शनिवार, 22 जून 2024

मोदी ने रोका भाजपा का रथ

 

नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री बन कर जवाहर लाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली किन्तु वह ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो कई मामलों में नेहरू से भी बहुत आगे है. प्रधानमंत्री बनने के पहले वह गुजरात में तीन बार मुख्यमंत्री भी रह चुकें हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा को उनकी बदौलत ही 2014 में केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का सुअवसर मिला. 2019 में 303 सांसदों के साथ पहले से ज्यादा बहुमत पाकर सरकार बनाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. उनके कार्यकाल में ही भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनी. 2024 में भी किसी को कोई संदेह नहीं था मोदी के नेतृत्व में भाजपा अकेले दम पर बहुमत प्राप्त नहीं कर सकेगी. प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में अबकी बार चार सौ के पार का नारा देकर विपक्ष में घबराहट उत्पन्न कर दी. मनोवैज्ञानिक रूप से चुनाव हार चुके विपक्ष ने भी ये मान लिया था कि आएगा तो मोदी ही, लेकिन सात चरणों के लंबे, उबाऊ और प्रतिकूल मौसम में हुए चुनाव ने भाजपा का रथ रोक दिया. वह अकेले अपने दम पर बहुमत का आवश्यक 272 का आंकड़ा भी पार नहीं कर सकी, यद्दपि वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगियों के साथ बहुमत पाकर सरकार बनाने में सफल हो गयी.

देश के लिए चिंतित मोदी और भाजपा समर्थक समेत अनेक चिंतक इन विचारों में उलझे हैं कि क्या मोदी अपने बाद भाजपा को पुरानी स्थिति में वापस भेज देना चाहते हैं.

मोदी इतिहास में अपने को युग पुरुष सिद्ध करने या अपने को अतुलनीय बनाने के लिए भाजपा का अहित करेंगे, यह मानने का कोई कारण नहीं है इसलिए इसे स्वीकार्य भी नहीं किया जा सकता है लेकिन, मोदी की जो छवि है, उसकी बराबरी कर सके ऐसा कोई भी नेता भाजपा में दिखाई नहीं पड़ता. उनका कोई उत्तराधिकारी भी दिखाई नहीं पड़ता. सरकार और पार्टी में मोदी का निर्णय ही अंतिम निर्णय होता है. गृहमंत्री अमित शाह के अलावा अन्य कोई नेता उनके बहुत करीब है, ऐसा प्रथम द्रष्टया लगता नहीं. इसलिए प्रायः पार्टी के अंदर से लेकर विपक्ष तक चर्चा शुरू हो जाती है कि केवल दो व्यक्ति ही भाजपा और सरकार को चला रहे हैं. पार्टी के सभी मुख्यमंत्रियों और नेताओं का अपने प्रधानमंत्री को यशस्वी बताना और सभी उपलब्धियों का श्रेय देना अच्छा तो है लेकिन ये बहुत असामान्य लगता है और उनके अन्दर की घबराहट को रेखांकित करता है. 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरयाणा और पश्चिम बंगाल में अपना पिछला प्रदर्शन नहीं दोहरा सकी. इन राज्यों में सीटों की संख्या में इतनी अधिक गिरावट आई कि उसे ओडिशा, तेलंगाना आंध्र प्रदेश में मिली उत्कृष्ट सफलता भी पूरा नहीं कर सकी. 240 सांसदों तक सिमटी भाजपा सरकार बनाने के लिए सहयोगी दलों पर निर्भर हो गई. ऐसे में वर्तमान कार्यकाल में मोदी से किसी क्रांतिकारी परिवर्तन वाले कानून यथा समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण, वक्फ बोर्ड, पूजा स्थल कानून, घुसपैठियों की निकासी, नागरिको का राष्ट्रीय रजिस्टर आदि की अपेक्षा करना बेमानी होगी.

  1. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निजी जीवन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहा और शायद इसलिए वह समाजसेवा की भावना से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े. संघ में भी उन्होंने समर्पण और कर्तव्यपरायणता का उदाहरण प्रस्तुत किया. संघ से भाजपा के संगठन में आकर भी अपनी उपयोगिता सिद्ध की. यह उनकी संगठनात्मक क्षमता का ही प्रमाण है कि उन्हें बिना किसी पूर्व अनुभव या विधायक बने सीधे गुजरात का मुख्यमंत्री बना दिया गया. मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने अनेक विकासपूरक योजनाएं चलाई. पूरे देश में विकास के इस स्वरूप को गुजरात मॉडल नाम दिया गया. एक दुर्भाग्यपूर्ण मानव निर्मित सांप्रदायिक घटना घटी जिसमे अयोध्या में रामलला के दर्शन करके लौटे 59 श्रद्धालुओं को गोधरा स्टेशन के पास रेल की बोगी में आग लगा कर जिंदा जला दिया गया. इसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे जिसमे मुसलमानों के साथ साथ बड़ी संख्या में हिंदू भी मारे गए लेकिन यह विमर्श बनाने की कोशिश की गई कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार किया गया है. तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले विपक्ष द्वारा मोदी को दोषी ठहराया जाने लगा. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी मोदी को राजधर्म पालन करने की सलाह दी. इसके बाद पार्टी के अंदर उन्हें पद से हटाए जाने की मुहिम तेज हो गई. हिंदू जनमत के दबाव में उन्हें पद से नहीं हटाया जा सका. यहीं से उनकी हिंदूवादी छवि का निर्माण हुआ. अपनी इसी छवि के कारण कालान्तर में वह पार्टी के प्रधानमंत्री चेहरा बनाए गए. कट्टर हिंदूवादी छवि और अच्छे दिन आने की आश में हिंदुओं ने एक मुस्त वोट देकर, मोदी के नाम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनवाई.  

प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने कट्टर हिंदूवादी छवि से निकलने का प्रयास शुरू कर दिया. “सबका साथ सबका विकास” तक ठीक रहा लेकिन जैसे ही इसमें सब का विश्वास जुड़ा, हिंदुओं के प्रति उनका व्योहार उदासीन होता गया. भाजपा नेताओं के साथ एक समस्या है कि जैसे जैसे उनका कद बढ़ता है, वह लोकप्रिय और इतिहास पुरुष बनने के लिए धर्मनिरपेक्षता की राह पर निकल पड़ते हैं और हिंदुओं का उसी तरह अनदेखा करते हैं जैसे कांग्रेस करती है. अटल जी के बारे में कहा जाता है कि वह कांग्रेसियों से भी बड़े नेहरूवियन थे. मोदी भी उसी राह पर चल पड़े ओर मुस्लिम देशों के राष्ट्रीय सम्मान और पुरस्कार मिलने के बाद तो उन्होंने बहाबी, सूफी और पसमांदा सम्मेलन आयोजित करने शुरू कर दिए. मदरसों के छात्रों के एक हाथ में कुरान और दूसरे में लैपटॉप देने के प्रयास में उन्होंने जितना बजटीय आवंटन किया, उतना स्वतंत्र भारत के किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया. उन्हें भ्रम था कि मुसलमान उन्हें वोट देंगे जो लोकसभा के इन चुनाव में संभवता दूर हो गया होगा.

धारा 370 हटाने, अयोध्या में राम मंदिर बनाने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाने, संशोधित नागरिकता कानून बनाने, देश को आतंकवादी घटनाओं से मुक्त करने जैसे अनेक साहसिक कार्य मोदी सरकार ने किये जिसके लिए हर राष्ट्रवादी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकता, लेकिन शायद मोदी और भाजपा हिन्दुओं के इतने बड़े समर्थन की थाती संभाल नहीं सके. अधिकांश राष्ट्रवादी व्यक्ति निजी लाभ की अपेक्षा राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हैं लेकिन अगर हिन्दू हितों को अनदेखा करके तुष्टीकरण के लिए सनातन और राष्ट्रविरोधी समुदाय पर राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी पर यह वर्ग मोदी या भाजपा के साथ खड़ा नहीं रह सकता. इन चुनावों में यही देखने को मिला.

दो कार्यकाल का 10 वर्ष का समय देश और समाज के लिए जोखिम पूर्ण साहसिक कार्य करने के लिए कम नहीं होता लेकिन वह हिंदू समुदाय की पीड़ा भी भूल गए और उनको दिए गए आश्वासन भी. गज़वा-ए-हिंद का खतरा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है लेकिन वह विकास की ढफली बजाते हुए 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना बेच रहे हैं. पीएफआई 2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की योजना पर तेजी काम कर रहा है. पता नहीं 2047 तक भारत विकसित राष्ट्र बनेगा या विकसित इस्लामिक राष्ट्र. कोई नहीं जानता कि बिहार में फुलवारी शरीफ में एनआईए के छापेमारी में इस षड्यंत्र के जो दस्तावेज बरामद हुए थे, उस जांच का क्या हुआ. देवबंद का दारुलउलूम गज़वा-ए-हिंद के फतवे को अपनी अधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करके इसे धार्मिक कृत्य बता रहा है. राष्ट्रान्तरण का बड़ा ख़तरा सामने है लेकिन मोदी सरकार केवल विकास की बात करती रही.

देश की एकता एवं अखंडता अक्षुण रखने और भ्रष्टाचार उन्मूलन के कार्य का देश की जनता भरपूर समर्थन करती है और यह राजनैतिक रूप से भाजपा के हित में भी है लेकिन सरकार गाँधी परिवार पर मेहरबान है क्यों है किसी को नहीं मालूम. नेशनल हेराल्ड और यंग इंडिया के जिस मामले में राहुल और सोनिया जमानत पर चल रहे हैं, इतने वर्षों बाद भी वह लंबित क्यों है. अगस्ता-वेस्टलैंड मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं हुई जबकि मोदी की प्रशंसक इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी स्वयं सारे दस्तावेज उपलब्ध कराने को तैयार हैं. लालू यादव के रूप में एक सजायाफ्ता कैदी पैरोल पर जेल से बाहर आकर राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न हैं. पिछले कई वर्षों से पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा हो रही है, हर चुनाव के बाद यह सामान्य बात हो गयी है. भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ शर्मनाक व्यवहार हुआ, उन्हें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा लेकिन केंद्र सरकार मूक दर्शक बनी रही. केरल और तमिलनाडु में सनातन धर्म और सनातन संस्कृति को समाप्त करने के लिए राज्य सरकारे दमनकारी कार्य प्रयोजित कर रही है लेकिन कथित हिंदूवादी सरकार मौन रही.

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भाजपा, संघ का भी साथ नहीं जुटा पाई. काशी में प्रधानमंत्री की जीत का अंतर बेहद कम हो गया. संगठन और सरकार में समन्वय के अभाव, गुटबाजी और भितरघात ने भाजपा की शक्ति को क्षीण कर दिया है. लोग कयास लगाने को विवस हैं कि क्या यह मोदी के जाने का संकेत है या भाजपा को “पुन: मूषक:” बनने का.

मोदी जानबूझकर भाजपा का नुकसान करेंगे इसकी संभावना नहीं है. विपक्ष के भ्रम फ़ैलाने की कोशिशों पर भाजपा को ही नहीं सभी हिन्दुओं को भी अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है.

मंगलवार, 18 जून 2024

ईवीएम का भूत राहुल के सिर पर सवार

 ईवीएम शरणम् गच्छामि : जब तक मोदी सत्ता से बाहर नहीं हो जाते ईवीएम पर विश्वास नहीं किया जा सकता - ईवीएम का भूत राहुल के सिर पर सवार



ईवीएम का भूत एक बार फिर सामने आ गया है वह भी तब जब ऐसा लग रहा था कि शायद ईवीएम का मुद्दा समाप्त हो गया है क्योंकि ईवीएम पर आरोप लगाने वालों को अभी हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव में अच्छी सफलता मिली है. सबसे अधिक सफलता पाने वाले दलों में समाजवादी पार्टी और स्वयं कांग्रेस है. राहुल गाँधी तो बहुत पहले से ईवीएम पर सवाल उठाते रहे हैं और उनका ईवीएम पर सवाल उठाना इसका कारण भी लाजिमी है क्योंकि उनको सफलता नहीं मिली और उनका कहना है कि जब तक कांग्रेस नहीं जीतती और सत्ता में नहीं आ जाती ईवीएम पर भरोसा नहीं किया जा सकता. उत्तर प्रदेश, बिहार आदि जैसे राज्यों से पुराना बैलट वोटिंग सिस्टम लागू करने की मांग लंबे समय से की जा रही है, जिसका कारण सभी को मालूम होगा.

अब समझते हैं कि अचानक ईवीएम का भूत जिंदा क्यों हो गया? ईवीएम के मामले में अमेरिका के प्रसिद्ध व्यापारी और उद्योगपति और कह सकते हैं कि दुनिया के सबसे धनी लोगों में शामिल एलन मस्क ने एक बयांन दिया है कि ईवीएम को हैक किया जा सकता है. इसकी संभावना भले ही छोटी हो लेकिन इसे खारिज नहीं किया जा सकता है. एलन मस्क ने अपने बयान के लिए जे ऍफ़ केनेडी जूनियर जो अमेरिका के एक स्वतंत्र उम्मीदवार हैं के ट्वीट का सहारा लिया जिन्होंने खुद किसी बहुत छोटी यूनिट जैसे भारत के महापालिका चुनाव का हवाला देते हुए कहा कि वहाँ पर ईवीएम में गड़बड़ी पाई गयी लेकिन पेपर ट्रेल के सहारे उस गड़बड़ी को पहचाना गया और ठीक कर लिया गया. इसलिए जब तक कि बहुत फुल प्रूफ ना हो ईवीएम का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. उसी को आधार बनाते हुए एलन मस्क ने ट्वीट किया और भारत में राजनैतिक बेरोजगारों ने इसे हाथों हाथ लपक लिया. कांग्रेस 10 साल से सत्ता से दूर है जिससे उसकी छटपटाहट बढ़ती जा रही है. कई और ऐसे दल हैं जो सत्ता से दूर हैं और उनके खजाने खाली हो चुके हैं. उनकी आराम की जिंदगी में बिघ्न पड़ गया है. भारत में राजनीति बहुत बड़ा उद्योग है और इसलिए कई दलों के नेताओं को राजनैतिक उद्योगपति कहना अनुचित नहीं होगा. इनमे कई अदानी अंबानी से भी बड़े हैं और उनसे कम तो नहीं बिलकुल भी नहीं. क्षेत्रीय दलों के पास अनाप शनाप पैसा है, चाहे उत्तर प्रदेश हो, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु या बिहार हो, सभी क्षेत्रीय दलों का यही हाल है.

भारत में राजनीति बहुत ही फायदे का उद्योग है. इसलिए हर आदमी उसमें अपनी किस्मत आजमाता हैं. जो उद्योगपति हैं वो भी राजनीति का मोह नहीं छोड़ पाते. एलन मस्क की बात भी राजनीतिक ही है. जैसे ही एलन मस्क ने ट्वीट किया, राहुल गाँधी ने उनके ट्वीट को शेयर किया और कहा “मैं तो बहुत पहले से कह रहा हूँ की ये ब्लैक बॉक्स है.” ये बात बिल्कुल मूर्खता पूर्ण है. शायद राहुल को ब्लैक बॉक्स के बारे में नहीं मालूम है उनको पुर्ची देने वाले को भी ये नहीं मालूम होगा. ब्लैक बॉक्स बहुत “सेफ डिवाइस” होती है. दुनिया के जितने भी हवाई जहाज, जेट या युद्धक विमान होते हैं. उनमें एक ब्लैक बॉक्स होता है और उसे इस ढंग से डिजाइन किया जाता है कि चाहे जितनी बड़ी दुर्घटना हो जाए, ब्लैक बॉक्स की रिकॉर्डिंग और डेटा होता है, उसके आधार पर ही दुर्घटना का पता लगाया जाता है. इसलिए ब्लैक बॉक्स तो बहुत ही सेफ डिवाइस होती है जिसे न तो राहुल गाँधी और न ही उनकी समझदारी के स्तर का व्यक्ति समझ सकते हैं. अगर ईवीएम से सत्ता मिल जाती तो ये बहुत अच्छी हो जाती अन्यथा बेकार हैं. मोदी ने अपने संबोधन में कहा भी था कि उन्हें लगता था कि विपक्षी ईवीएम की अर्थी निकालेंगे, और ये सही बात है कि अगर गठबंधन को इतनी सफलता नहीं मिलती तो शायद यही होता. राहुल अब मौके की प्रतीक्षा में हैं, वह पहले भी कह चुके हैं अगर मोदी दोबारा सत्ता में आये तो फिर सड़कों पर खून बहेगा, आग लग जाएगी और पता नहीं क्या क्या होगा. राहुल गाँधी के ट्वीट करने के बाद कांग्रेस के पिछलग्गू प्रवक्ता और कांग्रेसी मीडिया चर्चा कर रहे हैं कि अगर ईवीएम हैक किया जा सकता है. तो उसको टेस्ट करने में क्या दिक्कत है टेस्ट करा देना चाहिए. वे यह भूल जाते हैं कि चुनाव आयोग ने तो हैक करने की खुली चुनौती दी थी.

एक बहुत छोटी सी बात जो हाईस्कूल में पढ़ने वाला बच्चा भी बता सकता है कि हैकिंग के लिए कनेक्टिविटी चाहिए जिसको आप ऑनलाइन या वर्चुअल कनेक्टिविटी कह सकते हैं. ईवीएम में न तो ब्लूटूथ है, न वाईफाई, न इन्फ्रारेड या अन्य कोई अन्य कनेक्टिविटी. ईवीएम में किसी भी तरह की कोई कनेक्टिंग इंटरमीडिएटरी डिवाइस का इस्तेमाल नहीं होता है इसलिए हैक करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है. इसमें चिप लगाई जा सकती है, बाहर से डेटा इन्फ्यूज किया जा सकता है, डेटा बदला जा सकता है, डेटा करप्ट किया जा सकता है, ये सारी चीजें सही हो सकती है लेकिन हैकिंग की बात तो संभव नहीं है. हम ऐसे समय में हैं जहाँ ऑनलाइन वोटिंग की परियोजना पर काम करने की आवश्यकता है. सारे प्रवासी लोग वोट डालने के लिए नहीं आ पाते. इसलिए वोटिंग प्रतिशत कम हो रही है.

लन मस्क दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति हो सकते हैं लेकिन सबसे बुद्धिमान व्यक्ति नहीं, तो फिर एलन मस्क की बात को आंख बंद करके स्वीकार करना समझदारी नहीं. एलन मस्क का क्या स्वार्थ हो सकता है? वह व्यापारी हैं और ट्विटर जिसे एक्स कहते है और टेस्ला कार कंपनी के मालिक हैं. भारत एक बहुत बड़ा कार बाजार हैं और वे सरकार के पीछे काफी दिनों से लगे हुए हैं. जब मोदी को राजग के रूप में एक बार फिर बहुमत मिला तो उन्होंने शुभकामनाएं दी और साथ में ये जोड़ा भी कि भारत में काम करने के लिए बहुत उत्साहित हैं. सरकार की ओर से सकारात्मक प्रतिक्रिया न पाकर, खिसियाहट निकाल रहे हैं. एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक और विद्वान मानकर विपक्षी उनके पीछे छिप रहे हैं. अखिलेश यादव जैसे लोग जिनको उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटों में से 37 सीटें मिली हैं और गठबंधन के हिसाब से 43 सीटें मिली जो 50% से ज्यादा है और अगर ईवीएम के स्थान पर बैलेट स्तेमाल हो जाए तो भी कभी नहीं जीत सकते. बैलट के बारे में नई पीढ़ी शायद को शायद नहीं मालूम होगा कि उत्तर प्रदेश और बिहार बैलेट वोटिंग के लिए कुख्यात ट्रैक रिकॉर्ड हैं. मुलायम सिंह यादव और लालू यादव माफिया, आतंकवादी, दबंग बाहुबलियों के सहारे चुनाव जीतते थे. वैलट बॉक्स छीन ले जाना, लोगों को वोट डालने से रोकना, बूथ में घुसकर उनकी पार्टी के पक्ष में मुहर लगा देना, ये सब धंधे चलते थे. इनके खानदानी लोग भी बैलेट पेपर के सहारे वही समय वापस लाना चाहते हैं जिसे ये देश बर्दाश्त नहीं करेगा.

राहुल गाँधी बिना सोचे समझे बोलते है अगर उनकी सरकार बन जाती है तो ईवीएम बहुत अच्छी होती लेकिन 234 सीटों पर उनका गठबंधन रुक गया उनकी खुद की पार्टी 98 पर रुक गयी. उनको ये समझ में नहीं आता है कि वह दो जगह से चुनाव जीत गए अगर उनको ईवीएम पर विश्वास नहीं है तो पहले अपनी दोनों सीटों से इस्तीफा दे दें, अखिलेश यादव भी कन्नौज से इस्तीफा दे दें. उनके 37 सांसद जीते हैं उनके गठबंधन के 234 सांसद यदि सभी स्तीफा दे दें तो सरकार पर असर पडेगा और उसे बैलेट पेपर के लिए सोचना पड़ेगा. विश्व जनमत तैयार होगा कम से कम कहीं से शुरुआत तो होनी चाहिए. राहुल और उनका गठबंधन अपनी शक्ति जानता है इसलिए एक नया शिगूफा छोड़ा गया है.

राहुल गाँधी की बातें धीरे धीरे बेहद बकवास होती जा रही है और देश के लिए घातक भी लेकिन हर बात मूर्खता की नहीं होती है बहुत सारे जो भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी हैं, जिन्होंने भारत में पैसा लगाया था, अब राजनैतिक दलों की सफलता के आधार उनसे सवाल पूछेगें. उनको जवाब देने के लिए राहुल एंड कंपनी को कोई तो बहाना चाहिये. भारतीय जनता को इनके बहकावे में नहीं आना चाहिए. जो भी राजनीतिक दल ईवीएम पर सवाल उठाते हैं, देश को पीछे ले जाने की कोशिश करते हैं उन्हें बिल्कुल सीधी और सपाट भाषा में जवाब देना चाहिए कि अब और नहीं.

इस पर एक विडियो भी मैंने बनाया है . कृपया इसे देखे,सब्सक्राइब करे और शेयर भी करे .



योगी को दर्द किसने दिया- डबल इंजिन हुआ बेपटरी

 उत्तर प्रदेश की व्यथा और योगी का दर्द - वोट जिहाद से ऐसे हार गयी भाजपा


मीडिया में एक नया विमर्श शुरू हो गया है जिसमें कहा जा रहा है कि वोट जिहाद के कारण मुसलमानों का वोट भाजपा को नहीं मिला और इसलिए वह हार गई. मुस्लिम तो भाजपा से नाराज हैं ही, भाजपा भी अब मुस्लिमों से बेहद नाराज है. इसलिए मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम को मंत्री नहीं बनाया. अब केंद्र में देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की बात कौन रखेगा. यह भ्रम फ़ैलाने की कोशिश की जा रही है कि भाजपा मुस्लिमों के साथ भेदभाव करती है और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक मानती है.

ऐसे विमर्श बनाने की शुरुआत कांग्रेस ने की, बाद में उसके गठबंधन के सभी घटक दल भी इसमें शामिल हो गए. 2024 का लोकसभा चुनाव, विपक्ष के झूठे विमर्श पर लड़े जाने वाले चुनाव के रूप में जाना जाएगा. संविधान बदलने, दलितों और पिछड़ों का आरक्षण खत्म करने, देश की संपत्तियां बेचने, उद्योगपतियों के लिए काम करने और अग्निवीर योजना के विरुद्ध झूठा विमर्श पूरे देश में फैलाया गया. इसमें भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय शक्तियों ने भी पूरा ज़ोर लगाया. भाजपा मतदाताओं को सही बात समझाने में विफल रही. टिकट वितरण में गंभीर खामियों, आरएसएस के साथ समन्वय की कमी, कार्यकर्ताओं की उदासीनता और संगठनात्मक गुटबाजी से जूझ रही भाजपा को इस विमर्श ने खासा नुकसान पहुंचाया और उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में कम हो गई और वह अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर सकी लेकिन गनीमत ये रही कि वह अपने सहयोगियों के साथ सरकार बनाने में सफल हो गई.

क्ष प्रश्न है कि क्या सचमुच वोट जिहाद के कारण भाजपा की सीटों से कमी आई. वोट जिहाद का मतलब है कि मुसलमानों ने भाजपा को वोट नहीं दिया लेकिन ये नयी बात नहीं. यह कटु सत्य है कि मुसलमानों ने भाजपा या इसकी पूर्ववर्ती जनसंघ को कभी भी वोट नहीं दिया. उन्होंने ने रामराज परिषद, हिंदू महासभा जैसे हिंदूवादी दलों को भी कभी वोट नहीं दिया. कडवी सच्चाई तो यह है कि मुसलमानों ने भाजपा को न कभी वोट दिया है और न कभी देंगे लेकिन मोदी गलतफहमी का शिकार हो गए. चुनाव के बीच जब उनकी ये गलतफहमी दूर हुई तब उन्होंने मुस्लिम आरक्षण और मुस्लिम तुष्टिकरण पर खुलकर बोलना शुरू किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मोदी विरोध में मुस्लिम ध्रुवीकरण तो हुआ लेकिन प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदुओं का ध्रुवीकरण नहीं हो सका.

उत्तर प्रदेश में वोट जिहाद की अपील सलमान खुर्शीद के मंच से उनके एक परिवारीजन ने की थी जो इस हिसाब से सफल रही कि मुसलमानों ने एकजुट होकर रणनैतिक रूप से उस प्रत्याशी को वोट दिया जो भाजपा को हरा सकता था. लगभग पूरे भारत में यही दिखाई दिया. महाराष्ट्र में तो हालत यह थी कि मुंबई बम धमाकों के सजायाफ्ता मुस्लिम अपराधी भी भाजपा को हराने के लिए उद्धव ठाकरे के लिए न केवल प्रचार करते देखे गए बल्कि उन्होंने उद्धव ठाकरे के प्रत्याशियों को वोट भी दिया. जहाँ तक मुस्लिमों की भाजपा से नाराजगी की बात है, तो मुसलमान किसी भी ऐसे राजनैतिक दल या संगठन को पसंद नहीं कर सकता जो राष्ट्रवाद की बात करता हो, हिंदू और हिंदुत्व की बात करता हो, सनातन संस्कृति की बात करता हो. वास्तव में मुसलमानों की दुश्मनी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है, जिसका गठन ही कांग्रेस और गाँधी द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण के विरोध और हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए हुआ था. चूंकि भाजपा, आरएसएस का ही राजनैतिक अंग है, इसलिए भाजपा के विरुद्ध वोट जिहाद तो होगा ही.

यह भी एक विडंबना है कि भाजपा के जो नेता सत्ता के शिखर पर पहुँचते हैं, वे अपनी लोकप्रियता बढ़ाने और अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए कांग्रेसी हो जाते हैं. जो अटल जी ने किया, मोदी उससे भी आगे निकल गए. “सबका साथ-सबका विकास” के बाद “सबका विश्वास” में उलझ गए. उन्होंने अपने कार्यकाल में जितना बजट आबंटन मुसलमानों पर खर्च किया, उतना स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया. 2014 में मोदी ने हिंदू हृदय सम्राट बन कर जिन आश्वासनों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, उन्हें भूल गए. इससे समर्थक और कथित अंधभक्त नाराज होकर दूर हो गए क्योंकि राष्ट्रवादी और देशभक्त हमेशा मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ उस राजनीतिक दल का भी विरोध करते हैं जो तुष्टिकरण करता है, मोदी भी संदेह के घेरे में आ गए. इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी हज भी कर लें, हर साल उमरा भी करने लगे, हजारों पसमांदा, बहाबी और सूफी सम्मेलन आयोजित करें और रोज़ दरगाह शरीफ पर चादर चढ़ाने लगे लेकिन मुस्लिम वोट उन्हें कभी नहीं मिलेगा.

भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण की नींव रखने वाले गाँधी और नेहरू को पदचिह्नों पर कांग्रेस तो चल ही रही थी, क्षेत्रीय दल भी मुस्लिम तुष्टीकरण में अंधे हैं और कट्टरपंथियों के हर कार्य का आंख बंद कर समर्थन करते हैं. पीएफआई ने 2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की जो योजना बनाई है उसमें कई षडयंत्रों के अलावा दलितों और पिछड़ों को मुसलमानों के साथ जोड़कर संयुक्त वोट से राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने और फिर उसे इस्लामिक राष्ट्र में बदलने की कार्य योजना है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) मूल रूप से पीएफआई की ही योजना है, जिसका दस्तावेज जुलाई 2022 में बिहार के फुलवारीशरीफ में पीएफआईं के ठिकानों पर छापेमारी के दौरान बरामद किया गया था. राजनैतिक दलों के सहयोग से मुस्लिम कट्टरपंथी लगातार ये गठजोड़ बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों में भी इसका प्रयोग किया गया था पर आशातीत सफलता नहीं मिली, लेकिन लगातार इस पर काम किया जाता रहा. यही कारण है कि हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति के खिलाफ़ जहर उगलने, हिंदू धर्म ग्रन्थ जलाने और देवी देवताओं का अपमान करने वाली घटनाओं की बाढ़ आ गयी. इनमें दलित और पिछड़े वर्ग के कथित एक्टिविस्ट शामिल हैं. कट्टरपंथियों का यह मिशन इस लोकसभा चुनाव में साफ दिखाई पड़ता है. इस कारण उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को 37 और कांग्रेस को 6 सीटें प्राप्त हो सकीं. इसलिए इसे वोट जिहाद कहना बिल्कुल भी उचित नहीं होगा, क्योंकि इस बार पिछड़े और दलितों के वोट का बड़ा हिस्सा भी इसमें शामिल हो गया है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दलित समाज के एक बहुत बड़े वर्ग ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी को भी वोट नहीं दिया बल्कि उन्होंने इसी मिशन के अंतर्गत भाजपा को हराने वाली समाजवादी पार्टी या कांग्रेस को वोट दिया. यह नया ट्रेंड है जो बहुत खतरनाक है.

इससे अगले 20-25 साल में भारत के इस्लामीकरण की जो योजना कट्टरपंथियों ने बनाई है, वह समय पूर्व पूरी हो सकती है. निकट भविष्य में इसका प्रभाव यह पड़ेगा कि 2027 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार वापस आना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जाएगा. 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 255 सीटें जीती थी लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में वह केवल 162 विधान सीटों पर बढ़त हासिल कर सकी. वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन चुनावों में 2019 की तुलना में 60,000 वोट कम मिले, लेकिन उनकी जीत का मार्जिन 4.75 लाख से घटकर 1.52 लाख रह गया. इसके पीछे का गणित बेहद आश्चर्यजनक है, कांग्रेस प्रत्याशी को इस बार जितने वोट मिले, वह 2019 में सपा बसपा गठबंधन और कांग्रेस के कुल वोटों से भी 1.70 लाख अधिक है. इससे षड्यंत्र की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग, बूथ प्रबंधन, आरएसएस के साथ समन्वय और कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन में गंभीर खामियां नजर आईं. आयतित नेताओं को टिकट देने और गुटबाजी ने योगी और मोदी के किये कराये पर पानी फेर दिया. प्रदेश के दो उप मुख्यमंत्रियों में एक ब्राह्मणों और दूसरा दलित और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन भाजपा को मिलने वाले दलित पिछड़े और ब्राह्मण वोटों में काफी गिरावट आई जो ख़राब प्रदर्शन का कारण बनी. देवरिया को छोड़कर अधिकांश ब्राह्मण बाहुल्य सीटें भाजपा हार गयी. कई केंद्रीय मंत्री चुनाव हार गए और राज्य के मंत्री अपने अपने क्षेत्रों में भी बढ़त नहीं दिला सके. भाजपा के इस निराशाजनक प्रदर्शन से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मायूस हैं लेकिन उनके प्रयास में कहीं कोई कमी दिखाई नहीं पड़ती. उत्तर प्रदेश की कड़वी सच्चाई यह है कि यहाँ भाजपा को जो सीटें प्राप्त हुई है, उनमें योगी फैक्टर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. केन्द्रीय नेतृत्व ने यदि मुख्यमंत्री को खुली छूट दी होती तो शायद परिणाम बहुत बेहतर होते.

भाजपा को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में निराशाजनक प्रदर्शन की गंभीर समीक्षा करनी चाहिए. प्रदेश में भाजपा हारी तो जरूर है लेकिन विपक्ष नहीं, कट्टरपंथी सांप्रदायिक षडयंत्र जीता है जो राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए बड़ा खतरा है. अगर भाजपा, केंद्र और राज्य सरकारे मिलकर इसका कोई हल नहीं निकाल सकी तो प्रदेश और केंद्र की वर्तमान सरकारे भाजपा की अंतिम सरकारे हो सकती हैं.

राहुल से नहीं होगा नेता विपक्ष का काम

 

दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कोई भी निर्णय नहीं कर पाते हैं, न अपने लिए और न किसी और के लिए. कुछ कहने के लिए, कुछ करने के लिए उन्हें हमेशा सहारे और सलाहकार की आवश्यकता होती है लेकिन वे सलाह भी नहीं मानते जब उन्हें कोई जिम्मेदारी उठाने की सलाह दी जाती है, हालांकि वे होते बेहद महत्वाकांक्षा हैं. स्कूल से लेकर उनके रोजाना पहनने वाले कपड़ों का चुनाव उनके माता पिता या कोई दूसरे लोग करते हैं. उनके माँ बाप ही उन्हें स्कूल को सौंपने जाते हैं. ऐसे लोग ऐसा कोई काम नहीं करते जिसमें मस्तिष्क का इस्तेमाल करना होता है इसलिए उनका पूरा जीवन स्वछन्द ओर बिंदास होता है.

राहुल गाँधी भी कुछ कुछ इसी तरह के व्यक्ति हैं. यूपीए के शासनकाल में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने राहुल गाँधी को मंत्री बनने का प्रस्ताव दिया, ताकि वह कुछ अनुभव प्राप्त कर सके और सोनिया गाँधी से भी इस संबंध में बात की. सोनिया गाँधी की बात तो राहुल सुनते नहीं इसलिए उन्होंने सीधे राहुल से ही बात करने की सलाह मनमोहन सिंह को दी. मनमोहन सिंह ने राहुल से कहा लेकिन जब कोई जवाब नहीं मिला तो उन्होंने सोचा शायद राहुल प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो उन्होंने राहुल को प्रधानमंत्री बनने ओर स्वयं उनके नीचे काम करने का प्रस्ताव दिया लेकिन राहुल गाँधी हिम्मत नहीं जुटा सके.

राहुल को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया लेकिन वह खुश नहीं थे. जैसे ही पार्टी चुनाव में हारी उन्होंने नैतिक आधार पर अध्यक्ष पद छोड़ दिया क्योंकि उत्तरदायित्व का बोझ वह नहीं उठा सकते. वह थाईलैंड सहित कई देशों की यात्रा करते रहते हैं लेकिन शादी करने की हिम्मत नहीं जुटा सके क्योंकि जिम्मेदारी से बहुत घबराते हैं. बावजूद इसके राहुल को मोदी का प्रधानमंत्री बनना रास नहीं आया, और उन्हें लगने लगा कि उनसे अच्छे प्रधानमंत्री तो वह स्वयं बन सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे अखिलेश यादव को, योगी का मुख्यमंत्री बनना बर्दाश्त नहीं हो पाया.

राहुल ने वायनाड और रायबरेली दो जगह से चुनाव लड़ा और दोनों जगह जीत गए लेकिन अब कौन सी सीट छोड़नी है इसका निर्णय नहीं कर पा रहे हैं. सलाहकार दिन रात काम पर जुटे हुए हैं कि कौन सी सीट छोड़ना राहुल के लिए ज्यादा उपयुक्त होगा. तदनुसार राहुल गाँधी निर्णय करेंगे.

नेता विपक्ष बनना बेहद जिम्मेदारी का काम है. जब सदन चलेगा तो हमेशा उन्हें उपस्थित भी रहना होगा और विभिन्न विषयों पर बिना तैयारी या पर्ची के बोलना भी पड़ेगा जो राहुल के बस का काम नहीं लगता. यद्यपि कांग्रेस कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से उनसे विपक्ष का नेता बनने का अनुरोध किया है. संभवत: इसके द्वारा राहुल की छवि निखारने का प्रयास किया गया है जबकि ये सभी कांग्रेसियों को मालूम है कि राहुल गाँधी शायद ही कोई जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार होंगे.

इन परिस्थितियों में ऐसा लगता नहीं है कि राहुल गाँधी नेता विपक्ष का पद संभालेंगे और इसी में उनकी , कांग्रेस की और देश की भलाई है .

हो सकता है कि उनके मन मस्तिष्क में यह बात भी कही गहराई से बैठ गई हो कि वह तो प्रधानमंत्री मैटेरियल है और वह सीधे प्रधानमंत्री ही बनेंगे जैसे उनके नाना जवाहरलाल नेहरू और उनके पिता राजीव गाँधी बने थे.

कांग्रेस ने ऐसे पप्पू बनाया भारत की जनता को

 

भारत में सभी मतदाता लालची नहीं हैं, जो आज हैं वे पहले भी थे और आगे भी लालची ही रहेंगे. स्वाधीन होने के पहले से ही भारत के मुसलमान बिना किसी भय, चिंता और लालच एकजुट होकर मतदान करते थे, आज भी करते हैं और आगे भी करते रहेंगे. वे किसी राजनैतिक दल को नहीं हमेशा इस्लाम के लिए मतदान करते हैं.

हिंदू मतदाताओं की समस्या है कि वे आज तक एकता का महत्त्व नहीं समझ पाए और न ही वोटिंग का. इसलिए लालच, दबाव या भय के प्रभाव में प्राय: गलत मतदान करते हैं, चाहे ऐसा करने से धार्मिक सामाजिक और आर्थिक रूप से उनका अस्तित्व ही क्यों न समाप्त हो जाए.

एक दृष्टांत से हिन्दू मतदाता की प्रवृत्ति समझना आसान होगा।

देश के विभाजन के समय पंजाब और पश्चिम बंगाल को हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांटा जाना था लेकिन दोनों ही प्रदेशों में कुछ ऐसे शहर थे जहाँ हिंदू आबादी काफी अधिक थी लेकिन मुस्लिम नेता उन्हें पाकिस्तान में शामिल करना चाहते थे क्योंकि वे रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण थे. इनमें से शायद पंजाब का एक शहर था सियालकोट. तय किया गया कि यहाँ जनमत संग्रह कराया जाएगा जिससे पता चल सके कि लोग हिंदुस्तान में मिलना चाहते हैं या पाकिस्तान में.

मतदान के दिन बूथों के बाहर मुस्लिम पुरुष और महिलाओं की लंबी लंबी कतारें थीं जो सुबह तड़के समय से पहले आकर पाकिस्तान के पक्ष में मतदान करने के लिए डट गए थे. हिंदू समुदाय के लोग चाय नाश्ते के बाद आराम से मतदान केंद्रों पर पहुंचे लेकिन लंबी लंबी कतारें देखकर विचलित हो गये. उनमें से बड़ी संख्या में लोग वापस घर लौट गए कि इतनी देर तक कौन लाइन में लग कर वोट देगा. उनमें से कई ने अपने अपने ड्राइंग रूम में बैठकर व्यवस्था पर चर्चा की कि ज्यादा मतदान केंद्र बनाए जाने चाहिए थे, जनता का ध्यान रखा जाना चाहिए था , वगैरह वगैरह.

मतदान का परिणाम पाकिस्तान के पक्ष में आना ही था, सो आया और शहर को पाकिस्तान में मिला दिया गया. जिस शहर में हिंदुओं की आबादी 60-70 प्रतिशत थी वहाँ का जनमत संग्रह पाकिस्तान के पक्ष में आया क्योंकि सभी मुसलमानों ने एकजुट होकर पाकिस्तान के पक्ष में वोट किया और हिन्दू वोट करने ही नहीं गए. ये शहर पाकिस्तान को मिल गया. कुछ दिन बाद ही इस शहर में हिंदुओं का भयंकर नरसंहार हुआ, उनकी संपत्ति के साथ साथ माँ बहनों बेटियों की इज्जत लूटी गई. ज़्यादातर महिलाओं को जबरन धर्मांतरित कर उनका निकाह दूसरी, तीसरी या चौथी बीबी के रूप में मुस्लिमों के साथ कर दिया गया. कुछ लोग भागकर भारतीय सीमा में आ गए लेकिन यहाँ भी शरणार्थी के रूप में उनका जीवन नरक बन गया.

हिंदुओं के विनाश का कारण है उनका मतदान के प्रति गंभीर न होना ।

सब कुछ भूलकर आज भी हिंदुओं को एम वाई( मुस्लिम-यादव), पीडीए (पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक) मैं चिन्हित कर मुस्लिमों के साथ जोड़ा जा रहा है ताकि इन सभी के संयुक्त वोटों से सत्ता हासिल की जा सके, देश भले ही कालांतर में इस्लामिक राष्ट्र बन जाएगा. उसके बाद क्या होगा इसका अंदाजा हमास, तालिबान और आईएसआईएस की कारगुजारियों से लगाया जा सकता है.

जो समुदाय अपने इतिहास से सबक नहीं सीखता उसका विनाश होना निश्चित प्राय होता है, और हिंदुओं के संदर्भ में यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है.

शनिवार, 8 जून 2024

जो राम को लाये हैं हम उन्हें हराएंगे,

जो राम को लाये हैं, सब उन्हें हराएंगे, मोदी और योगी भी वापस न आयेंगे   

                        न अयोध्या न काशी, कैसे हैं हम भारतवासी ?


“अब की बार 400” के पार की गूँज आज भी सुनाई पड़ रही है, जब जबकि चुनाव परिणाम आ चुके हैं तथा भाजपा 240 और एनडीए 293 सीटें पाकर इस से बहुत पीछे छूट गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब इस नारे को गढ़ा होगा तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि यह नारा ही उनकी सफलता में बाधक बन जाएगा. इसमें कोई संदेह नहीं कि जब उन्होंने लोकसभा में अबकी बार 400 के पार की उद्घोषणा की तो विरोधी खेमा चारो खाने चित हो गया. उसे कुछ समझ में नहीं आया कि अब भाजपा का मुकाबला कैसे किया जाए. वास्तव में यही मोदी चाहते थे. मनोवैज्ञानिक युद्ध में विपक्ष परास्त हो गया था. रक्षात्मक विपक्ष को यह विश्वास हो गया कि आयेगा तो मोदी ही. उनके इस बयान से कि तीसरी पारी में बहुत बड़े फैसले होंगे, विपक्ष बहुत बेचैन हो गया. उसने कहना शुरू किया कि मोदी को 400 सीटें इसलिए चाहिए, क्योंकि वह संविधान बदलना चाहते हैं. दलितों और पिछड़ों का आरक्षण खत्म करना चाहते हैं और देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं.

बिहार से शुरू हुआ जातिगत जनगणना का राजनीतिक खेल कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने के बाद अचानक बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया गया जिसे कांग्रेस ने लपक लिया और राहुल गाँधी ने झूठे विमर्श गढ़ने शुरू कर दिए. जहाँ मोदी विकसित भारत की बात करते थे, मजबूत अर्थव्यवस्था की बात करते थे और कल्याणकारी योजनाओं से गरीबों के जीवन में खुशियां लाने की बात करते थे, विपक्ष के पास जातिगत जनगणना और मुफ्त की रेवड़ियों के अलावा कुछ नहीं था. घपले और घोटालों के लिए कुख्यात कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के ठीक विपरीत, मोदी सरकार पर किसी भी घपले घोटाले का आरोप नहीं लगा था. लोक कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से 25 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर लाने और 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देना सरकार की कुछ बड़ी उपलब्धियाँ हैं. देश को आतंकवाद से मुक्त करने, राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत करने, मूलभूत ढांचा विकसित करने में गति लाने, वैश्विक परिवेश में भारत की सम्माननीय भूमिका स्थापित करने, जनधन खातों के माध्यम से वित्तीय समावेशन करने और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाले मोदी सरकार के 10 साल के इस कार्यकाल को स्वतंत्र भारत का स्वर्णिम काल कहना अनुचित नहीं होगा. धारा 370 समाप्त करने, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करने, तीन तलाक समाप्त करने और संशोधित नागरिकता कानून बनाने जैसे साहसिक और प्रशंसनीय कार्य भी मोदी सरकार ने किए.

लेकिन ! जातिगत उभार ने चुनाव का माहौल बदल दिया और सामाजिक समरसता और जातिविहीन हिन्दू समाज की बात करने वाले मोदी और भाजपा के अन्य शीर्षस्थ नेता भी रक्षात्मक हो गए. उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित कोटे में मुस्लिम जातियों को पिछले दरवाजे से शामिल करने की कांग्रेसी करतूतों पर खुलकर बोलना शुरू कर दिया लेकिन जातिवादी उन्माद की काट के लिए सांप्रदायिकता का हथियार भाजपा के काम नहीं आया. इससे मुस्लिम मतदाता तो भाजपा को हराने के लिए एकजुट हो गए लेकिन जातियों के खांचे में बंटे हिंदू समाज को पिछड़ों और दलितों के कथित हितैषियों ने एकजुट नहीं होने दिया. इसके लिए पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक(मुस्लिम)) तथा एम वाई (मुस्लिम-यादव) की एकजुटता करने के खतरनाक प्रयास भी किए गए. विश्व इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस किसी देश में इस तरह के प्रयास हुए, उसे इस्लामिक राष्ट्र बनने से कोई नहीं रोक पाया और कालांतर में ऐसे प्रयास करने बालों को बहुत कष्ट उठाने पड़े या तो धर्मान्तरित होना पड़ा या नरसंहार का सामना करना पड़ा और उनकी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पहचान हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो गई.

अब की बार 400 पार के नारे से भाजपा के कार्यकर्ता भी आत्म मुग्ध हो गए और चुनाव प्रचार में पसीना बहाना व्यर्थ लगने लगा. इसका परिणाम यह हुआ कि भीषण गर्मी के प्रतिकूल वातावरण में भाजपा कार्यकर्ता घर से नहीं निकले. भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का वह बयान भी आत्मघाती साबित हुआ कि भाजपा का संगठन बहुत मजबूत और व्यापक है अब उसे चुनाव जीतने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आवश्यकता नहीं है. 2014 और 2019 वे पूर्ण बहुमत वाली भाजपा के शीर्ष नेता भी गलतफहमी का शिकार हो गए. पार्टी कार्यकर्ताओं से ज्यादा वे अपने विकास कार्यों और करिश्माई नेतृत्व पर भरोसा करने लगे. फलस्वरूप कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हुई और उनमें असंतोष पनपा. संगठन और सरकार के बीच समन्वय कम हो गया जबकि राजनीति में संगठन और सरकार एक दूसरे के पूरक और संपूरक होने चाहिए. इससे असुरक्षा की भावना पैदा हुई और गुटबाजी को बढ़ावा मिला. कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है, लेकिन 80 लोकसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश, पार्टी के अंतर्विरोधों और चुनावी अव्यवस्थाओं का शिकार हुआ.

योगी आदित्यनाथ जिन्हें देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री और कुशल प्रशासक माना जाता है, की टिकट वितरण में नहीं सुनी गई. लगभग 35 ऐसे लोगों को टिकट दिए गए जिन्हें योगी प्रत्याशी नहीं बनाना चाहते थे. कोई अदृश्य शक्ति नहीं चाहती थी कि लोकसभा में योगी समर्थक सांसदो की ज्यादा संख्या हो. मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए प्रतिद्वंदिता इसका कारण हो सकता है क्योंकि सोशल मीडिया योगी को मोदी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में लंबे समय से समर्थन कर रहा है और यह उचित भी प्रतीत होता है.

उत्तर प्रदेश में निचले स्तर पर भाजपा का चुनाव प्रचार बहुत सीमित रहा. संघ और भाजपा के कार्यकर्ता तो उदासीन थे ही, अनेक प्रत्याशी भी उदासीन रहे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि मोदी लहर में उनकी जीत स्वतः हो जायेगी. अनेक संसदीय क्षेत्रों में बूथ प्रबंधन भी संतोषजनक नही रहा. अनेक संसदीय क्षेत्रों में भितरघात की सूचनाएं भी मिल रही है. सबसे आश्चर्यजनक है अयोध्या की हार और वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी की जीत का अंतर काफी कम हो जाना. अयोध्या और वाराणसी दोनों में एक समानता है कि दोनों ही शहरी कायाकल्प के मॉडल के रूप में जाने जाते हैं. बड़े और आधुनिक हवाई अड्डे तथा रेलवे स्टेशन, बड़ी और चौड़ी सड़कें, शहर का सुंदरीकरण और पर्यटन स्थल के रूप में विकास, जिससे रोजगार के अवसर भी उत्पन्न होंगे और ये शहर विश्व मानचित्र में प्रभावी स्थान पा सकेंगे. अयोध्या में 500 वर्षों के अनवरत संघर्ष के परिणामस्वरूप मंदिर का निर्माण हुआ है, जो पूरे सनातन धर्म और सनातन संस्कृति के लिए हर्ष और गौरव का विषय है. सच्चे अर्थों में यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक भी है. इसके बाद भी भाजपा का प्रत्याशी अयोध्या में बड़े अंतर से हार गया. वाराणसी में भी प्रधानमंत्री मोदी की जीत का अंतर बहुत कम हो गया जो भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. ऐसे देश का क्या हो सकता है जहाँ जातिगत भावना धर्म से ऊपर हो जाय. इसके पहले 1912 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहने के बाद कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उनकी सरकार वापस नहीं आ सकी थी. चुनाव में नारा दिया गया था मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम. आपकी बार अयोध्या में नारा दिया गया था “ न अयोध्या न काशी, अबकी बार अवधेश पासी”. अवधेश पासी ने चुनाव जीतने के बाद कहा कि वह राम भक्त नहीं है और उनके विचार और मानसिकता जगजाहिर है.

अयोध्या और काशी के विश्लेषण से पता चलता है विकास के उच्चतम मापदंड स्थापित करने के बाद भी राज्य और केंद्र सरकार ने कई समस्याओं की अनदेखी की. दोनों ही शहरों में रामपथ और कॉरिडोर के निर्माण के लिए भवनों और प्राचीन मंदिरों का अधिग्रहण करके तोड़ा गया और उचित मुआवजा भी नहीं दिया गया. विस्थापित भवनमालिकों और दुकानदारों को समुचित वैकल्पिक स्थान भी उपलब्ध नहीं कराया गया. उच्च तकनीक के इस युग में पौराणिक महत्त्व के भवनों और मंदिरों को स्थानांतरित किया जा सकता था और कम से कम समुचित मुआवजा और स्थान उपलब्ध कराकर उनका पुनर्निर्माण कराया जा सकता था. इससे पौराणिक और सांस्कृतिक विरासत को न केवल सहेजा जा सकता था बल्कि जनसामान्य की भावनाओं को भी सम्मान दिया जा सकता था. दोनों ही शहरों के अधिकांश निवासी अपने अपने आराध्य के निति प्रति बेरोकटोक दर्शन करते थे लेकिन अब या तो उन्हें सामान्य कतार में जाना पड़ता है. यद्यपि इसके लिए कार्ड बनाने की व्यवस्था है लेकिन इसकी प्रक्रिया अत्यंत जटिल और मुश्किल है. इस कारण स्थानीय जनता को लगता है कि उनके आराध्य से दूर कर दिया गया है. हवाई अड्डे तथा अन्य सुविधाओं को विकसित करने के लिए अधिग्रहीत भूमिका की मुआवजा राशि अत्यंत कम है,जो बड़े असंतोष का कारण है. गांव के गांव विस्थापित हो गए हैं और उनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई है. महंगाई, बेरोजगारी, पेपर लीक होना और अग्निवीर जैसी योजनाएं सभी जगह के लिए सामान्य रूप से प्रभावी है.

पिछले कुछ वर्षों से एक अभियान चलाया जा रहा है जिसका खुलासा बिहारशरीफ में पीएफआई के एक ठिकाने पर छापेमारी के दौरान बरामद किए गए दस्तावेज़ों से हुआ था. गज़वा-ए-हिंद, जो भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की योजना है, के अंतर्गत मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने के अतिरिक्त दलित और पिछड़े वर्ग की जातियों को मुस्लिम समुदाय के साथ खड़ा करना ताकि संयुक्त संख्याबल के आधार पर राजनीतिक रूप से भारत की सत्ता पर कब्जा करके भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाया जा सके. दुर्भाग्य से ज्यादातर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ के कारण जानबूझकर अनजान बनते हुए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस षड्यंत्र का हिस्सा बन रहे हैं. कश्मीर से केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में इस पर कार्य हो रहा है. इन राज्यों में चुनाव के बाद एक समुदाय विशेष की अराजक और सांप्रदायिक शक्ति प्रदर्शन इस षड्यंत्र की गतिमान सफलता का उदाहरण है.

ऐसा नहीं है कि भाजपा मुस्लिम तुष्टीकरण से अलग है. मोदी ने मुस्लिम समुदाय पर जितना बजटीय आवंटन खर्च किया है उतना स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया. मैंने कई बार लिखा है कि भाजपा कुछ भी करे उसे मुसलिम कभी वोट नहीं देंगे बल्कि वे सामूहिक रूप से उस दल को वोट करेंगे जो भाजपा को हरा सके. इन चुनावों में यही हुआ और इसमें योजनाबद्ध तरीके से दलितों और पिछड़ों का साथ भी लिया गया. समय रहते यदि इस पर चिंतन और मनन नहीं किया गया तो इस लिए अत्यंत घातक परिणाम होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि भाजपा या कोई भी हिंदूवादी संगठन राजनैतिक तौर पर अप्रासंगिक हो जाएगा.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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