गुरुवार, 24 मार्च 2022

और अब ... दि बंगाल फाइल्स

  दि बंगाल फाइल्स

 


कश्मीर घाटी में हिंदुओं के नरसंहार और पलायन पर बनी फिल्म “दि  कश्मीर फाइल्स” सुर्खियों में है, जिसे  देखकर लोगों के मन में तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों के प्रति बेहद गुस्सा है.  प्रधानमंत्री ने स्वयं फिल्म निर्माण करने वाली टीम की प्रशंसा की है और कहा है कि 32 साल तक लोगों ने सच को दबाने का कार्य किया गया. 

इस समय बंगाल में कश्मीर से भी अधिक भयानक और विनाशकारी त्रासदी घटित हो रही है. कश्मीर में तो केवल घाटी से ही हिंदुओं का पलायन हुआ था लेकिन बंगाल में अनेक जगहों  से पलायन हो रहा है और विस्थापितों की संख्या कश्मीर से कहीं ज्यादा है. अंतर सिर्फ इतना है कि बंगाल के विस्थापितकश्मीरी  विस्थापितों की तुलना में अत्यधिक गरीब तथा  दलित व कमजोर वर्ग से संबंधित है. कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी सक्रिय थे जिन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन मिलता था, बंगाल में एक राजनीतिक दल के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने  आतंक का राज कायम कर रखा है जिनमें बड़ी संख्या में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए भी शामिल हैं.  राज्य के सीमावर्ती इलाकों में स्थिति अत्यंत भयावह हो गई है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए बहुत बड़ा खतरा  है. पता नहीं क्यों  केंद्र सरकार स्थिति  प्रभावी ढंग से निपटने के बजाय  " बंगाल फाइल्स"  बनने के लिए कथानक बनने देना चाहती है. भाजपा को याद रखना चाहिए कि  इतिहास  प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को कभी माफ नहीं करेगा और  चिल्ला चिल्ला कर लोगों को बताएगा  कि केंद्र में एक राष्ट्रवादी सरकार होने के बाद भी बंगाल में यह सब कुछ हुआ जिसे रोका जा सकता था.  

 


विधानसभा चुनाव के बाद से बंगाल लगातार जल रहा है. हिंसा के अमानवीय और बर्बर तांडव पर जब लोगों को प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से बहुत अपेक्षाएं थी तब  वे बिल्कुल मौन  रहे. वीरभूमि के  रामपुरहाट में  हुई ताजा हिंसा में  घरों को बाहर से बंद कर  आग लगा कर लोगों को जिंदा जलाकर मार दिया गया जिनकी  लाशों के वीडियो देखकर  इस पृथ्वी पर शायद ही कोई  मनुष्य होगा  जो विचलित नहीं होगा. घटना पर प्रधानमंत्री ने भी दुख व्यक्त किया और बंगाल के लोगों से अपील की कि वे ऐसे जघन्य वारदात करने वालों और उनका हौसला बढ़ाने वालों को कभी माफ न करें. क्या इसका अर्थ निकाला जाए कि तृणमूल कांग्रेस को वोट न दें, बल्कि भाजपा को दें या कि जो भी करना है बंगाल के लोग स्वयं करें और केंद्र से कोई उम्मीद न करें.  इस वक्तव्य के बाद उन्होंने राज्य सरकार को अपराधियों को जल्द से जल्द सजा दिलाने में हर तरह की सहायता का आश्वासन भी दिया जिससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि वे राज्य सरकार को इस हिंसा के लिए उत्तरदायी  नहीं मानते और उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करने  जा रहे हैं.

 

वीरभूम हिंसा की  शुरुआत तृणमूल कार्यकर्ता जो गांव का उप प्रधान भी था कि हत्या से शुरू हुआ जिसका बदला लेने के लिए पर संदेह था उनके  घरों को बाहर से बंद कर आग लगा दी गई और अंदर फंसे लोगों को जिंदा जला दिया गया.  लोग सहायता के लिए पुकारते रहे लेकिन पुलिस और प्रशासन मौके पर नहीं पहुंचा. आसानी से समझा जा सकता है कि अगर पुलिस कानून का राज कायम करने की  बजाय एक राजनीतिक दल का कानून स्थापित करें तो उस राज्य का भगवान ही मालिक है. पता चला है कि तृणमूल कार्यकर्ता की हत्या रंगदारी के बंटवारे को लेकर आपसी रंजिश का परिणाम है. ममता बनर्जीं ने  पहले तो आग लगाने की घटना से ही इनकार किया और कहा कि आग शार्ट सर्किट से लगी है. कई वायरल वीडियो ने जब  झूठ की पोल  खोल दी तो उन्होंने कहा कि इस तरह की घटनाएं तो उत्तर प्रदेश,बिहार, गुजरात और राजस्थान में  भी हो रही हैं तो केवल उनकी सरकार को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है. राज्यपाल जगदीप धनखड़ द्वारा इस घटना की निंदा करने पर ममता बनर्जी ने घटना की शीघ्र जांच कराने  की बजाय एक लंबा चौड़ा पत्र राज्यपाल को लिखकर इस तरह के बयानों से दूर रहने के लिए कहा. पत्र की भाषा कुछ इस तरह की है पानीजैसे किसी कार्यालय में किसी अधीनस्थ  कर्मचारी का स्पष्टीकरण मांगा जाता है. राज्यपाल  पहले भी राष्ट्रपति शासन लगाने के पक्षधर थे और अब भी  हैं , लेकिन केंद्र सरकार की सहमति के बिना असहाय हैं.

 

भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी जो राज्य में विपक्ष के नेता भी हैं, ने  कहा है कि बंगाल में हिंदू खतरे में है और यहां की स्थिति कश्मीर से भी बदतर होती जा रही है. उन्होंने कहा कि चुनाव के बाद से एक  लाख से भी अधिक लोग  राज्य छोड़कर दूसरी जगहों पर पलायन कर चुके हैं. राज्य में सारी संवैधानिक मर्यादायें ध्वस्त हो गई हैं, अमानवीय अत्याचारों की सारी सीमाएं भी टूट चुकी हैं . पता नहीं केंद्र सरकार किन परिस्थितियों का इंतजार कर रही है जिसमें राष्ट्रपति शासन लगाया जाना आवश्यक हो जाए. 

यह बात समझ से परे है कि प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार ममता बनर्जी से इतना भयभीत क्यों है. इसके पूर्व भी बंगाल के मुख्य सचिव, पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों ने ममता बनर्जी के इशारे पर  प्रोटोकॉल का उल्लंघन करके प्रधानमंत्री का अपमान किया और उनके पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई लेकिन अभी तक उनके विरुद्ध  स्पष्टीकरण मांगने के अलावा कोई भी ठोस कार्यवाही नहीं हो पाई है. पंजाब में तो प्रधानमंत्री की सुरक्षा खतरे में पड़ गई लेकिन बयानबाजी के अलावा कोई भी कार्यवाही आज तक नहीं हो पाई. इस सबसे जनता के बीच प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार की दिन प्रतिदिन कमजोर होती स्थिति का संदेश जा रहा है.

 

चुनाव के बाद बंगाल में हुई हिंसा पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय  के रवैया  भी बेहद निराशाजनक रहा. सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत संज्ञान लेने की बात तो छोड़िए, दायर की गई याचिका ऊपर भी कोई  कार्यवाही नहीं की. इसके उलट सर्वोच्च न्यायालय में  लंबित कई मुकदमों  से बंगाल की पृष्ठभूमि वाले न्यायाधीशों ने अपने आप को अलग कर लिया, जिसके लिए कुछ भी तर्क दिया जाए लेकिन पश्चिम बंगाल में राजनीतिक प्रदूषण से उपजा उनका डर इसका मुख्य कारण प्रतीत होता है. इस बार अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कोलकाता उच्च न्यायालय ने वीर भूमि  हिंसा पर स्वत संज्ञान लिया है और राज्य सरकार को 24 घंटे के अंदर एक रिपोर्ट देने तथा उपलब्ध साक्ष्यों और गवाहों को पर्याप्त सुरक्षा देने का आदेश दिया है. इसका अंतिम परिणाम चाहे जो हो लेकिन कोलकाता उच्च न्यायालय की प्रशंसा की जानी चाहिए कि देर से ही सही उन्होंने अपने संवैधानिक उत्तर दायित्व का निर्वहन किया  है. 

 

वैसे तो बंगाल में हिंसा का बहुत पुराना इतिहास है जहाँ  वामपंथियों ने हिंसा को राजनीतिक हथियार के रूप में लगातार इसका इस्तेमाल  किया और कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया. उसी तरह  ममता बनर्जी ने  हिंसा को और भी ज्यादा बड़ा हथियार बनाकर राज्य से वामपंथियों का नामोनिशान भी लगभग मिटा दिया. बंगाल की जनता को यह सब पसंद है, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है लेकिन जान बचाने के लिए सत्ताधारी दल की हां में हां मिलाने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है. 

2019 में जनता ने भाजपा में एक अच्छे राजनीतिक दल का विकल्प देखा और उसे लोकसभा चुनाव में शानदार  विजय दिलायी.  तृणमूल के आतंक के साये में छटपटा  रही जनता ने विधानसभा चुनाव में  भाजपा को सत्ता सौंपने का मन बना लिया था. मतदान केंद्रों पर अर्धसैनिक बलों को तैनाती ने   जनता को  संबल  और साहस प्रदान किया  लेकिन अपराध नेटवर्क ने विरोध में मत देने वाले संभावित व्यक्तियों को घरों से निकलने ही नहीं दिया. फिर भी भाजपा के पक्ष में मतदाताओं का जोश देखने लायक था. भाजपा सत्ता में तो नहीं आ सकी  लेकिन  तृणमूल कांग्रेस की नींव हिल गई और स्वयं ममता बनर्जी अपना चुनाव हार गई.  विधानसभा में भाजपा के विधायकों की संख्या 3  से बढ़कर ७७ हो गई. इसके बाद तृणमूल कांग्रेस ने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए हिंसा का ऐसा तांडव किया जिससे विभाजन के समय हुए विस्थापन और नरसंहार की यादें ताजा कर दी.   लूटपाट, ह्त्या  और बलात्कार की इतनी बीभत्स  घटनाएं सामने आई लोगों के रूह काँप गयी.  अपनी  जान बचाने के लिए लोग  घर बार छोड़कर  पड़ोसी राज्यों में पलायन कर गए. तृणमूल  प्रायोजित हिंसा का  तांडव केंद्र सरकार और न्याय पालिका    को चुनौती देता हुआ अनवरत जारी रहा. लोग राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग करते रहे पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की असामान्य खामोशी न केवल घोर निराशाजनक थी बल्कि  आज भी लोगों में कौतूहल का विषय है कि ऐसा क्यों हुआ और  क्या बंगाल में लोगों ने भाजपा को समर्थन देकर कोई अपराध किया है?

 

भाजपा द्वारा अपने समर्थकों को उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया गया, इससे भाजपा के मतदाता और समर्थक ठगा सा महसूस कर रहे हैं. जनता में  संदेश  गया  कि अगर बंगाल में जिंदा रहना है तो तृणमूल कांग्रेस के रहमों करम पर ही रहना होगा. परिणाम स्वरूप बड़ी संख्या में भाजपा  कार्यकर्ता वापस तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए जिसमें  कई बड़े नेता भी हैं. तृणमूल कांग्रेस का खौफ इस बात से देखा जा सकता है कि केंद्र में मंत्री रहे बाबुल सुप्रियो भी,  जिन्होंने टीवी चैनलों  की डिबेट से लेकर सड़क तक  भाजपा के लिए संघर्ष किया, अपनी  लोकसभा सीट से त्यागपत्र देकर ममता की शरण में चले गए.

 

अगर भाजपा ने भविष्य में बंगाल में कोई चुनाव न लड़ने का फैसला कर लिया है तब तो बात अलग है अन्यथा  उसे बंगाल में अपनी कार्यशैली पर  गंभीर चिंतन मनन  की आवश्यकता है वरना 2024 के लोकसभा चुनाव में कम से कम बंगाल में उसकी स्थिति " पुनः मूषक भव"  की हो जाएगी. राजनीतिक हानि लाभ की बात छोड़ भी दी जाए तो भी किसी भी सरकार को  अपने उत्तरदायित्व  से पीछे नहीं हटना चाहिए. अगर देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने और  नागरिकों के नरसंहार रोकने के लिए भी अगर राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा सकता है तो फिर इस तरह की संवैधानिक व्यवस्था का कोई मतलब नही है. 

-    - शिव मिश्रा  









शनिवार, 19 मार्च 2022

ख्वाजा मैनुद्दीन चिस्ती की दरगाह – महामूर्ख हिन्दुओं का तीर्थ

 

ख्वाजा की दरगाह पर वही हिन्दू जाते हैं जिन्हें ख्वाजा मैनुद्दीन चिश्ती का काला इतिहास मालूम नहीं. इसके विपरीत वामपंथ और इस्लामिक प्रचार तंत्र ने इसका इतना महिमा मंडन कर रखा है कि वहां जाने से मन की मुराद पूरी हो जाती हैं. शायद इसी लालसा से मुशीबत में फंसे हिन्दू भी वहां पहुँच जाते हैं. बहुत कम लोग जानते होंगे कि दरगाह अपनी मार्केटिंग भी करता है, जिसके कारण बॉलीवुड सहित हर क्षेत्र के प्रमुख लोगों को सालाना उर्स में आमंत्रित भी किया जाता है. बॉलीवुड ने तो बहुत फिल्मो में उनका गुणगान किया है , जिसके कारण भी लोग पहुँच जाते हैं.

लेकिन ये ये एकदम सही  है कि ख्वाजा मैनुद्दीन चिस्ती की दरगाह – महामूर्ख हिन्दुओं का तीर्थ है.  


 



 राजस्थान के शहर  अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है, जहाँ  प्रतिवर्ष लाखों अज्ञानी श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए जाते हैं और चादर चढ़ाते हैं इनमें ज्यादातर हिंदू होते हैं. ख्वाजा मैनुद्दीन चिश्ती को एक सूफी संत बताया जाता है लेकिन इसे  समझने से  पहले हमें यह समझ लेना जरूरी है कि सूफी  कौन थे ? ये भारत में क्यों आए थे? और इन्होने भारत में क्या किया?


सूफी वे मुस्लिम होते हैं जो गाने बजाने से इस्लाम का प्रचार करते हैं. भारत में षड्यंत्र के तहत  इन्हें किसने संत कहना शुरू किया  पता नहीं लेकिन  सूफी संत “शांति और भाई चारे” का सन्देश देते हैं, इसका झूठा प्रचार किया स्वयं स्वार्थी हिन्दुओं ने. इस मिथक को  कई सदियों तक इस्लामिक विचारकों और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा खूब फैलाया गया है। वास्तविकता यह है कि इन सूफी संतों को भारत में इस्लामिक जिहाद को बढ़ावा देने, ‘काफिरों’ (हिन्दुओं) के धर्मांतरण और इस्लाम को स्थापित करने के उद्देश्य से लाया गया था।

ऐसे ही एक सूफी हुए हैं  ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (Khwaja Moinuddin Chishti) , जिन्हें  हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज़ के नाम से भी जाना जाता है। मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ईरान में हुआ था, उन्हें भारत आकर इस्लाम के प्रचार के लिए भारत भेजा गया था. यहाँ  अजमेर में  इस्लाम के प्रचार में लग गए. उसे  अजमेर में ही  दफनाया गया था जहाँ उसकी दरगाह है. सूफियों के बारें में देखते हैं इतिहासकारों के विचार -

 

  • · इतिहासकार के एस लाल ने अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम शासन की विरासत’ (Legacy of Muslim Rule in India) में  लिखा है, “मुस्लिम मुशाहिक (सूफी आध्यात्मिक नेता) उलेमाओं की तरह ही धर्मांतरण के कार्य में पूरी तरह संलग्न थे, और  इन सूफी ‘संतों’ को लेकर आम धारणा के विपरीत, ये हिंदुओं के प्रति बिल्कुल भी दयालु नहीं थे. वे चाहते थे कि यदि हिंदू इस्लाम अपनाने से इनकार करते हैं तो उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाए या फिर दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर रखा जाए।”
  • ·       लेखक राम ओहरी ने अपनी पुस्तक "दि सिंस्टर  साइड ऑफ सूफीवाद"  लिखा है, “कोई  मुगल, और सूफी, कभी भी हिन्दुओं को मंदिर में पूजा करने देने के लिए राजी नहीं हुये, और न ही इनके मन में हिन्दुओं और  हिंदू देवी-देवताओं के प्रति कोई  सम्मान था. इन सभी का उद्देश्य इस्लाम का विस्तार करना और छल, कपट से किसी भी  कीमत पर हिंदुओं का धर्मांतरण करना था.
  • ·       इतिहासकार एम ए खान ने अपनी पुस्तक ‘इस्लामिक जिहाद: एक जबरन धर्मांतरण, साम्राज्यवाद और दासता की विरासत’ (Islamic Jihad: A Legacy of Forced Conversion, Imperialism, and Slavery) में इस बारे में विस्तार से लिखा है कि मोइनुद्दीन चिश्ती, निज़ामुद्दीन औलिया, नसीरुद्दीन चिराग और शाह जलाल जैसे सूफी संत जब इस्लाम के मुख्य सिद्धांतों की बात करते थे, तो वे वास्तव में रूढ़िवादी और असहिष्णु विचार ही  रखते थे, जो  मुख्यधारा ( हिन्दुओं )  के लिए बेहद खतरनाक होते थे।

 

काफिरों’ ( हिन्दुओं / मूर्ती पूजकों)  को लेकर सूफीवाद के इन  तथाकथित  विद्वानों का दृष्टिकोण तालिबान या आईएसआईएस  के दृष्टिकोण से बिलकुल भी अलग नहीं है। इसके कुख्यात उदाहरण सूफी विचारधारा के सबसे बड़े प्रतीक माने जाने वाले मोइनुद्दीन चिश्ती और औलिया हैं, जिन्होंने वो काम सदियों पहले कर दिया था, जिसे ISIS,  तालिबान और अन्य   कट्टर इस्लामिक संगठन आजकल कर रहे हैं.

कहने के लिए तो सूफी, इस्लाम धर्म का प्रचार करते थे और इस्लाम को प्रेम और भाईचारे का मजहब बताते थे और लोगों में शांति का संदेश देते थे लेकिन किसी  भी सूफी संत ने या  तथाकथित रहस्यवादी संतों ने कभी भी  मुसलमानों द्वारा हिंदुओं की हत्याओं का विरोध नहीं किया और न ही किसी मंदिर को नष्ट करने को कभी गलत बताया.  

इन  सूफियों ने तथाकथित काफिर पुरुषों और महिलाओं को बगदाद और गजनी में  बेंचने,  उन्हें गुलाम  बनाने और उनके साथ भयानक अत्याचार करने का  भी कभी विरोध नहीं किया. इसके विपरीत हमेशा मुस्लिम शासकों पर  ऐसे हिंदुओं का उत्पीड़न करने का दबाव बनाया  जो तमाम प्रयासों के बाद भी मुस्लिम नहीं बने थे। इन  सूफियों ने हमेशा पैगंबर और शरीयत द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलने के लिए  सुल्तानों पर भी दबाव बनाया.

यह कोई रहस्य नहीं है कि इनके धर्म प्रचार और उपदेशों का एकमात्र उद्देश्य धर्मांतरण और  हिंदुओं में  मुस्लिम शासकों के प्रति प्रतिरोध  कम करना था ताकि वह मुस्लिम शासकों के विरुद्ध हथियार ना उठाएं और धीरे धीरे पूरे हिन्दुस्तान को इस्लामिक राष्ट्र बनाया जा सके, जिसके लिए उन्हें हिन्दुस्तान भेजा गया था.   

सभी सूफियों ने शांति और धार्मिक सद्भाव का बहाना बनाकर हिंदुओं के साथ भयानक छल किया। पंजाब के  सूफी संत,  अहमद सरहिंदी ने  लिखा भी है कि जहांगीर द्वारा सिख  गुरु अर्जुन देव की फांसी एक महान इस्लामी जीत थी (नक़शबंदी आदेश (1564-1634). उसने  खुले तौर पर घोषणा की कि इस्लाम और हिंदू धर्म एक दूसरे के विरोधी थे और इसलिए सह-अस्तित्व में नहीं हो सकते। नकाश बंदी सूफियों के जहांगीर और औरंगजेब के साथ बहुत करीबी संबंध थे। लेकिन फिर भी चिश्ती सूफी मियां मीर, जो गुरु अर्जुन देव के घनिष्ठ  मित्र थे, ने भी  सिख गुरु की फांसी देने का विरोध नहीं किया और  जहांगीर ने उन्हें गिरफ्तार कर फाँसी दे  दी. ऐसी दोस्ती निभाते थे ये सूफी और ऐसा ही भाई चारा फैलाते थे.

अजमेर की दरगाह में दफन ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भी बेहद  क्रूर, दुश्चरित्र और कट्टरपंथी मुसलमान था जिसने अपने जीते जी  असंख्य   हिंदुओं को  धर्मान्तरित करने के लिए मजबूर किया जिन्होंने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार किया उनकी  गर्दनें  कटवा दीं. "सिरत अल क़ुतुब"  के अनुसार इसने 7 लाख हिन्दुओं को अपने जीवनकाल में मुसलमान  बनाया था।

हिंदू सामान्यता बहुत सीधे-साधे और दूसरों पर सहज विश्वास करने वाले होते हैं और ऐसा करने वाले ज्यादातर लोगों को मूर्ख बनाया जाता है, और हिन्दू न केवल मूर्ख बनते गए बल्कि शायद स्थायी रूप से मूर्ख बन गए. हिंदूओं की मूर्खता की पराकाष्ठा देखिए कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चादर चढ़ाने वालों में सबसे अधिक हिंदू ही होते है.

 







मजलिस सूफिया’ नामक ग्रंथ के अनुसार जब मैनुद्दीन चिस्ती  मक्का हज करने गया तो वहां उसे ये निर्देश दिया गया कि वह हिंदुस्तान जाये और वहां पर कुफ्र के अंधकार को दूर करके वहां इस्लाम का राज्य स्थापित करे। इसी उद्देश्य से  हिंदुओं के प्रति नफरत का भाव लिए यह व्यक्ति एक ‘इस्लामिक बम’ के रूप में भारत में आया.

यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि गोरी द्वारा अजमेर को जीतने से पहले यह चिस्ती  गोरी की तरफ से अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान की जासूसी करने के लिए अजमेर में बसा था. यहाँ उसने पुष्कर झील के पास अपने ठिकाने स्थापित किए।

  • मध्ययुगीन लेखक ‘जवाहर-ए-फरीदी’ में इस बात का उल्लेख किया गया है कि  चिश्ती ने अजमेर की आना सागर झील, जो कि हिन्दुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है, पर बड़ी संख्या में गायों का क़त्ल किया, और इस क्षेत्र में गायों के खून से मंदिरों को अपवित्र करने का काम किया था। मोइनुद्दीन चिश्ती के शागिर्द प्रतिदिन एक गाय का वध करते थे और मंदिर परिसर में बैठकर गोमांस खाते थे।
  • मारकत इसरार नामक ग्रंथ के अनुसार चिश्ती ने  तीसरी शादी एक नाबालिग  हिन्दू लड़की को जबरन धर्मान्तरित करके की थी । वह हिंदू लड़की नहीं चाहती थी कि इस धर्मांध और अत्याचारी बर्बर मुसलमान मुस्लिम के साथ उसकी शादी हो.  ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने उस लडकी के पिता को एक युद्ध में हराकर कर इस नाबालिग लडकी को उठाया था।  इस्लामिक कानून के अंतर्गत यह नाबालिग लड़की भी माले गनीमत थी और काफिर की बेटी को वह  जैसे चाहे भोग सकता था। इसलिए  उसके साथ जबरदस्ती निकाह किया और उसका  नाम  उम्मत अल्लाह रखा। इससे हुई पुत्री का नाम हफिजा जमाल रखा। जिसकी मजार चिश्ती की ही दरगाह में मौजूद है। ऐसे व्यक्ति को संत कहना पूरे संत समाज का अपमान है.  
  • तारिख ए औलिया” (पुस्तक) के मुताबिक ख्वाजा ने अजमेर नरेश पृथ्वीराज चौहान को दीन  की दावत दी यानी मुसलमान बनने का अनुरोध किया । चौहान के इंकार करने पर ख्वाजा ने कहा ये इस्लाम पर ईमान नहीं लाता इसे  मैं  लश्करे इस्लाम के हवाले  करवाऊँगा। चिश्ती ने मोहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने को बुलाया।

पृथ्वीराज चौहान ने 16 बार गौरी को युद्ध में हराया और हर बार गौरी कुरान की कसम खाकर पैरों में पड़ जाता और पृथ्वीराज उसे क्षमा कर देते पर 17वें युद्ध में मैनुद्दीन चिस्ती  के छल कपट और जयचंद  की गद्दारी के कारण पृथ्वीराज पराजित हुए। गौरी उन्हें बंदी बना कर घोड़े से बाँध कर घसीटता हुआ ले गया। पृथ्वीराज चौहान की पत्नी संयोगिता को पकड़ने के लिए गोरी की सेना उनके अजमेर के महल में प्रवेश नहीं कर पा रही थी क्योंकि महल के चारों तरफ गहरी खाई थी जिससे इसी  चिश्ती की सलाह के बाद  खाई को हिंदुओं की लाशों से पाट दिया गया. लाशों के ऊपर से हाथी निकाला गया जिसकी टक्कर से महल का फाटक तोड़ना था लेकिन फाटक पर बड़े-बड़े कीले   लगे हुए थे जिससे हाथी अपने सिर की टक्कर नहीं मार पा रहा था. इसी चिस्ती  के कहने पर ही जयचंद के बेटे को फाटक से सटाकर खड़ा कर दिया गया और उस पर हाथी ने टक्कर मारी जिससे फाटक टूट गया और जयचंद को भी उसकी  गद्दारी की सजा मिल गई.

 


संयोगिता के बारे में वामपंथी इतिहासकारों ने सफेदी पोत दी है लेकिन  उपलब्ध जानकारी के अनुसार भी दो मत है. 

  1. एक मत के अनुसार मोइनुद्दीन चिश्ती के कहने पर ही गोरी की सेना ने संयोगिता को पकड़कर निर्वस्त्र करने के बाद दुष्कर्म करने के लिए मुस्लिम सैनिकों के सुपुर्द कर दिया. बाद में संयोगिता की पुत्रियों ने बदला लेने के लिए आत्मघाती बनकर चिस्ती को मार डाला. 
  2. दूसरे मत के अनुसार जब तक गोरी की सेना फाटक तोड़कर अंदर महल में पहुंची तब तक संयोगिता ने अपनी इज्जत बचाने के लिए अन्य महिलाओं के साथ आग में कूदकर जौहर  कर लिया था. 

सच्चाई जो भी हो लेकिन हर षड्यन्त्र के पीछे इस मोइनुद्दीन चिश्ती की साजिश पर सभी एकमत है.

 

पृथ्वीराज की हार  के बाद चिश्ती ने अजमेर के सारे मंदिर तुड़वा दिए और उनके मलबे से एक मस्जिद बनवाई, जिसका नाम है ढाई दिन का झोपड़ा क्योंकि इसे बेहद जल्दी में  केवल ढाई दिन में बना कर तैयार किया गया था । इसके पहले वहां सरस्वती मंदिर था.   दुर्भाग्य से ज्यादातर हिंदू पर्यटक इसे भी देखने जाते हैं. इसमें हिन्दू मन्दिरों के स्तेमाल किये गए अवशेष साफ़ दिखाई पड़ते हैं.  




विडम्बना देखिये कि  सृष्टि के रचियता ब्रह्मा की यज्ञस्थली और ऋषियों की तपस्थली तीर्थराज  पुष्कर का क्षेत्र है ये लेकिन ज्यादातर हिन्दू, फ़िल्मी सितारे और अन्य प्रसिद्ध हस्तियाँ यहाँ नहीं जाते. अजमेर से उत्तर-पश्चिम में करीब 11 किलोमीटर दूर पुष्कर में अगस्तय, वामदेव, जमदाग्नि, भर्तृहरि इत्यादि ऋषियों के तपस्या स्थल के रूप में उनकी गुफाएं आज भी नाग पहाड़ में हैं. 

पुराणों के अनुसार  ब्रह्माजी ने पुष्कर में कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णमासी तक यज्ञ किया था, जिसकी स्मृति में अनादि काल से यहां  कार्तिक मेला लगता आ रहा है। पुष्कर के मुख्य बाजार के अंतिम छोर पर ब्रह्माजी का मंदिर बना है। आदि शंकराचार्य ने संवत् 713 में ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना की थी। यह विश्व में ब्रह्माजी का एकमात्र प्राचीन मंदिर है। 

तीर्थराज पुष्कर को सब तीर्थों का गुरु माना  जाता है। इसे धर्मशास्त्रों में पांच तीर्थों में सर्वाधिक पवित्र माना गया है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गया, हरिद्वार और प्रयाग को पंचतीर्थ कहा गया है। अर्धचंद्राकार आकृति में बनी पवित्र एवं पौराणिक पुष्कर झील धार्मिक और आध्यात्मिक आस्था  का जागृत  केंद्र है।

पौराणिक मान्यता  है कि ब्रह्माजी के हाथ से यहीं पर कमल पुष्प गिरने से जल प्रस्फुटित हुआ, जिससे इस झील का उद्भव हुआ। झील के चारों ओर 52 घाट व अनेक मंदिर बने हैं। 

महाभारत के वन पर्व के अनुसार योगिराज श्रीकृष्ण ने पुष्कर में दीर्घकाल तक तपस्या की थी। सुभद्रा के अपहरण के बाद अर्जुन ने पुष्कर में विश्राम किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध पुष्कर में किया था। ऐसे पौराणिक  तीर्थ स्थल के बारे बहुत कम लोग जानते हैं और शायद इसलिए जितने लोग दरगाह जाते हैं, उतने यहाँ नहीं पहुंचते.  

चिश्ती की दरगाह के बारे में एक और तथ्य है कि इसे एक अत्यंत  प्राचीन शिव मंदिर को तोड़कर बनाया गया है. इसके बारें में द्वारिकापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती ने बहुत विस्तार से बताया कि  जिस जगह पर अजमेर शरीफ की मजार है, उसके ठीक नीचे आज भी शिवलिंग विराजमान हैं.


निजामुद्दीन चिश्ती ने अजमेर की आना सागर झील पर बड़ी संख्या में गायों का क़त्ल किया और उनके  खून से मंदिरों को लाल कर दिया था। यही नहीं, इस तथा कथित सूफी संत’ मोइनुद्दीन चिश्ती के शागिर्दों ने हिंदू रानियों का अपहरण किया और उन्हें मोईनुद्दीन चिश्ती को उपहार के रूप में प्रस्तुत किया, जिसे उसने स्वीकार किया.  इस क्रूर और दुश्चरित्र राक्षस  मोईनुद्दीन चिश्ती के बारे में इतिहास में दर्ज ये तथ्य बॉलीवुड की फिल्मों, गानों, सूफी संगीत और वामपंथी इतिहास से एकदम अलग हैं। अजमेर को हिन्दू-मुस्लिम’ समन्वय के पाठ के रूप में तो पढ़ाया जाता है, लेकिन यह जिक्र नहीं किया जाता है कि ये सूफी भारत में जिहाद को बढ़ावा देने और इस्लाम के प्रचार के लिए आए थे, जिसके लिए उन्होंने हिन्दुओं पर बेहद क्रूरता की .

ऐसे दुष्ट-दानव ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को महामूर्ख  हिंदू आज भी  पूजते हैं, उसकी दरगाह पर मन्नते मांगने जाते हैं, इससे ज्यादा दुःख और शर्म की  बात और क्या हो सकती हैं?

हिंदू इतिहास से कुछ सीख नहीं रहा है या इतना पथ भ्रष्ट और स्वार्थी  हो गया है कि उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसने हिन्दुओं के साथ क्या किया और किसने सनातन संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया और कितना नुकशान पहुंचाया. मोइनुद्दीन चिश्ती के खानदान के लगभग ११ हजार लोग दरगाह पर आये चढ़ावे पर एशो आराम का जीवन जीते हैं, जो मुख्यतया हिन्दू ही  चढाते हैं. चिश्ती जिसने जीते जी हिन्दुओं को मारा, मरने के बाद आज भी मार रहा है.

फोटो - गूगल 

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-    शिव मिश्रा