षरता वाले देश में  लोगों को साइबर सुरक्षा जैसे अनेक खतरों से भी  दो-चार होना पड़ेगा. 

 इस पृष्ठभूमि में  रिजर्व बैंक को कम से कम सीमित मात्रा में प्रायोगिक तौर पर डिजिटल करेंसी का प्रचलन शुरू कर देना चाहिए और लोगों में जागरूकता और स्वीकार्यता  बढ़ने के साथ इसका  प्रचलन बढ़ाना चाहिए. 

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- शिव प्रकाश मिश्र

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