मंगलवार, 18 जून 2024

योगी को दर्द किसने दिया- डबल इंजिन हुआ बेपटरी

 उत्तर प्रदेश की व्यथा और योगी का दर्द - वोट जिहाद से ऐसे हार गयी भाजपा


मीडिया में एक नया विमर्श शुरू हो गया है जिसमें कहा जा रहा है कि वोट जिहाद के कारण मुसलमानों का वोट भाजपा को नहीं मिला और इसलिए वह हार गई. मुस्लिम तो भाजपा से नाराज हैं ही, भाजपा भी अब मुस्लिमों से बेहद नाराज है. इसलिए मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम को मंत्री नहीं बनाया. अब केंद्र में देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की बात कौन रखेगा. यह भ्रम फ़ैलाने की कोशिश की जा रही है कि भाजपा मुस्लिमों के साथ भेदभाव करती है और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक मानती है.

ऐसे विमर्श बनाने की शुरुआत कांग्रेस ने की, बाद में उसके गठबंधन के सभी घटक दल भी इसमें शामिल हो गए. 2024 का लोकसभा चुनाव, विपक्ष के झूठे विमर्श पर लड़े जाने वाले चुनाव के रूप में जाना जाएगा. संविधान बदलने, दलितों और पिछड़ों का आरक्षण खत्म करने, देश की संपत्तियां बेचने, उद्योगपतियों के लिए काम करने और अग्निवीर योजना के विरुद्ध झूठा विमर्श पूरे देश में फैलाया गया. इसमें भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय शक्तियों ने भी पूरा ज़ोर लगाया. भाजपा मतदाताओं को सही बात समझाने में विफल रही. टिकट वितरण में गंभीर खामियों, आरएसएस के साथ समन्वय की कमी, कार्यकर्ताओं की उदासीनता और संगठनात्मक गुटबाजी से जूझ रही भाजपा को इस विमर्श ने खासा नुकसान पहुंचाया और उसकी सीटें पिछली बार की तुलना में कम हो गई और वह अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर सकी लेकिन गनीमत ये रही कि वह अपने सहयोगियों के साथ सरकार बनाने में सफल हो गई.

क्ष प्रश्न है कि क्या सचमुच वोट जिहाद के कारण भाजपा की सीटों से कमी आई. वोट जिहाद का मतलब है कि मुसलमानों ने भाजपा को वोट नहीं दिया लेकिन ये नयी बात नहीं. यह कटु सत्य है कि मुसलमानों ने भाजपा या इसकी पूर्ववर्ती जनसंघ को कभी भी वोट नहीं दिया. उन्होंने ने रामराज परिषद, हिंदू महासभा जैसे हिंदूवादी दलों को भी कभी वोट नहीं दिया. कडवी सच्चाई तो यह है कि मुसलमानों ने भाजपा को न कभी वोट दिया है और न कभी देंगे लेकिन मोदी गलतफहमी का शिकार हो गए. चुनाव के बीच जब उनकी ये गलतफहमी दूर हुई तब उन्होंने मुस्लिम आरक्षण और मुस्लिम तुष्टिकरण पर खुलकर बोलना शुरू किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मोदी विरोध में मुस्लिम ध्रुवीकरण तो हुआ लेकिन प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदुओं का ध्रुवीकरण नहीं हो सका.

उत्तर प्रदेश में वोट जिहाद की अपील सलमान खुर्शीद के मंच से उनके एक परिवारीजन ने की थी जो इस हिसाब से सफल रही कि मुसलमानों ने एकजुट होकर रणनैतिक रूप से उस प्रत्याशी को वोट दिया जो भाजपा को हरा सकता था. लगभग पूरे भारत में यही दिखाई दिया. महाराष्ट्र में तो हालत यह थी कि मुंबई बम धमाकों के सजायाफ्ता मुस्लिम अपराधी भी भाजपा को हराने के लिए उद्धव ठाकरे के लिए न केवल प्रचार करते देखे गए बल्कि उन्होंने उद्धव ठाकरे के प्रत्याशियों को वोट भी दिया. जहाँ तक मुस्लिमों की भाजपा से नाराजगी की बात है, तो मुसलमान किसी भी ऐसे राजनैतिक दल या संगठन को पसंद नहीं कर सकता जो राष्ट्रवाद की बात करता हो, हिंदू और हिंदुत्व की बात करता हो, सनातन संस्कृति की बात करता हो. वास्तव में मुसलमानों की दुश्मनी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है, जिसका गठन ही कांग्रेस और गाँधी द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण के विरोध और हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए हुआ था. चूंकि भाजपा, आरएसएस का ही राजनैतिक अंग है, इसलिए भाजपा के विरुद्ध वोट जिहाद तो होगा ही.

यह भी एक विडंबना है कि भाजपा के जो नेता सत्ता के शिखर पर पहुँचते हैं, वे अपनी लोकप्रियता बढ़ाने और अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए कांग्रेसी हो जाते हैं. जो अटल जी ने किया, मोदी उससे भी आगे निकल गए. “सबका साथ-सबका विकास” के बाद “सबका विश्वास” में उलझ गए. उन्होंने अपने कार्यकाल में जितना बजट आबंटन मुसलमानों पर खर्च किया, उतना स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया. 2014 में मोदी ने हिंदू हृदय सम्राट बन कर जिन आश्वासनों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, उन्हें भूल गए. इससे समर्थक और कथित अंधभक्त नाराज होकर दूर हो गए क्योंकि राष्ट्रवादी और देशभक्त हमेशा मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ उस राजनीतिक दल का भी विरोध करते हैं जो तुष्टिकरण करता है, मोदी भी संदेह के घेरे में आ गए. इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी हज भी कर लें, हर साल उमरा भी करने लगे, हजारों पसमांदा, बहाबी और सूफी सम्मेलन आयोजित करें और रोज़ दरगाह शरीफ पर चादर चढ़ाने लगे लेकिन मुस्लिम वोट उन्हें कभी नहीं मिलेगा.

भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण की नींव रखने वाले गाँधी और नेहरू को पदचिह्नों पर कांग्रेस तो चल ही रही थी, क्षेत्रीय दल भी मुस्लिम तुष्टीकरण में अंधे हैं और कट्टरपंथियों के हर कार्य का आंख बंद कर समर्थन करते हैं. पीएफआई ने 2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की जो योजना बनाई है उसमें कई षडयंत्रों के अलावा दलितों और पिछड़ों को मुसलमानों के साथ जोड़कर संयुक्त वोट से राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने और फिर उसे इस्लामिक राष्ट्र में बदलने की कार्य योजना है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) मूल रूप से पीएफआई की ही योजना है, जिसका दस्तावेज जुलाई 2022 में बिहार के फुलवारीशरीफ में पीएफआईं के ठिकानों पर छापेमारी के दौरान बरामद किया गया था. राजनैतिक दलों के सहयोग से मुस्लिम कट्टरपंथी लगातार ये गठजोड़ बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों में भी इसका प्रयोग किया गया था पर आशातीत सफलता नहीं मिली, लेकिन लगातार इस पर काम किया जाता रहा. यही कारण है कि हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति के खिलाफ़ जहर उगलने, हिंदू धर्म ग्रन्थ जलाने और देवी देवताओं का अपमान करने वाली घटनाओं की बाढ़ आ गयी. इनमें दलित और पिछड़े वर्ग के कथित एक्टिविस्ट शामिल हैं. कट्टरपंथियों का यह मिशन इस लोकसभा चुनाव में साफ दिखाई पड़ता है. इस कारण उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को 37 और कांग्रेस को 6 सीटें प्राप्त हो सकीं. इसलिए इसे वोट जिहाद कहना बिल्कुल भी उचित नहीं होगा, क्योंकि इस बार पिछड़े और दलितों के वोट का बड़ा हिस्सा भी इसमें शामिल हो गया है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दलित समाज के एक बहुत बड़े वर्ग ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी को भी वोट नहीं दिया बल्कि उन्होंने इसी मिशन के अंतर्गत भाजपा को हराने वाली समाजवादी पार्टी या कांग्रेस को वोट दिया. यह नया ट्रेंड है जो बहुत खतरनाक है.

इससे अगले 20-25 साल में भारत के इस्लामीकरण की जो योजना कट्टरपंथियों ने बनाई है, वह समय पूर्व पूरी हो सकती है. निकट भविष्य में इसका प्रभाव यह पड़ेगा कि 2027 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार वापस आना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जाएगा. 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 255 सीटें जीती थी लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में वह केवल 162 विधान सीटों पर बढ़त हासिल कर सकी. वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन चुनावों में 2019 की तुलना में 60,000 वोट कम मिले, लेकिन उनकी जीत का मार्जिन 4.75 लाख से घटकर 1.52 लाख रह गया. इसके पीछे का गणित बेहद आश्चर्यजनक है, कांग्रेस प्रत्याशी को इस बार जितने वोट मिले, वह 2019 में सपा बसपा गठबंधन और कांग्रेस के कुल वोटों से भी 1.70 लाख अधिक है. इससे षड्यंत्र की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग, बूथ प्रबंधन, आरएसएस के साथ समन्वय और कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन में गंभीर खामियां नजर आईं. आयतित नेताओं को टिकट देने और गुटबाजी ने योगी और मोदी के किये कराये पर पानी फेर दिया. प्रदेश के दो उप मुख्यमंत्रियों में एक ब्राह्मणों और दूसरा दलित और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन भाजपा को मिलने वाले दलित पिछड़े और ब्राह्मण वोटों में काफी गिरावट आई जो ख़राब प्रदर्शन का कारण बनी. देवरिया को छोड़कर अधिकांश ब्राह्मण बाहुल्य सीटें भाजपा हार गयी. कई केंद्रीय मंत्री चुनाव हार गए और राज्य के मंत्री अपने अपने क्षेत्रों में भी बढ़त नहीं दिला सके. भाजपा के इस निराशाजनक प्रदर्शन से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मायूस हैं लेकिन उनके प्रयास में कहीं कोई कमी दिखाई नहीं पड़ती. उत्तर प्रदेश की कड़वी सच्चाई यह है कि यहाँ भाजपा को जो सीटें प्राप्त हुई है, उनमें योगी फैक्टर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. केन्द्रीय नेतृत्व ने यदि मुख्यमंत्री को खुली छूट दी होती तो शायद परिणाम बहुत बेहतर होते.

भाजपा को उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में निराशाजनक प्रदर्शन की गंभीर समीक्षा करनी चाहिए. प्रदेश में भाजपा हारी तो जरूर है लेकिन विपक्ष नहीं, कट्टरपंथी सांप्रदायिक षडयंत्र जीता है जो राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए बड़ा खतरा है. अगर भाजपा, केंद्र और राज्य सरकारे मिलकर इसका कोई हल नहीं निकाल सकी तो प्रदेश और केंद्र की वर्तमान सरकारे भाजपा की अंतिम सरकारे हो सकती हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

राहुल की जलेबी मोदी ने खाई

  राहुल की जलेबी मोदी ने कैसे खाई | "बटेंगे तो कटेंगे" ने कैसे हरियाणा का अंतर्मन झंझोड़ दिया |    हिन्दू पुनर्जागरण के इस कालखंड ...