दि बंगाल फाइल्स
कश्मीर घाटी में हिंदुओं के नरसंहार और पलायन पर बनी फिल्म “दि कश्मीर फाइल्स” सुर्खियों में है, जिसे देखकर लोगों के मन में तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों के प्रति बेहद गुस्सा है. प्रधानमंत्री ने स्वयं फिल्म निर्माण करने वाली टीम की प्रशंसा की है और कहा है कि 32 साल तक लोगों ने सच को दबाने का कार्य किया गया.
इस समय बंगाल में कश्मीर से भी अधिक भयानक और
विनाशकारी त्रासदी घटित हो रही है. कश्मीर में तो केवल घाटी से ही हिंदुओं का
पलायन हुआ था लेकिन बंगाल में अनेक जगहों
से पलायन हो रहा है और विस्थापितों की संख्या कश्मीर से कहीं ज्यादा है. अंतर सिर्फ इतना है कि बंगाल के विस्थापितकश्मीरी विस्थापितों की तुलना में अत्यधिक गरीब तथा दलित व कमजोर वर्ग से संबंधित है. कश्मीर में
पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी सक्रिय थे जिन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन मिलता था, बंगाल में एक राजनीतिक दल
के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने आतंक का राज
कायम कर रखा है जिनमें बड़ी संख्या में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए भी
शामिल हैं. राज्य के सीमावर्ती इलाकों में
स्थिति अत्यंत भयावह हो गई है, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए बहुत बड़ा खतरा है. पता नहीं क्यों केंद्र सरकार स्थिति प्रभावी ढंग से निपटने के बजाय " बंगाल फाइल्स" बनने के लिए कथानक बनने देना चाहती है. भाजपा
को याद रखना चाहिए कि इतिहास प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को कभी माफ नहीं
करेगा और चिल्ला चिल्ला कर लोगों को
बताएगा कि केंद्र में एक राष्ट्रवादी
सरकार होने के बाद भी बंगाल में यह सब कुछ हुआ जिसे रोका जा सकता था.
विधानसभा चुनाव के बाद से बंगाल लगातार जल रहा
है. हिंसा के अमानवीय और बर्बर तांडव पर जब लोगों को प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से
बहुत अपेक्षाएं थी तब वे बिल्कुल मौन रहे. वीरभूमि के रामपुरहाट में
हुई ताजा हिंसा में घरों को बाहर
से बंद कर आग लगा कर लोगों को जिंदा जलाकर
मार दिया गया जिनकी लाशों के वीडियो देखकर इस पृथ्वी पर शायद ही कोई मनुष्य होगा
जो विचलित नहीं होगा. घटना पर प्रधानमंत्री ने भी दुख व्यक्त किया और बंगाल
के लोगों से अपील की कि वे ऐसे जघन्य वारदात करने वालों और उनका हौसला बढ़ाने
वालों को कभी माफ न करें. क्या इसका अर्थ निकाला जाए कि तृणमूल कांग्रेस को वोट न
दें, बल्कि भाजपा को
दें या कि जो भी करना है बंगाल के लोग स्वयं करें और केंद्र से कोई उम्मीद न
करें. इस वक्तव्य के बाद उन्होंने राज्य
सरकार को अपराधियों को जल्द से जल्द सजा दिलाने में हर तरह की सहायता का आश्वासन
भी दिया जिससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि वे राज्य सरकार को इस हिंसा के लिए
उत्तरदायी नहीं मानते और उसके विरुद्ध कोई
कार्यवाही नहीं करने जा रहे हैं.
वीरभूम हिंसा की शुरुआत तृणमूल कार्यकर्ता जो गांव का उप प्रधान
भी था कि हत्या से शुरू हुआ जिसका बदला लेने के लिए पर संदेह था उनके घरों को बाहर से बंद कर आग लगा दी गई और अंदर
फंसे लोगों को जिंदा जला दिया गया. लोग
सहायता के लिए पुकारते रहे लेकिन पुलिस और प्रशासन मौके पर नहीं पहुंचा. आसानी से
समझा जा सकता है कि अगर पुलिस कानून का राज कायम करने की बजाय एक राजनीतिक दल का कानून स्थापित करें तो
उस राज्य का भगवान ही मालिक है. पता चला है कि तृणमूल कार्यकर्ता की हत्या रंगदारी
के बंटवारे को लेकर आपसी रंजिश का परिणाम है. ममता बनर्जीं ने पहले तो आग लगाने की घटना से ही इनकार किया और
कहा कि आग शार्ट सर्किट से लगी है. कई वायरल वीडियो ने जब झूठ की पोल खोल दी तो उन्होंने कहा कि इस तरह की घटनाएं तो
उत्तर प्रदेश,बिहार, गुजरात और राजस्थान
में भी हो रही हैं तो केवल उनकी सरकार को
ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है. राज्यपाल जगदीप धनखड़ द्वारा इस घटना की निंदा
करने पर ममता बनर्जी ने घटना की शीघ्र जांच कराने
की बजाय एक लंबा चौड़ा पत्र राज्यपाल को लिखकर इस तरह के बयानों से दूर
रहने के लिए कहा. पत्र की भाषा कुछ इस तरह की है पानीजैसे किसी कार्यालय में किसी
अधीनस्थ कर्मचारी का स्पष्टीकरण मांगा
जाता है. राज्यपाल पहले भी राष्ट्रपति
शासन लगाने के पक्षधर थे और अब भी हैं , लेकिन केंद्र सरकार की
सहमति के बिना असहाय हैं.
भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी जो राज्य में
विपक्ष के नेता भी हैं, ने कहा है कि बंगाल में हिंदू खतरे में है और यहां
की स्थिति कश्मीर से भी बदतर होती जा रही है. उन्होंने कहा कि चुनाव के बाद से
एक लाख से भी अधिक लोग राज्य छोड़कर दूसरी जगहों पर पलायन कर चुके
हैं. राज्य में सारी संवैधानिक मर्यादायें ध्वस्त हो गई हैं, अमानवीय अत्याचारों की
सारी सीमाएं भी टूट चुकी हैं . पता नहीं केंद्र सरकार किन परिस्थितियों का इंतजार
कर रही है जिसमें राष्ट्रपति शासन लगाया जाना आवश्यक हो जाए.
यह बात समझ से परे है कि प्रधानमंत्री और
केंद्र सरकार ममता बनर्जी से इतना भयभीत क्यों है. इसके पूर्व भी बंगाल के मुख्य
सचिव, पुलिस और प्रशासन
के अधिकारियों ने ममता बनर्जी के इशारे पर
प्रोटोकॉल का उल्लंघन करके प्रधानमंत्री का अपमान किया और उनके पद की गरिमा
को ठेस पहुंचाई लेकिन अभी तक उनके विरुद्ध
स्पष्टीकरण मांगने के अलावा कोई भी ठोस कार्यवाही नहीं हो पाई है. पंजाब
में तो प्रधानमंत्री की सुरक्षा खतरे में पड़ गई लेकिन बयानबाजी के अलावा कोई भी
कार्यवाही आज तक नहीं हो पाई. इस सबसे जनता के बीच प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार
की दिन प्रतिदिन कमजोर होती स्थिति का संदेश जा रहा है.
चुनाव के बाद बंगाल में हुई हिंसा पर उच्च
न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के रवैया भी बेहद निराशाजनक रहा. सर्वोच्च न्यायालय ने
स्वत संज्ञान लेने की बात तो छोड़िए, दायर की गई याचिका ऊपर भी कोई कार्यवाही नहीं की. इसके उलट सर्वोच्च न्यायालय
में लंबित कई मुकदमों से बंगाल की पृष्ठभूमि वाले न्यायाधीशों ने
अपने आप को अलग कर लिया, जिसके लिए कुछ भी
तर्क दिया जाए लेकिन पश्चिम बंगाल में राजनीतिक प्रदूषण से उपजा उनका डर इसका
मुख्य कारण प्रतीत होता है. इस बार अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कोलकाता उच्च न्यायालय
ने वीर भूमि हिंसा पर स्वत संज्ञान लिया
है और राज्य सरकार को 24 घंटे के अंदर एक
रिपोर्ट देने तथा उपलब्ध साक्ष्यों और गवाहों को पर्याप्त सुरक्षा देने का आदेश
दिया है. इसका अंतिम परिणाम चाहे जो हो लेकिन कोलकाता उच्च न्यायालय की प्रशंसा की
जानी चाहिए कि देर से ही सही उन्होंने अपने संवैधानिक उत्तर दायित्व का निर्वहन
किया है.
वैसे तो बंगाल में हिंसा का बहुत पुराना इतिहास है जहाँ वामपंथियों ने हिंसा को राजनीतिक हथियार के रूप में लगातार इसका इस्तेमाल किया और कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया. उसी तरह ममता बनर्जी ने हिंसा को और भी ज्यादा बड़ा हथियार बनाकर राज्य से वामपंथियों का नामोनिशान भी लगभग मिटा दिया. बंगाल की जनता को यह सब पसंद है, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है लेकिन जान बचाने के लिए सत्ताधारी दल की हां में हां मिलाने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है.
2019 में जनता ने
भाजपा में एक अच्छे राजनीतिक दल का विकल्प देखा और उसे लोकसभा चुनाव में शानदार विजय दिलायी.
तृणमूल के आतंक के साये में छटपटा
रही जनता ने विधानसभा चुनाव में
भाजपा को सत्ता सौंपने का मन बना लिया था. मतदान केंद्रों पर अर्धसैनिक
बलों को तैनाती ने जनता को संबल और
साहस प्रदान किया लेकिन अपराध नेटवर्क ने
विरोध में मत देने वाले संभावित व्यक्तियों को घरों से निकलने ही नहीं दिया. फिर
भी भाजपा के पक्ष में मतदाताओं का जोश देखने लायक था. भाजपा सत्ता में तो नहीं आ
सकी लेकिन तृणमूल कांग्रेस की नींव हिल गई और स्वयं ममता
बनर्जी अपना चुनाव हार गई. विधानसभा में
भाजपा के विधायकों की संख्या 3 से बढ़कर ७७ हो गई. इसके बाद तृणमूल कांग्रेस ने विरोधियों
को सबक सिखाने के लिए हिंसा का ऐसा तांडव किया जिससे विभाजन के समय हुए विस्थापन
और नरसंहार की यादें ताजा कर दी. लूटपाट, ह्त्या और बलात्कार की इतनी बीभत्स घटनाएं सामने आई लोगों के रूह काँप गयी. अपनी
जान बचाने के लिए लोग घर बार
छोड़कर पड़ोसी राज्यों में पलायन कर गए.
तृणमूल प्रायोजित हिंसा का तांडव केंद्र सरकार और न्याय पालिका को
चुनौती देता हुआ अनवरत जारी रहा. लोग राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग करते रहे
पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की असामान्य खामोशी न केवल घोर निराशाजनक थी
बल्कि आज भी लोगों में कौतूहल का विषय है
कि ऐसा क्यों हुआ और क्या बंगाल में लोगों
ने भाजपा को समर्थन देकर कोई अपराध किया है?
भाजपा द्वारा अपने समर्थकों को उनके हाल पर
मरने के लिए छोड़ दिया गया,
इससे भाजपा के
मतदाता और समर्थक ठगा सा महसूस कर रहे हैं. जनता में संदेश
गया कि अगर बंगाल में जिंदा रहना
है तो तृणमूल कांग्रेस के रहमों करम पर ही रहना होगा. परिणाम स्वरूप बड़ी संख्या
में भाजपा कार्यकर्ता वापस तृणमूल
कांग्रेस में शामिल हो गए जिसमें कई बड़े
नेता भी हैं. तृणमूल कांग्रेस का खौफ इस बात से देखा जा सकता है कि केंद्र में
मंत्री रहे बाबुल सुप्रियो भी, जिन्होंने टीवी
चैनलों की डिबेट से लेकर सड़क तक भाजपा के लिए संघर्ष किया, अपनी लोकसभा सीट से त्यागपत्र देकर ममता की शरण में
चले गए.
अगर भाजपा ने
भविष्य में बंगाल में कोई चुनाव न लड़ने का फैसला कर लिया है तब तो बात अलग है
अन्यथा उसे बंगाल में अपनी कार्यशैली
पर गंभीर चिंतन मनन की आवश्यकता है वरना 2024 के लोकसभा चुनाव में कम
से कम बंगाल में उसकी स्थिति " पुनः मूषक भव" की हो जाएगी. राजनीतिक हानि लाभ की बात छोड़ भी
दी जाए तो भी किसी भी सरकार को अपने
उत्तरदायित्व से पीछे नहीं हटना चाहिए.
अगर देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने और
नागरिकों के नरसंहार रोकने के लिए भी अगर राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा
सकता है तो फिर इस तरह की संवैधानिक व्यवस्था का कोई मतलब नही है.
- - शिव मिश्रा