शनिवार, 8 जून 2024

जो राम को लाये हैं हम उन्हें हराएंगे,

जो राम को लाये हैं, सब उन्हें हराएंगे, मोदी और योगी भी वापस न आयेंगे   

                        न अयोध्या न काशी, कैसे हैं हम भारतवासी ?


“अब की बार 400” के पार की गूँज आज भी सुनाई पड़ रही है, जब जबकि चुनाव परिणाम आ चुके हैं तथा भाजपा 240 और एनडीए 293 सीटें पाकर इस से बहुत पीछे छूट गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब इस नारे को गढ़ा होगा तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि यह नारा ही उनकी सफलता में बाधक बन जाएगा. इसमें कोई संदेह नहीं कि जब उन्होंने लोकसभा में अबकी बार 400 के पार की उद्घोषणा की तो विरोधी खेमा चारो खाने चित हो गया. उसे कुछ समझ में नहीं आया कि अब भाजपा का मुकाबला कैसे किया जाए. वास्तव में यही मोदी चाहते थे. मनोवैज्ञानिक युद्ध में विपक्ष परास्त हो गया था. रक्षात्मक विपक्ष को यह विश्वास हो गया कि आयेगा तो मोदी ही. उनके इस बयान से कि तीसरी पारी में बहुत बड़े फैसले होंगे, विपक्ष बहुत बेचैन हो गया. उसने कहना शुरू किया कि मोदी को 400 सीटें इसलिए चाहिए, क्योंकि वह संविधान बदलना चाहते हैं. दलितों और पिछड़ों का आरक्षण खत्म करना चाहते हैं और देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं.

बिहार से शुरू हुआ जातिगत जनगणना का राजनीतिक खेल कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने के बाद अचानक बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया गया जिसे कांग्रेस ने लपक लिया और राहुल गाँधी ने झूठे विमर्श गढ़ने शुरू कर दिए. जहाँ मोदी विकसित भारत की बात करते थे, मजबूत अर्थव्यवस्था की बात करते थे और कल्याणकारी योजनाओं से गरीबों के जीवन में खुशियां लाने की बात करते थे, विपक्ष के पास जातिगत जनगणना और मुफ्त की रेवड़ियों के अलावा कुछ नहीं था. घपले और घोटालों के लिए कुख्यात कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के ठीक विपरीत, मोदी सरकार पर किसी भी घपले घोटाले का आरोप नहीं लगा था. लोक कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से 25 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर लाने और 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देना सरकार की कुछ बड़ी उपलब्धियाँ हैं. देश को आतंकवाद से मुक्त करने, राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत करने, मूलभूत ढांचा विकसित करने में गति लाने, वैश्विक परिवेश में भारत की सम्माननीय भूमिका स्थापित करने, जनधन खातों के माध्यम से वित्तीय समावेशन करने और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाले मोदी सरकार के 10 साल के इस कार्यकाल को स्वतंत्र भारत का स्वर्णिम काल कहना अनुचित नहीं होगा. धारा 370 समाप्त करने, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करने, तीन तलाक समाप्त करने और संशोधित नागरिकता कानून बनाने जैसे साहसिक और प्रशंसनीय कार्य भी मोदी सरकार ने किए.

लेकिन ! जातिगत उभार ने चुनाव का माहौल बदल दिया और सामाजिक समरसता और जातिविहीन हिन्दू समाज की बात करने वाले मोदी और भाजपा के अन्य शीर्षस्थ नेता भी रक्षात्मक हो गए. उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित कोटे में मुस्लिम जातियों को पिछले दरवाजे से शामिल करने की कांग्रेसी करतूतों पर खुलकर बोलना शुरू कर दिया लेकिन जातिवादी उन्माद की काट के लिए सांप्रदायिकता का हथियार भाजपा के काम नहीं आया. इससे मुस्लिम मतदाता तो भाजपा को हराने के लिए एकजुट हो गए लेकिन जातियों के खांचे में बंटे हिंदू समाज को पिछड़ों और दलितों के कथित हितैषियों ने एकजुट नहीं होने दिया. इसके लिए पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक(मुस्लिम)) तथा एम वाई (मुस्लिम-यादव) की एकजुटता करने के खतरनाक प्रयास भी किए गए. विश्व इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस किसी देश में इस तरह के प्रयास हुए, उसे इस्लामिक राष्ट्र बनने से कोई नहीं रोक पाया और कालांतर में ऐसे प्रयास करने बालों को बहुत कष्ट उठाने पड़े या तो धर्मान्तरित होना पड़ा या नरसंहार का सामना करना पड़ा और उनकी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पहचान हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो गई.

अब की बार 400 पार के नारे से भाजपा के कार्यकर्ता भी आत्म मुग्ध हो गए और चुनाव प्रचार में पसीना बहाना व्यर्थ लगने लगा. इसका परिणाम यह हुआ कि भीषण गर्मी के प्रतिकूल वातावरण में भाजपा कार्यकर्ता घर से नहीं निकले. भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का वह बयान भी आत्मघाती साबित हुआ कि भाजपा का संगठन बहुत मजबूत और व्यापक है अब उसे चुनाव जीतने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आवश्यकता नहीं है. 2014 और 2019 वे पूर्ण बहुमत वाली भाजपा के शीर्ष नेता भी गलतफहमी का शिकार हो गए. पार्टी कार्यकर्ताओं से ज्यादा वे अपने विकास कार्यों और करिश्माई नेतृत्व पर भरोसा करने लगे. फलस्वरूप कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हुई और उनमें असंतोष पनपा. संगठन और सरकार के बीच समन्वय कम हो गया जबकि राजनीति में संगठन और सरकार एक दूसरे के पूरक और संपूरक होने चाहिए. इससे असुरक्षा की भावना पैदा हुई और गुटबाजी को बढ़ावा मिला. कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है, लेकिन 80 लोकसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश, पार्टी के अंतर्विरोधों और चुनावी अव्यवस्थाओं का शिकार हुआ.

योगी आदित्यनाथ जिन्हें देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री और कुशल प्रशासक माना जाता है, की टिकट वितरण में नहीं सुनी गई. लगभग 35 ऐसे लोगों को टिकट दिए गए जिन्हें योगी प्रत्याशी नहीं बनाना चाहते थे. कोई अदृश्य शक्ति नहीं चाहती थी कि लोकसभा में योगी समर्थक सांसदो की ज्यादा संख्या हो. मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए प्रतिद्वंदिता इसका कारण हो सकता है क्योंकि सोशल मीडिया योगी को मोदी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में लंबे समय से समर्थन कर रहा है और यह उचित भी प्रतीत होता है.

उत्तर प्रदेश में निचले स्तर पर भाजपा का चुनाव प्रचार बहुत सीमित रहा. संघ और भाजपा के कार्यकर्ता तो उदासीन थे ही, अनेक प्रत्याशी भी उदासीन रहे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि मोदी लहर में उनकी जीत स्वतः हो जायेगी. अनेक संसदीय क्षेत्रों में बूथ प्रबंधन भी संतोषजनक नही रहा. अनेक संसदीय क्षेत्रों में भितरघात की सूचनाएं भी मिल रही है. सबसे आश्चर्यजनक है अयोध्या की हार और वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी की जीत का अंतर काफी कम हो जाना. अयोध्या और वाराणसी दोनों में एक समानता है कि दोनों ही शहरी कायाकल्प के मॉडल के रूप में जाने जाते हैं. बड़े और आधुनिक हवाई अड्डे तथा रेलवे स्टेशन, बड़ी और चौड़ी सड़कें, शहर का सुंदरीकरण और पर्यटन स्थल के रूप में विकास, जिससे रोजगार के अवसर भी उत्पन्न होंगे और ये शहर विश्व मानचित्र में प्रभावी स्थान पा सकेंगे. अयोध्या में 500 वर्षों के अनवरत संघर्ष के परिणामस्वरूप मंदिर का निर्माण हुआ है, जो पूरे सनातन धर्म और सनातन संस्कृति के लिए हर्ष और गौरव का विषय है. सच्चे अर्थों में यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक भी है. इसके बाद भी भाजपा का प्रत्याशी अयोध्या में बड़े अंतर से हार गया. वाराणसी में भी प्रधानमंत्री मोदी की जीत का अंतर बहुत कम हो गया जो भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. ऐसे देश का क्या हो सकता है जहाँ जातिगत भावना धर्म से ऊपर हो जाय. इसके पहले 1912 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहने के बाद कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उनकी सरकार वापस नहीं आ सकी थी. चुनाव में नारा दिया गया था मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम. आपकी बार अयोध्या में नारा दिया गया था “ न अयोध्या न काशी, अबकी बार अवधेश पासी”. अवधेश पासी ने चुनाव जीतने के बाद कहा कि वह राम भक्त नहीं है और उनके विचार और मानसिकता जगजाहिर है.

अयोध्या और काशी के विश्लेषण से पता चलता है विकास के उच्चतम मापदंड स्थापित करने के बाद भी राज्य और केंद्र सरकार ने कई समस्याओं की अनदेखी की. दोनों ही शहरों में रामपथ और कॉरिडोर के निर्माण के लिए भवनों और प्राचीन मंदिरों का अधिग्रहण करके तोड़ा गया और उचित मुआवजा भी नहीं दिया गया. विस्थापित भवनमालिकों और दुकानदारों को समुचित वैकल्पिक स्थान भी उपलब्ध नहीं कराया गया. उच्च तकनीक के इस युग में पौराणिक महत्त्व के भवनों और मंदिरों को स्थानांतरित किया जा सकता था और कम से कम समुचित मुआवजा और स्थान उपलब्ध कराकर उनका पुनर्निर्माण कराया जा सकता था. इससे पौराणिक और सांस्कृतिक विरासत को न केवल सहेजा जा सकता था बल्कि जनसामान्य की भावनाओं को भी सम्मान दिया जा सकता था. दोनों ही शहरों के अधिकांश निवासी अपने अपने आराध्य के निति प्रति बेरोकटोक दर्शन करते थे लेकिन अब या तो उन्हें सामान्य कतार में जाना पड़ता है. यद्यपि इसके लिए कार्ड बनाने की व्यवस्था है लेकिन इसकी प्रक्रिया अत्यंत जटिल और मुश्किल है. इस कारण स्थानीय जनता को लगता है कि उनके आराध्य से दूर कर दिया गया है. हवाई अड्डे तथा अन्य सुविधाओं को विकसित करने के लिए अधिग्रहीत भूमिका की मुआवजा राशि अत्यंत कम है,जो बड़े असंतोष का कारण है. गांव के गांव विस्थापित हो गए हैं और उनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई है. महंगाई, बेरोजगारी, पेपर लीक होना और अग्निवीर जैसी योजनाएं सभी जगह के लिए सामान्य रूप से प्रभावी है.

पिछले कुछ वर्षों से एक अभियान चलाया जा रहा है जिसका खुलासा बिहारशरीफ में पीएफआई के एक ठिकाने पर छापेमारी के दौरान बरामद किए गए दस्तावेज़ों से हुआ था. गज़वा-ए-हिंद, जो भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की योजना है, के अंतर्गत मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने के अतिरिक्त दलित और पिछड़े वर्ग की जातियों को मुस्लिम समुदाय के साथ खड़ा करना ताकि संयुक्त संख्याबल के आधार पर राजनीतिक रूप से भारत की सत्ता पर कब्जा करके भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाया जा सके. दुर्भाग्य से ज्यादातर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ के कारण जानबूझकर अनजान बनते हुए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस षड्यंत्र का हिस्सा बन रहे हैं. कश्मीर से केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में इस पर कार्य हो रहा है. इन राज्यों में चुनाव के बाद एक समुदाय विशेष की अराजक और सांप्रदायिक शक्ति प्रदर्शन इस षड्यंत्र की गतिमान सफलता का उदाहरण है.

ऐसा नहीं है कि भाजपा मुस्लिम तुष्टीकरण से अलग है. मोदी ने मुस्लिम समुदाय पर जितना बजटीय आवंटन खर्च किया है उतना स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया. मैंने कई बार लिखा है कि भाजपा कुछ भी करे उसे मुसलिम कभी वोट नहीं देंगे बल्कि वे सामूहिक रूप से उस दल को वोट करेंगे जो भाजपा को हरा सके. इन चुनावों में यही हुआ और इसमें योजनाबद्ध तरीके से दलितों और पिछड़ों का साथ भी लिया गया. समय रहते यदि इस पर चिंतन और मनन नहीं किया गया तो इस लिए अत्यंत घातक परिणाम होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि भाजपा या कोई भी हिंदूवादी संगठन राजनैतिक तौर पर अप्रासंगिक हो जाएगा.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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