मंगलवार, 31 जनवरी 2023
बहुत बड़ा षड्यन्त्र है राम चरित मानस जलाना,
मुझे यह जानकर भी भी आश्चर्य नहीं है
कि स्वामी प्रसाद ने जो वक्तव्य दिया, वह अखिलेश यादव की सहमति से नहीं, उनके कहने
से दिया है। उत्तर प्रदेश की यह घटना बिहार की पुनरावृत्ति है जहाँ तेजस्वी यादव
की सहमति और उनके कहने से ही चंद्रशेखर
यादव ने रामचरित मानस पर बुरा भला कहा था।
बिहार में जातिगत जनगणना चल रही है, जिसे राज्य सरकार अपने
अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर कर रही है और इस इसकी रिपोर्ट के प्रकाशन पर सर्वोच्च
न्यायालय द्वारा रोक लगाए जाने की संभावना है। बिहार में तो इस लिए भूमिका बनाई जा
रही थी।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव भी लंबे
समय से जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य हिंदू समाज में जातिगत
विभाजन को और अधिक उभारना तथा अगड़े पिछड़ों की राजनीति करके दलित और पिछड़ों को
गोलबंद करना है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद समाज में जातिगत विभाजन की रेखा
कमजोर पड़ी है और कम से कम मतदान करने के मामले में जाति पांति बहुत अधिक महत्त्व
नहीं रहा है। इसलिए मंडल की राजनीति करने वाले लालू और मुलायम का एमवाई समीकरण (मुस्लिम यादव गठजोड़) चुनाव जीतने में
कारगर नहीं रहा।
इसलिए किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने के
लिए ये इन दोनों पार्टियों की रणनीति है की हिंदू समाज में जितना संभव हो जातिगत
वैमनस्यता फैलाई जाए। अखिलेश यादव तो पिछले चुनाव में जिन्ना, को सरदार बल्लभ भाई
पटेल के बराबर खड़ा कर दिया था। उस समय लक्ष्य केवल मुसलमान वोट थे। अबकी बार पिछड़े और दलितों को एक साथ लक्ष्य बनाया
गया है।
स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान के बाद जब
अखिलेश यादव से उनकी प्रतिक्रिया पूछी गई तो उन्होंने मौर्य का न केवल समर्थन किया
बल्कि यह भी कहा कि वह स्वामी प्रसाद मौर्य से कहेंगे कि वह जातिगत जनगणना के
मामले में आगे बढ़ें. इसके बाद जब अखिलेश यादव लखनऊ में आयोजित माँ पीतांबरा 108
महायज्ञ मैं आहूति देने पहुंचे तो कुछ लोगों ने उन्हें काले झंडे दिखाए, उनकी
पार्टी द्वारा प्रयोजित भी हो सकते हैं। अखिलेश ने जैसे पहले से तैयार किए गए बयान
के आधार पर तुरंत कहा की भाजपा हमें मंदिर जाने से भी रोकती है, वह नहीं चाहते कि
मैं धर्म यज्ञ में शामिल होऊँ क्योंकि
भाजपा हमें शूद्र समझती हैं।
एक
दिन बाद उन्होंने न केवल
स्वामी प्रसाद मौर्या को राष्ट्रीय महासचिव बना दिया बल्कि बिना किसी के पूछे ही
एक बयान दिया कि वह शूद्र हैं और उन्हें
रामचरित मानस के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है। उनके इस बयान के बाद ही एक
स्वयंभू संस्था प्रकट हो गयी है जिसने अपने आप को ओबीसी महासभा बताया और स्वामी
प्रसाद मौर्या और अखिलेश यादव की जिंदाबाद के नारे लगाए और रामचरित मानस के पन्ने
जला दिए।
इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव तक
तुलसीदास, रामचरितमानस और अन्य हिंदू धर्म ग्रंथ निशाने पर रहेंगे। इनके विरोध
करने और इन्हें जलाने के लिए, पिछड़े और दलितों के नाम से बनाई गई है फर्जी
संस्थाएँ और संगठन जगह जगह आयोजन करेंगे ताकि पुलिस और प्रदर्शनकारियों में संघर्ष
हो और समाजवादी पार्टी अपनी राजनीति आगे बढ़ा सकें।
अखिलेश यादव को शायद यह बात नहीं मालूम कि अगर वह ऐसा करते हैं तो यह
उत्तर प्रदेश में पहली बार नहीं होगा। इससे पहले
राम स्वरूप वर्मा के नेतृत्व में अर्जक संघ नामक संस्था कार्य करती थी
जिसने इस तरह के बहुत कार्य किये थे, लेकिन
वह अपने बलबूते कभी विधायक भी नहीं बन पाए. एक और उदाहरण है, मुलायम सिंह यादव के
बेहद करीबी विधायक रामपाल सिंह यादव का, जिन्होंने इन्हीं चौपाइयों के आधार पर
विधानसभा के अंदर रामचरित मानस के पन्ने फाड़े थे। वह उत्तर प्रदेश में काफी
कुख्यात हुए और उनका नाम रामपाल सिंह यादव की जगह मानस फाड़ यादव पड़ गया। इसके बाद
वे गुमनामी में खो गए और मर गए ।
इसलिए अखिलेश यादव की यह नीति एक
समुदाय विशेष को तो पसंद आएगी, लेकिन पिछड़े और दलित वर्ग से कोई बड़ा समर्थन
मिलेंगे इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती और फिर अखिलेश यादव सत्ता के लिए यूं ही दशकों
तक सर छटपटाते रहेंगे।
शनिवार, 28 जनवरी 2023
"बीबीसी डोकुमेंटरी : दि इंडिया क्वॅसचंस"
हमने इसका नाम बदल दिया है "बीबीसी डोकुमेंटरी : दि इंडिया क्वॅसचंस"
बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) ने प्रधानमंत्री मोदी पर गुजरात दंगों के परिपेक्ष में दो भागों में बनाई गई डॉक्यूमेंट्री के पहले भाग को 17 जनवरी को रिलीज किया था. डॉक्यूमेंट्री में बेहद आपत्तिजनक, अतिरंजित, और मनगढ़ंत विमर्श, जिसमें न केवल देश की न्यायपालिका का अनादर किया गया था बल्कि देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का षड्यंत्र था, के कारण केंद्र सरकार ने इस पर रोक लगा दी, और सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से इसके लिंक हटाने का निर्देश दिया. भारत में राजनीतिक गिरावट के इस दौर में कई राजनीतिक दल मोदी विरोध करने के लिए देश विरोधी ताकतों के साथ खड़े हो गए. इन राजनीतिक दलों और राजनीति प्रेरित संगठनों का उद्देश्य इस डॉक्यूमेंट्री को बैंन करने से ज्यादा इसे न्यायोचित ठहराना था ताकि इससे चुनावी फायदा उठाया जा सके.
बीबीसी की इस डॉक्यूमेंट्री में ऐसा क्या है कि सरकार को इस पर रोक लगानी पड़ी और यह रोक उचित है या अनुचित, इस पर बात करने से पहले बीबीसी और ब्रिटेन के बारे में भारत के सम्बन्ध में थोड़ी चर्चा आवश्यक हैं.
बीसवीं शताब्दी के अंत तक यह माना जाता था कि भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण यहाँ का बहुसंख्यक हिंदू धर्म है.
दुनिया के कथित प्रगतिशील लोगों के अलावा इस पर विश्वास करने वाले प्रमुख लोगों में नेहरू भी थे. दुनिया की इस प्राचीनतम सभ्यता का इससे अधिक अनादर और कुछ नहीं हो सकता था.
21वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही इस झूठे विमर्श से पर्दा उठने लगा था जब दुनिया के कई अर्थशास्त्रियों की इस तरह की रिपोर्ट प्रकाशित हुई कि प्राचीन समय में भारत और चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियां थे, जिन्हें यूरोपियन ने बुरी तरह लूटा था.
सच्चाई का पता लगाने के लिए ओईसीडी (ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनामिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) ने प्रोफेसर अंगस मडिसन के नेतृत्व में एक टीम गठित की, जिसने दुनिया के प्रमुख देशों के सकल घरेलू उत्पाद के इतिहास पर गहन अध्ययन और अनुसंधान किया.
जब इनकी रिपोर्ट आई तो दुनिया स्तब्ध रह गई. जिसके अनुसार विश्व की कुल अर्थव्यवस्था में 34% की हिस्सेदारी के साथ भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश था और यह स्थिति कुछ वर्षों के लिए नहीं बल्कि लंबे समय तक बनी रही थी. पहली शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक यानी 1000 वर्ष तक लगातार भारत विश्व अर्थव्यवस्था की एक तिहाई से भी अधिक भागीदारी के साथ दुनिया का सबसे समृद्धशाली देश था.
इसका श्रेय हिन्दू धर्म और सनातन संस्कृति आधारित अर्थव्यवस्था को ही जाता है.
ओईसीडी की रिपोर्ट के अनुसार 10 वीं शताब्दी के बाद बाहरी आक्रमणों के कारण यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आई थी लेकिन फिर भी यह अंग्रेजो के शासन शुरू होने के ठीक पहले तक 24% हिस्सेदारी के साथ 1700 वर्षों तक भारत विश्व की नंबर एक अर्थव्यवस्था बना रहा.
वर्ष 1900 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वैश्विक भागीदारी केवल 1.7 प्रतिशत रह गई.
भारत जैसी जलवायु में शाकाहारी लोगों के लिए जीवन रक्षक नमक पर अंग्रेजों ने भारी टैक्स लगा दिया था, और नमक की कमी के कारण बहुत लोगों की जानें गई थी. सूखे और अकाल के दिनों में भी अंग्रेजों ने खेती पर लगने वाले राजस्व में रियायत की जगह यातनाये देते थे. इस कारण लोगों ने कर्ज लेकर या अपने गहने जेवर बेचकर लगान का भुगतान किया था.
अंग्रेजों के लगभग 120 साल के शासन में 31 बार भयानक अकाल पड़ा, जिसमें भूख से लाखों लोगों की मृत्यु हुई.1943 के अकाल में तो अकेले बंगाल में ही 10 लाख से ज्यादा लोग भूख से तड़प कर मरे थे. भारत में लोग जब भूख से मर रहे थे तब भारत का अनाज शाही सेना के लिए ब्रिटेन भेजा जा रहा था.
क्रांतिकारियों के बढ़ते दबाव में अंग्रेज भारत से तभी गए जब यहां लूट के लिए कुछ खास नहीं बचा था,जिसकी टीस आज भी औपनिवेशिक मानसिकता के रूप में दिखाई पड़ती है.
भारत के अंतिम वायसराय और स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने लेरी कॉलिंन्स और डोमिनिक लिपर्रे को एक इंटरव्यू में बताया था कि वह और उनके साथी भारत में हिंदुओं की अपेक्षा मुस्लिमों को ज्यादा पसंद करते थे. अगर इसे ब्रिटिश स्वभाव माना जाए तो यह आज भी यथावत है.
यह बताने का उद्देश्य केवल यह है कि अंग्रेजों ने भारत को किस हद तक लूटा था और भारतीयों पर किस हद तक अमानवीय अत्याचार किए थे. जाते-जाते वे भारत को विभाजित भी कर गए और हिंदुओं के प्रति पूर्वाग्रह के कारण कश्मीर जैसी समस्याएं भी दे गए.
क्या बीबीसी कभी इन बिषयों पर डाक्यूमेंट्री बना सकता है?
बीबीसी की डाक्यूमेंट्री के दोनों एपिसोड क्रमश: 17 और 24 जनवरी को रिलीज कर दिये गए.
डॉक्यूमेंट्री के पहले भाग में मोदी को दंगों में हुई मुसलमानों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है. आरोप है कि मोदी ने दंगे रोकने के लिए कुछ नहीं किया. गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एक डिब्बे में आग लगाकर ज़िंदा जलाये गए 59 कारसेवकों के बारे में कट्टरपंथियों का बचाव करते हुए डॉक्यूमेंट्री में आग लगने का कारण विवादास्पद बताया गया है.
डॉक्यूमेंट्री के दूसरे भाग में मोदी को प्रधानमंत्री के रूप मे अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रही बताया गया है. इसमें धारा 370 हटाना, संशोधित नागरिकता कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर, शाहीन बाग आंदोलन और दिल्ली में हुए दंगे आदि को दिखाया गया है. गौ हत्या के संदेह में मोब लिंचिंग को भी प्रमुखता से दिखाया गया है कि मोदी के शासनकाल में अल्पसंख्यकों में भय का माहौल है और सरकार हिंदुओं और मुसलमानों में भेदभाव करती है.
इस झूठे विमर्श की प्रष्ठभूमि में डॉक्यूमेंट्री में कुछ भी आश्चर्यचकित करने वाला नहीं है, खासतौर से तब जब बीबीसी में मुस्लिमों विशेषतय: पाकिस्तानी मुस्लिमों का दबदबा हो.
इस डॉक्यूमेंट्री का समय भी चौंकाने वाला नहीं है. 2024 के लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और मोदी की टक्कर में विपक्ष का कोई भी नेता दिखाई नहीं पड़ रहा है. मोदी अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए पसमांदा मुस्लिमानों पर डोरे डाल रहें हैं, जिससे अल्पसंख्यकों का कट्टरपंथी वर्ग खासा परेशान है. इसलिए मुसलमानों के दिलो-दिमाग में गुजरात दंगों की याद ताजा करने के उद्देश्य से डाक्यूमेंट्री को बनाया गया है.
2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीबीसी ने गुजरात दंगों के संदर्भ में एक अभियान चलाया था. कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में अन्य विपक्षी दलों का बीबीसी के समर्थन में खड़े होना भी चुनावी अभियान का हिस्सा है.
गणतंत्र दिवस के ठीक पहले रिलीज करने का समय भी इसलिए चुना गया क्योंकि गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि एक मुस्लिम देश मिस्र के राष्ट्रपति थे, उस समय राजधानी में संप्रदायिक माहौल बनाकर मोदी और भारत विरोधी अभियान को हवा दी जा सके.
जहां तक इस डॉक्यूमेंट्री में का प्रश्न है तो इसमें यह अनदेखा किया गया है कि गोधरा कांड की जांच के लिए बनाए गए नानावटी-शाह आयोग ने कट्टरपंथियों को पेट्रोल डालकर आग लगाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था.
उससे पहले केंद्र की कांग्रेस सरकार ने यूसी बनर्जी आयोग बनाया था जिसने यह साबित करने की कोशिश की थी कि कारसेवकों के बीड़ी पीने के कारण बोगी में आग लग गई थी, जिसे आयोग और उच्च न्यायालय ने पूरी तरह से खारिज कर दिया था. निचली अदालत ने साक्ष्यों के आधार पर 11 कट्टरपंथियों को मृत्युदंड और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी जिसे उच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास में बदलते हुए यथावत रखा है.
विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात दंगों के सिलसिले में मोदी की भूमिका की विस्तृत सुनवाई की और कहीं भी मुख्यमंत्री के रूप में उनकी संलिप्तता नहीं पाई गई. इसके विपरीत न्यायालय ने गुजरात दंगों में झूठे दस्तावेज बनाने और झूठे मुकदमे दायर कराने के लिए कई गैर सरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दे चुकी है.
जहां तक सरकार द्वारा इस डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाने का प्रश्न है तो यह कानून सम्मत तो है लेकिन इस कदम ने इस डॉक्यूमेंट्री के पक्ष और विपक्ष के लोगों में कौतूहल पैदा कर दिया और इस कारण प्रतिबंध के बावजूद मोदी विरोधियों के थोड़े प्रयास से इसका प्रचार और प्रसार हो गया.
अगर प्रतिबंध नहीं किया जाता तो शायद इसे इतना प्रचार नहीं मिलता और तब जनता के समक्ष मोदी का पक्ष अधिक मजबूत होता. वैसे भी आज के तकनीकी युग में डिजिटल मीडिया पर इस तरह के प्रतिबंध कारगर नहीं होते.
सबसे बड़ा प्रश्न है कि मोदी सरकार के विरुद्ध इस तरह के टूलकिट आधारित कारनामे बहुत सुनियोजित षड्यंत्र के रूप में लंबे समय से किए जा रहे हैं किन्तु सरकार इनसे निपटने में इतनी असहाय क्यों है?
चाहे शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी हों, दिल्ली के दंगाई हों, दिल्ली घेर कर बैठे तथाकथित किसान हों, लाल किले पर उपद्रव मचाने वाले देशद्रोही हों, पंजाब में स्वयं प्रधानमंत्री की सुरक्षा में खतरा बनने वाले लोग हों, या फिर तबलीगी जमात के मौलाना साद हो, हर मामले में सरकार का प्रदर्शन बेहद लचर और निराश करने वाला है.
भाजपा और मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता आज भी गुजरात के मुख्यमंत्री वाले नरेन्द्र मोदी को पसंद करती है न कि सबका विश्वास अर्जित करने की लालसा में तृप्तिकरण में लगे कमजोर और दयनीय होते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को.
- शिव मिश्रा (#Ham Hindustanee )
शुक्रवार, 27 जनवरी 2023
बीबीसी डॉक्यूमेंटरी, मोदी और राष्ट्रविरोध
बीबीसी
डॉक्यूमेंटरी, मोदी और राष्ट्रविरोध
बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) ने
प्रधानमंत्री मोदी पर गुजरात दंगों के परिपेक्ष में दो भागों में बनाई गई डॉक्यूमेंट्री के पहले भाग को 17 जनवरी को रिलीज किया था.
डॉक्यूमेंट्री में बेहद आपत्तिजनक, अतिरंजित, और मनगढ़ंत विमर्श, जिसमें न केवल देश की न्यायपालिका का अनादर
किया गया था बल्कि देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का षड्यंत्र था, के कारण केंद्र सरकार ने इस पर रोक लगा दी, और सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से इसके लिंक हटाने का निर्देश दिया.
भारत में राजनीतिक गिरावट के इस दौर में कई राजनीतिक दल मोदी विरोध करने के लिए
देश विरोधी ताकतों के साथ खड़े हो गए. इन राजनीतिक दलों और राजनीति प्रेरित
संगठनों का उद्देश्य इस डॉक्यूमेंट्री को बैंन करने से ज्यादा इसे न्यायोचित ठहराना था ताकि इससे चुनावी फायदा
उठाया जा सके.
बीबीसी की इस डॉक्यूमेंट्री में ऐसा क्या है कि
सरकार को इस पर रोक लगानी पड़ी और यह रोक उचित है या अनुचित, इस पर बात करने से पहले बीबीसी और ब्रिटेन के बारे में भारत के सम्बन्ध में थोड़ी
चर्चा आवश्यक हैं.
बीसवीं शताब्दी के अंत तक यह माना जाता था कि
भारत के पिछड़ेपन का मुख्य कारण यहाँ का बहुसंख्यक हिंदू धर्म है. दुनिया के कथित प्रगतिशील लोगों के
अलावा इस पर विश्वास करने वाले प्रमुख लोगों
में नेहरू भी थे. दुनिया की इस प्राचीनतम सभ्यता का इससे अधिक अनादर और कुछ नहीं
हो सकता था. 21वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही इस झूठे विमर्श से पर्दा उठने लगा था
जब दुनिया के कई अर्थशास्त्रियों की इस
तरह की रिपोर्ट प्रकाशित हुई कि प्राचीन समय में भारत और चीन दुनिया की सबसे
बड़ी आर्थिक शक्तियां थे,
जिन्हें यूरोपियन ने बुरी तरह लूटा था. सच्चाई का पता लगाने के लिए ओईसीडी
(ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनामिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) ने प्रोफेसर अंगस मडिसन के नेतृत्व में एक टीम
गठित की, जिसने दुनिया के प्रमुख देशों के सकल
घरेलू उत्पाद के इतिहास पर गहन अध्ययन और अनुसंधान किया. जब इनकी रिपोर्ट आई तो दुनिया स्तब्ध रह गई. जिसके अनुसार विश्व की कुल
अर्थव्यवस्था में 34% की हिस्सेदारी के साथ भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश था और
यह स्थिति कुछ वर्षों के लिए नहीं बल्कि लंबे समय तक बनी रही थी. पहली शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक यानी
1000 वर्ष तक लगातार भारत विश्व अर्थव्यवस्था की एक तिहाई से भी अधिक भागीदारी के
साथ दुनिया का सबसे समृद्धशाली देश था. इसका श्रेय हिन्दू धर्म और सनातन संस्कृति
आधारित अर्थव्यवस्था को ही जाता है.
ओईसीडी की रिपोर्ट के अनुसार 10 वीं शताब्दी के
बाद बाहरी आक्रमणों के कारण यद्यपि
भारतीय अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आई थी लेकिन फिर भी यह अंग्रेजो के शासन शुरू
होने के ठीक पहले तक 24% हिस्सेदारी के साथ 1700
वर्षों तक भारत विश्व की नंबर एक अर्थव्यवस्था बना रहा. वर्ष 1900 में भारतीय
अर्थव्यवस्था की वैश्विक भागीदारी केवल 1.7 प्रतिशत रह गई. भारत जैसी जलवायु में शाकाहारी लोगों के लिए
जीवन रक्षक नमक पर अंग्रेजों ने भारी टैक्स लगा दिया था, और नमक की कमी के कारण बहुत लोगों की जानें गई
थी. सूखे और अकाल के दिनों में भी अंग्रेजों ने खेती पर लगने वाले राजस्व में
रियायत की जगह यातनाये देते थे. इस कारण लोगों ने कर्ज लेकर या अपने गहने जेवर
बेचकर लगान का भुगतान किया था.
अंग्रेजों के लगभग 120 साल के शासन में 31 बार
भयानक अकाल पड़ा, जिसमें भूख से लाखों लोगों की मृत्यु हुई.1943 के अकाल में तो अकेले बंगाल में ही 10 लाख से ज्यादा लोग भूख से तड़प कर मरे थे. भारत में
लोग जब भूख से मर रहे थे तब भारत का अनाज शाही सेना के लिए ब्रिटेन भेजा जा रहा था. क्रांतिकारियों के बढ़ते दबाव
में अंग्रेज भारत से तभी गए जब यहां लूट के लिए कुछ खास नहीं बचा था,जिसकी टीस आज
भी औपनिवेशिक मानसिकता के रूप में दिखाई पड़ती है. भारत के अंतिम वायसराय और
स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने लेरी कॉलिंन्स और डोमिनिक
लिपर्रे को एक इंटरव्यू में बताया था कि वह और उनके साथी भारत में हिंदुओं की
अपेक्षा मुस्लिमों को ज्यादा पसंद करते थे. अगर इसे ब्रिटिश स्वभाव माना जाए तो यह
आज भी यथावत है.
यह बताने का उद्देश्य केवल यह है कि अंग्रेजों
ने भारत को किस हद तक लूटा था और भारतीयों पर किस हद तक अमानवीय अत्याचार किए थे. जाते-जाते
वे भारत को विभाजित भी कर गए और हिंदुओं
के प्रति पूर्वाग्रह के कारण कश्मीर जैसी समस्याएं भी दे गए. क्या बीबीसी
कभी इन बिषयों पर डाक्यूमेंट्री बना सकता है?
बीबीसी
की डाक्यूमेंट्री के दोनों
एपिसोड क्रमश: 17 और 24 जनवरी को रिलीज कर दिये गए. डॉक्यूमेंट्री के पहले भाग में
मोदी को दंगों में हुई मुसलमानों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है. आरोप
है कि मोदी ने दंगे रोकने के लिए कुछ नहीं किया. गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के
एक डिब्बे में आग लगाकर ज़िंदा जलाये गए 59 कारसेवकों के बारे में कट्टरपंथियों का
बचाव करते हुए डॉक्यूमेंट्री में आग लगने का कारण विवादास्पद बताया गया है.
डॉक्यूमेंट्री के दूसरे भाग में मोदी को प्रधानमंत्री के रूप मे अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रही बताया गया है. इसमें धारा 370 हटाना, संशोधित नागरिकता कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या
रजिस्टर, शाहीन बाग आंदोलन और दिल्ली में हुए
दंगे आदि को दिखाया गया है. गौ हत्या के संदेह में मोब लिंचिंग को भी प्रमुखता से
दिखाया गया है कि मोदी के शासनकाल में अल्पसंख्यकों में भय का माहौल है और सरकार
हिंदुओं और मुसलमानों में भेदभाव करती है.
इस झूठे विमर्श की प्रष्ठभूमि में डॉक्यूमेंट्री में कुछ भी आश्चर्यचकित करने वाला
नहीं है, खासतौर से तब जब बीबीसी में मुस्लिमों विशेषतय: पाकिस्तानी मुस्लिमों का
दबदबा हो. इस डॉक्यूमेंट्री का समय भी चौंकाने वाला नहीं है. 2024 के लोकसभा चुनाव
का बिगुल बज चुका है और मोदी की टक्कर में विपक्ष का कोई भी नेता दिखाई नहीं पड़
रहा है. मोदी अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए पसमांदा मुस्लिमानों पर डोरे डाल
रहें हैं, जिससे अल्पसंख्यकों का कट्टरपंथी वर्ग खासा परेशान है. इसलिए मुसलमानों के दिलो-दिमाग में गुजरात
दंगों की याद ताजा करने के उद्देश्य से डाक्यूमेंट्री को बनाया गया है. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीबीसी ने
गुजरात दंगों के संदर्भ में एक अभियान चलाया था. कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में
अन्य विपक्षी दलों का बीबीसी के समर्थन में खड़े होना भी चुनावी अभियान का हिस्सा
है. गणतंत्र दिवस के ठीक पहले रिलीज करने का समय भी इसलिए चुना
गया क्योंकि गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि
एक मुस्लिम देश मिस्र के
राष्ट्रपति थे, उस समय राजधानी में संप्रदायिक माहौल बनाकर मोदी और भारत विरोधी
अभियान को हवा दी जा सके.
जहां तक इस डॉक्यूमेंट्री में का प्रश्न है तो
इसमें यह अनदेखा किया गया है कि गोधरा
कांड की जांच के लिए बनाए गए नानावटी-शाह आयोग ने कट्टरपंथियों को पेट्रोल डालकर आग लगाने
के लिए जिम्मेदार ठहराया था. उससे पहले केंद्र की कांग्रेस सरकार ने यूसी बनर्जी
आयोग बनाया था जिसने यह साबित करने की कोशिश की थी कि कारसेवकों के बीड़ी पीने के
कारण बोगी में आग लग गई थी,
जिसे आयोग और उच्च न्यायालय ने पूरी
तरह से खारिज कर दिया था. निचली अदालत ने साक्ष्यों के आधार पर 11 कट्टरपंथियों को
मृत्युदंड और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी जिसे उच्च न्यायालय ने आजीवन
कारावास में बदलते हुए यथावत रखा है. विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय
ने गुजरात दंगों के सिलसिले में मोदी की भूमिका की विस्तृत सुनवाई की और कहीं भी
मुख्यमंत्री के रूप में उनकी संलिप्तता नहीं पाई गई. इसके विपरीत न्यायालय ने
गुजरात दंगों में झूठे दस्तावेज बनाने और झूठे मुकदमे दायर कराने के लिए कई गैर
सरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करने का आदेश दे चुकी है.
जहां तक सरकार द्वारा इस डॉक्यूमेंट्री पर
प्रतिबंध लगाने का प्रश्न है तो यह कानून सम्मत तो है लेकिन इस कदम ने इस
डॉक्यूमेंट्री के पक्ष और विपक्ष के लोगों में कौतूहल पैदा कर दिया और इस कारण
प्रतिबंध के बावजूद मोदी विरोधियों के थोड़े प्रयास से इसका प्रचार और प्रसार हो
गया. अगर प्रतिबंध नहीं किया जाता तो शायद इसे इतना प्रचार नहीं मिलता और तब जनता के समक्ष
मोदी का पक्ष अधिक मजबूत होता. वैसे भी आज के तकनीकी युग में डिजिटल मीडिया पर इस तरह के प्रतिबंध कारगर नहीं होते.
सबसे बड़ा प्रश्न है कि मोदी सरकार के विरुद्ध
इस तरह के टूलकिट आधारित कारनामे बहुत सुनियोजित षड्यंत्र के रूप में लंबे समय से किए जा रहे हैं
किन्तु सरकार इनसे निपटने में इतनी असहाय क्यों है? चाहे शाहीन बाग के
प्रदर्शनकारी हों, दिल्ली के दंगाई हों, दिल्ली घेर कर बैठे तथाकथित किसान हों, लाल किले पर उपद्रव मचाने वाले देशद्रोही
हों, पंजाब
में स्वयं प्रधानमंत्री की सुरक्षा में खतरा बनने वाले लोग हों, या फिर तबलीगी जमात के मौलाना साद हो, हर मामले में सरकार का प्रदर्शन बेहद लचर और निराश
करने वाला है.
भाजपा और मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए
कि जनता आज भी गुजरात के मुख्यमंत्री वाले नरेन्द्र मोदी को पसंद करती है न कि
सबका विश्वास अर्जित करने की लालसा में तृप्तिकरण में लगे कमजोर और दयनीय होते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को.
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शिव मिश्रा
(https://youtube.com/@hamhindustanee123)
बुधवार, 25 जनवरी 2023
सोमवार, 23 जनवरी 2023
क्या भारत में हिन्दू स्वतन्त्र हैं?
क्या भारत में हिन्दू स्वतन्त्र हैं
जनसंघ
के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने "एक देश दो विधान दो प्रधान और दो
निशान नहीं चलेंगे" का नारा दिया था और इसे पूरा करने के लिए अपना बलिदान भी
दिया था. धारा 370 खत्म होने के बाद दो विधान और दो निशान खत्म हो गए लेकिन
स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी भारत में दो
विधान अभी भी अस्तित्व में हैं, हिंदुओं के लिए अलग कानून और
अन्य धार्मिक समुदायों के लिए दूसरे कानून. इसका सबसे ज्वलंत उदहारण
है मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण. जबकि अन्य समुदायों के
धार्मिक स्थलों पर कोई सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है.
भारत
में इस समय लगभग 9 लाख पंजीकृत मंदिर
हैं, इनमें से चार लाख सरकारी नियंत्रण में है. इन मंदिरों के
दान का लगभग 85% भाग सरकार ले लेती है और 15% मंदिर के रखरखाव और सामान्य खर्चों
के लिए छोड़ देती है. इस कारण कई मंदिरों की स्थिति अत्यंत जर्जर हो गयी है और
वहां पुजारियों और कर्मचारियों को वेतन भी नहीं मिल पाता है. अकेले तमिलनाडु में
इस तरह के मंदिरों की संख्या 35000 से भी अधिक है. मैंने तमिलनाडु में अपनी मंदिर
यात्रा के दौरान देखा कि कई मंदिर बेहद खराब स्थिति में है जहां रखरखाव के अलावा दोनों
समय पूजा
अर्चना की व्यवस्था भी बमुश्किल हो पाती है. मंदिर के पुजारियों और कर्मचारियों की
हालत लगभग भिखारियों जैसी है जबकि सरकार के अधीन मंदिरों से प्रतिवर्ष सरकार को
लगभग 13 लाख करोड़ से भी अधिक की आय प्राप्त होती होती है.
सरकार
द्वारा मंदिरों से हड़पी जाने
वाली दान की राशि, सरकार के लिए आय का एक बहुत बड़ा स्रोत है
और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा इसका दुरुपयोग किया जा रहा है. यहां तक कि इसे
मस्जिदों, मदरसों, चर्च और यतीमखाना को दिया जाता है. बताया जाता है
कि तमिलनाडु सरकार ने अप्रैल 2020 में राज्य के 47
मंदिरों को मुख्यमंत्री राहत कोष में ₹10 करोड़ प्रति मंदिर जमा करने का आदेश दिया था और इसके विपरीत उसी अप्रैल में रमजान के महीने के
कारण 2,895 मस्जिदों को 5,450 टन मुफ्त चावल वितरित
करने का आदेश दिया था, ताकि रोजेदारों को परेशानी ना हो. आंध्र
प्रदेश में तिरुपति बालाजी मंदिर के लिए बनाए गए तिरुपति तिरुमला देवस्थानम बोर्ड
को सालाना 13000 करोड रुपए से अधिक आय होती है, जिसका
अधिकांश हिस्सा आंध्र प्रदेश सरकार हड़प लेती है. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन
मोहन रेड्डी जो स्वयं क्रिस्चियन है, मंदिर में दान की राशि बढ़ाने के लिए लक्ष्य निर्धारित किये है और उन्होंने अपने क्रिस्चियन ससुर को इस
बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया है. केरल की सरकार भी
स्वामी पद्मनाभ मंदिर से इसी तरह की लूट करती है.
सरकार
द्वारा की जाने वाली यह लूट, सातवीं शताब्दी
से 16वीं शताब्दी के बीच मुस्लिम
आक्रांताओं द्वारा कुछ हिंदू मंदिरों को लूटने से ज्यादा खतरनाक, पीड़ादायक और निंदनीय है क्योंकि
मुस्लिम आक्रांता तो मंदिरों की संपत्ति लूट कर चले जाते
थे, इसलिए इतने आक्रमण और लूट के
बाद भी मंदिर धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण के रूप में आज भी अक्षुण हैं लेकिन भारत की केंद्र और राज्य
सरकारें 4 लाख से भी अधिक मंदिरों को प्रतिदिन लूट रही हैं, जिससे
सनातन धर्म के अस्तित्व पर भी खतरा बढ़ गया है. मंदिरों से होने वाली इस
सरकारी लूट का दुष्कृत्य हिंदू
और सनातन संस्कृति को पूरी तरह नष्ट कर देने की खतरनाक
योजना का अंग है. एक तरफ जहां चर्च और मस्जिदें विदेशों से भारी मात्रा
में चंदा प्राप्त करती हैं, जिसका प्रयोग धर्म
के प्रचार प्रसार के साथ-साथ बड़ी संख्या में धर्मांतरण कराने के लिए भी किया जाता
है, वहीं दूसरी ओर 4 लाख से भी अधिक हिंदू मंदिरों को
सरकार लगातार लूट कर असहाय और कंगाल बनाए रखने का
कार्य कर रही है, जिस कारण सनातन धर्म के प्रचार और प्रसार की बात तो छोड़ दीजिए,
इन मंदिरों में विधिवत पूजा अर्चन भी हो
पाना मुश्किल होता जा रहा है. यही कारण है कि आज दुसरे
धर्म सनातन धर्म पर आक्रामक प्रहार कर रहे
हैं और पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा सनातन धर्म अपनी बेबसी पर छटपटा रहा है.
यह
सही है कि भारत में अपना साम्राज्य स्थाई करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने हिंदू
समाज में तमाम बुराइयों को बोया, उगया और पनपाया, जिसका दुष्प्रभाव आज भी कम होने की वजाय बढ़ता
जा रहा है. इन बुराइयों में प्रमुख थीं, निचली जातियों
पर उच्च जातियों के अत्याचारों की झूठी और काल्पनिक
कहानियां बना कर प्रचारित प्रसारित करना, आर्यों
को बाहरी बताकर द्रविड़यन को भारत का मूल
निवासी बताने की झूठी अवधारणा बनाना और पोषित करना, और
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को बुरा बताकर मिथ्या प्रचार
करना कि यह लोग निम्न जातियों के लोगों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने देते.
जातियों में बटे भारतीय समाज में इस मिथ्या प्रचार ने जड़े जमा लीं जिस कारण हिंदू समाज में एकता की बेहद कमी है. रही सही कसर जातिगत आरक्षण
ने पूरी कर दी जिसके कारण जाति प्रथा अब शायद कभी समाप्त नहीं हो सकेगी.
हिंदू
समाज में कृत्रिम रूप से फैलाई गई मन गढ़ंत विषमता का लाभ उठाकर अंग्रेज़ों ने 1925
में मद्रास धार्मिक और धर्मार्थ दान अधिनियम बना कर सभी धर्मों के सभी धार्मिक
स्थलों को अपने अधिकार में कर लिया।
मुस्लिम और ईसाईयों के विरोध के कारण अंग्रेजों ने चर्च और मस्जिदों
को तो छोड़ दिया लेकिन मंदिरों को सरकार के अधीन बनाए रखा. विडंबना देखिए कि हिंदू
समाज ने कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी और तथाकथित बापू
और चाचा भी अंग्रेजों के इस कार्य से सहमत हो गए.
स्वतंत्र
भारत का संविधान लागू होने के बाद अनुच्छेद 26 के अनुसार सरकार किसी भी धर्म की
धार्मिक प्रथा में हस्तक्षेप न करने के लिए कृत संकल्प थी और इस तरह हिंदुओं को
अपने मंदिर वापस मिल जाने चाहिए थे, लेकिन नेहरू ने हिंदू विरोधी रुख और कुटिलता के कारण हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ
बंदोबस्ती अधिनियम 1951 बनाकर लागू कर दिया जिससे अन्य धर्म तो अनुच्छेद 26 के
कारण और अधिक स्वतंत्र हो गए लेकिन हिंदू धर्म को एक बार फिर गुलाम
बना दिया गया. इसके अनुसार राज्य कानून बनाकर मंदिरों पर कब्जा कर सकता है लेकिन
मस्जिद और चर्च को इससे अलग रखा गया है. सरकार को यह भी अधिकार दिया गया कि वह
किसी भी व्यक्ति को मंदिर का प्रशासक अध्यक्ष या प्रबंधक बना सकती है. सरकार मंदिर
का दान ले सकती है और उसका उपयोग किसी भी उद्देश्य के लिए कर सकती है. सरकार मंदिर
की जमीन बेंच सकती है और
प्राप्त धन का किसी भी कार्य में इस्तेमाल कर सकती हैं. सरकार सुरक्षा और
अपरिहार्य कारणों से मंदिर की परंपराओं में भी
हस्तक्षेप कर सकती हैं.
इस
कानून के आने के बाद राज्यों में मंदिरों के
चढ़ावे और संपत्तियों की लूट मच गई. कांग्रेश शासित तमिलनाडु ने अकेले 35000 से भी
अधिक मंदिरों का अधिग्रहण कर लिया. इसके बाद आंध्र प्रदेश, राजस्थान,
उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य
प्रदेश आदि ने भी अपने-अपने कानून बनाकर मंदिरों पर
कब्जा कर लिया. आज 15 राज्यों में 4 लाख से भी अधिक
मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है. यह सही है कि मुस्लिम आक्रांता ओं ने भारत में आठ
करोड़ से भी अधिक हिंदुओं का कत्लेआम किया जो मानव सभ्यता का सबसे बड़ा नरसंहार है
लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि कि आज जब
सरकारें हिंदू धर्म की आस्था के साथ खिलवाड़
और हिंदुओं पर अत्याचार कर रहीं हैं तो वे शायद सबसे क्रूर
शासकों द्वारा किए गए अत्याचारों से कम नहीं लगते तब जबकि भारत स्वतंत्र है, और
केंद्र की मोदी सरकार को हिंदूवादी सरकार कहा जाता है. संभवत भारत ही एकमात्र ऐसा
देश है जहां देश के मूल निवासी और बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय को उसके सभी मौलिक और
धार्मिक अधिकार तथा पूजा स्थलों पर स्वयं के अधिकार से स्वतंत्रता मिलने के 75 साल
बाद भी वंचित रखा गया है. क्या स्वतंत्र भारत में हिंदू वास्तव में स्वतंत्र
हैं?
मंदिरों का अधिग्रहण केवल कांग्रेस
या अन्य सरकारों ने किया ऐसा भी नहीं है, भाजपा भी पीछे
नहीं है. उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने 2019
में चार धाम देवस्थानम बोर्ड की स्थापना कर दी थी. पुजारियों
और आम जनता ने आंदोलन किया और सत्ता गंवाने के लालच में मुख्यमंत्री बदल गये. नए
मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने 51 अधिग्रहित मंदिरों को मुक्त करने की घोषणा की.
बेहद संतोष की बात है कि अभी कुछ दिन पहले ही कर्नाटक की
बसवराज बोम्मई सरकार ने भी कांग्रेस द्वारा अधिग्रहीत किए गए 35000 से भी अधिक
मंदिरों की सरकारी नियंत्रण से मुक्ति की घोषणा की है . यद्यपि यह केवल अभी घोषणा
है और इस पर कानून बनना बाकी है .इस बीच कांग्रेस ने सरकार की इस मुहिम की आलोचना
करते हुए कहा है कि वह किसी भी हालत में मंदिर मुक्ति का
कानून नहीं बनने देगी.
सरकारी नियंत्रण से मंदिरों को मुक्त
कराने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन और सर्वोच्च न्यायालय की सकारात्मक प्रतिक्रिया
के करण कुछ प्रगति दिखाई पड़ती है जो पर्याप्त नहीं है. यह बात किसी के गले नहीं
उतरती कि जब सरकार चर्चों, मस्जिदों, गुरुद्वारों और
बौद्ध विहारों के संचालन में हस्तक्षेप नहीं करती है, तो हिंदू
मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में रख कर उनका दान हड़पने का कार्य क्यों करती है.
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने
लगभग ९ साल सत्ता में रहने के बाद भी इस दिशा में कुछ नहीं किया है. एक हाथ में कुरान और दूसरे
में लैपटॉप का
नारा देकर मदरसों का अनुदान वर्षों कई गुना बढ़ा दिया गया है. जब कई देशों ने मदरसों पर प्रतिबंध लगा रखा है,
भाजपा शासित राज्यों में मदरसों का सर्वे कराकर उनमें सुविधाएं बढ़ा कर सभी
छात्रों को छात्रवृत्ति देने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन विशाल हिंदू समुदाय
जिसने कथित हिंदूवादी मोदी सरकार को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने का कार्य
किया है, अपने मंदिरों की मुक्ति की बाट जो रहा है.
आज की
परिस्थितियों में क्या कोई भी सरकार मस्जिदों या चर्च को सरकारी नियंत्रण में लेने
के बारे में सोच भी नहीं सकती है तो हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में रखना
हिंदुओं को निरंतर पराधीन बनाए रख कर विश्व की प्राचीनतम सनातन संस्कृति और हिंदू
धर्म को तिल तिल कर मार देने के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता.
-
शिव मिश्रा (responsetospm@gmail.com)
गुरुवार, 19 जनवरी 2023
मंगलवार, 17 जनवरी 2023
जनाक्रोश है बायकाट बॉलीवुड
जनाक्रोश है बायकाट बॉलीवुड
योगी
आदित्यनाथ के हाल के मुंबई दौरे में हिंदी फिल्म जगत के लोगों से भी उनकी वार्ता
प्रस्तावित थी जिसका मुख्य विषय उत्तर प्रदेश के नोएडा में बन रही फिल्म सिटी था
किंतु विषय से अलग हटकर सुनील शेट्टी द्वारा योगी से बायकाट बॉलीवुड रोकने का आग्रह किया गया. सुनील शेट्टी ने जितने आत्मविश्वास से यह कहा कि
योगी और मोदी बॉयकॉट रुकवा सकते हैं, उससे न केवल उनकी बुद्धि
विवेक का पता चला, बल्कि यह भी उजागर हुआ कि वह किसी अन्य का मुखौटा बनकर बॉलीवुड
का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. जैसा अपेक्षित था, सुनील शेट्टी
के इस बयान का वीडियो मीडिया में वायरल हो गया, इस
प्रकार एक बार फिर “बायकॉट बॉलीवुड” सुर्खियों में आ गया.
बॉयकॉट
यानी बहिष्कार, विरोध का गांधीवादी तरीका है,
जिसे स्वयं तथाकथित महात्मा ने कई बार आजादी के आंदोलन में प्रयोग
किया था और देशवासियों
को भी उससे जोड़ा था. बहिष्कार से दो प्रभाव होते हैं - एक तो समस्या चर्चा के
केंद्र में आ जाती है और दूसरा इसके समर्थक आपस में जुड़ जाते हैं. इस समूह के लोग
समस्या के पक्ष विपक्ष के विचारों का आदान प्रदान करते हैं. इस
प्रकार जागरूकता का दायरा बड़ा होता जाता है. यही बहिष्कार की सबसे बड़ी शक्ति है.
प्रश्न है कि जिस अहिंसक हथियार का प्रयोग स्वाधीनता संग्राम में किया गया,
उसी अहिंसक हथियार का विरोध आज क्यों किया जा रहा है. यह बहिष्कार
किसी धर्म, संप्रदाय या व्यक्ति विशेष का नहीं है, बल्कि
फिल्मों में सनातन संस्कृति का विकृत चित्रण और हिंदुओं के खिलाफ दिखाई जा रही
आपत्तिजनक सामिग्री के विरोध में है. हिंदी फिल्मों में अश्लीलता स्तर यह हो गया है
कि शायद ही कोई फिल्म अब ऐसी आती हो जो परिवार के साथ बैठकर देखी जा सके.
इसके
विपरीत दक्षिण भारत की फिल्में आज भी भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत होती हैं और यही
उनकी सफलता का रहस्य भी है. दर्शक दक्षिण भारत की फिल्मों के नायक नायिकाओं को
देवतुल्य मानते हैं और जब भी कभी उनकी कोई नई फिल्म आती है तो लोग पटाखे फोड़ते
हैं,जश्न मनाते हैं. लोगों में होड़ लग जाती है कि कैसे फिल्म को पहले दिन पहले शो
में देखा जाय. दक्षिण भारत की ज्यादातर फिल्में जो हिंदी में डब की जाती हैं, वह भी सुपरहिट हो जाती हैं. इनमें ऐसा क्या खास होता है, यह हिंदी फिल्म जगत को समझ में क्यों नहीं आता. दक्षिण भारत की फिल्मों के
विरुद्ध कभी बहिष्कार या विरोध प्रदर्शन की नौबत नहीं आई बल्कि इसके नायक - नायिकाओं
के प्रति दर्शकों में सम्मान की भावना का ज्वार इतना अधिक होता है कि जब कभी वे सार्वजनिक
जीवन में आते हैं तो सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चले जाते हैं. आंध्र प्रदेश और
तमिलनाडु में ऐसे नायक और नायिकाएं मुख्यमंत्री बने और
जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया. इसके विपरीत हिंदी फिल्म जगत में मदांध नायक स्वयं
अपने को किंग और बादशाह घोषित कर देते हैं.
जहां
तक योगी से की गई अपील का प्रश्न है, तो उसमें गंभीरता का अभाव है. ऐसा लगता है कि सुनील शेट्टी ने निहित
स्वार्थ के कारण योगी की इन्वेस्टर्स मीट में जानबूझकर यह शिकायत उछाली. अगर
उनकी अपील में गंभीरता थी तो इसके पहले उन्होंने योगी से संपर्क क्यों नहीं किया. यदि
उनमें साहस था तो उन्हें अपनी बात बॉयकॉट ट्रेंड चलाने
वालों के समक्ष रखनी चाहिए थी और उनका पक्ष भी समझना चाहिए था. अगर उन्हें यह भी
नहीं मालूम कि बॉलीवुड का बहिष्कार क्यों किया जा रहा है, तो
फिर वह जनता और समाज से पूरी तरह से अलग-थलग है और यही बॉलीवुड की सबसे बड़ी
समस्या भी है. शेटटी ने अप्रत्यक्ष रूप से योगी और मोदी दोनों को बॉलीवुड बॉयकॉट के समर्थक और संरक्षक के रूप
में आरोपित भी कर दिया.
आजादी
के बाद से ही बॉलीवुड में वामपंथ - इस्लामिक गठजोड़ के स्वयंभू उदारवादियों ने
कब्जा कर लिया था. हिंदू देवी देवताओं का अपमान करके हिंदू धर्म को निकृष्ट साबित
करने का कार्य उसी समय से शुरू कर दिया गया था ताकि विश्व की सबसे प्राचीन सनातन
संस्कृति को धीमा जहर दे कर मारा जा सके. हिंदू धर्म और संस्कृति को हिंदुओं की
नजरों में ही इतना विकृत कर दिया जाए कि उनका विश्वास डगमगाने लगे. इसके विपरीत एक
धर्म विशेष को बहुत बड़ा चढ़ाकर आदर्श स्थिति में प्रस्तुत किया जाए कि लोग इसके
प्रति आकर्षित हों. इन दोनों योजनाओं का एक ही उद्देश्य था हिंदुओं को आसान शिकार बनाकर धर्मांतरण को गति प्रदान करना. इसमें फिल्म जगत के छोटे बड़े सभी कलाकार शामिल हैं. इसके
लिए छल कपट का सहारा लिया गया और हिंदुओं को भ्रमित करने के लिए कई मुस्लिम कलाकारों ने अपने हिन्दू नाम रख लिए. विडंबना है कि ज्यादातर
हिंदू कलाकार भी इसी टोली में शामिल हो गए. आश्चर्यजनक है कि यह तब हो रहा था जब
हिंदी फिल्म उद्योग की कमाई का 95% हिस्सा हिंदुओं से आ रहा था.
इस
दुष्प्रचार का असर यह हुआ है कि आज हिंदुओं में बड़ी संख्या में इसे लोग हैं
जो अपने हिंदू धर्म के विरुद्ध ऊटपटांग टिप्पणियां करते हैं. सामान्य हिंदू वर्ग इतना
सहिष्णु है कि कभी दूसरे धर्मों का अपमान
नहीं करता, इसके विपरीत मुस्लिम समुदाय में ऐसे निम्न मानसिकता वाले तथाकथित बड़े
शायर, गीतकार, टिप्पणीकार, चित्रकार आदि की कमी नहीं है, जिन्होंने हिंदू देवी देवताओं का और सनातन
संस्कृति का घोर अपमान किया और यह कार्य आज भी अनवरत जारी है.
सोशल
मीडिया की सक्रियता के कारण सनातन चेतना का पुनर्जागरण हुआ है इसलिए क्रिया के
विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हो गयी हैं. परिणाम स्वरुप बॉलीवुड उद्योग में कुख्यात
व्यक्तियों का बहिष्कार शुरू हो गया है. इन राष्ट्र वादियों का आक्रोश पूरे हिंदी फिल्म जगत से नहीं है बल्कि उन
लोगों से है जो अपनी फिल्मों में सनातन संस्कृति और हिंदू धर्म का अपमान करते हैं.
क्या किसी समुदाय की सामाजिक और धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचा कर उनको जबरदस्ती
सिनेमाघरों तक लाकर ऐसी फिल्में दिखाई जा सकती हैं. आखिर कोई घटिया और निम्न
स्तरीय फिल्मों पर अपने पैसे क्यों बर्बाद करें.
आज
जो बॉयकॉट बॉलीवुड से हिंदी फिल्म जगत को बचाने की गुहार लगा रहे हैं, वे तब कहां रहते हैं, जब पीके, काली, लाल सिंह चड्ढा आदि जैसी फ़िल्में बनती हैं. जब फिल्मों में हिंदू साधू, सन्यासियों को ढोंगी, चोर,
ठग और बलात्कारी दिखाया जाता है. जब 786 का बिल्ला लगाने वाले जूते पहनकर मंदिर में
घुसते दिखाये जाते हैं. जब गोमांस खाने और उसे महिमा
मंडित करने वाले कलाकार हिंदू धार्मिक चरित्र निभाते हैं. जब कुछ अभिनेता अपने बच्चों के नाम उन क्रूर अक्रांताओं के नाम पर रखते हैं जिन्होंने
लाखों हिंदुओं को मौत के घाट उतारा था.
इंडियन
इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद के तत्कालीन प्रोफेसर धीरज शर्मा के 2015 में एक अध्ययन में यह बात सामने
आई कि बॉलीवुड की फिल्में हिंदू और सिख धर्म के
विरुद्ध झूठे विमर्श गढ रही हैं और लोगों के दिमाग में धीमा ज़हर भर रही हैं. उनके
अध्ययन के अनुसार बॉलीवुड की फिल्मों में 58% भ्रष्ट नेताओं को ब्राह्मण दिखाया
गया है. 62% फिल्मों में बेईमान कारोबारी को वैश्य दिखाया
गया है. 74% सिख किरदारों को मज़ाक का पात्र बनाया गया है. 78% मामलों में बदचलन
महिलाओं को ईसाई दिखाया गया है. 84 प्रतिशत फिल्मों
में मुस्लिम किरदारों को मजहब में पक्का यकीन रखने वाला और बेहद ईमानदार दिखाया गया
है, अगर वह घृणित अपराधी है, तो भी उसूलों का पक्का दिखाया जाता है. यह संयोग नहीं, षड़यंत्र है.
दुर्भाग्य से इसके विरुद्ध कोई आवाज बॉलीवुड के अन्दर से आज तक नहीं उठायी गयी.
बहिष्कार
किसी समस्या का समाधान नहीं है, और बॉलीवुड का
बहिष्कार भी किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध नहीं है. जिन फिल्मों में अश्लीलता और हिंदू
धर्म विरोधी काली करतूतें पता चलती हैं, तो विरोध होता है और आपत्तिजनक दृश्यों को हटाने की मांग की जाती
है. जब लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए ऐसा नहीं किया जाता तो लोग बहिष्कार
जैसी रणनीति अपनाते हैं. आखिर ऐसी परिस्थिति पैदा ही क्यों हो कि बहिष्कार करने की
नौबत आए. लगभग 100 वर्ष पुराने हिंदी फिल्म जगत में क्या
अभी तक इतनी समझ नहीं आ पाई है कि समाज को क्या स्वीकार्य नहीं है.
जब दक्षिण भारत की "आरआरआर"
फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सफलता के झंडे गाड़ रही है और उसके
एक लोक गीत नाटू नाटू को गोल्डन ग्लोब अवार्ड 2023 मिल चुका
है, उस समय बॉलीवुड बहिष्कार के संघर्ष से जूझ रहा है. हिंदी
फिल्म जगत को यह समझ लेना चाहिए कि उसकी काली करतूतों का भंडाफोड़ हो चुका है और
यदि वह अपना एजेंडा नहीं छोड़ता और फिल्मों में कलात्मकता, सृजनात्मकता,
राष्ट्रीय भावना, सनातन संस्कृति और सभी
धर्मों के प्रति सम्मान की
भावना अंगीकार नहीं करता, तो उसका विनाश निश्चित है, जिसे न योगी बचा सकते हैं न मोदी. इसे बचाने
के लिए स्वयं बॉलीवुड को आगे आकर आत्म विश्लेषण करना चाहिए और शीघ्रातिशीघ्र सुधारात्मक कदम लागू करना चाहिए.
- शिव मिश्रा (https://www.youtube.com/@hamhindustanee123)
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सोये सनातन पर एक और प्रहार है ये , नया नहीं, पहला नहीं और आख़िरी भी नहीं. यदि हिन्दू नहीं जागा तो ये तब तक चलेगा जब तक भारत इस्लामिक राष्...
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यह एक खुला रहस्य है और इसमें जितना गहराई तक जायेंगे उतनी ही गंदगी दिखाई पड़ेगी. इसलिए मेरा मानना है कि इसमें बहुत अधिक पड़ने की आवश्यकता नहीं ...
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शरद पूर्णिमा का पौराणिक, धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक महत्त्व | चांदनी में खीर रखने का कारण | जानिये कौमुदी महोत्सव | चंद्रमा का ह...