मंगलवार, 30 जुलाई 2024
Conversion at City Montessori School Lucknow | तिलक, चोटी, जनेऊ व रुद्राक्ष के कारण शिक्षक कुलदीप तिवारी निष्काशित
सोमवार, 29 जुलाई 2024
Shah Commission Report on Emergency रिपोर्ट होगी संसद में -कांग्रेस परेश...
शाह कमीशन की रिपोर्ट की मांग
भारतीय जनता
पार्टी के सांसद दीपक प्रकाश ने शून्यकाल में शाह कमीशन की रिपोर्ट को प्राप्त कर
सदन के पटल पर रखने का अनुरोध किया राज्य
सभा के सभापति जगदीप धनकड़ से किया. उपराष्ट्रपति ने सरकार को निर्देश दिया है कि वह साह कमीशन की रिपोर्ट
प्राप्त करने के विषय में विचार करें और उसकी एक कॉपी सदन के पटल पर रखें ताकि
राज्यसभा के सांसद उस रिपोर्ट से लाभान्वित हो सके.
क्या है ये शाह कमीशन की रिपोर्ट और क्यों अब 44 साल पुरानी इस
रिपोर्ट को मांग जा रहा है?
1975 में
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश में आपात स्थिति लगाकर लोकतंत्र समाप्त कर दिया था और
जनसामान्य पर भारी ज्यादतियां की गई थी। इसके परिणाम स्वरूप आपातकाल के बाद जब
चुनाव हुए तो कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी की सरकार
सत्ता में आई जिसने 24 मई 1977 को कार्यभार सम्भाला. जनता सरकार ने 28 मई 1977 को आपातकाल के दौरान
हुई ज्यादतियों की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया जिसके अध्यक्ष सर्वोच्च
न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे सी शाह थे जिन्हें अपनी रिपोर्ट 31 दिसंबर तक देना था
इसके बाद उनको रिपोर्ट सबमिट करने के लिए जून 1978 तक का समय दिया गया यद्यपि
जस्टिस शाह से कहा गया था कि वह अपना काम जल्दी से जल्दी निपटाने के लिए कहा गया था
ताकि देश के सामने तथ्य रखे जा सके लेकिन आयोग ने सितंबर में अपना काम शुरू किया
तमाम लोग प्रमाण सहित आयोग के सामने पेश हुए. इंदिरा गाँधी को भी आयोग के सामने
पेश होना था लेकिन उन्होंने किसी भी तरह का बयान देने से मना कर दिया . न्यायमूर्ति
शाह ने भी संदर्भ दिया है कि इंदिरा गाँधी ने जांच रिपोर्ट बनाने में कोई भी सहयोग
नहीं किया इंदिरा गाँधी ने तो अपनी शैली के अनुरूप शाह आयोग के गठन को अपने
विरुद्ध जनता सरकार द्वारा की जा रही ज्यादती के रूप में प्रस्तुत किया. इंदिरा
गाँधी को पहले गिरफ्तार किया और कांग्रेस पार्टी द्वारा की गई ड्रामेबाजी और
विक्टिम कार्ड खेलने के बाद इंदिरा गाँधी को छोड़ दिया गया. shah कमीशन की रिपोर्ट
में इस बात का जिक्र है कि इंदिरा गाँधी और प्रणब मुखर्जी दोनों ने शपथ पत्र देकर
कुछ भी कहने से इनकार कर दिया था और इस कारण बाद में सह आयोग ने जब अवमानना दाखिल
की तो मजिस्ट्रेट ने इसे खारिज कर दिया.
आयोग ने 525
पन्नों वाली अपनी रिपोर्ट का प्रकाशन तीन खंडों में किया. पहली रिपोर्ट मार्च 78
को सौंपी गई जिसमें इमरजेंसी लगाने प्रेस को अपनी बात कहने नागरिको की बोलने की
स्वतंत्रता के अधिकार का हरण करके सम्बन्धी बहुत सी बातें इस रिपोर्ट में है.
दूसरे खंड में संजय गाँधी द्वारा तुर्कमान गेट पर हुई घटनाओं का जिक्र है और उसमें
पुलिस ज्यादतियों का विस्तृत वर्णन है तुर्कमान गेट पर संजय गाँधी के निर्देश पर
अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोजर चलाया गया था और अपने घर तोड़े जाने के विरोध में
लोगों ने प्रदर्शन किया था. आयोग की अंतिम रिपोर्ट 6 अगस्त 1978 को प्रकाशित हुई
जिसमे जेल में बंद राजनेताओं और सामान्य जनता पर हुई ज्यादतियों और परिवार नियोजन
में हुए अनेक गड़बड़ियों का जिक्र है.
शाह आयोग कीरिपोर्ट
का सारांश ये है कि देश में ऐसी कोई स्थिति नहीं थी जो सरकार को आपात स्थिति लगाने
को मजबूर करती है। न तो आर्थिक और न ही
कानून व्यवस्था की स्थिति इतनी खराब थी कि ये निर्णय लेना पड़ता है। आयोग ने यह भी पाया कि आपातकाल लगाने का निर्णय
केवल इंदिरा गाँधी ने लिया था और उन्होंने इसके लिए अपने कैबिनेट सहयोगियों से भी
राय मशविरा तक नहीं किया था. शाह आयोग की रिपोर्ट में जिन लोगों को आपातकाल की
दौरान ज्यादतियां करने का दोषी पाया गया था उसमें इंदिरा गाँधी के अतिरिक्त संजय
गाँधी, प्रणब मुखर्जी, बंशीलाल, कमल नाथ और सिविल सेवा के कई अधिकारी भी शामिल थे।
शाह आयोग ने यह भी कहा कि आपातकाल के
दौरान अपने राजनैतिक विरोधियो को नेस्तनाबूद करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून
का भयंकर दुरुपयोग किया गया था । आयोग ने
यह भी लिखा है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने संजय गाँधी और
प्रधानमंत्री कार्यालय और उनके सहयोगियों द्वारा दिए गए आदेशों को मानकर कार्य
किया यद्यपि वे जानते थे कि ऐसा करना उचित नहीं है। प्रशासनिक अधिकारियों ने तथ्यों से छेड़छाड़ की और
सामान्य जनता और राजनेताओं का गिरफ्तार करने और उन पर ज्यादतियां करने के लिए झूठे प्रमाण बनाए
। आयोग ने लिखा है कि इन अधिकारियों ने
ऐसा इसलिए किया ताकि वो अपने करियर में काफी आगे जा सके और यह बात सही साबित हुई
क्योंकि इन सभी अधिकारियों का करियर ग्राफ कांग्रेस के शासन में बहुत तेजी से बढ़ा।
आयोग की रिपोर्ट
आने के बाद जनता सरकार के कुछ मंत्रियों ने मांग की थी की इन्दिरा गाँधी पर मुकदमा
चलाए जाने के लिए विशेष अदालत का गठन किया जाए और इस तरह से संसद में 8 मई 1979 को
स्पेशल विशेष अदालत का गठन किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि जनता
सरकार 16 जुलाई 1979 को गिर गई. इसके बाद हुए चुनाव में इंदिरा गाँधी की भारी जीत
हुई और वह लौटकर सत्ता में वापस आ गई. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के
अनुरोध पर यह फैसला दिया था कि आयोग का
गठन कानूनी तौर पर सही नहीं था और इसके बाद शाह आयोग ने जिन अधिकारियों को गलत काम करने के लिए
चिन्हित किया था उनके विरुद्ध भी कोई कार्रवाई नहीं हुई बल्कि उनका करियर बेहद
शानदार हो गया.
पुनः
प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गाँधी ने शाह आयोग की रिपोर्ट की सभी प्रतिलिपियाँ जहाँ कहीं भी थी मँगा
कर नष्ट कर दिया लेकिन भारत के एक सांसद
के पास एक प्रति बच गई थी जिसे उन्होंने किताब के रूप में छपवाया और उसका नाम दिया
शाह कमीशन रिपोर्ट लॉस्ट एंड रिग्रेट जिसकी एक प्रति नेशनल लाइब्रेरी ऑफ
ऑस्ट्रेलिया के पास है.
इसलिए भाजपा
सांसद ने यह मांग कि आयोग की रिपोर्ट की जो प्रति नेशनल लाइब्रेरी ऑफ ऑस्ट्रेलिया
के पास है उसकी एक प्रति भारत मंगाकर सदन के पटल पर रखा जाए जिसके लिए
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आदेश पारित कर दिया है.
कांग्रेस और
उसके सहयोगी दलों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उन्होंने कहा की इंदिरा
गाँधी ने तो आपात काल के लिए देश की जनता से माफी मांग ली थी लेकिन मोदी सरकार
पिछले 10 साल से अघोषित आपातकाल लगाए हुए हैं ओर सभी राजनैतिक दलों के नेताओं के
विरुद्ध भ्रष्टाचार के झूठे मामले बना रही है और इसके लिए सीबीआई ईडी और आयकर
एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है. यद्यपि यह सब कहने वाले वही लोग हैं जो
किसी न किसी भ्रष्टाचार के मामले में बुरी तरह से फंसे हुए हैं और और सरकार ने इन
एजेंसियों का दुरुपयोग भले ही किया हो लेकिन जनता अच्छी तरह से जानती है कि ये लोग
भ्रष्ट हैं और उन्होंने भ्रष्टाचार किया हुआ है । सच बात तो यह है कि ये सभी भ्रष्टाचार
करने के लिए ही राजनीति में हैं। कांग्रेस
के कुछ खलिहर टाइप नेता मतलब हैं जिनके पास कोई कामधाम नहीं लेकिन गाँधी परिवार के प्रति स्वामिभक्ति
के कारण पार्टी में उनका अस्तित्व है।
कुछ अपने विवादित बयानों के जरिये भी याद दिलाते
रहते हैं कि वे अभी भी हैं. ऐसे ही एक
व्यक्ति है राशिद अल्वी उन्होंने कहा कि आपातकाल पर शाह आयोग की रिपोर्ट छोड़ कर मोदी सरकार को अपने 10
साल की रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए जिसमें उन्होंने अघोषित आपातकाल लगा रखा है.
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रविवार, 14 जुलाई 2024
फ़्रांस, भारत और ब्रिटेन के चुनावों में झूठा अंतर्राष्ट्रीय विमर्श : बाल बाल बचे मोदी लेकिन निपट गए मैक्रो और ऋषि सुनक
फ़्रांस, भारत और ब्रिटेन के चुनावों में झूठा अंतर्राष्ट्रीय विमर्श : बाल बाल बचे मोदी लेकिन निपट गए मैक्रो और ऋषि सुनक
फ्रांस में हाल में संपन्न हुए चुनाव के बाद पूरे देश में दंगे भड़क उठे हैं. 182 सीटें पाकर वामपंथी गठबंधन सबसे बड़ा गठबंधन बनकर उभरा है, जिसे इस्लामिक वामपंथ गठजोड़ का समर्थन प्राप्त था. यद्यपि उन्हें सरकार बनाने के लिए 289 सीटों का बहुमत नहीं मिला है, लेकिन इस्लामिक-वामपंथ समर्थक जश्न मनाने के लिए सड़कों पर आ गए. वे एमैनुअल मैक्रों की सरकार तथा मरीन ले पेन की दक्षिणपंथी विचारधारा वाली पार्टी नेशनल रैली के विरुद्ध प्रदर्शन कर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि वामपंथ गठबंधन को सरकार बनाने का मौका दिया जाय. इन कट्टरपंथियों ने एफिल टावर को इस्लामिक झंडे से ढक दिया और पेरिस में शरिया कानून लागू करने के नारे लगाए. प्रदर्शनकारी जमकर हिंसा कर रहे हैं और आगजनी से पूरा फ्रांस चल रहा है. फ्रांस के मूल निवासी दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी विचारधारा के लोग हिंसा का शिकार हो रहे हैं. चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में बताया जा रहा था कि दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली बहुमत लाकर सरकार बनाने में सफल हो सकती है जिससे इस्लामिक कट्टरपंथी बेचैन थे क्योंकि मरीन ले पेन ने कहा था कि वह अवैध घुसपैठियों से फ्रांस को मुक्त कराएगी और कट्टरपंथियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करेगी. इसलिए इस्लामिक कट्टरपंथियों के सहयोग से वामपंथी गठबंधन ने रणनैतिक रूप से चुनावी व्यूह रचना कर मरीन ले पेन की पार्टी को हराने का कार्य किया और 143 के साथ तीसरे स्थान पर ढकेलने में सफल हो गए. फ़्रांस में इसके पहले अवैध मुस्लिम घुसपैठियों द्वारा किए गए दंगों के विरुद्ध राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों ने भी बहुत सख्त कार्रवाई की थी, जिससे इस्लामिक-वामपंथ संगठन और उसके सदस्य खासे नाराज थे. इसीलिए फ्रांस में मैक्रों सरकार के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय धनकुबेरों के सहयोग से झूठे विमर्श चलाए गए और आम फ्रांसीसियों ने भी उनके षड्यंत्र में फंसकर वोट दिया जिससे एमेनुएल मैक्रों की पार्टी केवल 168 सीटें ही पा सकी और सत्ता से बाहर हो गयी. इस तरह फ्रांस में झूठे विमर्श का प्रयोग पूरी तरह सफल रहा. फ्रांस अस्थिरता के जिस दलदल में फंस गया है, वह फ्रांस के लिए खतरा बन चुकी मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों को और अधिक मजबूत करेंगा. फ्रांस और ब्रिटेन दोनों ने भारत के चुनाव से कोई सबक नहीं लिया लेकिन अब भारत को फ़्रांस से सबक अवश्य लेना चाहिए.
ब्रिटेन में ऋषि सुनक के चुनाव हारने की कई वजहें बताई जा रही हैं, उनमें ज्यादातर समस्याएं अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई हैं, जो उन्हें विरासत में मिली थी. प्रधानमंत्री के रूप में लगभग डेढ़ साल के कार्यकाल में महंगाई, आवास, ज्यादा टैक्स और अवैध घुसपैठ के समाधान की अपेक्षा करना बेमानी है लेकिन उनकी हार की असली वजह है, रवांडा योजना, जिसके अंतर्गत अवैध मुस्लिम घुसपैठियों को 4 जुलाई 2024 के बाद ब्रिटेन से निकालकर रवांडा भेजा जाना था. वामपंथी और इस्लामिस्ट इसका विरोध कर रहे थे. चुनावों में भारतीय मूल के ऋषि सुनक को हराने के लिए उसी तरह झूठे विमर्श गढ़े गए जैसे भारत में मोदी को और फ्रांस में इमैनुअल मैक्रों को सत्ता से हटाने के लिए किए गए थे. यूरोप के कई देश अवैध मुस्लिम घुसपैठियों की गिरफ्त में आ चुके हैं. इनके चंगुल से छूट पाना काफी मुश्किल है और तब, जबकि बड़ी संख्या में देशवासी इनसे सहानुभूति रखते हो और इनकी अराजकता का समर्थन करते हों, ये देश बचेंगे, कहना मुश्किल है.
भारत मैं आम चुनाव के बीच राहुल गाँधी ने कहा था कि अगर मोदी फिर चुनाव जीत गए तो देश में आग लग जाएगी लेकिन भाजपा 240 पर अटक गयी और अपने दम पर बहुमत नहीं ला सकी. कांग्रेस की सीटों की संख्या लगभग दोगुनी होकर 99 हो गई और राहुल गाँधी दोनों जगह से चुनाव जीत गए. कल्पना करिए कि भाजपा की सीटें 40 और कम हो जाती और कांग्रेस की 40 सीटें और बढ़ जाती तो, भारत को फ्रांस बनने से कोई नहीं रोक सकता था. शुक्र मनाइये कि भारत आग लगाए जाने से बाल बाल बच गया. भारत और फ्रांस में एक चीज़ आम है, भारत में हिंदुओं का और फ्रांस में मूलनिवासियों का एक बड़ा वर्ग उदारवादी है. दोनों ही देशों में राजनैतिक दल मुस्लिम तुष्टीकरण करते है और अवैध मुस्लिम घुसपैठियों को संरक्षण देते हैं. भारत में हिंदुओं के लिए और फ्रांस में मूल निवासियों के लिए मुखर होकर कोई भी राजनैतिक दल बात नहीं करता. भारत में हिंदुओं और फ्रांस में फ्रांसीसियों का बहुत बड़ा वर्ग धर्म से विमुख होकर सहिष्णु हो चुका है और वे इस्लामिक कट्टरता का मुकाबला करने से डरते हैं. इसलिए दोनों देशों मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर धर्मांतरण ओर अवैध घुसपैठ का षड्यंत्र सफलतापूर्वक चल रहा है.
भारत में चुनाव से पहले विपक्ष भी ये मानकर चल रहा था कि मोदी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल होंगे तथा उन्हें पिछली बार से ज्यादा सीटें मिलेंगी. ये आकलन गलत भी नहीं था लेकिन वैश्विक धनकुबेरों की सहायता से इस्लामिक कट्टरपंथी और भारत विरोधी ताकतें मोदी को सत्ता से हटाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहीं थी, जिसके लिए झूठे विमर्श गढ़े जा रहे थे और आंदोलन प्रयोजित किए जा रहे थे. राहुल गाँधी की यूरोप और अमेरिका की यात्राओ से स्पष्ट झलक मिल गयी थी कि भारत में कुछ बड़ा किया जाने वाला है. जहाँ हिंडनबर्ग की रिपोर्ट भारतीय शेयर मार्केट को ध्वस्त करने के लिए लाई गई थी, वहीं मणिपुर की समस्या सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करने के लिए उत्पन्न की गई और दोनों में ही भारत विरोधी विदेशी शक्तिओं का हाथ स्पष्ट दिखाई पड़ता है. इन्ही कट्टरपंथी सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा उत्तर प्रदेश को हिंदू समाज के विघटन की प्रयोगशाला बनाया गया, जहां दलितों और पिछड़ों को मुस्लिमों के साथ खड़ा करने की पीएफआई की योजना को पीडीए ( पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) नाम देकर सफल प्रयोग किया गया.
भाजपा अपने बलबूते पूर्ण बहुमत पाने से चूक गईं तो समूचे विश्व को आश्चर्य हुआ, यद्यपि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे गठबंधन सहयोगियों के कारण भाजपा पूर्ण बहुमत पाकर सरकार बनाने में कामयाब हो गयी. भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी हो, और कांग्रेस से ढ़ाई गुनी बड़ी हो लेकिन झूठा विमर्श बनाया गया जैसे कांग्रेस जीत गई हो और भाजपा हार गई हो. तमाम कोशिशों के बाद भी गनीमत रही कि भारत को फ्रांस नहीं बनाया जा सका लेकिन उकसाने की कोशिशें अभी भी की जा रही हैं. संसद के पटल से पूरे विश्व को संदेश दिया गया कि हिंदू हिंसक होते हैं लेकिन इसी नेता ने कन्हैया लाल के हत्यारों से नाराज न होने की बात स्वीकारीं थी. नूपुर शर्मा “सिर धड से जुदा” के फतवे के बाद सुरक्षा घेरे में कैद है, लेकिन हिंसक होने का आरोप हिन्दुओं पर लगाया गया है.
भाजपा सरकार बनने से आहत इस्लामिक कट्टरपंथी मोदी सरकार को दबाव में लेने की रणनीति अपना रहे हैं. गज़वा ए हिंद का फतवा अपने मदरसे की वेबसाइट पर डाल कर भारत को शीघ्रातिशीघ्र इस्लामिक राष्ट्र बनाने में लगे देवबंद के मदरसा दारूल उलूम के मालिक अरशद मदनी कह रहे हैं कि मुसलमानों ने मोदी से अपना बदला ले लिया हैं, ताकि मोदी सूफियों, वहाबियों और पसमांदाओं को खुश करने की अपनी पुरानी योजना पर वापस आ जाए और धर्मांतरण, लव जिहाद, जमीन जिहाद, वक्फ बोर्ड आदि के कामों में दखल न दें. भारत के कानून और राजनेताओं में इच्छाशक्ति की कमी के कारण भी भारत में इस्लामिक कट्टरता काबू से बाहर होती जा रही है. तृणमूल कांग्रेस के नेता और कोलकाता नगर निगम के मेयर फिरहाद हकीम कहते हैं की जो इस्लाम में पैदा नहीं हुए, बदकिस्मत हैं उन्हें इस्लाम में लाना होगा और अगर हम ऐसा करेंगे तो अल्लाह खुश होगा. यानी उन्होंने खुले तौर पर सभी को दीन की दावत दे दी है. अभी तक उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही शुरू नहीं हुई है. लॉक डाउन की धज्जियां उड़ाकर देश में कोरोना फैलाने वाले तब्लीगी जमात के मौलाना साद के विरुद्ध सरकार ने क्या किया, कुछ पता नहीं. सरकारी भूमि पर बनाया गया तब्लीगी जमात का अवैध निर्माण आज भी ज्यों का त्यों खड़ा है. बरेली के मौलाना तौकीर रजा कहते हैं कि आज कुत्तों के दिन हैं, कल हमारे भी आयेंगे और उनका कुछ नहीं बिगड़ता.
हिंदुओं को अपने बारे में बन रही धारणा को बदलना होगा कि वे डरपोक और पलायनवादी होते हैं और आलू, प्याज और पेट्रोल के दाम में ही उलझे रहते हैं तथा राष्ट्रहित में एकजुट होकर मतदान नहीं करते. पूरी दुनियां में मुसलमान हमेशा एकजुट होकर इस्लाम को सर्वोपरि रखते हुए वोट करते है. पीडीए के नाम पर दलित और पिछड़े वर्ग के जो लोग मुस्लिमों के साथ एकजुटता प्रदर्शित कर रहे हैं उन्हें जोगेंद्र नाथ मंडल के जीवन से सबक लेना चाहिए जो 1930 में मुस्लिम में शामिल हुए थे और विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन वहाँ दलितों पर हो रहे अत्याचार और धर्मान्तरण पर उनकी एक नहीं सुनी गई उल्टे उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया गया. इतना अपमानित होकर उन्हें हिंदू और मुसलमान के बीच का अंतर समझ में आया और तब वह भारत लौट आए लेकिन उन्होंने अपना, दलितों, हिंदुओं और हिंदुस्तान का इतना अधिक नुकसान किया था जिसकी पीड़ा वह मरते दम तक नहीं भुला सके.
~~~~~~~~~~~~~~~~``शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जहर बोते बोते भारत विरोधी षड्यंत्रों का मोहरा बन गए राहुल गाँधी ?
और कितना गिरेगी राजनीति ? जहर बोते बोते भारत विरोधी षड्यंत्रों का मोहरा बन गए राहुल गाँधी ?
राहुल गाँधी ने नेता प्रतिपक्ष के रूप में लोकसभा में जो अपना पहला भाषण दिया उससे पूरा देश स्तब्ध रह गया. अपने विवादित भाषण द्वारा हिंदुओं को अपमानित और लांछित करके आपराधिक प्रवृत्ति का सिद्ध करने का प्रयास करते हुए हिंसक और नफरत फैलाने वाला बताया, जिससे भारत का बहुसंख्यक हिंदू मर्माहत हुआ. उन्होंने भाषण ऐसे दिया जैसे वह कोई चुनावी रैली संबोधित कर रहे हों. काल्पनिक और झूठी बातों के सहारे उन्होंने अपने भाषण को झूठ का पुलिंदा बना दिया. राहुल गाँधी के व्यक्तित्व को समझते हुए इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए लेकिन नेता विपक्ष का पद एक संवैधानिक पद है जो कांग्रेस को 10 साल बाद नसीब हुआ है क्योंकि 2014 और 2019 में कांग्रेस के पास इतनी सीटें नहीं थी की उसको नेता विपक्ष का पद मिल सकता, इसलिए नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनके भाषण कीं जितनी निंदा की जाय कम है.
अब तक तो पूरी दुनिया यही जानती थी कि हिंदुओं से ज्यादा सहिष्णु अन्य कोई समुदाय इस पृथ्वी पर नहीं है. इसे मानने का सबसे बड़ा कारण है कि उन्होंने कभी हिंसा नहीं की किन्तु पिछले 1500 वर्षों से भी अधिक समय से हिंदू अपने ही देश में हिंसा का शिकार हो रहा है. सातवीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम के सिंध पर आक्रमण के समय से ही, आक्रांताओं ने भारत में हिंसा का जो तांडव मचाया था, वह अब तक रुका नहीं है. हिंदुओं के साथ उस सीमा तक क्रूरता की गई जिसकी आज कल्पना करना भी मुश्किल है. हिंदू स्त्रियों और बच्चों के साथ तो ऐसा अमानवीय व्यवहार किया गया जो विश्व में अब तक न कही देखा गया और न सुना गया. इन कट्टरपंथी आक्रांताओं द्वारा 8 करोड़ से भी अधिक हिंदुओं का वीभत्स कत्लेआम किया गया, जो इस पृथ्वी पर मानव सभ्यता का सबसे बड़ा नरसंहार है. इसके बाद भी यदि ठेके पर आजादी दिलाने वाली पार्टी का कोई नेता हिंदुओं को हिंसक और नफरत फैलाने वाला बताता है तो इसका मतलब है कि वह सत्ता प्राप्त करने के लिए बेचैन है और वह संसद से अपने वोट बैंक को संदेश दे रहा है तथा हिंदुओं पर हुई हिंसा को न्यायोचित ठहरा रहा है. अप्रत्यक्ष रूप से वह हिंदुओं के प्रति हिंसा को उकसा भी रहा है. इसे हिंदू समुदाय को अत्यंत गंभीरता से लेना चाहिये और भविष्य के खतरे के प्रति सावधान हो जाना चाहिए.
सदन के बाहर तो कांग्रेस लंबे समय से हिंदुओं को अपमानित और लांछित करती आ रही है. मुंबई हमलों के समय पकड़े गए आतंकवादी कसाब के हाथ में कलावा मिलना ताकि यदि वह मर जाए तो उसे हिन्दू आतंकवादी बताया जा सके. कांग्रेस के कई बड़े नेताओं द्वारा भगवा आतंकवाद का मुद्दा उछालना, कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा सिंह को झूठे आरोपों में जेल भेज देना, कुछ उदाहरण हैं जिससे साबित होता है कि कांग्रेस मुस्लिम समुदाय को खुश करने के लिए हिंदुओं की बलि चढ़ा सकती है. जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद पहला दंगा राजस्थान में हुआ था. दंगाइयों को पुलिस ने गिरफ्तार किया और सभी दंगाई मुसलमान थे. नेहरू ने फ़ोन करके मुख्यमंत्री से कहा कि दोनों पक्षों यानी हिन्दू और मुसलमानों के बराबर बराबर लोगों को गिरफ्तार करिये तभी आप धर्मनिरपेक्षता का संतुलन बना पाएंगे. कोई सोच सकता है कि देश का प्रधानमंत्री मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए निर्दोष और निरपराध हिंदुओं को भी गिरफ्तार करवाने की बात करता है.
आज भारत में राजनीति सबसे अधिक फायदे का उद्योग है इसलिए हर वह व्यक्ति जो राजनीति में सफल हुआ, वह अपना पूरा घर परिवार इस उद्योग में लगाने की कोशिश करता है. न्यायाधीश, सिविल सेवा और सेना के बड़े अधिकारियों सहित हर कोई राजनीति में उतरने को लालायित रहता है. बड़े बड़े उद्योगपति भी राज्य सभा पहुँचने के अवसर की तलाश में रहते हैं. इसका कारण यह तो बिल्कुल भी नहीं है कि ये सभी देश की सेवा करने के लिए समर्पित है और किसी सदिच्छा से राजनीति में आना चाहते हैं बल्कि इसके पीछे छिपी दौलत, शोहरत और शक्ति ही मुख्य आकर्षण होती है. इसीलिये गाँधी परिवार भी राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश में जुटा है. राहुल गाँधी द्वारा नेता प्रतिपक्ष का पद स्वीकार करने को भी इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है.
राहुल ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर जो भाषण दिया वह झूठ से मालामाल और नाटकीयता से भरपूर था. स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक किसी भी नेता प्रतिपक्ष का भाषण इतना स्तरहीन, हिंदू विरोधी और झूठ पर आधारित नहीं रहा. देश को अपेक्षा थी कि शायद अब कांग्रेस रचनात्मक राजनीति शुरू करेगी ताकि प्रधानमंत्री पद के लिए बार बार लाँच किए जाने वाले राहुल गाँधी को परिपक्व, गंभीर और जिम्मेदार राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित किया जा सकेगा. दुर्भाग्य से कांग्रेस पिछली बार 52 सीटों की तुलना में अबकी बार जीती 99 सीटों को अपनी जीत समझने लगी है.
राहुल गाँधी ने अपने भाषण में एक नहीं अनेक झूठ बोले. अग्निवीर पर उनके बोले गए एक झूठ का रक्षा मंत्री ने खंडन भी किया लेकिन वह अपनी बात पर कायम रहे. उसके बाद उस शहीद अग्निवीर के पिता का एक वीडियो दिखाते हुए राहुल ने सरकार और रक्षा मंत्री पर झूठ बोलने का आरोप लगाया लेकिन जब शहीद के पिता और बहन ने राहुल के बयान का खंडन किया तो उनके झूठ का पर्दाफाश हो गया. सदन के अंदर उन्होंने चुनावी रैली की तर्ज पर भाषण दिया और अपने सांसदों को झूठी बातों पर मेजें थपथपाने के लिए प्रोत्साहित किया. यद्यपि उनके भाषण के विवादित अंश निकाल दिए गए हैं लेकिन सीधा प्रसारण होने के कारण, उन्हें अपने वोट बैंक को जो संदेश देना था, वह चला गया और भारतीय लोकतंत्र का जो नुकसान होना था, वह भी हो गया, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती. प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान भी राहुल गाँधी अपने सांसदों को हंगामा मचाने के लिए उकसाते देखे गए. नेता प्रतिपक्ष द्वारा की गई इस तरह की असंसदीय और अशोभनीय हरकत भी पहली बार हुई है.
राहुल गाँधी की असली चुनौतियां अब शुरू हुई हैं. अब तक तो वही बिना किसी दलीय और संवैधानिक उत्तरदायित्व के कहीं भी कुछ भी बोलकर निकल जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं चल सकता. उनके ऊपर देश की विभिन्न अदालतों में गलत बयानी, मान हानि, आदि से संबंधित अनेक मुकदमे लंबित हैं. एक मुकदमे में उनको दो साल की सजा भी हो चुकी है जिसमें उनकी संसद सदस्यता भी रद्द हो गई थी. भ्रष्टाचार के एक मामले में वह जमानत पर हैं. यदि संविधान की प्रति लहराने वाला भी लोकतंत्र के प्रति गंभीर नहीं होगा तो तो इस देश का क्या होगा.
2014 में जनता द्वारा नकार दिए जाने के बाद भी कांग्रेस को उम्मीद थी कि अस्थिरता और गठबंधन की राजनीति के इस दौर में वह भाजपा पर सांप्रदायिक और हिंदूवादी होने का ठप्पा लगा कर अलग थलग कर देगी और पुनः आसानी से सत्ता प्राप्त कर लेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 2019 में फिर एक बार मोदी सरकार बन गई, जिससे 10 साल तक सत्ता से दूरी की असहनीय पीड़ा से व्याकुल कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्ता हथियाने के लिए नए नए हथकंडे इस्तेमाल किये. राहुल गाँधी के विदेशी दौरों में भी सनातन संस्कृति और हिंदू धर्म के अपमान करने का अनेक उदाहरण है. इस्लामिक-वामपंथ गठजोड़ के प्रभाव वाले संगठनों ने उनकी सभाएं प्रयोजित की गयी और भारत विरोधी झूठे विमर्श गढे गए. लोकसभा चुनाव के दौरान भी संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने का झूठा विमर्श बनाया गया, जिसे भारत विरोधी विदेशी शक्तियों के सहयोग से प्रचारित-प्रसारित किया गया. जाति जनगणना करवाने और संपन्न लोगों का धन गरीबों में बांटने का विमर्श चलाकर हिन्दुओं को बांटने का प्रयास किया गया. पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक एकता का अभिनव प्रयोग किया गया, जो वास्तव में पीएफआई का गज़वा ए हिंद के माध्यम से भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने का अजेंडा है.
सभी देशवासियों को विशेषतया हिंदुओं को देश विरोधी और झूठ के इन कारोबारियों से सावधान रहने की ही नहीं, उन्हें मुंहतोड़ जबाब देने की आवश्यकता है. हिंदुओं को आपसी एकता बनाकर और अपने इतिहास से सीख लेकर धर्म और संस्कृति बचाने के हर संभव प्रयास करने चाहिए ताकि इतिहास दोहराया न जा सके क्योंकि दिन प्रति दिन खतरा बढ़ता जा रहा है.
~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~
पीडीए ही ..पीएफआई का एजेंडा है
कुछ राजनैतिक दलों के चुनाव जीतने का और पीएफआई के भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने का एजेंडा एक क्यों है ? उप्र बना पीएफआई की प्रयोगशाला ….. पीडीए ही ..पीएफआई का एजेंडा है .
केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बन चुकी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल का स्वरूप काफी कुछ पहले जैसा ही है क्योंकि प्रमुख मंत्रालय पुराने मंत्रियों के पास ही हैं जिससे सरकारी नीतियों की निरंतरता बने रहने का राष्ट्रीय विश्वास बना रह सकेगा. इसके पहले कांग्रेस द्वारा भ्रम फैलाने की कोशिश की गई कि चुनाव का जनादेश मोदी के विरुद्ध है, इसलिए उन्हें सरकार बनाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है और बैशाखियों पर टिकी मोदी सरकार पर तेलुगूदेशम और जेडीयू द्वारा लोकसभा अध्यक्ष के साथ साथ प्रमुख मंत्रालय दिए जाने का दबाव है. इसलिए अंतर्विरोधों से घिरी यह सरकार जल्द ही गिर जाएगी. मंत्रालयों को लेकर सरकार के दो बड़े सहयोगी दलों तेलुगु देशम और जनता दल यूनाइटेड के साथ किसी भी तरह का गतिरोध देखने को नहीं मिला. लोकसभा अध्यक्ष पद पर ओम बिड़ला के पुन: चुने जाने के बाद कांग्रेस के दुष्प्रचार का भी अंत हो गया.
अठारहवीं लोकसभा में शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेसी और इंडी गठबंधन के सदस्य हाथ में संविधान की प्रति लहराते हुए पहुंचे लेकिन जब लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने के तुरंत बाद ओम बिड़ला ने श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा 1975 में आपातकाल लगाने और पूरे विपक्ष सहित हजारों निरपराध और निर्दोष देश वासियों को जेल में डालने, प्रेस तथा न्यायपालिका को बंधक बनाने के लिए आपातकाल को देश के लोकतंत्र में काला अध्याय बताया, पूरा माहौल बदल गया. एक निंदा प्रस्ताव पारित किया गया और आपातकाल के दौरान मारे गए लोगों के प्रति 2 मिनट का मौन भी रखा गया. इससे बात बात में संविधान की कॉपी लहराने वाले कांग्रेसियों की स्थिति बहुत असहज हो गई और वे शोर मचाते हुए सदन से बाहर चले गए लेकिन कांग्रेस के वर्तमान सहयोगी दल सदन में बने रहें, जिनके नेता भी आपातकाल के दौरान जेल गए थे और यातनाओं का शिकार हुए थे. आपातकाल की इस 50वीं सालगिरह के अवसर पर भाजपा ने देशभर में विरोध प्रदर्शन कर लोगों को आपात काल की याद दिलाई. राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने भी अपने अभिभाषण में आपातकाल पर कड़ा प्रहार करते हुए इंदिरा गाँधी की तत्कालीन सरकार को कटघरे में खड़ा किया.
इस बार लोकसभा चुनाव का परिणाम कुछ ऐसा है कि भाजपा जीतकर भी खुश नहीं हैं और कांग्रेस हार कर भी बहुत खुश है. कांग्रेस की खुशी का कारण है उसके लोकसभा सांसदों की संख्या 2019 में 52 से बढ़कर 2024 में 99 हो जाना और राहुल गाँधी का रायबरेली और वायनाड दोनों जगह से विजयी हो जाना है. कांग्रेस के सांसदों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है इसलिए उसे लगता है कि जनता ने कांग्रेस को सरकार बनाने का जनादेश दिया है. ऐसा सोचने के पीछे कारण है कि कांग्रेस गठबंधन की संख्या 234 है यदि कांग्रेस के 38 सांसद और चुने गए होते या 38 दलों का समर्थन मिल जाता तो वह सरकार बना सकती थी. अतीत में ऐसा हुआ भी है, जब 2004 में कांग्रेस के 145 सांसद चुने गए थे और भारतीय जनता पार्टी के 138 लेकिन कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही थी. यद्यपि पिछले 45 वर्षों में कांग्रेस केवल दो बार अपने दम पर बहुमत पा सकी है. पहली बार 1980 में घटक दलों के आपसी टकराव के कारण जनता सरकार के पतन के बाद इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में और दूसरी बार 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सहानुभूति बटोरने के उद्देश्य से समय पूर्व चुनाव करवाने के कारण. भ्रष्टाचार और कांग्रेस का चोली दामन का साथ होने के कारण 1989 में राजीव गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस 197 पर सिमट गई और उसके बाद तो बहुमत पाने के लिए जैसे कांग्रेस की भाग्य रेखा ही मिट गई. 1991 में राजीव गाँधी की हत्या की सहानुभूति के बाद भी कांग्रेस 232 सीटें ही जीत सकी. 1996 में 140, 1998 में 141, 1999 में 114, 2004 में 145, 2009 में 206, 2014 में 44 और 2019 में 52 के बाद 2024 में कांग्रेस 99 सीटों का आंकड़ा छू सकी है. यद्यपि पिछले 15 सालों से कांग्रेस 100 का आंकड़ा भी पार नहीं कर सकी है, लेकिन 99 सीट पर पहुँच जाने हैं को कांग्रेस राहुल की बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर राहुल को कांग्रेस और विपक्ष का सर्वमान्य नेता स्थापित करना चाहती है. इसलिए कृत्रिम रूप से खुशनुमा माहौल बनाया गया है ताकि पार्टी में बिखराव और नेताओं का पलायन रोका जा सके और सहयोगी दलों को भी रखा जा सके.
मोदी सरकार का वर्तमान स्वरूप भले ही पहले जैसा हो लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने दम पर बहुमत न पाने वाली भाजपा को नीतिगत निर्णयों में पहली जैसी शक्ति ओर स्वतंत्रता नहीं होगी. उसे हर महत्वपूर्ण मामले में सहयोगियों को विश्वास में लेना होगा. जातिगत जनगणना और मुस्लिम आरक्षण पर सहयोगी दलों के साथ मतभेद स्पष्ट है, किंतु समान नागरिक संहिता, जनसंख्या कानून, वक्फ बोर्ड, पूजा स्थल कानून आदि पर सहयोगियों को साथ ले पाना मुश्किल ही नहीं असंभव लगता है. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और हरियाणा में अपेक्षित सफलता न मिलने की कसक भाजपा को लंबे समय तक टीसती रहेगी. यदि शीघ्र ही असफलता के कारणों की पहचान और उनका निराकरण नहीं किया गया तो महाराष्ट्र, हरियाणा, बिहार और झारखण्ड के आगामी विधानसभा चुनावों में भी लोकसभा चुनाव की प्रतिछाया दिखाई पड़ सकती है जिससे भाजपा को दीर्घकालिक नुकसान की संभावना बनी रहेंगी.
उत्तर प्रदेश का मामला सभी राज्यों से सर्वथा अलग है जहाँ भाजपा को सबसे अधिक नुकसान हुआ है. योगी आदित्यनाथ की हिंदूवादी और कट्टर राष्ट्रवादी छवि, बेहतर कानून व्यवस्था, काशी तथा अयोध्या के विकास और 500 वर्षों के संघर्ष के बाद राम मंदिर निर्माण के बावजूद भाजपा का दयनीय प्रदर्शन क्यों रहां, इस पर ईमानदारी और गंभीरता से चिंतन की आवश्यकता है. यद्यपि भाजपा प्रत्येक संसदीय क्षेत्र की समीक्षा कर रही है लेकिन स्थानीय नेताओं द्वारा लीपापोती के जो प्रयास हो रहे हैं, उससे असली कारण पता चल सकेंगे, इसकी संभावना बहुत कम है. यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की दुर्दशा के लिए स्थानीय नेताओं की भूमिका, कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता, संघ की उदासीनता और प्रतिबद्ध समर्थकों की नाराज़गी जिम्मेदार है. भाजपा नेतृत्व द्वारा मुस्लिमों विशेषतय: पसमांदा मुस्लिमों को रिझाने के लिए किए गए अनेक प्रयास और तदनुसार उन पर बढ़ता वोट-विश्वास का भ्रम भी भाजपा के निराशाजनक प्रदर्शन का एक बहुत बड़ा कारण है, क्योंकि इससे अंधभक्त कहे जाने वाले भाजपा के प्रतिबद्ध समर्थक नाराज हो गए. चुनाव परिणामों के विश्लेषण से भाजपा का यह भ्रम जितनी जल्दी दूर हो जाए, अच्छा है.
उत्तर प्रदेश, जहाँ कभी भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग की बदौलत उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की थी, आज हिंदू एकता तोड़ने, जातीय विषमता बढ़ाने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का प्रयोगशाला बन गया है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय संगठनों की सक्रियता और आर्थिक सहायता का बहुत बड़ा योगदान है. इसलिए प्रदेश के राजनीतिक वातावरण की सघन छानबीन और सूक्ष्म विश्लेषण की भी अत्यंत आवश्यकता है. प्रदेश में पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (केवल मुस्लिम पढ़े) एकता, का पहला परीक्षण बेहद सफल रहा है. इसे मात्र चुनाव जीतने का प्रयोग समझना भारी भूल होगी. वास्तव में उत्तर प्रदेश और बिहार में लंबे समय से इस पर काम किया जा रहा है, जिसकी पुष्टि पीएफआई के ठिकानों पर छापेमारी के दौरान बरामद किए गए दस्तावेज़ों से होती है. कई राजनैतिक दल मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कुख्यात हैं, किंतु उनका उद्देश्य किसी भी तरह सत्ता प्राप्त करना रहा है लेकिन अब यह बहुउद्देशीय परियोजना बन गया है, जिसका लाभ राजनीतिक दलों के अतरिक्त राष्ट्रान्त्रण में लगे देश विरोधी, कट्टरपंथी सांप्रदायिक शक्तिओं को भी होगा क्योंकि इससे उनका अंतिम उद्देश्य पूरा हो सकेगा.
यह आवश्यक है कि भाजपा को केवल चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि देश का वर्तमान धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बनाए रखने और देश की एकता और अखंडता की रक्षा के लिये हिंदू समाज की एकता तोड़ने के बृहद षड्यंत्र को सख्ती से कुचलना चाहिए. इसके लिए सभी राष्ट्रवादी शक्तिओं का सहयोग भी अत्यंत आवश्यक है.
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असदुद्दीन ओवैसी ने संसद में की राष्ट्रविरोधी हरकत : भाजपा का विरोध पर हाथ में संविधान लेकर बैठा राहुल सहित पूरा विपक्ष रहा शांत
इस समय संसद का विशेष सत्र चल रहा है जिसमें नए चुने गए सांसद सदस्यता की शपथ ले रहे हैं. ओवैसी ने विस्मिल्लाह कहते हुए उर्दू में शपथ ली और इसके बाद जय भीम, जय मीम, जय तेलंगाना, जय फ़िलिस्तीन कहा. ध्यान देने की बात है कि उन्होंने जयहिंद नहीं कहा. इस पर भाजपा सांसदों ने विरोध किया लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्षी खेमे से विरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं पड़ा.
हैदराबाद से पांचवीं बार सांसद चुने गए ओवैसी एआईएमआईएम यानी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष हैं. उनके इस व्यवहार से इस बात की पुष्टि होती है कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान होता है . किसी भी देश के प्रति उसकी निष्ठा नहीं, किसी भी समुदाय के प्रति सहिष्णुता नहीं. उसे केवल और केवल मुस्लिम बिरादरी की चिंता होती है और उसके हाथ में केवल इस्लाम का झंडा होता है.
नेहरू ने वोट बैंक की जो फसल बोई थी, आज वह हर राजनीतिक दल की पहली पसंद है और उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त है. उनकी उद्दंडता और आक्रामकता का आलम यह है कि वह देश विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं या उसमें संलग्न होते हैं तो भी ज़्यादातर राजनीतिक दल उनके समर्थन में खड़े होते हैं. उन्हें मिले विशेषाधिकार की आढ में भारत में गज़वा ए हिंद की योजना पर तेजी से काम हो रहा है. लैंड जिहाद, लव जिहाद, अवैध घुसपैठ और धर्मांतरण के सहारे वे जल्दी से जल्दी भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की जुगत में है.
फ़िलिस्तीन के मामले में भारत का पक्ष बिल्कुल स्पष्ट है. भारत फ़िलिस्तीन की संप्रभुता का पक्षधर है लेकिन वह आतंकवाद के साथ भी खड़ा नहीं हो सकता. अभी हाल ही में फ़िलिस्तीनी आतंकवादी संगठन हमास के आतंकवादियों ने इजरायल में घुसकर अनेक निरपराध इजरायली नागरिको को मार डाला था. अनेक लोगों का अपहरण कर अपने साथ ले गए थे. गाजा पट्टी में इजरायल के सैनिक अभियान का एकमात्र यही कारण है. विमर्श बनाने में माहिर इस्लामिक बिरादरी पूरे विश्व में इजराइल को आक्रमणकारी और आतंकवादी साबित करके फिलिस्तीनियों के पक्ष में विक्टिम कार्ड खेल रही हैं. उन्होंने हमास के कुकृत्य की निंदा नहीं की, बल्कि वे सभी हमास के साथ खड़े हैं. वे न केवल हमास का उत्साहवर्धन कर रहे हैं बल्कि पूरे विश्व से उन्हें हर तरह की सहूलियतें उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहे हैं. युद्धविराम की मांग की जा रही है लेकिन दुनिया का कोई भी मुसलमान हमास से यह नहीं कह रहा है कि वह अपहरण किए गए इजरायली नागरिक को तुरंत रिहा कर दे. यही इस्लामिक कुटिलता है, जिसे मुस्लिम भाईचारा या उम्मा कहा जाता है. आज संसद में ओवैसी द्वारा जय फ़िलिस्तीन का नारा लगाना, देश विरोधी होने के साथ साथ यह प्रदर्शित करता है कि उनका प्रेम भारत से कहीं अधिक फ़िलिस्तीन के प्रति है और उनकी स्वामिभक्ति अपने देश के प्रति नहीं, इस्लाम और इस्लामिक राष्ट्र के प्रति है.
- आपको मालूम होगा कि आजादी के पहले हैदराबाद में निजाम की छत्रछाया में हिंदुओं का नरसंहार करने और डरा धमकाकर उनका धर्मांतरण करवाने के लिए रजाकार संगठन नाम से एक आतंकवादी संगठन तैयार किया गया था. मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन यानी एमआईएम नाम से एक राजनैतिक संगठन भी बनाया गया था जिसका उद्देश्य था हैदराबाद को इस्लामिक राष्ट्र बनाना और इसके लिए भारत सरकार का विरोध करते हुए राजनीतिक माहौल तैयार करना. सरदार वल्लभभाई पटेल के निर्देश पर हैदराबाद में हुए ऑपरेशन पोलो के बाद हैदराबाद का भारत में विलय हो गया था. रजाकार संगठन और मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और इसके नेताओं को जेल में डाल दिया गया था. 1957 में नेहरू ने जेल में बंद इन संगठनों के नेताओं को आजाद कर दिया था और एमआईएम से प्रतिबंध भी हटा लिया था. नेहरू की कृपा से इसी मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन के आगे ऑल इंडिया जोड़कर ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम बना दिया गया था, जिसकी अध्यक्षता ओवैसी के बाबा अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपी गई थी. बाबा के बाद ओवैसी के पिता सलाहुद्दीन ओवैसी और उनके बाद स्वयं असदुद्दीन ओवैसी इस पार्टी के अध्यक्ष बने.
पूरे देश में घूम घूमकर मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर चुनाव लड़ने वाले ओवैसी मुस्लिम आक्रांताओं को अपना पूर्वज बताते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं, सम्मान व्यक्त करते हैं और हमेशा उनकी प्रशंसा भी करते हैं. यह समझना मुश्किल नहीं है कि उनका व्यवहार जिन्ना से कम नहीं है. कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल ओवैसी की राष्ट्र विरोधी हरकतों को नजरंदाज करते हैं. ओवैसी का कवच बनते हुए उन्हें भाजपा की बी टीम बताते हैं. देश के साथ इससे अधिक धोखाधड़ी और क्या हो सकती हैं.
इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक है कि क्या कोई विधायक, सांसद या संवैधानिक पद के लिए चुना गया व्यक्ति सार्वजनिक रूप से देश के प्रति अनादर और दूसरे देश के प्रति स्वामिभक्ति प्रदर्शित कर सकता है.
जब यह कुकृत्य देश की सर्वोच्च संस्था संसद में की जाए तो इससे बड़ा पाप और अपराध क्या हो सकता है?
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