शनिवार, 20 सितंबर 2025

भगवान विष्णु पर टिप्पणी मामला :कोलेजियम है न्याय पालिका की सड़ांध का कारण

 


भगवान विष्णु पर टिप्पणी मामला || भारत के मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई धार्मिक तो हैं, लेकिन धर्मनिरपेक्ष नहीं ? || क्या कोलेजियम है न्याय पालिका की सड़ांध का कारण और हिन्दू हितो के लिए घातक?


नाम में क्या रखा है, को सत्य सिद्ध करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई की हिन्दुओं की मूर्ति पूजा का उपहास उड़ाने वाली एक टिप्पणी से हिंदुओं में उबाल है. मामला मध्य प्रदेश के खुजराहो स्थित जावरी मंदिर यूनेस्को से संरक्षित विश्व धरोहर का है, जिसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण करता है। इस मंदिर में भगवान विष्णु की सात फीट ऊंची एक खंडित मूर्ति है, जिसके दोनों हाथ और सिर नहीं है। याचिकाकर्ता राकेश दालाल ने भगवान विष्णु की क्षतिग्रस्त मूर्ति के पुनर्निर्माण और पुनर्स्थापन की मांग करते हुए जनहित याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि मूर्ति मुगल आक्रमणों के दौरान क्षतिग्रस्त की गयी थी और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण तथा केंद्र सरकार की लापरवाही से इसका संरक्षण नहीं हो पा रहा है, जो भक्तों के पूजा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. मुख्य न्यायाधीश गवई और न्यायाधीश ऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह की पीठ ने याचिकाकर्ता को फटकार लगाते हए कहा कि "आपकी याचिका, जनहित याचिका नहीं, प्रचार याचिका है।" गवई ने याचिकाकर्ता से कहा कि यदि आप भगवान विष्णु के कट्टर भक्त हैं, तो उनके पास जाइए और उनसे प्रार्थना कीजिए, वही कुछ कर सकते हैं. यह पुरातात्विक स्थल है, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को अनुमति देनी होगी. वह यहीं नहीं रुके, उन्होंने कहा कि इस बीच, अगर शैववाद से कोई आपत्ति न हो, तो आप शिव लिंग की पूजा कर सकते हैं, खजुराहो में सबसे बड़ा शिव लिंग है.”

गवई की यह टिप्पणियाँ हैरान करने वाली है क्योंकि किसी भी दृष्टिकोण से ये मुख्य न्यायाधीश स्तर के व्यक्ति की टिप्पणियां नहीं लगती. अगर बताया न जाए कि यह टिप्पणियां किसने की है तो ऐसा लगेगा कि किसी लंपट, अनपढ़ गंवार और कट्टरपंथी व्यक्ति की फूहड़ टिप्पणियां हैं । ये साधारण टिप्पणियां नहीं हैं, विशेषकर, एक ऐसे न्यायाधीश की, जो हिंदू नहीं है. अन्य धर्म के व्यक्ति से अपेक्षा होती है कि वह दूसरे धर्म का अपमान नहीं करेगा लेकिन उन्होंने किया, जो सर्वोच्च न्यायालय के अभिलेख का हिस्सा है. इससे बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाएं आहत हुई हैं और उनमें बहुत आक्रोश है। कुछ दिन पहले उनकी ही पीठ ने एक दरगाह, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है, से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को आदेश दिया था कि वह दरगाह की मरम्मत और रख रखाव करें। यह याचिका भी उससे अलग नहीं थी, तो फिर गवई ने यह टिप्पणी क्यों की? कोई इस पर कितना भी विचार करें, कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलेगा.

इस तरह की टिप्पणियों का एक ही उद्देश्य होता है, हिंदू धर्म का अपमान करना, जो उन्होंने सामान्य आंबेडकरवादी की तरह कर दिया, फिर इस पर इतना हो हल्ला क्यों? हिन्दुओं ने ही सबको ये अधिकार दे रखा है क्योंकि कि हिन्दू धर्म पर प्राय: इस तरह की टिप्पणियां होती रहती हैं और हिंदू समुदाय द्वारा कभी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाती. इसलिए सभी इस तरह की टिप्पणियां करने के शौक़ीन हो गए हैं, चाहे राजनीतिज्ञ हों, नौकरशाह हों, न्यायाधीश हों या दूसरे धर्म के लोग. आज हिन्दुओं के समक्ष यह अत्यधिक गंभीर समस्या है। गवई कोई साधारण व्यक्ति नहीं है. वह विद्वान हैं, उन्होंने वकालत की है, वह उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहे हैं, और अब भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं. ऐसे व्यक्ति से यह अपेक्षा अनुचित नहीं है कि वह अपने वचन और कर्म से सर्व-धर्म समभाव की भावना प्रकट करेगा भले ही उसके मन में कितनी ही कटुता और विष क्यों न भरा हो.

मुख्य न्यायाधीश यदि अपने न्यायिक धर्म का पालन करना चाहते, तो सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को साधारण शब्दों में याचिका के बिन्दुओं पर विचार करने का आदेश दे सकते थे क्योंकि यह दो धर्मों के मध्य का विवाद नहीं था और इसी तरह की याचिका पर यही पीठ एक आदेश कुछ दिन पहले दे चुकी है। यदि गवई चाहते तो बिना किसी टिप्पणी के भी इस याचिका को खारिज कर सकते थे, कोई कुछ कहता. इसलिए उनकी ये टिप्पणियां अनजाने की गयी टिप्पणियां नहीं कहा जा सकता, जिनसे हिंदू समुदाय को एक उपेक्षा भरा संदेश मिला है कि आप धार्मिक शिकायतें लेकर सर्वोच्च न्यायालय न आयें, अपने आराध्य देव से प्रार्थना करके अपनी शिकायत का निवारण करवाये. लेकिन यदि ऐसा करना पड़ा तो हिन्दुओं को संविधान के अनुसार नहीं, धर्म ग्रंथो के अनुसार चलना पडेगा और संवैधानिक व्यवस्था चूर-चूर हो जाएगी, जिसके अंतर्गत ही सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान है.

यदि गवई की टिप्पणी पर सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो वह मूर्ति पूजा और हिंदू समुदाय का उपहास है, और यह घोषित विचारधारा इस्लामिक चरमपंथियों की है। क्या यही धर्म निरपेक्षता है, जिसके अनुसार यदि किसी चर्च, दरगाह और मस्जिद का मामला आएगा तो उस पर सुनवाई होगी और फैसला भी होगा, लेकिन हिन्दू धर्म स्थल का मामला उपहास करते हुए छोड़ दिया जाएगा। क्यों सर्वोच्च न्यायालय वक्फ बोर्ड मामले की सुनवाई कर रहा है? याचिका कर्ताओं से अल्लाह के पास जाने के लिए क्यों नहीं कहा गया. कृष्ण जन्मभूमि और ज्ञानवापी मंदिर के मामले में मुस्लिम समुदाय से अल्लाह के पास जाने के लिए कहा जा सकता था। विष्णु हरि मंदिर को तोड़कर बनाई गई संभल की विवादित जुमा मस्जिद भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है, तो उस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम समुदाय से क्यों नहीं कहा कि वह पुरातत्व विभाग के पास जाकर अपनी शिकायत करें, उसमें तो पुरातत्व सर्वेक्षण के कर्मचारी घुस भी नहीं पा रहे हैं.

गवई ने एक और टिप्पणी की, जो सबसे अधिक खतरनाक है, जिस पर मीडिया में चर्चा नहीं हुई. उन्होंने याचिकाकर्ता से कहा कि अगर शैववाद से कोई आपत्ति न हो तो शिवलिंग की पूजा कर सकते हैं, खुजराहो में सबसे बड़ा शिवलिंग है। इसका ये मतलब यह बिलकुल भी नहीं है कि गवई हिंदू धर्म के बारे में नहीं जानते बल्कि यह कहकर वह सनातन धर्म के शैव और वैष्णव, संप्रदायों के बीच का अंतर रेखांकित कर हिंदूओं को नए तरह से विभाजित करना चाहते हैं, जो आज के अंबेडकरवादी कर ही रहे हैं।

जिस समय गवई को मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नति मिली तो मीडिया में यह चर्चा हुई कि वह भारत के दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश हैं, जो सही भी है, लेकिन गवई ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में देर नहीं की और कहा कि वह भारत के पहले बौद्ध मुख्य न्यायाधीश हैं। भगवान बुद्ध को हिंदू धर्म के अनुसार विष्णु का अवतार माना जाता है, इसलिए बौद्ध धर्म को संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार हिन्दू धर्म का ही एक पंथ माना जाता है. तो क्या भगवान विष्णु का इतना अनादर करने वाला बौद्ध हो सकता है? शायद नहीं, वह बौद्ध तो बिल्कुल भी नहीं हो सकता, अंबेडकर वादी हो सकता है। अंबेडकर ने जो 22 प्रतिज्ञाएं ली थी, उनमें अधिकांश हिंदू धर्म के विरुद्ध थी. गवई आंबेडकरवादी बौद्ध हैं जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद सपरिवार भगवान बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी की यात्रा की और बौद्ध जन्मभूमि जाने वाले पहले भारतीय मुख्य न्यायाधीश बने। उन्होंने बुद्ध के जन्म स्थान नेपाल को ‘विचारकों और सुधारकों का उद्गम स्थल’ बताया था, जिन्होंने विद्मान मानदंडों को चुनौती दी, नैतिक चिंतन को प्रेरित किया और समाज को बेहतर बनाने का प्रयास किया। गवई को ये जरूर ज्ञात होगा कि अभी हाल के नेपाल आन्दोलन में सर्वोच्च न्यायालय को आग के हवाले कर दिया गया था. इससे स्पष्ट है कि वह धार्मिक तो हैं, लेकिन मेरे विचार से धर्मनिरपेक्ष नहीं.

यद्दपि गवई ने कहा वह पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष हैं और उनकी टिप्पणियों को सोशल मीडिया पर गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया लेकिन उन्होंने जो कहा उस पर खेद प्रकट नहीं किया. हिन्दू विरोध यदि न्यायपालिका की धर्मनिरपेक्षता का पैमाना है तो वह धर्मनिरपेक्ष हैं और धर्मनिपेक्षों से हिंदू धर्म के प्रति सहिष्णुता या सहृदयता की आशा करना व्यर्थ है क्योंकि उनका उद्गम स्रोत कॉलेजियम एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें विशेष प्रकार के लोग ही न्यायाधीश बन पाते हैं. इसलिए स्वतंत्रता के बाद से आज तक किसी ने कोई ऐसा मुख्य न्यायाधीश नहीं देखा होगा जिसका हिंदू धर्म के प्रति पक्षधरता तो छोड़िए, सहृदयता और सहजता का भाव रहा हो।

11 साल से लगातार सत्ता में रहने के बाद भी मोदी सरकार न्यायपालिका के हिन्दू विरोधी स्वरूप में जरा भी परिवर्तन नहीं कर सकी है. अब यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि “सरकार मोदी की, लेकिन सिस्टम कांग्रेस का. इसलिए पूरे हिन्दू समाज का दायित्व है कि न्यायपालिका के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए उसके हर हिन्दू विरोधी कार्य का खुलकर विरोध किया जाय और कोलेजियम व्यवस्था का तब तक तीव्र विरोध होना चाहिए जब तक यह नहीं समाप्त नहीं हो जाता क्योंकि यह विमर्शकारी वामपंथियों और चरमपंथियों का सबसे प्रभावी अड्डा है. जागृत हिन्दू समाज को अब और अधिक दबाया नहीं जा सकता, लेकिन सभी को इसकी अनुभूति कारवाना भी समय की माँग है.

~~~~~~~~~~~~ Shiv Prakash Mishra ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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