रविवार, 30 नवंबर 2025

राम मंदिर की धर्म–ध्वजा का संदेश- मोदी ऐसे हैं, या केवल दिखते हैं?

 


अयोध्या में राम मंदिर की धर्म–ध्वजा का संदेश || मोदी ऐसे हैं, या केवल दिखते हैं? || क्यों विपक्ष राष्ट्र के साथ नहीं?


25 नवंबर 2025 का ऐतिहासिक दिन केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व और केवल हिंदुओं के लिए नहीं, समस्त मानवता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया—जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर के शिखर पर भगवा धर्म–ध्वजा फहराते हुए कहा कि

“500 वर्षों की प्रतीक्षा समाप्त हो गई; वह यज्ञ पूरा हुआ जो कभी आस्था से डिगा नहीं, कभी विश्वास से टूटा नहीं।”

सदियों की प्रतीक्षा, संघर्ष, भरोसे और आशा की किरणों के बाद जब राम मंदिर के शिखर पर धर्म–ध्वजा लहराई, तब यह क्षण मात्र धार्मिक अनुष्ठान न रहकर भारत की आत्मा के पुनर्जागरण का उषाकाल बन गया—एक ऐसा क्षण जिसने पूरे विश्व को अपने दिव्य स्पंदन से प्रभावित किया। राम मंदिर पर धर्म–ध्वजा का आरोहण सनातन धर्म के लिए गहन प्रतीकात्मक एवं प्रेरणादायी महत्व रखता है—यह धर्म की निरंतरता, पारिवारिक संस्कारों की पुष्टि और आने वाली पीढ़ियों को आदर्श जीवन–मूल्यों की याद दिलाने वाला ध्रुव क्षण है। जैसा कि महाभारत में कहा गया है:

“न धर्मो हि अंशुभिः साध्यः ”

— धर्म का प्रकाश स्वयं मार्ग प्रशस्त करता है, यह घटना इसलिए भी असाधारण है कि यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक नए राष्ट्रीय प्रतिमान की घोषणा है। एक ऐसा प्रतिमान, जिसकी परिभाषा स्पष्ट शब्दों में इस तरह परिभाषित कर सकते हैं —

“राम राष्ट्र की आत्मा हैं, और आत्मा के जागरण से ही राष्ट्र का उत्थान संभव है।”

मनुस्मृति का वाक्य आज नए अर्थ में गूंज रहा है इसे सभी हिन्दुओ को आत्मसात कर लेना चाहिए :

“धर्मो रक्षति रक्षितः।”

राम मंदिर पर धर्म–ध्वजा का फहराया जाना केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि भारत के सामूहिक मानस, उसकी सांस्कृतिक यात्रा और वर्तमान राष्ट्रीय विमर्श से जुड़ी ऐतिहासिक घटना है। स्वतंत्रता के बाद यह पहला अवसर था जब दुनिया ने सनातन भारत की सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय चेतना के केंद्र में प्रतिष्ठित होते देखा और जब पूरा भारत राम मय हो गया.

“राम का नाम कोई नारा नहीं, राष्ट्र की ऊर्जा है।”

इसलिए यह ध्वजा–रोहण “केवल राम मंदिर के शिखर पर धर्म ध्वजा का आरोहण नहीं, बल्कि युग-परिवर्तन है”.

सही अर्थों में यह भारत की वास्तविक धर्मनिरपेक्षता को रेखांकित करता है। अब तक हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति से दूरी बनाना ही धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण माना जाता रहा। स्वतंत्रता के बाद जब राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक पुनर्स्थापन की आवश्यकता थी, तब नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण पर दुर्भावनापूर्ण राजनीति की और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उद्घाटन में शामिल होने से रोका। अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश दिया गया कि इस्लामी आक्रांताओं द्वारा नष्ट की गई सनातन धरोहरों की यथास्थिति ही उचित है। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि विश्व की प्राचीनतम सनातन संस्कृति के प्रति उनकी कोई निष्ठा नहीं थी और राष्ट्र के बहुसंख्यक हिंदुओं के प्रति कोई दायित्व नहीं। यद्यपि नेहरू और इंदिरा से लेकर राहुल तक—गांधी परिवार का लगभग हर सदस्य अफगानिस्तान में बाबर की मजार पर श्रद्धांजलि अर्पित कर चुका है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वयं राम मंदिर के शिखर पर धर्म–ध्वजा फहराना इस व्यापक परिवर्तन का संकेत है कि भारत अब उस दौर में प्रवेश कर चुका है, जहाँ राष्ट्रीय अस्मिता की सांस्कृतिक स्मृतियाँ केवल इतिहास या परंपरा नहीं, बल्कि राष्ट्र–निर्माण की सक्रिय शक्ति बन चुकी हैं। राम मंदिर के शिखर पर लहराती धर्म–ध्वजा इस उभरती सांस्कृतिक चेतना की उद्घोषणा है कि भारत अब अपनी प्राचीन गौरवमयी सभ्यता को आधुनिक राष्ट्र–निर्माण के केंद्र में स्थापित कर रहा है।

महाभारत महाकाव्य में अनेक बार उद्धृत है - “यतो धर्मस्ततो जयः।”

अर्थात जहाँ धर्म है, वहीं विजय है — और यही आज का भारत विश्व से यही कह रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने आस्था को राष्ट्र–निर्माण और सामाजिक कल्याण से जोड़ने का संदेश दिया और इस ऐतिहासिक क्षण को एक व्यापक, समावेशी और कल्याणकारी दृष्टि का प्रेरक बताया जो सामयिक भी है।

कांग्रेस सहित अधिकांश विपक्ष द्वारा समारोह का बहिष्कार विशुद्ध मुस्लिम तुष्टिकरण पर आधारित था—वही पुरानी, थोक वोट–बैंक साधने की सरल राजनीति। परंतु हिंदू जागरूकता और एकजुटता के कारण अब यह राजनीति उतनी फलदायी नहीं रही। यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि राम मंदिर और अयोध्या आधुनिक भारतीय राजनीति का केंद्रीय बिंदु बन चुके हैं, और इस ध्वजारोहण ने इसे और मजबूत किया है।

इस समारोह में आस्था और सत्ता का अद्भुत प्रतीकात्मक मिलन दिखाई दिया—यह स्पष्ट संकेत कि आने वाले वर्षों में भारत की दिशा केवल आर्थिक विकास से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विमर्शों से भी निर्धारित होगी। सांस्कृतिक प्रतीकों की यह पुनर्स्थापना भारत की बहुलतावादी संरचना को सुदृढ़ करेगी और साथ ही भारत अपनी पहचान को वैश्विक मंच पर अब स्पष्टता और गर्व के साथ प्रस्तुत करेगा।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह कदम भारत की सॉफ्ट पावर के विस्तार की नई दिशा प्रदान करेगा । योग, आयुर्वेद और भारतीय दर्शन पहले ही भारत की सांस्कृतिक छवि को विश्व में स्थापित कर चुके हैं। अब राम मंदिर और उससे जुड़े प्रतीक इस छवि को नया आयाम देंगे। विश्व–राजनीति में सांस्कृतिक संकेतों का अपना महत्व होता है। अयोध्या का दृश्य कई देशों के लिए यह स्पष्ट संदेश था कि भारत अपनी जड़ों से कटे बिना आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है।

अयोध्या में राम मंदिर का धर्म–ध्वजारोहण केवल आस्था का राष्ट्रीय उत्सव नहीं, बल्कि रामायण की वैश्विक परंपरा और सांस्कृतिक कूटनीति का भी प्रतीक है। यह आयोजन भारत को उन देशों से जोड़ता है जहाँ राम और रामायण आज भी जीवंत हैं, जोड़ेगा।

इंडोनेशिया में रामायण लोकप्रिय है; थाईलैंड में रामाकियन राष्ट्रीय महाकाव्य है; कंबोडिया में रीमके नाम से रामायण का शाही नृत्य–नाटक प्रसिद्ध है; नेपाल में जनकपुर को सीता का जन्मस्थान माना जाता है; लाओस और म्यांमार में रामायण के स्थानीय संस्करण लोक–संस्कृति का हिस्सा हैं। अतः राम मंदिर भविष्य में पर्यटन और आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण इंजन भी सिद्ध होगा। लाखों श्रद्धालु और पर्यटक प्रतिवर्ष यहाँ आएँगे, जिससे धार्मिक पर्यटन में स्थायी वृद्धि होगी।

राम मंदिर ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विस्तार किया है और भविष्य की राजनीति में इसकी भूमिका और गहराने की संभावना है। यही राष्ट्र की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह राष्ट्रीय हित में होगा यदि सनातन के धार्मिक प्रतीक और सांस्कृतिक आयोजन राजनीति में प्रमुख विमर्श बनें—जिससे सांप्रदायिक तुष्टिकरण समाप्त हो सके। रामराज्य को आधुनिक शासन–व्यवस्था से यदि जोड़ा जा सका, तो राजनीति, धर्म और विकास दोनों को साथ लेकर आगे बढ़ सकती है।

मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि बाहरी तौर पर ही सही— कम से कम प्रधानमंत्री मोदी हिंदुत्व–आधारित राजनीति को आगे बढ़ाने का संकेत दे रहे हैं। यह कहना कठिन है कि अब उन्हें चुनावी राजनीति की परवाह नहीं, या वे अत्यधिक राजनैतिक दबाव में हैं। परंतु वे जिस तरह बार–बार “500 वर्षों” का उल्लेख कर रहे हैं—ठीक उसी तरह, जैसे आडवाणी की रथयात्रा के दौरान करते थे—यह स्पष्ट संकेत है कि वे पुनः रेखांकित करना चाहते हैं कि हिंदू पहले कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना आज है, और कि हिंदू उनके लिए विशेष महत्व रखता है।

परंतु प्रश्न उठते हैं —

- फिर हिंदू मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त क्यों नहीं हुए?

- हिंदुओं को गुरुकुल संचालित करने की स्वतंत्रता क्यों नहीं?

- गजवा–ए–हिंद की साजिशों पर प्रभावी नियंत्रण क्यों नहीं?

- समान नागरिक संहिता और धर्मांतरण–निरोधक केंद्रीय कानून क्यों नहीं?

हिंदू समाज मोदी के हिंदू हितैषी वक्तव्यों और सार्वजनिक रूप से पूजा–अर्चना देखकर ही संतोष कर लेता है—क्योंकि इससे पहले ऐसा करने का साहस भी कोई प्रधानमंत्री नहीं कर सका। भारत के हिंदू–विरोधी दूषित राजनीतिक वातावरण में यह भी बड़ा कदम है, परंतु यह पेड़ की पत्तियों पर पानी डालने जैसा काम है।

लंबे समय तक प्रतीकात्मक कार्यों से न तो किसी समुदाय को संतुष्ट रखा जा सकता है और न ही किसी देश की संस्कृति को सुरक्षित रखा जा सकता है, यह बात मोदी और भाजपा को समझनी होगी और हम सभी को भी, — कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक दल तो कभी समझेंगे नहीं।

~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~

रविवार, 23 नवंबर 2025

इस्लामिक राष्ट्र में रहने के लिए आप कितने तैयार ?

 


गंगा-जमुनी तहज़ीब, भाईचारा और शांति का शोर || इस्लामिक राष्ट्र में रहने के लिए आप कितने तैयार ? || राजनीतिक इस्लाम का वैश्विक है प्रभाव


पिछले कई वर्षों से मैं अपने लेखों के माध्यम से भारत में गज़वा-ए-हिंद के जिहादी षड्यंत्रों से इस्लामीकरण के बढ़ते खतरे के प्रति आगाह करता रहा हूँ। बिहार के फुलवारी शरीफ में बरामद दस्तावेजों से यह खुलासा हुआ था कि पीएफआई 2047 तक भारत को इस्लामी राष्ट्र बनाने की योजना पर काम कर रहा है। मुझे अंदेशा नहीं था कि यह खतरा इतने बड़े रूप में और इतनी जल्दी सामने आ जाएगा। दिल्ली के लाल किले के पास हुए बम विस्फोट में जिहादी डॉक्टरों की भूमिका सामने आई है, जो फरीदाबाद के निकट अल-फलाह यूनिवर्सिटी से जुड़े थे। इस विश्वविद्यालय का इस्तेमाल व्हाइटकॉलर टेरर मॉड्यूल तैयार करने के लिए किया जा रहा था। महिला डॉक्टरों की संलिप्तता भी चिंता का बड़ा कारण है। दो ऐसी महिला डॉक्टरें गिरफ्तार की गई हैं जिन्होंने बांग्लादेश में पढ़ाई की है और जिनके संबंध तुर्की तथा अन्य इस्लामी देशों के आतंकी संगठनों से बताए जा रहे हैं।

दिल्ली विस्फोट में जो तथ्य सामने आ रहे हैं वे बेहद चिंताजनक और चौंकाने वाले हैं। यह एक आत्मघाती विस्फोट था जिसे मुख्य आरोपी डॉ. उमर उन नबी, विशेषज्ञ डॉक्टर और अल-फलाह यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था — ने आत्मघाती हमलावर बनकर अंजाम दिया। अब तक सुरक्षा एजेंसियों का अनुमान था कि इस्लामी आतंकवाद में आत्मघाती विस्फोट भारत में संभव नहीं होंगे क्योंकि भारतीय इस्लाम और भारतीय मुसलमान दुनिया भर के अन्य मुसलमानों से अलग हैं। मानव बम आईएसआईएस की रणनीति है, जिसने कई देशों में मानवता के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है। काफिरों को मारने या किसी देश को नुकसान पहुँचाने के लिए स्वयं को मानव बम बनाकर मार डालना इस्लामी कट्टरता की पराकाष्ठा है। जब किसी देश में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो उसे संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है। भारत में भी अब इसकी शुरुआत बेहद चिंता का विषय है।

भारत में जिन गंगा-जामुनी तहज़ीब, भाईचारे और शांति की बातें लंबे समय से की जा रही हैं,वे धोखा हैं और वे भारत के इस्लामीकरण के षड्यंत्रकारी प्रयासों को छिपाने का कवच हैं। विश्वविद्यालय से जुड़े कई लोग व्हाइट‑कॉलर टेरर मॉड्यूल के सदस्य थे, जो आतंकवादी गतिविधियाँ को योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दे रहे थे। जिन डॉक्टरों की गिरफ्तारी हुई है, वे पाकिस्तान‑समर्थित आकाओं के इशारों पर काम कर रहे थे। यूनिवर्सिटी को एक सुरक्षित पनाहगाह के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था। इस यूनिवर्सिटी में 415 करोड़ रुपये के फर्जीवाड़े का भी खुलासा हुआ है, जिसमें विश्वविद्यालय के फंड्स का दुरुपयोग आतंकवादी मोड्यूल बनाने में किया गया था। अल-फलाह यूनिवर्सिटी में उपजे व्हाइट‑कॉलर टेरर मॉड्यूल का संबंध कश्मीर से भी जुड़ा हुआ पाया गया है।

घाटी में छापेमारी और गिरफ्तारियों के बीच इस्लाम का राजनीतिक स्वरूप भी खुलकर सामने आया। महबूबा मुफ़्ती ने कहा कि “यह धमाका देश में बनाए गए प्रेशर‑कुकर माहौल का नतीजा है” और उन्होंने केंद्र सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया। उनका कहना था कि कश्मीर की जो मुसीबत थी, वह लाल किले के सामने बोल पड़ी है। उन्होंने कहा कि देशभर में इस्लामोफोबिया और मुसलमानों पर उत्पीड़न बढ़ रहा है। कुछ लोग आतंकी हमले करते हैं और उसके बाद कश्मीरी समुदाय के खिलाफ बदले की कार्रवाई, सामूहिक सज़ा और जातीय‑प्रोफाइलिंग का चक्र शुरू हो जाता है। इसलिए कश्मीरी कठिन आर्थिक, सामाजिक और सुरक्षा‑दुविधाओं के बीच फँसे हुए हैं। उनका यह बयान आतंकी गतिविधियों को परोक्ष समर्थन देने जैसा प्रतीत होता है।

महबूबा मुफ़्ती की बेटी इल्तिजा मुफ़्ती ने लाल किले के पास हुए विस्फोट के मामले में आत्मघाती हमलावर डॉ. उमर नबी पर चिंता जताई है। उन्होंने इस घटना को इस्लामोफोबिया से जोड़कर सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर सवाल उठाए हैं।

जम्मू‑कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि दिल्ली कार बम धमाके के लिए कुछ लोग जिम्मेदार हैं, पर यह धारणा बनायी जा रही है कि हम सब दोषी हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के पिता फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि लाल किले के पास हमले में शामिल आतंकी कश्मीरियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। उन्होंने देशभर में रह रहे कश्मीरियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आग्रह किया। देश के दुश्मनों के साथ कश्मीरियों को नहीं खड़ा किया जा सकता और न ही उनके अपराधों की सजा निर्दोष कश्मीरियों को दी जा सकती है। पहलगाम आतंकी घटना से कुछ समय पहले नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद आगा सैयद रूहुल्लाह मेहदी ने कहा था कि कश्मीर में टूरिज़्म पर आधारित सांस्कृतिक हमला हो रहा है और इससे कश्मीर की असल पहचान प्रभावित हो रही है।

प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से इस तरह के बयानों से आतंकवादी घटनाओं और पृथकतावादी जिहादियों का समर्थन करने, तथा पूरी कौम को पीड़ित और शोषित बताने का विमर्श फैलाने जैसी प्रवृत्तियाँ राजनीतिक इस्लाम का कार्य हैं। वैश्विक स्तर पर यह बड़ी सफलता से किया जा रहा है और यही अब इस्लाम की एक विशेषज्ञता भी है।

इसमें संदेह नहीं कि भारत को शीघ्राति‑शीघ्र इस्लामी राष्ट्र बनाने की कोशिशें हो रही हैं, जिन्हें अधिकांश मुस्लिम समूहों का समर्थन प्राप्त है। गज़वा‑ए‑हिंद को इस्लाम के धार्मिक युद्ध के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिसका उद्देश्य भारत को “दार‑अल-इस्लाम” या इस्लामी राष्ट्र बनाना है। दारुल उलूम देवबंद जैसे संस्थान इस विचार को वैध ठहराते दिखते हैं। व्हाइट‑कॉलर टेरर मॉड्यूल जैसे नेटवर्क, जहाँ उच्च शिक्षित लोग आतंकी गतिविधियों में शामिल हैं, इस षड्यंत्र की गंभीरता को दर्शाते हैं।

महमूद मदनी का लक्ष्य 2030 तक एक करोड़ मुस्लिम युवाओं को शारीरिक दक्षता और सामाजिक सुरक्षा हेतु लाठी‑डंडे और हथियारों का प्रशिक्षण देकर तैयार करना है। 2019 से शुरू हुए इस अभियान में अब तक लगभग 70 लाख युवाओं को प्रशिक्षण दिया जा चुका है। यह प्रशिक्षण कार्य वैसा ही है है जो पूर्व में पीएफआई अपने शिविरों में संचालित करता रहा है। उनका यह काम संदिग्ध है और गज़वा‑ए‑हिंद में गृह‑युद्ध छेड़ने में इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

वैसे तो भारत को इस्लामी बनाने के प्रयास सातवीं शताब्दी से इस्लामी आक्रमणों के साथ शुरू हुए थे, पर भौगोलिक विशालता, भाषाई विविधता और सांस्कृतिक समृद्धि के कारण भारत पर आक्रमण सफल नहीं हुआ। लेकिन अंदरूनी भितरघात और जिस राजनीतिक इस्लाम की कारगुजारियों के कारण भारत का विभाजन हुआ वैसी स्थितियां पुन: उत्पन्न की जा रही हैं । भारत के कई राजनीतिक दल वोट‑राजनीति के चलते मुस्लिम तुष्टिकरण करते हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत के इस्लामीकरण का समर्थन कर रहे हैं। आतंकी घटनाएँ, धर्मांतरण, अवैध घुसपैठ, जनसंख्या विस्फोट, सांप्रदायिक दंगे और वक्फ बोर्ड के माध्यम से अधिक से अधिक भूमि पर कब्ज़ा करने के प्रयासों को जोड़कर देखा जाए तो इन सबका उद्देश्य एक जैसा प्रतीत होता है — गज़वा‑ए‑हिंद के एजेंडे को मूर्त रूप देना।

भारत के राष्ट्रांतरण की भूमिका संविधान के कुछ प्रावधानों में भी निहित दिखाई देती है, जो एक ओर बहुसंख्यक हिंदुओं को आज भी गुलाम बनाए हुए है और दूसरी ओर दूसरी सबसे बड़ी आबादी को अल्पसंख्यक बनाकर धार्मिक संस्थानों के संचालन की स्वायत्तता प्रदान करते हैं। उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अनुच्छेद 25‑26 के अंतर्गत अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करने और संस्थान चलाने की स्वतंत्रता दी गई है। इस कारण मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाओं द्वारा शरिया‑सम्बंधी प्रथाओं को लागू करने की कोशिशें और अनगिनत मदरसों के माध्यम से कट्टरता के बीज बोये जा रहे हैं। वक्फ बोर्ड भूमि‑संपत्ति पर कब्ज़ा करता जा रहा है। पूजा‑स्थल कानूनों से कई ऐसे धार्मिक स्थल और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीकों की यथास्थिति बनाए रखने के लिए हिन्दू बाध्य हैं । संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यक समुदायों को सांस्कृतिक पहचान और शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का विशेष अधिकार देते हैं, जिसके आड़ में मदरसे संचालित हो रहे हैं और जिनके कारण धार्मिक कट्टरता तथा पृथकतावादी मानसिकता उत्पन्न की जा रही है। वही बहुसंख्यक वर्ग इन विशेष अधिकारों से वंचित महसूस करता है।

मुसलमानों के जितने धार्मिक संगठन भारत में हैं, उतने शेष विश्व में नहीं हैं । ये संगठन मिलकर भारत को इस्लामी राष्ट्र बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। वहाबी और सलाफी जैसे समूहों पर विश्व के कई देशों में रोक और निगरानी है, पर भारत में ये कुछ भी करने को स्वतन्त्र हैं । कुछ देशों में मस्जिदें केवल नमाज़ के समय खोली जाती हैं और तत्पश्चात बंद कर दी जाती हैं, जबकि भारत में मस्जिदें लगातार खुली रहती हैं, जिससे धार्मिक उन्माद फैलाया जा रहा है। कई देशों में शुक्रवार की तकरीरों पर नियंत्रण और वक्ताओं के लिए शैक्षणिक मान्यता व सरकारी प्रमाणन की आवश्यकता होती है; और मदरसों पर रोक है.

भारत में अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक पहचान के नाम पर दी गई छूट के कारण कट्टरपंथी गतिविधियाँ अनियंत्रित हो गयी हैं। इसका नतीजा यह है कि आज भारत पर इस्लामीकरण के खतरे की धार तीव्र हो गयी है। यदि शीघ्र और उपयुक्त कदम नहीं उठाए गए तो देश आत्मघाती हमलों और गृह‑युद्ध जैसी विनाशकारी दिशाओं की ओर जा सकता है। आगे का रास्ता दिन‑प्रतिदिन और कठिन होता जाएगा।

शनिवार, 15 नवंबर 2025

दिल्ली विस्फोट: निहितार्थ और चिंताएँ

 


दिल्ली विस्फोट: निहितार्थ और चिंताएँ || हिन्दुस्तान कब तक बच पायेगा पूर्ण इस्लामीकरण से || आतंकवाद का धर्म होता है ! ये निर्विवाद सत्य है और इस धर्म को सब जानते हैं ||


10 नवंबर 2025 को, बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक एक दिन पहले, दिल्ली के लाल किला क्षेत्र में हुए विस्फोट ने पूरे देश को झकझोर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 11 वर्षों के कार्यकाल में यह पहला और अभूतपूर्व आतंकी हमला था, और वह भी उस स्थान पर जहाँ हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराया जाता है। इस विस्फोट में 13 लोगों की मृत्यु हुई और 20 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए।

अब तक आतंकवाद की घटनाएँ मुख्यतः कश्मीर तक सीमित थीं, लेकिन यह पहली बार था जब देश की राजधानी में इतनी बड़ी घटना हुई। सुरक्षा एजेंसियों ने तत्परता से जांच शुरू की और कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।

चिंता की बात यह है कि बिहार चुनाव में भाजपा गठबंधन को तीन-चौथाई बहुमत मिलने के बाद, इस जाँच की गति कहीं धीमी न पड़ जाए। विस्फोट से ठीक पहले पुलिस ने तीन क्विंटल से अधिक विस्फोटक बरामद किया था, जो दस लाख से अधिक लोगों को नुकसान पहुँचाने में सक्षम था। आतंकवादियों के प्रायोजकों और समर्थकों का उद्देश्य भारी संख्या में हिन्दू नरसंहार करने का था, लेकिन क्यों? हिन्दुओं ने उनका क्या बिगाड़ा है? इनका असली उद्देश्य समझने के लिए प्रत्येक भारतवासी को चिंतन करने की आवश्यकता है अन्यथा चिता भी नहीं बन सकेगी.

इस घटना का सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि इसमें शामिल अधिकांश आतंकवादी पेशे से डॉक्टर थे—विशेषज्ञ चिकित्सक। मुख्य आरोपी डॉ. उमर मोहम्मद, पुलवामा निवासी, इंटरनल मेडिसिन में एमडी और मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थे। उनकी विशेषज्ञता वीबीआईईडी (व्हीकल बोर्न इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस) में थी, जिसे उसने इस हमले में प्रयोग किया। दूसरी प्रमुख आरोपी डॉ. शाहीन सय्यद, लखनऊ निवासी, जैश-ए-मोहम्मद की महिला भर्ती विंग की संचालिका थीं। वह अल-फलाह मेडिकल कॉलेज में कार्यरत थीं और उनके पास से हथियार और धन की व्यवस्था के प्रमाण मिले हैं। अन्य गिरफ्तार डॉक्टरों में डॉ. उमर उन नवी, डॉ. मुजम्मिल गनाई और डॉ. अदिल अहमद रदर शामिल हैं, जिनका संबंध अल-फलाह मेडिकल यूनिवर्सिटी से है। हैदराबाद निवासी डॉ. अहमद मोइनुद्दीन सैयद को भी गिरफ्तार किया गया है, जो “रेसिन” नामक घातक रसायन तैयार कर रहा था, जिसका उपयोग हिन्दू नरसंहार के लिए किया जाना था।

पुलिस ने इस नेटवर्क को “व्हाइट कॉलर टेरर” कहा है—एक ऐसा आतंकवादी तंत्र जिसमें वित्त, भर्ती, हथियार प्रबंधन और संगठनात्मक चैनलों का प्रयोग हुआ। यह जैश-ए-मोहम्मद और अंसार गजवत-उल-हिंद से जुड़ा हुआ है।

चिकित्सा क्षेत्र में नैतिक संकट

चिकित्सकों का धर्म मानवता की सेवा करना है। वे जीवन रक्षक होते हैं, न कि जीवन संहारक। लेकिन जब डॉक्टर के वेश में आतंकवादी छिपे हों, तो यह न केवल नैतिक संकट है, बल्कि पूरे चिकित्सा क्षेत्र की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न है।

ऐसी घटनाओं के बाद समाज में अविश्वास फैलता है। अब यदि कोई हिंदू, मुस्लिम चिकित्सकों से परामर्श लेने से परहेज करता है, तो उसे केवल पूर्वाग्रह नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह उनके लिए एक सुरक्षात्मक सतर्कता का उपाय है.

यह एक गहरी सामाजिक चिंता है, जिसे हिन्दुओं सहित सभी को समझना होगा।

ऐतिहासिक संदर्भ और वर्तमान चुनौतियाँ

भारत में इस्लामी आक्रमणों का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू होता है, जिसने सनातन संस्कृति को गहरे घाव दिए। भारत भूमि पर आक्रान्ताओं द्वारा 10 करोड़ हिंदुओं का नरसंहार हुआ, मंदिरों को तोड़ा गया, और उन पर मस्जिदें बनाई गईं. दुर्भाग्य से अमानवीय अत्याचारों और गुलामी के ये अवशेष आज भी ज्यों के त्यों हैं और कांग्रेस सरकार द्वारा पूजा स्थल कानून बना कर हिन्दुओं के लिए न्यायपालिका के दरवाजे भी बंद कर दिए गए लेकिन भाजपा की सरकार ने भी इस सम्बन्ध में कुछ लिया नहीं.

गजवा-ए-हिंद, जिसका उद्देश्य भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाना है, आज भी मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों के एजेंडे में शामिल है, जिसे अधिकांश मुस्लिमों का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन प्राप्त है। जनसंख्या वृद्धि, धर्मांतरण और अवैध घुसपैठ जैसे कार्य इस एजेंडे को जल्द से जल्द पूरा करने के प्रमाण हैं। राजनैतिक इस्लाम इन सभी कुकृत्यों को ढंकने का कार्य करता है.

यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में ऐसे मुसलमान भी हैं जो आतंकवाद और कट्टरता का विरोध करते हैं, लेकिन गजवा-ए-हिंद के खिलाफ खुलकर बोलने वाला कोई नहीं है जिसका मतलब समझना मुश्किल नहीं है.

राजनीतिक दृष्टिकोण

मोदी सरकार ने धारा 370 हटाने और राम मंदिर निर्माण जैसे कार्य किए हैं, लेकिन मंदिरों की स्वतंत्रता, हिंदू शिक्षा और सांस्कृतिक पुनरुद्धार के लिए अपेक्षित कदम नहीं उठाए गए।

हिंदू मंदिरों का सरकारी नियंत्रण, चढ़ावे का अन्य समुदायों के लिए उपयोग, आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट कर कब्जाए गए धार्मिक स्थलों की मुक्ति जैसे मुद्दे आज भी अनसुलझे हैं।

विश्व के हर राष्ट्र में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद राष्ट्रीय अस्मिता और स्वाभिमान की पुनर्स्थापना के लिए आक्रांताओं द्वारा नष्ट किए गए धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों का जीर्णोद्धार किया. लेकिन भारत में स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने होने नहीं दिया और भाजपा ने सत्ता में आने के बाद किया नहीं. फिर भी हिन्दू उनका समर्थन विकल्प हीनता में इसलिए करता है क्योंकि यदि अन्य दलों की सरकार बनी तो कट्टर पंथियों का भारत को 2047 तक इस्लामी राष्ट्र बनाने का सपना समय से पहले ही पूरा हो सकता है. मोदी 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की धुन में हिंदुओं को विकास की मृग मरीचिका में उलझाए रखना चाहते हैं.

निष्कर्ष

लाल किला विस्फोट जैसी घटनाएँ केवल सुरक्षा संकट नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक चेतावनी भी हैं। भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की दिशा में प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन यह विकास केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता से भी जुड़ा होना चाहिए।

यदि समाज अपनी पहचान और सुरक्षा खो देता है, तो यह राष्ट्र के लिए गंभीर संकट होगा।

~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 8 नवंबर 2025

"हाइड्रोजन बम" और कांग्रेस की कठिन राह,

 

"हाइड्रोजन बम" और कांग्रेस की कठिन राह ||राहुल के बेतुके करतब के पीछे का काला सच || राजीव - राहुल की समानता


पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार सत्ताधारी भाजपा पर आरोपों की बौछार कर रहे हैं। वे अपने खुलासों को "राजनीतिक बम" का नाम देते हैं—कभी "एटम बम", कभी "हाइड्रोजन बम" लेकिन इन बयानों का असर कांग्रेस के लिए लाभकारी होने के बजाय आत्मघाती साबित होता दिख रहा है। दुष्परिणों से निश्चिन्त राहुल गांधी बिना किसी शर्म और संकोच के वह सब कर रहे हैं, जो किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता विशेष कर जब वह नेता प्रतिपक्ष हो, के पद की गरिमा के अनुकूल नहीं होता. महत्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों की अनदेखी कर उनका बार-बार बिना किसी उचित कारण के विदेश जाना, और वहां राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध भारत की अनावश्यक आलोचना करना, उनकी भूमिका को पहले ही अत्यंत संदिग्ध बना चुका है. कांग्रेस के अन्य नेता भारत में नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे हालात बनाने की चेतावनी देते रहते हैं. स्वयं राहुल गांधी भी अपनी सभाओं में जातिवादी और सांप्रदायिक विभेद बढ़ाने तथा युवाओं को उकसाने वाले भड़काऊ बयान देते रहते हैं. हाल में उन्होंने न्यायपालिका और सुना को निशाने पर लेटे हुए कहा कि उसे पर 10% सवर्ण लोगों का कब्जा होने की बात कही. ऐसे में, जबकि उनकी ब्रिटिश नागरिकता का मामला जांच के दायरे में है, वैवाहिक स्थितिपर प्रश्न चिन्ह लगा है, एसोसिएटेड जनरल की संपत्तियां हड़पने का भ्रष्टाचार का मामला अदालत में चल रहा है, मान हानि के एक मामले दो साल के सजा हो चुकी हो, देश की कई अदालतों में अनेक मामले विचाराधीन हो, पूरे राष्ट्र को संदेह होना स्वाभाविक है कि कहीं उनके संबंध भारत विरोधी संगठनों और विदेशी शक्तियों के साथ तो नहीं जुड़े हैं.

हरियाणा विधानसभा चुनाव पर आरोप

बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक 24 घंटे पहले राहुल गांधी ने हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 को लेकर गंभीर आरोप लगाए। उनका दावा था कि लगभग 25 लाख फर्जी वोट डाले गए, जिससे कांग्रेस की जीत भाजपा की जीत में बदल गई। उन्होंने चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल उठाए।

हरियाणा के वास्तविक आंकड़े बताते हैं कि भाजपा को 55.48 लाख (39.94%) वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 54.30 लाख (39.09%) वोट। दोनों दलों के बीच महज़ 1.18 लाख वोटों का अंतर रहा, जिससे भाजपा को 48 और कांग्रेस को 37 सीटें मिलीं। यह चुनावी गणित असामान्य नहीं है—कभी एक पार्टी बहुत भारी अंतर से कुछ सीट जीतती है, जिससे राज्य स्तर पर मत प्रतिशत तो बढ़ जाता है लेकिन ज्यादा सीटें नहीं मिलती क्योंकि मतों की बढ़ोत्तरी सामान रूप से सभी सीटों पर नहीं होती. इसके विपरीत यदि मतों की वृद्धि लगभग सामान रूप से सभी सीटों पर होती है तो ज्यादा सीटें जीती जा सकती हैं भले ही जीत का अंतर मामूली हो. भाजपा के मामले यही हुआ जिसने मामूली अंतर से ज्यादा सीटें जीतीं .

किसी विधान सभा या लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को ज्यादा वोट प्रतिशत मिलकर भी वह चुनाव हार सकती है क्योंकि जीत सीटों की संख्या पर निर्भर करती है, न कि कुल वोट प्रतिशत पर। यह भारत की चुनाव प्रणाली की विशेषता है. इसका कारण है भारत में "फर्स्ट - पास्ट - द - पोस्ट" चुनाव प्रणाली का होना। इसमें हर निर्वाचन क्षेत्र से एक ही प्रतिनिधि चुना जाता है. जो उम्मीदवार सबसे ज्यादा वोट पाता है, वह जीत जाता है। जिस दल या गठबंधन के पास विजयी सीट सबसे अधिक होती हैं, सरकार बनाता है.

आसान नहीं है सीटों का गणित

हरियाणा विधान सभा २०२४ चुनाव में कांग्रेस ने फिरोजपुर झिरका सीट 98,441 वोटों के अंतर से जीती, जबकि पुनहाना और लोहारू सीटें मात्र 700–800 वोटों के अंतर से। राज्य की कुल 90 सीटों में से 31 सीटें लगभग 1000 वोटों के अंतर से जीती गईं, इनमें से 12 भाजपा, 10 कांग्रेस और 9 सीटें अन्य दलों ने जीती। यह दर्शाता है कि चुनावी परिणाम अक्सर बेहद छोटे अंतर पर निर्भर करते हैं।ऐसे में राहुल गांधी के कुतर्क किसी के गले नहीं उतर सकते.

राजीव गाँधी और राहुल

1984 में कांग्रेस को 49.1% वोट के साथ 414 सीटें मिली थीं, जो कि अब तक का कीर्तिमान है.। 1989 में उसका वोट प्रतिशत घटकर 40.62% हुआ और सीटें घटकर 197 रह गईं। वहीं भाजपा को 1984 में 7.4% वोट और केवल 2 सीटें मिली थीं, लेकिन 1989 में उसका वोट प्रतिशत 11.87% हो गया और सीटें बढ़कर 88 हो गईं। यह उदाहरण बताता है कि सीटों का गणित केवल वोट प्रतिशत पर नहीं, बल्कि क्षेत्रीय वितरण पर आधारित होता है। लेकिन राजीव गांधी ने भी उस समय चुनाव परिणाम पर संदेह जताया था और कहा था कि मात्र 4% वोट बढ़ने से भाजपा की सीटें 88 कैसे हो साक्ती हैं, यह गणित उनके समझ से बाहर है.

ब्राजील मॉडल का विवाद

राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि हरियाणा में एक ब्राजील की मॉडल ने अलग-अलग नामों से 22 स्थानों पर वोट डाले। उनकी टीम ने फोटोग्राफर का नाम ही मॉडल का नाम बता दिया । मॉडल ने स्वयं वीडियो जारी कर आरोपों को नकार दिया, लेकिन सोशल मीडिया पर वह अचानक प्रसिद्ध हो गई, इसलिए रहुल की कृतज्ञ भी है । राहुल गांधी ने जिन नामों के साथ ब्राजील मॉडल की फोटो लगी होना बताया, उन सभी के मूल मतदाता पहचान पत्र में उनकी खुद की फोटो लगी है. इस सम्बन्ध में कई महिलाओं ने कैमरे के सामने आकर अपने बयान दिए और अपने मतदाता पहचान पात्र भी दिखाए . इससे लगता है कि राहुल के लिए पीपीटी तैयार करने वाली टीम ने राहुल के आरोपों को सनसनीखेज बनाने के लिए स्वयं धोखा धड़ी करके ब्राजील मॉडल की फोटो लगाई. इस घटना ने कांग्रेस की विश्वसनीयता को गहरी चोट पहुँचाई।

चुनाव आयोग और सरकार को चाहिए कि वह एक विशेष जांच टीम बनाकर इस धोखाधड़ी की जांच करें और यदि राहुल गांधी की टीम द्वारा धोखाधड़ी करने की बात साबित होती है तो उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए भारतीय लोकतंत्र और चुनावों की गरिमा बनाई रखी जा सके. देश की संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता और प्रतिष्ठा को किसी असामान्य व्यक्ति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए दांव पर नहीं लगाया जा सकता.

मकान नंबर और मतदाता सूची

राहुल गांधी ने यह भी कहा कि एक ही घर में सैकड़ों वोटर पाए गए। लेकिन भारत के कई नगरों में "आहाता" जैसी परंपरागत संरचनाएँ होती हैं, जिनमें दर्जनों मकान और सैकड़ों लोग रहते हैं। ऐसे में एक ही मकान नंबर पर कई वोटर होना असामान्य नहीं है। जहां तक शून्य संख्या वाले घरों की बात है, भारत के कई गांवों में विशेष कर छोटे-छोटे गांवों जिन्हें ग्राम पंचायत से सम्बद्ध मजरे कहा जाता है, में अभी भी कोई भवन संख्या आवंटित नहीं है. सभी के घर चिट्ठी पत्री भी ग्राम और पोस्ट लिखकर ही आती जाती है. कंप्यूटर की सामान्य समझ रखने वाले व्यक्ति को यह मालूम होगा कि डेटाबेस का स्टैंडर्ड कॉमन फॉर्मेट होता है जिसमें यदि मकान नंबर की फील्ड भरा जाना अनिवार्य ( मैंडेटरी फील्ड )है, तो डाटा एंट्री करने के लिए शून्य भरना मजबूरी है. मकान नंबर न होना या शून्य होना एक ही बात है. यह तकनीकी मजबूरी है, न कि धांधली।

कांग्रेस की चुनौतियाँ और दिशा

भारतीय राजनीति के परिदृश्य में कांग्रेस पार्टी एक ऐतिहासिक और दीर्घकालिक भूमिका निभाती रही है। किंतु पिछले 11 वर्षों से केंद्र की सत्ता से बाहर रहने के बाद, पार्टी आज एक गहरे आत्ममंथन के दौर से गुजर रही है। राहुल गांधी, जो पार्टी के विभिन्न पदों पर रह चुके हैं और विपक्ष के प्रमुख चेहरों में से एक हैं, अब तक संगठन में नई ऊर्जा भरने में अपेक्षित सफलता नहीं पा सके हैं। कांग्रेस की उपस्थिति अब कुछ गिने-चुने राज्यों तक सीमित रह गई है. जिन राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने अपनी जड़ें मजबूत की हैं, वहाँ कांग्रेस का आधार लगातार कमजोर हुआ है। उड़ीसा और पंजाब जैसे राज्य पार्टी के हाथ से फिसल चुके हैं, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति लगभग नगण्य हो चुकी है।

यह स्थिति केवल राज्य स्तर पर ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी कांग्रेस की भूमिका सीमित हो गयी है। कांग्रेस यदि केवल क्षेत्रीय दलों के सहारे केंद्र में सत्ता प्राप्त करने की रणनीति अपनाती है, तो वह न केवल अपनी स्वतंत्र पहचान खोती है, बल्कि गठबंधन की अस्थिरता और वैचारिक असंतुलन का भी शिकार बनती है—जैसा कि यूपीए-2 के कार्यकाल में देखा गया। आज कांग्रेस के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भाजपा नहीं, बल्कि क्षेत्रीय दल हैं, जो अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक को विभाजित कर चुके हैं लेकिन भाजपा को रोकने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है, और किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार है. नीतिगत स्तर पर भी कांग्रेस को अपनी विचारधारा और गठबंधन नीति पर पुनर्विचार करना होगा। किसी संप्रदाय विशेष के तुष्टिकरण या वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर यदि पार्टी राष्ट्रव्यापी समावेशी दृष्टिकोण अपनाती है, तभी वह मुख्यधारा में लौट सकती है अन्यथा हिन्दू विरोधी होने के कारण एक मुस्लिम पार्टी बनकर रह जायेगी.

राहुल गांधी के "हाइड्रोजन बम" जैसे बयान कांग्रेस को राजनीतिक लाभ पहुँचाने के बजाय नुकसान ही पहुँचा रहे हैं। आरोपों की जाँच में तथ्य सामने आते ही कांग्रेस की विश्वसनीयता और कमजोर होती है। भारतीय लोकतंत्र की गरिमा को बार-बार संदेहास्पद बताना जनता के विश्वास को चोट पहुँचाता है।

सनसनीखेज आरोपों से राजनीति नहीं चलती। जनता ठोस तथ्य और भरोसे की तलाश करती है। राहुल गांधी स्वयं कांग्रेस के लिए आत्मघाती बम साबित हो रहे हैं।

~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

धर्मान्तरण कानून पर सुप्रीम प्रहार क्यों || सांप्रदायिक है भारत का सर्वोच्च न्यायालय ?

 


उप्र धर्मान्तरण कानून पर सुप्रीम प्रहार || सांप्रदायिक है भारत का सर्वोच्च न्यायालय ? || प्रयागराज उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में इतना विरोधाभाष क्यों, कौन गलत कौन सही ? ||


सर्वोच्च न्यायालय का हिंदू विरोधी चेहरा एक बार फिर सामने आ गया है। वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय का हिंदू विरोध नया नहीं है लेकिन समय-समय पर उसके द्वारा दिए गए निर्णय जब देश के लिए बेहद आत्मघाती होते हैं, तो इसकी पुन: पुष्टि होती है. आश्चर्यजनक रूप से ये निर्णय वामपंथ-इस्लामिक गठजोड़, जो हिन्दू विरोध और भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील है, के षड्यंत्रों को ढंकने और परोक्ष रूप से सहायता पहुँचाने का भी कार्य करते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण विरोधी कानून, “उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021” के अंतर्गत दर्ज कई मामलों पर टिप्पणी करते हुए उन्हें निरस्त कर दिया है। विशेष रूप से फतेहपुर जिले में दर्ज पाँच मामलों को अदालत ने निरस्त कर दिया है, जिन्हें ईसाई धर्मांतरण के मामलों में दर्ज किया गया था। यद्धपि प्रयागराज उच्च न्यायालय इस पर विस्तार से विचार कर चुका था और पुलिस कार्यवाही को विधि सम्मत मान चुका था. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने अपने 158 पृष्ठों के फैसले में कहा कि इन मामलों में कोई ठोस प्रमाण या कानूनी आधार नहीं था और इस प्रकार अभियोजन "न्याय का उपहास" हैं। अदालत ने कहा कि आपराधिक कानून निर्दोष नागरिकों को परेशान करने का माध्यम नहीं बन सकता। खंडपीठ ने इस कानून की संवैधानिकता पर भी प्रारंभिक तौर पर कई सवाल उठाए, यह कहते हुए कि इसकी प्रक्रियाएँ किसी व्यक्ति की निजता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक भावना के विरुद्ध हैं। अदालत ने यद्धपि पूरे कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं किया है, लेकिन उसने कहा कि धर्म परिवर्तन करने की इच्छा रखने वाले नागरिकों पर अत्यधिक सरकारी नियंत्रण और शर्तें इस कानून का चिंताजनक पहलू हैं। इस टिप्पणी के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने छल कपट और दबाव बना कर धर्मान्तरण कराने की प्रक्रिया को न्याय संगत बना दिया. उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के दृष्टिकोण में इतना विरोधाभाष क्यों? दोनों सही नहीं हो सकते, कोई तो गलत है. सर्वोच्च न्यायालय के सामने तो याचिका केवल प्रथिमिकी रद्द करने की थी लेकिन न्यायाधीशों ने याचिका कर्ताओं को उपहार देकर ससम्मान विदा किया और उनके विरुद्ध कार्यवाही का साहस दिखाने वालों को सबक सिखाने का काम भी कर दिया.

  1. उत्तर प्रदेश सरकार ने 2021 में धर्म परिवर्तन रोकथाम अधिनियम बनाया था. इसमें प्रावधान है कि अगर किसी व्यक्ति को यूपी में अपना धर्म बदलना है तो उसे 60 दिन पहले मजिस्ट्रेट को घोषणा पत्र देना होता है कि वह बिना किसी दबाव के ऐसा कर रहा है. इसके बाद जो व्यक्ति यह धर्म परिवर्तन करवा रहा है, उसे भी 30 दिन पहले मजिस्ट्रेट को सूचना देनी होती है. इसके बाद मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस से इसकी जांच कराई जाती है. एक बार धर्म परिवर्तन हो जाने के बाद व्यक्ति को फिर से 60 दिन के अंदर मजिस्ट्रेट को सूचना देनी होती है. जिसमें उसे अपनी पहचान से जुड़ी जानकारी देनी होती है. इसके बाद यह जानकारी नोटिस बोर्ड पर सार्वजनिक की जाती है. व्यक्ति को फिर 21 दिन के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश होकर अपनी पहचान और जानकारी की पुष्टि करनी होती है. जुलाई 2024 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने "उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध (संशोधन) विधेयक, 2024" पारित किया, जिससे कानून के प्रावधानों को और अधिक सख्त बना दिया गया। इन संशोधनों में बलपूर्वक या धोखाधड़ी से धर्मांतरण कराने के लिए उम्रकैद तक की सज़ा का प्रावधान किया गया था। धर्मांतरण के मामलों में कोई भी व्यक्ति एफआईआर दर्ज करा सकता है, जबकि पहले केवल पीड़ित या उनके परिवार ही शिकायत दर्ज करा सकते थे। अगर किसी व्यक्ति को किसी भी तरह का लालच देकर या पहचान छुपाकर धर्म परिवर्तन कराया जाता है तो यह संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आएगा और यह गैर जमानती होगा. ऐसे मामले में भारतीय न्याय संहिता की धारा 298 और 302 के तहत कार्रवाई की जाएगी, जिसमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है. 

फतेहपुर के इवेंजेलिकल चर्च ऑफ इंडिया में कथित सामूहिक धर्मांतरण के आयोजन से जुड़ा यह मामला, विश्व हिंदू परिषद के एक सदस्य ने दर्ज कराया था, जिसमें 35 नामजद और 20 अज्ञात लोगों को आरोपी बनाया गया था. वहीं एक अन्य मामले में प्रयागराज स्थित सैम हिग्गिन बॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, (पूर्व में इलाहबाद एग्रीकल्चर इंस्टिट्यूट) के कुलपति राजेन्द्र बिहारी लाल और अन्य अधिकारियों के खिलाफ ईसाई धर्म में जबरन सामूहिक धर्मांतरण के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की गई थी. लाल के बारे में विश्वविद्यालय का हर बिद्यार्थी और प्रयाग राज का लगभग हर व्यक्ति बता देगा कि वह दशकों से धर्मान्तरण के काम में जुटे हैं.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है. कोर्ट ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना किसी व्यक्ति को धर्म, विचार, आस्था और विश्वास चुनने की स्वतंत्रता देती है. इसके अलावा ने पीठ ने अपनी टिप्पणी में केएस पुट्टस्वामी और शाफिन जहां जैसे मामलों का भी हवाला दिया, जिनमें निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सबसे ऊपर बताया गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्दपि वह कानून की वैधता पर फैसला नहीं ले रहा, लेकिन प्रारंभिक तौर पर धर्मांतरण कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता को प्रभावित करता है.

सभी को याद रखना चाहिए कि भारत तभी तक धर्मनिरपेक्ष हैं जब तक हिन्दू बहुसंख्यक हैं. जहाँ जहाँ हिन्दू अल्पसंख्यक हो रहे हैं या योजनावद्ध ढंग से किये जा रहे हैं, वहां वहां साम्प्रदायिकता का साम्राज्य स्थापित होता जा रहा है. धीरे धीरे सात राज्यों में हिंदुओं की संख्या घटकर- लक्षद्वीप में 2.5% मिजोरम में 2.7% नागालैंड में 8.7% मेघालय में 11.5% जम्मू और कश्मीर में 28% अरुणाचल प्रदेश में 29% पंजाब में 38% रह गयी है। केरल में तकनीकी रूप से यद्दपि हिन्दुओं की जनसंख्या 50% से अधिक है लेकिन इसमें नास्तिक और वामपंथी भी शामिल है जो स्वाभाविक रूप से हिंदुओं का विरोध करते हैं, यदि इन्हें निकाल दिया जाय तो हिन्दू लगभग 30% हैं.

बहुत कम लोग जानते होंगे कि क्रूर हिंसक और राक्षसी इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा भारत में भयानक यातनाएं देकर लगभग 10 करोड़ हिंदुओं का नरसंहार किया गया, जो इस पृथ्वी का सबसे बड़ा नरसंहार है, लेकिन इसके बाद भी उनके द्वारा भारत को इस्लामिक राष्ट्र नहीं बनाया जा सका । अब गजवा-ए-हिंद के माध्यम से भारत को दारुल इस्लाम या इस्लामी राष्ट्र बनाने के लिए हिंदुओं के सापेक्ष मुसलमानो की जनसंख्या बढ़ायी जा रही है, जिसमें लव जिहाद, धर्मान्तरण, अवैध घुसपैठ हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे हैं. इसके लिए न्यायपालिका, प्रशासनिक और बुद्धिजीवियों का सहयोग और समर्थन लिया जा रहा है. इस समय ईसाई और इस्लामिक कट्टरपंथियों के बीच अधिक से अधिक धर्मान्तरण कराने की प्रतिस्पर्धा चल रही है. इसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से न्यायपालिका और राजनीतिज्ञों की सहायता और समर्थन प्राप्त होता है.

इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय के राष्ट्र और हिंदू विरोधी स्वरूप का कारण कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया है, जिसमें अधिकांश न्यायाधीश मुख्यतया हिन्दू विरोधी प्रष्ठभूमि के साथ साथ इस्लामिक-वामपंथ विचारधारा के बेहद करीब वाले चयनित होते हैं. इसलिए उनके फैसलों में हिंदू और सनातन विरोध दृष्टिगत ना हो यह संभव नहीं हो सकता। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का दायित्व संविधान के संरक्षक का है लेकिन देश, संविधान से भी बड़ा होता है, इसलिए पहले देश, बाद में संविधान. जब देश ही नहीं बचेगा तो संविधान कैसे बच सकता है।

विश्व का इतिहास साक्षी है कि जिन-जिन देशों में वामपंथी इस्लामिक गंठजोड़ प्रभावी हुआ और जहाँ कहीं भी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अपनायी गयी, वे सभी देश इस्लामिक बन गए। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अगर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कट्टरपंथियों का इसी तरह प्रश्रय करते रहे तो भारत में स्थितियां तेजी से बिगड़ सकती हैं। विश्व में कहीं राष्ट्रीय एकता और अखंडता तथा सांस्कृतिक संरक्षण की तुलना में धर्मनिरपेक्षता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अधिक महत्व नहीं दिया जाता। भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान के संरक्षक की भूमिका में पूरी तरह से विफल साबित हो चुका है। मूल संविधान में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द प्रस्तावना में नहीं था. वक्फ बोर्ड, अल्पसंख्यक आयोग, पूजा स्थल कानून, आरक्षण, मंदिर अधिग्रहण कानून, आदि नहीं थे, जिन्हें बाद में जोड़ा गया। 1991 बना पूजा स्थल कानून संवैधानिक फ्रॉड है, जिसे 15 अगस्त 1947 से यानी पिछली तारीख से लागू कर दिया गया और जिसका प्रभाव सातवीं शताब्दी से लागू हो गया जब इस्लामिक आक्रांताओं के आक्रमण शुरू हुए थे। आक्रांताओं द्वारा नष्ट किये गए हिंदू धार्मिक स्थलों और मंदिरों का पुनर्निर्माण मुस्लिम शासनकाल में तो संभव ही नहीं था और उसके बाद 200 वर्ष तक रहे अंग्रेजों के शासनकाल में भी संभव नहीं हो सका। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस सरकार ने इतने अवरोध खड़े किए कि बमुश्किल सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण किया जा सका बाकी सभी धर्म स्थल ज्यों के त्यों पड़े रहे। 1991 के पूजा स्थल कानून द्वारा भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक संरक्षण और पुनरुद्धार के लिए भविष्य में होने वाले सभी कार्यों पर रोक लग गई लेकिन सर्वोच्च न्यायालय मौन रहा क्योंकि यह हिन्दू विरोधी कानून वस्तुत: मुसलमानों के तुष्टीकरण के लिए बनाया गया था और यह सर्वोच्च न्यायालय को भी पसंद है. इसलिए इस कानून की समीक्षा करने के लिए उसने कोई याचिका तक स्वीकार नहीं की।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्तर प्रदेश धर्मांतरण विरोधी कानून पर की गई सख्त टिप्पणियों के परिपेक्ष्य में इस कानून को समाप्त करने की मांग की जाएगी और तुष्टिकरण में लिप्त सभी राजनीतिक दल अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा के नाम पर इसका समर्थन करेंगे. स्वाभाविक रूप से इससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा और धर्मांतरण माफियाओं को प्रत्यक्ष रूप से सहायता मिलगी और उनका मनोबल, बढेगा जिससे धर्मांतरण में बहुत तेजी आएगी। दीर्घकालिक रूप में धर्मांतरण की प्रवृत्ति जनसंख्या की धार्मिक अनुपात को प्रभावित करेगी, विशेष कर ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में. कालांतर में यह भारत के राष्ट्रान्तरण का कारण बनेगी.

चूंकि मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायलय के सामने असहाय और लाचार नजर आ रही है इसलिए हर देशभक्त का कर्तव्य है कि वे सभी राष्ट्रवादियों को जागरूक करे और देशविरोधी निर्णयों का जमकर विरोध करें.

~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 27 सितंबर 2025

लद्धाख से राष्ट्र विरोधी खेल शुरू

 


लद्धाख से राष्ट्र विरोधी खेल शुरू || सोनम वांगचुक है मोहरा, पीछे है कांग्रेस और डीप स्टेट सेना || वामपंथ-इस्लामिक गठजोड़ का सफ़र - हमास बाया क़तर-नेपाल-भारत और चीन बाया नेपाल-कांग्रेस-भारत


देश के शांति प्रिय क्षेत्र लद्दाख में शुरू हुए आंदोलन ने अचानक हिंसक रूप ले लिया, जिसमें चार प्रदर्शनकारियों की मृत्यु हो गई और अनेक घायल हो गए. कहने को तो प्रदर्शनकारियों की चार प्रमुख मांगे हैं, लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा, छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा, कारगिल और लेह को अलग-अलग लोकसभा सीट बनाना और सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों की भर्ती करना. लेकिन यह मांगे अनिन्तिम नहीं हैं. इन मांगों पर 6 अक्टूबर 2025 को वार्ता प्रस्तावित थी जिस सिलसिले में 25 सितंबर को उच्च स्तरीय समिति के साथ वार्ता होनी थी. लद्दाख पहले जम्मू- कश्मीर राज्य का हिस्सा था. अनुच्छेद 370 और 35A हटने के बाद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था. जम्मू कश्मीर को विधानसभा सहित और लद्दाख को विधानसभा रहित केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था. प्रदर्शन कारियों के अनुसार सरकार ने उस समय हालात सामान्य होने के बाद पूर्ण राज्य का दर्जा देने का आश्वासन दिया था. आखिर ऐसा क्या हुआ कि वार्ता शुरू होने के ठीक एक दिन पहले ही प्रदर्शनकारियों ने हिंसा कर दी.

इसका कोई सीधा और सपाट उत्तर तो नहीं मिल सकता लेकिन किसी न किसी को आशंका थी कि वार्ता में बात बन गयी तो फिर आन्दोलन का क्या होगा, इसलिए जान बूझ कर हिंसा करवाई गयी. भूख हड़ताल पर बैठे दो बुजुर्ग लोगों के अस्पताल में भर्ती होने के बाद बंद का आह्वान किया था। लेह में सुरक्षा बलों की गाड़ियों को जला दिया गया और भाजपा कार्यालय में आग लगा दी गई। लद्दाख स्वायत्तशासी प्रशासनिक कार्यालय में भी तोड़-फोड़ की गई और पुलिसवालों पर पथराव किया गया। इसके लिए वातावरण काफी पहले से गर्म किया जा रहा था. श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल में,आंदोलन के कारण हुए सत्ता परिवर्तन के बाद इस तरह के बयान दिए जाते रहे हैं कि अब भारत में भी ऐसा होगा लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो सका क्योंकि राजनीतिक प्रकृति तथा सेना और अर्धसैनिक बलों की विशेष संरचना के कारण भारत में ऐसा हो भी नहीं सकता. कुछ लोग इसे भारत के लोकतंत्र की परिपक्वता भी कहते हैं.

हाल के दिनों में नेपाल में हुए जेन-जेड प्रदर्शनों के बाद सरकार के पतन से कांग्रेस सहित भारतीय विपक्ष बहुत उत्साहित है और राहुल गांधी को तो विश्वास हो गया है कि बिल्ली के भाग्य से छींका अवश्य टूटेगा और वह बिना चुनाव के ही प्रधानमंत्री बन जाएंगे. जनता द्वारा कांग्रेस को नकारने के कारण मिल रही लगातार असफलता को छुपाने के लिए राहुल ने मोदी सरकार पर वोट चोरी का जो आरोप लगाना शुरू किया उसकी प्रेरणा उन्हें बांग्लादेश से, और निर्देश डीप स्टेट से मिले हैं. बांग्लादेश में चुनाव पर प्रश्न चिन्ह लगने के बाद शेख हसीना को जान बचाकर भागना पड़ा था और देश का नेतृत्व अमेरिकी कठपुतली मोहम्मद यूनुस के हाथों सौंप दिया गया था, जो देश में रह भी नहीं रहे थे. नेपाल में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध और भ्रष्टाचार बहुत बड़ा मुद्दा बना लेकिन पूरे आंदोलन के पीछे विदेशी शक्तियों और विदेशी धन की बड़ी भूमिका थी.

भारत एक बहुत बड़ा देश है जहाँ इस तरह सत्ता पलट संभव नहीं है. इसलिए भारत के लिए अलग तरह की रणनीति बनाई गई जिसके अंतर्गत पहले मोदी सरकार के दो समर्थको चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार को भाजपा से समर्थन वापस लेने का दबाव बनाया गया. जब सफलता नहीं मिली तो भाजपा में टूट फूट की कोशिश की गयी और प्रधानमंत्री पद के महत्वाकांक्षी नेताओं को तैयार करने की कोशिश हुई. भाजपा और आरएसएस के मध्य भी दूरियां बढ़ाने की कोशिश की गई ताकि मोदी को सत्ता से बाहर किया जा सके भले ही सरकार भाजपा की ही बनी रहे, लेकिन मिशन एमएमजी ( मोदी मस्ट गो) को सफलता नहीं मिली. इसलिए रणनीति बदलते हुए देश के अलग-अलग हिस्सों में उग्र आंदोलन करके मोदी सरकार को आलोकप्रिय बनाने की कोशिश रही ही है ताकि यदि मध्यावधि चुनाव हो तो मोदी को सत्ता से बेदखल किया जा सके. मोदी सरकार के अच्छे कार्य करने वाले कुशल और लोकप्रिय मंत्रियों के विरुद्ध षड्यंत्रकारी झूठी खबरें चलाकर उनको पद छोड़ने पर मजबूर करने का कुचक्र भी रचा गया है, जिनमें अमित शाह, नितिन गडकरी, अश्विनी वैष्णव जैसे मंत्री शामिल है ताकि मोदी को कमजोर किया जा सके.

अगले वर्ष 26 जनवरी तक इस आंदोलन को पूरे उफान पर पहुंचाने की योजना है. इसलिए लद्दाख यदि एक और मणिपुर बन जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लद्दाख में हुये हिंसक प्रदर्शन के पीछे कांग्रेस, चीन, वामपंथ - इस्लामिक गठजोड़ और डीप स्टेट की बड़ी भूमिका है, जो भारत को अस्थिर करने की कोशिश में लगे हैं. जिस समय लद्दाख में हिंसा का तांडव हो रहा था ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, झारखंड और पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों में "आई लव मोहम्मद" के नाम पर अराजकता पूर्ण प्रदर्शन किये जा रहे हैं. कुछ समय पहले ही राहुल गांधी ने मलेशिया के एक छोटे से द्वीप में जाकिर नायक और जॉर्ज सोरोस के पुत्र एलेग्जेंडर सोरोस से मुलाकात की थी. इन घटनाओं में आपस में समानता लगती है और सरकार को इसकी गहनता से छानबीन करनी चाहिए.

  1. लद्दाख में हुए हिंसक प्रदर्शन को समझने के लिए सोनम वांगचुक को समझना जरूरी है, जो कहने को तो सामाजिक या पर्यावरण कार्यकर्ता है लेकिन वास्तव में वह विदेशी शक्तियों का मोहरा है.  
  2. उनके पिता अब्दुल्लाऔर मुफ्ती सरकारों में मंत्री रहे हैं.  
  3. आमिर खान की फिल्म 3 ईडियट्स में एक इडियट के रूप में उनकी भूमिका द्वारा उन्हें नायक के रूप में उभारा गया था .  
  4. उसे कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं जिसमें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार भी शामिल है.सभी जानते हैं कि रेमन मैग्सेसे पुरस्कार कैसे और किन व्यक्तियों को मिलता है. अरविंद केजरीवाल को भी रोमन मैग्सेसे अवार्ड मिला था और उसके बाद उन्होंने एक बहुत बड़ा आंदोलन तत्कालीन सरकार के विरुद्ध खड़ा किया था. वह भारत की सत्ता पर तो नहीं लेकिन दिल्ली राज्य की सत्ता पर कब्जा जमाने में सफल हो गए थे.  
  5. सोनम वांगचुक भी पुरस्कार प्राप्त करने के बाद राजनीतिक आंदोलन चलाने लगे.उनका संगठन स्टूडेंट एजुकेशनल एंडकल्चरल मूवमेंट ऑफ़ लदाख, जिसे उन्होंने 1988 में स्थापित किया था को विदेशों से भारी मात्रा में चंदा मिलता रहा है जिस पर मोदी सरकार बनने के बाद रोक लग गई थी और तभी से सोनम वांगचुक भाजपा के विरुद्ध आग उगल रहे हैं.  
  6. वह मोहम्मद यूनुस के मित्र हैं और हाल में पाकिस्तान की यात्रा भी कर चुके हैं.  
  7. पिछले 2-3 वर्षो में कई बार अनशन पर बैठ चुके हैं और लद्दाख से दिल्ली तक की पैदल यात्रा भी कर चुके हैं.  

उनकी मांगे अलोकतांत्रिक तो नहीं कहीं जा सकती लेकिन वे विशुद्ध राजनैतिक हैं और नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी तथा कांग्रेस का समर्थन करती दिखाई पड़ती हैं. आजादी के 72 साल तक लद्दाख जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था और पूरी तरह उपेक्षित था लेकिन कभी स्वतंत्र राज्य की मांग नहीं की गयी और ना हीं अधिक स्वायत्तता की मांग की गई. विकास और रोजगार के मामले में भी यह क्षेत्र उपेक्षा का शिकार रहा रहा लेकिन अब जबकि वह जम्मू कश्मीर से अलग होकर एक केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया है, केंद्र सरकार द्वारा विकास की अनेक योजनाएं शुरू की गई हैं. आर्थिक सहायता भी पहले से कई गुना अधिक प्राप्त हो रही है. लद्दाख में पहले केवल दो जिले थे लेह और कारगिल. केंद्र सरकार द्वारा विकास को गति देने के लिए पांच और नए जिले द्रास, ज़ांस्कर, नूब्रा, शाम, और चंगथांग बनाकर जिलों की संख्या 7 की गई है. इस क्षेत्र पर केंद्र सरकार जितना ध्यान दे रही है उतना स्वतंत्रता के बाद पहले कभी नहीं दिया गया. ऐसे में 3 लाख जनसंख्या वाले इस क्षेत्र के लिए पूर्ण राज्य की मांग करना न्याय संगत भले ही कहा जाए लेकिन केंद्र शासित प्रदेश की तुलना में लाभकारी बिल्कुल भी नहीं हो सकता. मुस्लिम बाहुल्य कारगिल के लिए अलग लोकसभा सीट की मांग करने का औचित्य समझना मुश्किल नहीं है.

अपनी मांगों को लेकर सोनम वांगचुक 10 सितंबर से 35 दिनों के अनशन पर बैठे थे और उनके साथ लद्दाख अपेक्स बॉडी के कुछ लोग भी बैठे थे. 23 सितंबर को इनमें से दो बुजुर्ग व्यक्तियों को स्वास्थ्य कारणों से अस्पताल में दाखिल कराया गया, जिसे मुद्दा बनाकर 24 सितंबर को सोशल मीडिया के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को इकट्ठा होने के लिए कहा गया. सोनम वांगचुक ने भाषण में भीड़ को उकसाया और कहा कि जो नेपाल में हुआ, श्रीलंका और बांग्लादेश में हुआ, वह भारत में क्यों नहीं हो सकता. कुछ समय पहले ही उन्होंने भीड़ को संबोधित हुए अरब क्रांति का था. उदहारण दिया था इस सब का उद्देश्य छात्रों को भड़काना था, उन्होंने छात्रों को जेन- जेड कह कर संबोधित किया.

कोई भी शांतप्रिय लोकतांत्रिक आंदोलन अरब -क्रांति और पड़ोसी देशों में हुई हिंसा का उदाहरण देकर भीड़ को नहीं उकसा सकता. एकत्रित की गई भीड़ ने चुनाव आयोग तथा भाजपा कार्यालय को आग के हवाले कर दिया. कई सरकारी गाड़ियों को नुकसान पहुंचाया और सार्वजनिक संपत्ति को स्वाहा किया. सब कुछ वैसा ही किया गया जैसा नेपाल में हुआ था. हैरानी तब हुई जब सुरक्षा बलों ने 6 नेपाली नागरिकों को घटनास्थल से गिरफ्तार किया जिन्होंने हिंसा और आगजनी में अपनी भूमिका स्वीकार करते हुए बताया कि उन्हें इस कार्य के लिए बुलाया गया था. उन्होंने यह भी बताया कि नेपाल में भी उन्होंने जैन-जेड प्रदर्शन के दौरान भी हिंसा और आगजनी में हिस्सा लिया था. यह सभी कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता है. सुरक्षा एजेंसियां उनसे पूछताछ कर रही हैं लेकिन पूरे घटनाक्रम के पीछे डीप स्टेट, वामपंथी इस्लामिक गठजोड़ की स्पष्ट भूमिका नजर आती है.

नेपाल की हिंसा में कतर की भूमिका भी दृष्टिगोचर हुई थी क्योंकि बड़ी संख्या में नेपाली नागरिक कतर में काम करते हैं जिनके संबंध हमास जैसे आतंकी संगठनों से होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. कतर में कार्यरत नेपाली नागरिक बड़े पैमाने पर नेपाल में धर्मांतरण में सक्रिय भूमिका निभाते हैं. उन्होंने नेपाल में हाल में हुई हिंसा में सक्रिय सहयोग किया.

सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया है. पुलिस और प्रशासन ने 50 से अधिक व्यक्तियों को हिरासत में लिया और उनसे पूछताछ के आधार पर सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया है. स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है लेकिन प्रश्न है कि इतने दिन से लद्दाख को जलाने की योजना बनाई जाती रही पर पुलिस और प्रशासन को इसकी भनक नहीं लगी. यह केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों की भी एक बड़ी चूक दर्शाता है. सोनम वांगचुक से मंत्रणा के आधार पर ही राहुल गांधी यह बात दोहराते हैं कि चीन द्वारा लद्दाख के बड़े भूभाग पर कब्जा किया गया है. मीडिया से बात करते हुए सोनम वांगचुक ने लगभग वही सब बातें दोहराई जिसे राहुल गांधी दोहराते रहते हैं. इससे कांग्रेस के साथ गांठ है इससे उन्होंने स्वयं इनकार नहीं किया है क्योंकि इन सबका श्रोत डीप स्टेट है.

मोदी सरकार को चाहिए कि वह किसान आंदोलन तथा शाहीन बाग आंदोलन से सबक लेते हुए किसी भी देश विरोधी आंदोलन के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर या लचीला रुख अपना कर हिंसा करने का अवसर प्रदान न करें. इससे न केवल विश्व को गलत संदेश जाता है बल्कि देश विरोधियों के हौसले भी बुलंद होते हैं. सभी राष्ट्र भक्तों को भी भारत विरोधी षड्यंत्रकारियों से स्वयं सावधान रहने की अत्यंत आवश्यकता है, और दूसरों को भी जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्र को अस्थिर करने का कोई भी अभियान सफल न हो सके.

~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~

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