गुरुवार, 23 जून 2022

शिवसेना का विद्रोह - पारिवारिक दलों के लिए सन्देश

 

शिवसेना का विद्रोह - पारिवारिक दलों के लिए सन्देश 




शिवसेना में घट रही घटनाएं अप्रत्याशित जरूर लग रही  हैं लेकिन यह परिवार आधारित राजनीतिक दलों की सत्ता के  लोभ में अवसरवादिता की पराकाष्ठा पार करने और अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने के परिणाम का एक ज्वलंत उदाहरण है. अब हालत यह है कि उद्धव के पास बचे 10- 12 विधायक भी एक एक करके गुवाहाटी पहुँच रहे हैं. उद्धव सरकार का गिरना तय है और  शरद पवार भी अब शायद ही कोई मदद कर सके क्योंकि टूट तो उनकी पार्टी में भी अवश्यंभावी है. स्वाभाविक है कि कांग्रेस और एनसीपी सबसे पहले अपनी अपनी पार्टी संभालेंगे.




शिवसेना में टूट की बुनियाद बहुत पहले तब पड़ गई थी, जब उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लालच में भाजपा से दशकों पुराना नाता तोड़ कर विपरीत विचारधारा वाले कांग्रेस और एनसीपी के साथ एक बेमेल गठबंधन करके सरकार बनाई थी . 288 सदस्यों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में भाजपा के  106 और शिवसेना के 56 विधायक जीतकर आए थे. राष्ट्रवादी कांग्रेस के 54 और कांग्रेस के 44 सदस्यों के साथ ऐसा समीकरण बन गया था, जिसमें भाजपा सबसे बड़ा दल होने के बाद भी बिना किसी दल से गठबंधन या समझौता किए सरकार नहीं बना सकती थी. शिवसेना ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए भाजपा से मांग कर डाली कि मुख्यमंत्री का पद दोनों दलों के बीच में ढ़ाई ढ़ाई साल रहना चाहिए.  राजनैतिक अवसरवादिता पूर्ण और इस मांग के पीछे भी एक मनोवैज्ञानिक कारण यह था कि महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा गठबंधन में शिवसेना हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रही है लेकिन बाला साहब ठाकरे की मृत्यु के उपरान्त, उद्धव ठाकरे शिवसेना को ठीक से संभाल नहीं पाए. इसके ठीक विपरीत केंद्र में नरेंद्र मोदी के  सत्ता में आने के बाद भाजपा ने महाराष्ट्र में बहुत विस्तार किया और अपने आप को शिवसेना से भी बड़ा बना लिया लेकिन शिवसेना भाजपा की  बड़े भाई की भूमिका से असहज थी और इसे  स्वीकार नहीं कर पा रही थी. दोनों के बीच बात इस  हद तक बिगड़ गई की महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने एनसीपी के नेता अजीत पवार के साथ मिलकर सरकार बनाने का असफल प्रयास किया और इसके बाद उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री बनने  के लालच में  एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिला लिया और स्वयं को  महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनाने का सपना साकार कर लिया.

उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री  बनने के पहले कभी विधायक भी नहीं रहे थे. उनमें  मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा जगाने और फिर  मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में शरद पवार का बहुत बड़ा योगदान था. पवार ने ही यह सुनिश्चित किया था कि शिवसेना और भाजपा मिलकर सरकार न बनाने पाए ताकि उनकी पार्टी पिछले दरवाजे से महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज हो सके. उद्धव इस खेल को नहीं समझ पाए इसलिए वह शरद पवार के प्रति कृतघ बने रहे और उन्हे हमेशा उपकृत करते रहे.  यही नहीं वह न केवल पवार की अंगुली पकड़ कर चलते रहे बल्कि सरकार की हर छोटी बड़ी समस्या सुलझाने के लिए शरद पवार पर पूरी तरह आश्रित थे. उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता और प्रशासनिक अनुभव हीनता का शरद पवार ने जमकर फायदा उठाया. राज्य में कानून के  दुरुपयोग और निरंकुशता पूर्ण सत्ता का भारत में नया दौर शुरू हो गया था. पवार की पार्टी के गृहमंत्री अनिल देशमुख जेल में हैं उन पर मुंबई के पुलिस कमिश्नर परम वीर और अनिल बाझे  के माध्यम से 1000 करोड़ रुपए प्रतिमाह वसूल करने का आरोप है. पवार के दूसरे मंत्री नवाब मलिक भी जेल  में है, उन पर  दाऊद इब्राहिम गैंग की बेनामी संपत्तियों में मनी लॉन्ड्रिंग करने का आरोप है. इससे पहले इस तरह का आरोप परिवार के एक अन्य करीबी प्रफुल्ल पटेल पर भी लगा था, जिसका मामला अभी भी प्रवर्तन निदेशालय के विचाराधीन है. उद्धव ठाकरे के बेहद करीबी संजय राउत और उनकी पत्नी के विरुद्ध भी प्रवर्तन निदेशालय ने मामला दर्ज किया है जिसकी जांच चल रही है. ऐसा लग रहा था कि अपना अपना निहित स्वार्थ पूरा करने की होड़ लगी हुई थी.

उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महाअघाड़ी सरकार बनने के बाद सत्ता के सूत्र शरद पवार के पास है, इसलिए उनके करीबी ऐसे लोग, जिन का कानूनी / गैरकानूनी धंधा पानी पिछली सरकार के समय बंद हो गया था, अब पूरे उफान पर हैं. सांप्रदायिकता का जो माहौल पिछली सरकारों के समय बनाया जाता था उसकी भूमिका भी  पुन: तैयार होने लगी है. हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने वाले बालासाहब ठाकरे के सभी आदर्श किनारे रख दिए गए हैं और उद्धव  ठाकरे केवल कांग्रेस और एनसीपी के इशारे पर कार्य कर रहे हैं. यही नहीं शिवसेना के कार्यकर्ता और विधायक भी चाटुकारों से घिरे उद्धव ठाकरे से सीधे संपर्क नहीं कर पाते थे, इस  कारण शिवसेना में बहुत दिनों से असंतोष पनप रहा है. शिवसेना मंत्रिमंडल में एकनाथ शिंदे की स्थिति उद्धव ठाकरे के बाद नंबर दो की थी लेकिन वह भी मुख्यमंत्री से सीधे नहीं मिल पाते थे. बाकी विधायको ने बताया कि कोरोना के संकटकाल में भी मुख्यमंत्री से न तो उनकी मुलाकात हो पाती थी और ना ही उन्हें कोई सहायता मिलती थी. उन्हें जो भी सहायता मिली केवल एकनाथ शिंदे की वजह से मिली, इसलिए वे उनके साथ है. विधायको का यह भी आरोप है की मुख्यमंत्री शिवसेना के विधायको की अपेक्षा कांग्रेस और एनसीपी के विधायको को ज्यादा महत्त्व देते थे और सरकार में केवल उन्हीं की सुनी जाती थी. जनता में भी शिवसेना की छवि तार तार हो रही है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि उद्धव ठाकरे और उनके विधायको / मंत्रियों के बीच संपर्क हीनता और संवादहीनता की कितनी बड़ी खाई बन गई थी, जिसकी परिणति इतने बड़े विद्रोह के रूप में सामने आई.

दुर्भाग्य से उद्धव ठाकरे को इसका एहसास भी नहीं है. एक सोंची समझी रणनीति के अंतर्गत उद्धव ठाकरे के  नेतृत्व की छवि इतनी नकारात्मक बना दी गई है, जिसे ठीक करने में बरसों लग जाएंगे.  सुशांत राजपूत और दिशा सालियान की हत्या या आत्महत्या, टीआरपी के मामले में अर्नब गोस्वामी को फंसाने का झूठा मामला और उन्हें सबक सिखाने के लिए एक पुराने मामले में गिरफ्तार किया जाना, कंगना रानावत के विरुद्ध  झूठा मामला दर्ज किया जाना व बंगले में तोड़फोड़ करना, हनुमान चालीसा पढ़ने की धमकी के आरोप में सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति की गिरफ्तारी और उन पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जाना, केंद्रीय मंत्री नारायण राणे को मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के विरुद्ध अपशब्द कहने के आरोप में बेहद अमानवीय तरीके से गिरफ्तार किया जाना आदि ऐसे मामलों की बड़ी लंबी सूची है, जिससे जनता में महाआघाडी सरकार और उद्धव ठाकरे के प्रति बेहद नाराजगी है, जो शिवसेना विधायको के गुस्से से स्पष्ट दिखाई पड़ती है.

इन परिस्थितियों  में शिव सेना में विद्रोह होना बिल्कुल भी आश्चर्यजनक और अप्रत्याशित नहीं. ऐसे सभी राजनीतिक दल जिन पर एक परिवार का कब्जा है, शिवसेना में घट रही घटनाएं, खतरे की घंटी है. शिवसेना में हुए विद्रोह की विपक्ष कितनी भी आलोचना करे  लेकिन प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री बनने के लिए या किसी अन्य लालच में यह कदम नहीं उठाया बल्कि उन्होंने इस मुददे को रेखांकित किया है कि शिवसेना को महाअघाड़ी जैसे बेमेल गठबंधन और उसके भ्रष्टाचार से बाहर आकर समान विचारधारा वाली भाजपा के साथ गठबंधन करना चाहिए.




शिवसेना में हुआ विद्रोह इसलिए भी अत्यंत  महत्वपूर्ण है कि विधानसभा में 55 विधेयकों वाली पार्टी के दो तिहाई से अधिक विधायक उद्धव ठाकरे के पारिवारिक नेतृत्व को छोड़कर एकनाथ शिंदे के साथ खड़े हो गए हैं . बागी विधायको की संख्या बढ़ती जा रही है और सभी विधायक सूरत से गुवाहाटी चले गए हैं. विडंबना देखिए कि उद्धव ठाकरे ने अपने करीबी विधायक रविंद्र फाटक को बाकी विधेयकों को मनाने के लिए सूरत भेजा था लेकिन वह स्वयं भी एकनाथ शिंदे के साथ हो गए. इस पर भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे के अलावा सारे विधायक उनका साथ छोड़ दें. आशा है कि उद्धव ठाकरे शीघ्र ही अपने पद से त्यागपत्र दे देंगे और इसका संकेत देते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री आवास खाली कर दिया है. एकनाथ शिंदे ने भी स्पष्ट कर दिया है कि जब तक उद्धव ठाकरे त्यागपत्र नहीं देते तब तक बातचीत शुरू नहीं हो सकती.

इस घटना में सभी राजनीतिक दलों के लिए संदेश छिपा है कि  राजनीति समाज सेवा का माध्यम होना चाहिए, व्यवसाय का जरिया नहीं और इसमें बदले की भावना से कार्य करने की प्रवृत्ति के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए. उम्मीद की जानी चाहिए की महाराष्ट्र का ये राजनैतिक विक्षोभ  शीघ्र ही शांत हो जाएगा और राज्य में नई सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा जो लोगों की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं पूरा करने का कार्य शुरू करेगी .

भारत में वर्तमान राजनीतिक गिरावट के लिए बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली काफी हद तक जिम्मेदार है, जिसके कारण अनगिनत राजनैतिक दल खड़े हो गए हैं और लगभग हर राज्य में क्षेत्रीय छत्रप बन गए हैं जिसके कारण राजनैतिक शुचिता, विकास और सामाजिक सेवा के साथ साथ राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर भी गंभीर संकट आता जा रहा है. इसलिए चुनाव सुधारों के माध्यम से बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली के स्थान पर दो दलीय राजनीतिक प्रणाली तुरंत लागू किए जाने की आवश्यकता है ताकि राजनीति को व्यवसाय बनने से रोका जा सके.

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-    शिव मिश्रा   responsetospm@gmail.com


 

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