सोमवार, 16 जून 2014
एक अटूट रिश्ता ....टूटता सा ...!
मन भटकता है,
रह रह कर ,
कभी यहाँ कभी वहां,
पता नहीं कब ? कब ? कहाँ ?
कहाँ ?
बचपन ...और अपने गाँव की नदी
के किनारे..,
घूमते थे जहाँ शाम सबेरे,
और दोस्तों के साथ खेलते थे,
प्यास लगने पर
नदी का पानी पीते थे,
कभी शेर बनकर,
कभी मछली बनकर,
तो कभी चुल्लू लगा कर,
नहाते थे दिन में कई कई बार,
छूने, पकड़ने और छिपने के
कितने ही खेल खेलते थे,
नदी के पानी में,
और लोटते थे,
नदी की गोद में फ़ैली बालू
में,
नंगे पाँव चलते थे,
छप छप करते थे,
उथले पानी में,
कितने पिरामिड खड़े किये
बालू में
और कितनी ही आकृतियाँ बनाई,
कितने ही चींटी चींटों को
कागज की नाव पर
नदी की सैर कराई,
कितने ही जल युद्ध होते थे,
पानी के थपेड़ों से,
एक दूसरे से,
सरोबोर होते थे हम सभी,
तैरने की प्रतियोगिताएं भी होती थी कभी कभी,
जीतते थे,
हारते थे,
पर कभी नहीं थकते थे,
कितने ही खजाने ढूँढ़ते थे ,
गोताखोर बनकर ,
डुबकी लगा लगा कर,
सीपी, शंख,रंगीन सुंदर पत्थरों
के टुकड़े,
और कुछ पुराने सिक्के मुड़े
तुड़े,
आज भी मेरे पास अमानत है,
जो नदी से मेरे बचपन के
रिश्ते की विरासत है,
ये हर चीज करती है खुद बयानी,
उस नदी की अनोखी, अनकही
कहानी,
जब बाढ़ आती थी,
लगता था जैसे
हम समुद्र के किनारे बस
जाते थे
पानी की हिंसक लहरे,
और आर्तनाद करती भवरें,
दिल में अनगिनत उतार चढाव
और कौतूहल भर जाते थे,
हर रोज हम बाढ़ नापते थे,
और सरकंडे गाड़ कर बाढ़ रोकते
थे,
हम इसमें सफल होते थे,
ऐसा मान कर बहुत खुश होते
थे,
पुल नहीं था,
पर गाँव में किसी को इसका गम
नहीं था,
निकसन काका की नाव शायद
इसीलिये बनी थी,
जो जरूरतों की अकेली रोशनी थी,
पैदल हो या साईकिल,
बकरी हो या भेड़
सबको इसकी जरूरत थी,
एक अटूट रिश्ते से,
हम सब जुड़े थे,
अपने गाँव की इस सुंदर नदी
से,
कई दशक बाद आज मै लौटा हूँ
उसी नदी के किनारे,
और ढूड रहा हूँ,
अपने अतीत के रिश्ते की वह
कड़ी,
जिसकी नीव थी कभी यहीं पड़ी,
कभी सोचा भी न था कि
समय की सुई इतनी घूम
जायेगी,
कि इस रिश्ते की जान पर बन
आयेगी,
मेरे बचपन की ये दोस्त और मेरी
ये रिश्तेदार,
कृषकाय हो रही है,
मलिन हो बीमार हो रही है,
और सूख रही है
जगह जगह से,
शायद आख़िरी कड़ी भी टूट रही
है
इस रिश्ते की
इससे....
हम सबसे .....!
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