शाह कमीशन की रिपोर्ट की मांग
भारतीय जनता
पार्टी के सांसद दीपक प्रकाश ने शून्यकाल में शाह कमीशन की रिपोर्ट को प्राप्त कर
सदन के पटल पर रखने का अनुरोध किया राज्य
सभा के सभापति जगदीप धनकड़ से किया. उपराष्ट्रपति ने सरकार को निर्देश दिया है कि वह साह कमीशन की रिपोर्ट
प्राप्त करने के विषय में विचार करें और उसकी एक कॉपी सदन के पटल पर रखें ताकि
राज्यसभा के सांसद उस रिपोर्ट से लाभान्वित हो सके.
क्या है ये शाह कमीशन की रिपोर्ट और क्यों अब 44 साल पुरानी इस
रिपोर्ट को मांग जा रहा है?
1975 में
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश में आपात स्थिति लगाकर लोकतंत्र समाप्त कर दिया था और
जनसामान्य पर भारी ज्यादतियां की गई थी। इसके परिणाम स्वरूप आपातकाल के बाद जब
चुनाव हुए तो कांग्रेस को भारी पराजय का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी की सरकार
सत्ता में आई जिसने 24 मई 1977 को कार्यभार सम्भाला. जनता सरकार ने 28 मई 1977 को आपातकाल के दौरान
हुई ज्यादतियों की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया जिसके अध्यक्ष सर्वोच्च
न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे सी शाह थे जिन्हें अपनी रिपोर्ट 31 दिसंबर तक देना था
इसके बाद उनको रिपोर्ट सबमिट करने के लिए जून 1978 तक का समय दिया गया यद्यपि
जस्टिस शाह से कहा गया था कि वह अपना काम जल्दी से जल्दी निपटाने के लिए कहा गया था
ताकि देश के सामने तथ्य रखे जा सके लेकिन आयोग ने सितंबर में अपना काम शुरू किया
तमाम लोग प्रमाण सहित आयोग के सामने पेश हुए. इंदिरा गाँधी को भी आयोग के सामने
पेश होना था लेकिन उन्होंने किसी भी तरह का बयान देने से मना कर दिया . न्यायमूर्ति
शाह ने भी संदर्भ दिया है कि इंदिरा गाँधी ने जांच रिपोर्ट बनाने में कोई भी सहयोग
नहीं किया इंदिरा गाँधी ने तो अपनी शैली के अनुरूप शाह आयोग के गठन को अपने
विरुद्ध जनता सरकार द्वारा की जा रही ज्यादती के रूप में प्रस्तुत किया. इंदिरा
गाँधी को पहले गिरफ्तार किया और कांग्रेस पार्टी द्वारा की गई ड्रामेबाजी और
विक्टिम कार्ड खेलने के बाद इंदिरा गाँधी को छोड़ दिया गया. shah कमीशन की रिपोर्ट
में इस बात का जिक्र है कि इंदिरा गाँधी और प्रणब मुखर्जी दोनों ने शपथ पत्र देकर
कुछ भी कहने से इनकार कर दिया था और इस कारण बाद में सह आयोग ने जब अवमानना दाखिल
की तो मजिस्ट्रेट ने इसे खारिज कर दिया.
आयोग ने 525
पन्नों वाली अपनी रिपोर्ट का प्रकाशन तीन खंडों में किया. पहली रिपोर्ट मार्च 78
को सौंपी गई जिसमें इमरजेंसी लगाने प्रेस को अपनी बात कहने नागरिको की बोलने की
स्वतंत्रता के अधिकार का हरण करके सम्बन्धी बहुत सी बातें इस रिपोर्ट में है.
दूसरे खंड में संजय गाँधी द्वारा तुर्कमान गेट पर हुई घटनाओं का जिक्र है और उसमें
पुलिस ज्यादतियों का विस्तृत वर्णन है तुर्कमान गेट पर संजय गाँधी के निर्देश पर
अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोजर चलाया गया था और अपने घर तोड़े जाने के विरोध में
लोगों ने प्रदर्शन किया था. आयोग की अंतिम रिपोर्ट 6 अगस्त 1978 को प्रकाशित हुई
जिसमे जेल में बंद राजनेताओं और सामान्य जनता पर हुई ज्यादतियों और परिवार नियोजन
में हुए अनेक गड़बड़ियों का जिक्र है.
शाह आयोग कीरिपोर्ट
का सारांश ये है कि देश में ऐसी कोई स्थिति नहीं थी जो सरकार को आपात स्थिति लगाने
को मजबूर करती है। न तो आर्थिक और न ही
कानून व्यवस्था की स्थिति इतनी खराब थी कि ये निर्णय लेना पड़ता है। आयोग ने यह भी पाया कि आपातकाल लगाने का निर्णय
केवल इंदिरा गाँधी ने लिया था और उन्होंने इसके लिए अपने कैबिनेट सहयोगियों से भी
राय मशविरा तक नहीं किया था. शाह आयोग की रिपोर्ट में जिन लोगों को आपातकाल की
दौरान ज्यादतियां करने का दोषी पाया गया था उसमें इंदिरा गाँधी के अतिरिक्त संजय
गाँधी, प्रणब मुखर्जी, बंशीलाल, कमल नाथ और सिविल सेवा के कई अधिकारी भी शामिल थे।
शाह आयोग ने यह भी कहा कि आपातकाल के
दौरान अपने राजनैतिक विरोधियो को नेस्तनाबूद करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून
का भयंकर दुरुपयोग किया गया था । आयोग ने
यह भी लिखा है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने संजय गाँधी और
प्रधानमंत्री कार्यालय और उनके सहयोगियों द्वारा दिए गए आदेशों को मानकर कार्य
किया यद्यपि वे जानते थे कि ऐसा करना उचित नहीं है। प्रशासनिक अधिकारियों ने तथ्यों से छेड़छाड़ की और
सामान्य जनता और राजनेताओं का गिरफ्तार करने और उन पर ज्यादतियां करने के लिए झूठे प्रमाण बनाए
। आयोग ने लिखा है कि इन अधिकारियों ने
ऐसा इसलिए किया ताकि वो अपने करियर में काफी आगे जा सके और यह बात सही साबित हुई
क्योंकि इन सभी अधिकारियों का करियर ग्राफ कांग्रेस के शासन में बहुत तेजी से बढ़ा।
आयोग की रिपोर्ट
आने के बाद जनता सरकार के कुछ मंत्रियों ने मांग की थी की इन्दिरा गाँधी पर मुकदमा
चलाए जाने के लिए विशेष अदालत का गठन किया जाए और इस तरह से संसद में 8 मई 1979 को
स्पेशल विशेष अदालत का गठन किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि जनता
सरकार 16 जुलाई 1979 को गिर गई. इसके बाद हुए चुनाव में इंदिरा गाँधी की भारी जीत
हुई और वह लौटकर सत्ता में वापस आ गई. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के
अनुरोध पर यह फैसला दिया था कि आयोग का
गठन कानूनी तौर पर सही नहीं था और इसके बाद शाह आयोग ने जिन अधिकारियों को गलत काम करने के लिए
चिन्हित किया था उनके विरुद्ध भी कोई कार्रवाई नहीं हुई बल्कि उनका करियर बेहद
शानदार हो गया.
पुनः
प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गाँधी ने शाह आयोग की रिपोर्ट की सभी प्रतिलिपियाँ जहाँ कहीं भी थी मँगा
कर नष्ट कर दिया लेकिन भारत के एक सांसद
के पास एक प्रति बच गई थी जिसे उन्होंने किताब के रूप में छपवाया और उसका नाम दिया
शाह कमीशन रिपोर्ट लॉस्ट एंड रिग्रेट जिसकी एक प्रति नेशनल लाइब्रेरी ऑफ
ऑस्ट्रेलिया के पास है.
इसलिए भाजपा
सांसद ने यह मांग कि आयोग की रिपोर्ट की जो प्रति नेशनल लाइब्रेरी ऑफ ऑस्ट्रेलिया
के पास है उसकी एक प्रति भारत मंगाकर सदन के पटल पर रखा जाए जिसके लिए
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आदेश पारित कर दिया है.
कांग्रेस और
उसके सहयोगी दलों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उन्होंने कहा की इंदिरा
गाँधी ने तो आपात काल के लिए देश की जनता से माफी मांग ली थी लेकिन मोदी सरकार
पिछले 10 साल से अघोषित आपातकाल लगाए हुए हैं ओर सभी राजनैतिक दलों के नेताओं के
विरुद्ध भ्रष्टाचार के झूठे मामले बना रही है और इसके लिए सीबीआई ईडी और आयकर
एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है. यद्यपि यह सब कहने वाले वही लोग हैं जो
किसी न किसी भ्रष्टाचार के मामले में बुरी तरह से फंसे हुए हैं और और सरकार ने इन
एजेंसियों का दुरुपयोग भले ही किया हो लेकिन जनता अच्छी तरह से जानती है कि ये लोग
भ्रष्ट हैं और उन्होंने भ्रष्टाचार किया हुआ है । सच बात तो यह है कि ये सभी भ्रष्टाचार
करने के लिए ही राजनीति में हैं। कांग्रेस
के कुछ खलिहर टाइप नेता मतलब हैं जिनके पास कोई कामधाम नहीं लेकिन गाँधी परिवार के प्रति स्वामिभक्ति
के कारण पार्टी में उनका अस्तित्व है।
कुछ अपने विवादित बयानों के जरिये भी याद दिलाते
रहते हैं कि वे अभी भी हैं. ऐसे ही एक
व्यक्ति है राशिद अल्वी उन्होंने कहा कि आपातकाल पर शाह आयोग की रिपोर्ट छोड़ कर मोदी सरकार को अपने 10
साल की रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए जिसमें उन्होंने अघोषित आपातकाल लगा रखा है.
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