शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

राम लला हम आयेंगे

 

हिंदू समाज के 500 वर्षों से अधिक के अनवरत संघर्ष, लाखों पुण्यात्माओं की प्राणाहुति और करोड़ों श्रद्धालुओं की तपस्या के फलस्वरूप राममंदिर का भव्य स्वरूप एक बार फिर अयोध्या में अवतरित होने हेतु आतुर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जनवरी, 2024 को राम लला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के अंतिम आयोजन में भाग लेंगे और फिर करोड़ों भारतवासियों का सपना साकार हो जायेगा. अयोध्या को सतयुग में वैवस्वत मनु ने स्थापित किया था. यहाँ राम का जन्म हुआ था, यहाँ उन्होंने अपना बाल्यकाल बिताया और बनवास से वापस आने के बाद यहाँ के राजा भी बने. उनके राम राज्य को आज भी लोकतांत्रिक कल्याणकारी व्यवस्था का सर्वोत्तम मापदंड माना जाता है. 1528 के विध्वंश के बाद 22 जनवरी 2024 को पहली बार भगवान राम के बाल स्वरूप की पूजा अर्चना विशाल आधुनिक मंदिर में अत्यंत भव्यता के साथ होगी.

राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की तरफ से प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेने के लिए लगभग दस हजार अतिथियों को निमंत्रण पत्र भेजे गए हैं. इनमे राजनीति से लेकर खेल साहित्य सिनेमा सभी क्षेत्रों के व्यक्ति शामिल हैं. इसके अलावा तेरह अखाड़ों के महंत 6 दर्शनों दर्शनाचार्य, चारों पीठों के शंकराचार्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारी मंदिर निर्माण में लगे कारीगर मजदूर सेवा प्रदाता और कोठारी बंधुओं के माता पिता आदि को आमंत्रित किया गया है. राजनीति की जिन हस्तियों को बुलाया गया है उनमें सभी पूर्व प्रधानमंत्री, दोनों सदनों के नेता विपक्ष, राज्यों के मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय दलों के अध्यक्ष और प्रमुख राजनैतिक नेता शामिल हैं. जिनको आमंत्रित किया गया है उनमें से कुछ आएँगे और कुछ नहीं आएँगे लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो आना चाहते हैं लेकिन उन्हें निमंत्रण पत्र ही नहीं मिला है. राजनैतिक गलियारों में समारोह को लेकर अनावश्यक विवाद खड़ा किया जा रहा है.

निमंत्रित में जिन लोगों के आने से मना किया है उनमें वामपंथी सीताराम येचुरी तथा वृंदा करात हैं, जिन्होंने इस आधार पर आने से मना कर दिया है कि भाजपा और मोदी राममंदिर निर्माण और समारोह का राजनीतिकरण कर रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और एचडी देवगौड़ा स्वास्थ्य कारणों से नहीं आ सकेंगे, तो राम का अस्तित्व नकारने वाली कांग्रेस के नेता सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, खड्गे और अधीर रंजन चौधरी जैसे कांग्रेसी नेताओं के लिए धर्म संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है. अगर वे जाते हैं तो भाजपा के जाल में फंस जाएंगे और अगर नहीं जाते है तो उन पर हिंदू विरोधी ठप्पा लग जाएगा. समझा जाता है कि मुस्लिम वोटों के सहारे कर्नाटक और तेलंगाना में सत्ता प्राप्त करने वाली कांग्रेस के नेता किसी न किसी बहाने आने से परहेज करेंगे. केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन वोट बैंक तथा अन्य घोषित सनातन विरोधी होने के कारण समारोह में शामिल नहीं होंगे. सबसे अधिक हो हल्ला ऐसे दल मचा रहे हैं जिन्हें निमंत्रण नहीं दिया गया है, उनमें शिवसेना के उद्धव ठाकरे, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव शामिल हैं. राम मंदिर पर निर्णय के पूर्व सर्वोच्च न्यायालय से निर्णय न देने की गुहार लगाने वाले और राम को काल्पनिक बताने वाले कपिल सिब्बल मंदिर निर्माण से आहत तो बहुत हैं लेकिन कहते हैं कि राम उनके दिल में हैं.

श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने सामान्य जनमानस में अयोध्या में पूजित अक्षत का वितरण प्रारंभ कराया है, जो सुविधानुसार अयोध्या आने का निमंत्रण भी है और प्राण प्रतिष्ठा समारोह के दिन को त्योहार के रूप में मनाने का आग्रह भी है. इसको लेकर श्रद्धालुओं में खासा उत्साह है, जिससे स्पष्ट है कि सामान्य जनमानस ने सुविधानुसार अयोध्या आकर रामलला के दर्शनों का निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया है. प्राणप्रतिष्ठा समारोह का दिन निश्चित रूप से सभी के लिए ऐतिहासिक होगा. इस सन्दर्भ में ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय की यह टिप्पणी कि यह दिन 15 अगस्त 1947 जैसा ही महत्त्व पूर्ण है, सर्वथा उपयुक्त है.

2019 में राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद न्यास का गठन और उसके बाद मंदिर निर्माण की प्रक्रिया जितनी शीघ्रता और समर्पण की भावना से की गई है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है. इन प्रयासों का ही परिणाम है कि अयोध्या में रामलला का भव्य मंदिर इतने कम समय में बनकर तैयार हो गया है. अयोध्या के नियोजित विकास और आधारभूत संरचनाओं के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार के संबंधित विभाग भी प्रशंसा के पात्र हैं. योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री और गोरक्षनाथ पीठ के पीठाधीश्वर के रूप में अयोध्या में अनगिनत यात्राएं करके मंदिर निर्माण और विकास कार्यों की देख रेख और समीक्षा करने में जो अथक परिश्रम किया है, वह अपने आप में अतुलनीय और अनुकरणीय उदाहरण है.

वे सभी बहुत सौभाग्यशाली हैं जो निमंत्रण पाकर इस गौरवशाली क्षण के साक्षी बनेंगे लेकिन हम सभी सामान्य भारतीय भी परम सौभाग्यशाली हैं जिनके जीवनकाल में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हुआ. सब कुछ सपने जैसा लग रहा है क्योंकि जब देश मुगलों या अंग्रेजों के अधीन था तो मंदिर निर्माण अत्यन्त मुश्किल था लेकिन स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की स्वार्थपूर्ण राजनीति के कारण मंदिर निर्माण लगभग असंभव लगने लगा था. अब, जब जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है तो यह देश की स्वतंत्रता के कारण नहीं, राजनीतिक इच्छा शक्ति से निर्मित कानून द्वारा भी नहीं, और बहुसंख्यक हिन्दुओं की ज़ोर जबरदस्ती द्वारा भी नहीं हो रहा है, बल्कि यह सर्वोच्च न्यायालय के 2019 में दिए गए निर्णय द्वारा बन रहा है.

सभी को मालूम है कि 1528 में मुस्लिम आक्रांता बाबर ने भगवान श्री राम के जन्म स्थान पर बने भव्य मन्दिर को तोड़ा था. उसका इरादा मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाना नहीं था क्योंकि उस समय अयोध्या में एक भी मुसलमान नहीं था. अजेंडा धारी इतिहासकारों द्वारा बताये जाने वाले इस झूठ में कोई दम नहीं है कि मुस्लिम आक्रांता हिंदू मंदिरों को लूटपाट के इरादे से तोड़ते थे. अगर ऐसा होता तो सोमनाथ मंदिर को 17 बार क्यों तोड़ा जाता. तोड़े गए मंदिर के स्थान पर मंदिर न बनाए जा सके इसलिए इन आक्रांताओं ने मंदिर तोड़कर उस जगह को अपने कब्जे में लेने के उद्देश्य से उलटा सीधा निर्माण किया. राम मंदिर के संदर्भ में मस्जिद पक्ष ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका कि 1528 से 1858 तक 330 वर्षों की अवधी में उनका किसी भी तरह का अधिकार था जबकि अंग्रेजों के राजस्व रिकॉर्ड तथा अन्य विदेशी यात्रियों के संस्करणों में हिंन्दुओं द्वारा पूजा अर्चना का उल्लेख है और हर जगह यह जन्म भूमि के नाम से संदर्भित है. यहाँ तक कि अकबर ने हनुमान टीला को छह बीघा जमीन का जो पट्टा दिया था उसमें भी इस स्थान को जन्मस्थान के रूप में संदर्भित किया गया है. 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने अवध का शासन अपने अधीन कर लिया था और इसके बाद ही विवाद और मुकदमें शुरू हुए और 15 अगस्त 1947 तक लगभग 90 वर्ष की अवधि में अनेक मुकदमें दर्ज हुए लेकिन मस्जिद पक्ष स्वामित्व प्रमाणित करने के लिए एक भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं करा सका.

2019 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसला दिए जाने तक अगर कोई नया साक्ष्य शामिल हुआ था तो वह था भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट जिसमें स्पष्ट उल्लेख था कि कथित मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष उपलब्ध है. न्यायालय द्वारा जिन साक्ष्यों का संज्ञान लिया गया वह सब पहले से ही उपलब्ध थे, जिनमें अंग्रेजी शासन के राजस्व रिकॉर्ड, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांत और आक्रान्ताओं द्वारा स्वयं लिखवाई गई पुस्तकें थी. पुरातत्व रिपोर्ट ने उपलब्ध साक्ष्यों को और मजबूती प्रदान की. जिनके आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर पक्ष को भूमि का स्वामित्व सौंपा. चूँकि कथित मस्जिद का विलोपन हो गया था इसलिए मस्जिद के निर्माण के लिए अन्यत्र भूमि उपलब्ध कराने की व्यवस्था भी की. मुस्लिम पक्ष को भी यह मालूम था कि यह राम जन्म भूमि है और उनके पास स्वामित्व का कोई प्रमाण नहीं है. इसलिए यह स्थान हिंदुओं को दे देना चाहिए लेकिन तत्कालीन सरकार तथा उनके शैक्षणिक सलाहकार और मार्गदर्शक वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. सरकार के संरक्षण में उन्होंने झूठे विमर्श गढ़े, गलत बयानी की और इतिहासकार के रूप में न्यायालय में भी खड़े होकर न्याय प्रक्रिया को गुमराह और विलंबित करने का हर संभव प्रयास किया. अंततोगत्वा सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय निर्णय सुनाया जिससे अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ.

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला बहुत सीधा और सरल है. अगर इसका गहन अध्ययन करें तो एक प्रश्न अवश्य उभरता है कि यह विवाद इतना लम्बा क्यों खींचा गया, जब साक्ष्य थे तो ये फैसला 60-70 वर्ष पहले क्यों नहीं किया जा सकता था. विवाद जान बूझ कर खींचा गया और सांप्रदायिकता का विषाक्त वातावरण बनाया गया. इससे देश को बचाया जा सकता था. राम मंदिर का न्याय निर्णय और निर्माण, अब इतिहास हो रहा है लेकिन अन्य महत्त्व पूर्ण मंदिरों यथा ज्ञानवापी और कृष्णा जन्म भूमि का निर्णय भी इसी तरह किन्तु यथा शीघ्र हो इसका प्रयास होना चाहिए जिससे सांप्रदायिक कटुता की विषाक्तता से देश को बचाया जा सके.

~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

चोर थे न्यूटन

 

यदि आपको पता चले कि न्यूटन ने 1687 ईस्वी में जिन गति के नियमों को अपनी खोज के रूप में बताया था, उन्हें भारत से चोरी किया था, तो आपको कैसा लगेगा? लेकिन ये कड़वी सच्चाई है कि गुरुत्वाकर्षण और गति के जिन नियमों से न्यूटन विश्व प्रसिद्ध हुए उनकी खोज ऋषि कणाद ने ईसा से 600 वर्ष पूर्व यानी न्यूटन के जन्म से लगभग 2400 वर्ष पूर्व कर दी थी. इनका विस्तृत वर्णन ऋषि कणाद ने अपनी पुस्तक वैशेषिका (वैशेषिक दर्शन ) में किया है. इस पुस्तक में पदार्थ के भौतिक और रासायनिक गुणों से संबंधित सिद्धांत और सूत्र लिखे हैं, जो उस समय शेष दुनिया के लिए अजूबा थे.

न्यूटन के गति के नियम, का प्रथम नियम है कि प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में अथवा सरल रेखा में एक समान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने हेतु विवश नहीं करता। इसे जड़त्व का नियम भी कहा जाता है। दूसरा सिद्धांत है कि किसी पिण्ड के संवेग परिवर्तन की दर आरोपित बल के समानुपाती होती है तथा बल की दिशा में कार्यान्वित होती है। तीसरा नियम है कि प्रत्येक क्रिया की समान एवं विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है।

महर्षि कणाद लिखते हैं “वेग: निमित विशेषात कर्मणो जायते. वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात्‌ कर्मणो जायते नियतदिक्‌ क्रिया प्रबंध हेतु:, स्पर्शवद्‌ द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित्‌ कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते” इसका हिन्दी अनुवाद है कि वेग या गति द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
यदि इसे विभाजित करें तो न्यूटन के गति के तीनों नियम स्पष्टता प्राप्त होते हैं १. कर्मणो जायते निमित्त विशेषात वेग: २. वेग निमित्तापेक्षात्‌ कर्मणो जायते नियत्दिक्‌ क्रिया प्रबंध हेतु. ३.वेग: संयोग विशेषाविरोधी. इससे स्पष्ट होता है कि न्यूटन ने ऋषि कणाद के सिद्धांतों को ही नकल करके अपनी खोज के रूप में प्रचारित किया और अकृतघ्नता की उस सीमा को भी लांघ दिया जहाँ पर भारत या ऋषि कणाद का नाम लेना भी उचित नहीं समझा.

गुरुत्वाकर्षण का वर्णन भी ऋषि कणाद ने अपनी पुस्तक वैशेषिका (वैशेषिक दर्शन ) में विस्तार से किया है, जिसके आधार पर सुप्रसिद्ध गणितज्ञ भास्कराचार्य ने 'सिद्धांतशिरोमणि' ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि 'पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस कारण आकाशीय पिण्ड पृथ्वी पर गिरते हैं'। पश्चिमी देशों की तरह भारत में भी आज भी ये पढ़ाया जाता है कि 1687 से पहले जमीन पर कभी सेव गिरा नहीं या कभी किसी ने सेव को जमीन पर गिरते हुए तब तक नहीं देखा जब तक कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत प्रतिपादित नहीं कर दिया. इसमें कोई संदेह नहीं कि न्यूटन ने खोज तो की, लेकिन ऋषि कणाद के वैशेषिक दर्शन से जिसके लिए वह प्रशंशा के पात्र हैं. अमेरिकन जनरल ऑफ इंजीनीरिंग रिसर्च के वॉल्यूम 9 और इशू 7 में भारतीय वैज्ञानिक का एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ है जिसमें गति के नियमों को न्यूटन से पहले ऋषि कणाद द्वारा प्रतिपादित बताया गया है.

मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के डॉ. जॉर्ज घेवरघीस जोसेफ का कहना है कि 'केरल स्कूल' ने लगभग 1350 ई. में 'अनंत श्रृंखला' – जो कैलकुलस के बुनियादी घटकों में से एक है, की पहचान की थी जिसका श्रेय गलत तरीके से आइजैक न्यूटन और गॉटफ्राइड लिबनिट्ज़ को दिया जाता है जिसे कथित रूप से इन महानुभावों ने सत्रहवीं शताब्दी के अंत में प्रतिपादित किया था. डॉ. जॉर्ज घेवरघीस जोसेफ के शोध पत्र को मैनचेस्टर विश्वविद्यालय ने स्वीकार करके अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित भी किया है.

इसी तरह परमाणु की खोज का श्रेय डाल्टन को दिया जाता है, जिन्होंने कथित रूप से 1803 में इसकी खोज की थी. महर्षि कणाद ने जॉन डाल्टन से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त लिख दिया था। उन्होंने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं अपितु उसको ‘परमाणु’ नाम भी दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु कभी स्वतंत्र नहीं रह सकते। परमाणु सिद्धान्त' का विस्तृत वर्णन उनकी पुस्तक वैशेषिका में किया गया जिसे हम वैशेषिक सूत्र या वैशेषिक दर्शन के नाम से भी जानते हैं.

अब यह बात सर्व विदित हो चुकी है कि अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के दौरान केवल दौलत ही नहीं लूटी बल्कि प्राचीन सनातन ज्ञान पर भी डाका डाला. हम सभी यही जानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत के इतिहास को इसलिए परिवर्तित और प्रदुषित किया ताकि वे भारतीयों के मन मस्तिष्क में हीन ग्रंथि उत्पन्न कर सके ताकि वे अंग्रेजों को श्रेष्ठ समझे और इससे अंग्रेज लंबे समय तक भारत पर शासन कर सके, लेकिन इसके अलावा एक कारण यह भी था कि वे किसी को संदेह नहीं होने देना चाहते थे कि वे भारत से प्राचीन ज्ञान और ऋषि मुनियों द्वारा किए गए वैज्ञानिक आविष्कारों की चोरी कर रहे थे जिसे वह पूरी दुनिया को अपने द्वारा अविष्कृत बता रहे थे.

ऐसे अनगिनत मामले है. हम सभी ने जो पढ़ा है और जो हमारे मन मस्तिष्क में बैठ गया है कि भारत में ही नहीं पूरे विश्व में गणित और विज्ञान की शिक्षा का सूत्रपात अंग्रेजों ने ही किया है। यूरोपियन नेहरूवियन और वामपंथी इतिहासकारों और शिक्षाविदों द्वारा बनाई गई व्यवस्था में अंग्रेजों के इस मानवीय उपकार को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करा कर, हमें यह एहसास कराया जाता है कि यदि अंग्रेज भारत में नहीं आते तो भारतवासी आज भी पाषाण युग में जी रहे होते.

  1. ये बात बिलकुल सही है कि सभी आधुनिक तकनीकी अनुसंधान यूरोप और अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में ही हुए हैं लेकिन एक सत्य यह भी है कि यूरोप के ये सारे अनुसंधान भारत पर ब्रिटेन के अधिपत्य स्थापित होने के बाद ही हुए और इनमें ज्यादातर पिछले तीन चार सौ वर्षों में ही हुए. जब अंग्रेजों ने भारत में अपना शासन स्थापित किया, उस समय ब्रिटेन की साक्षरता दर लगभग 40% थी जिसके विपरीत भारत में साक्षरता की दर लगभग 97% थी. ब्रिटेन न तो तकनीकी दृष्टि से बहुत उन्नत शील था और न ही कोई विकास पूरक परियोजनाएं थी. बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी थे लेकिन चलने योग्य सड़कें भी नहीं थीं, मुलायम और आकर्षक सूती और रेशमी वस्त्र नहीं थे. वास्तुशिल्प, भवन शैली, स्वास्थ और रोग प्रतिरोधक और रोग निवारण की जानकारी भी नहीं थी. गणित और विज्ञान में भी वह अच्छे नहीं थे. इसलिए यह प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि भारत में अंग्रेजी सत्ता स्थापित होने के बाद न केवल धन संपदा उनके पास आ गई बल्कि वैज्ञानिक अविष्कारों की बाढ़ आ गई. जिन्हें दस्तकारी और शिल्पकारी नहीं आती थी, जो कपड़े तक ठीक से नहीं बुन सकते थे, वे हवाई जहाज बनाने लगे. जिन्हें गिनती भी नहीं आती थी, उन्होंने कैल्कुलस जैसे क्लिष्टतम गणना का आविष्कार कर लिया. जिन्हें सर्दी-जुकाम, ज्वर, जैसे रोगों का उपचार नहीं पता था, उन्होंने एलोपथिक चिकित्सा प्रणाली विकसित कर ली. 

हम सभी जानते हैं कि यूरोप का एक हजार वर्ष का इतिहास अंधकार युग माना जाता है, जो 14वीं शताब्दी तक रहा. एक मार्को पोलो और उसके सहयोगी चीन और भारत की यात्रा करके लौटते हैं. उसकी यात्रा वृत्तांत से पूरे यूरोप में तहलका मच जाता है और यहीं से यूरोप का पुनर्जागरण होता है, ज्ञान-विज्ञान प्रारंभ होता है। यूरोपीयों को ज्ञान विज्ञान और नयी जानकारियां पाने का नशा होता है. यही चाहत उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में भारत खींच लाती है और भारत में सत्ता स्थापित करने को प्रेरित करती है. सुनियोजित रूप से भारत से लूटने योग्य सब कुछ लूट लिया जाता है धन, धन्य, सम्पदा, ज्ञान और विज्ञान.

भारतीयों को अपने ही ज्ञान विज्ञान से विरत कर दिया जाता है. केवल धन संपत्ति से ही नहीं, मानसिक रूप से भी दिवालिया बना दिया जाता है. हिन्दू इतना गिर जाए कि फिर कभी उठ न सके और सनातन संस्कृति की रक्षा हेतु प्रतिकार भी न कर सके, इसके लिए गांधी, नेहरु, जिन्ना और न जाने किस किस को तैनात कर दिया जाता है.

हम में से आज भी अधिकाँश लोग गिरे हुए हैं, कुछ उठने का प्रयास कर रहे हैं और बहुत कम लोग ही उठ सके हैं. आवश्यकता है कि सभी जगें, सभी उठे और सभी मिलकर प्रयास करें, अपनी जड़ें में पहुँचने का और अपना खोया राष्ट्रीय गौरव प्राप्त करने का. तभी इस देश का, हिन्दू और सनातन संस्कृति का भला हो सकेगा.

~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

ये लेख प्रकाशित हो चुका है जिसकी प्रति नीचे दी गयी है -

बुधवार, 13 दिसंबर 2023

बाबरी मस्जिद का भूत जिहादियों के सिर

6 दिसंबर सकुशल निकल गया और सोशल मीडिया को छोड़कर देश में कहीं कोई हलचल नहीं हुई. सोशल मीडिया पर भी जिहादी, कट्टरपंथी और गज़वा ए हिंद में संलिप्त कुछ लोगों द्वारा साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश हुई और विभाजन के पहले जैसा वातावरण बनाने की कोशिश की. सबसे अधिक हिंदू विरोधी आक्रामक भाषण असदुद्दीन ओवैसी ने दिया. उन्होंने भाजपा और संघ परिवार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि जब तक दुनिया रहेंगी वह 550 वर्ष पुरानी अपनी बाबरी मस्जिद की शहादत का मुद्दा प्रमुखता से उठाते रहेंगे. वह अपने बच्चों को सिखाकर इस दुनिया से जाएंगे कि बाबरी मस्जिद की शहादत को भूलना नहीं है. ओवैसी अकेले मुस्लिम नेता नहीं है, जो इस तरह के विचार रखते हैं. दुर्भाग्य से साम्प्रदायिक कट्टरता, नई पीढ़ी में और भी ज्यादा है जो इस बात को रेखांकित करती है कि उन्हें मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, मस्जिदों की तकरीर में क्या बताया जाता है. दुनिया में कई देशों में मदरसों पर प्रतिबंध है और मस्जिदे नमाज़ के समय ही खुलती है और नमाज़ के तुरंत बाद बंद कर दी जाती है. तकरीर पर पूरी तरह से प्रतिबंध है और लाउडस्पीकर का तो नामोनिशान भी नहीं है लेकिन हिंदुस्तान में उन्हें इतने विशेषाधिकार मिले हैं कि हिंदुओं के इस देश में संवैधानिक तौर पर हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है, जो मुस्लिम बढ़ते कट्टरपंथ का सबसे बड़ा कारण है.

भारत में रहने वाले हर मुसलमान को दो बातें बहुत अच्छे से मालूम है, एक कि हिंदुओं के प्रमुख धर्मस्थलों को मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़ा था और दूसरी कि वह धर्मान्तरण करके हिन्दू से मुसलमान बनाया गया है और उनके पूर्वज हिंदू थे. उन्हें यह बात भी अच्छी तरह से मालूम है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत में इस्लाम के प्रचार और प्रसार के लिए हिंदुओं पर भयानक अत्याचार किए और करोडो हिन्दुओं का नर संहार केवल इसलिए किया कि उन्होंने धर्मान्तरित होने से इंकार किया था. इन्होने मंदिरों को तोड़ा और अपवित्र किया और तलवार की धार पर हिंदुओं का धर्मांतरण कराया. ज्यादातर भारतीय मुसलमान या तो तलवार के डर से या अपना घर द्वार और संपत्तियां बचाने के लिए मुसलमान बने थे. उन्हें यह बात भी अच्छी तरह से मालूम है कि अयोध्या में हजारों वर्ष पुराने राम मंदिर को तोड़कर धर्मांध जाहिल आक्रांता बाबर के सिपहसलार मीर बाकी ने तोड़ कर मस्जिद का निर्माण किया था और उसमें मंदिर के अवशेषों का ही इस्तेमाल किया गया था. भारत मे हजारों मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गई थी और आक्रांताओं ने उन सभी मे यही रणनीति अपनाई थी. काशी में हजारों वर्ष पुराने बाबा विश्वनाथ मंदिर को भी कट्टरपंथी औरंगजेब के जिहादी निर्देश पर तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई थी. इसी तरह मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि का तोड़ कर शाही ईदगाह का निर्माण किया गया था. भारत में छोटे बड़े मिलाकर एक लाख से भी अधिक मंदिरों का विध्वंस मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा किया गया था. सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक में 40 हजार महत्वपूर्ण मंदिरों को सूचीबद्ध किया है. इन स्थलों से संबंधित वाद-परिवाद मुस्लिम सत्ता समाप्त होने के बाद, अंग्रेजों के समय ही शुरू हो गए थे लेकिन स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है. तमाम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजूद अयोध्या में राम मंदिर के अलावा किसी भी महत्वपूर्ण मंदिर पर न्यायपालिका द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार संबंधी कोई फैसला नहीं सुनाया गया है.

विश्व में जब भी किसी देश को गुलामी से मुक्ति मिली, उसने सबसे पहला काम किया गुलामी के चिन्हों से मुक्ति पाने का, देश की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने और राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना करने का. भारत की प्राचीन अत्यंत विकसित और वैज्ञानिक आधारित महान सनातन संस्कृति से डरे अंग्रेजों ने अपनी राजसत्ता के लिए हिंदुओं के स्वाभिमान को समाप्त करने और सनातन संस्कृति को अप्रत्यक्ष तरीके से नष्ट करने के का काम किया. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अंग्रेजों ने सनातन संस्कृति और हिंदू धर्म को जितना नुकसान पहुंचाया उतना विदेशी / मुस्लिम आक्रांता भी नहीं कर सके थे. इसका कारण था कि मुस्लिम आक्रांता अनपढ़, जाहिल और राक्षसी प्रवृत्ति के थे इसलिए उन्होंने हिंदुओं का नरसंहार करने और उनके धर्म स्थलों को नष्ट करने का कार्य किया. इसके विपरीत अंग्रेज शिक्षित, शातिर और बेहद चालाक थे, इसलिए उन्होंने बिना किसी मंदिर और धार्मिक स्थल को तोड़े, सभी महत्वपूर्ण मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में कर लिया और चढ़ावा हड़पकर न केवल अपने लिए आय का एक श्रोत बना लिया बल्कि मंदिर आधारित अर्थव्यवस्था को भी नष्ट कर दिया. सभी महत्वपूर्ण मंदिरों द्वारा कला, साहित्य, संगीत, शिक्षा और सामाजिक कार्य संबंधित संस्थान और गुरुकुल चलाए जा रहे थे, जो मंदिरों पर कब्जे के कारण स्वतः समाप्त हो गए. सनातन धर्म और संस्कृति के पतन का यह सबसे प्रमुख कारक है. स्वतंत्रता के बाद इन सभी की पुनर्स्थापना की जानी चाहिए थी क्योंकि इससे न केवल शिक्षा और सामाजिक विकास जुड़ा हुआ था बल्कि भारत की प्राचीन उन्नत अर्थव्यवस्था भी इस पर आधारित थी. दुर्भाग्य से गोरे अंग्रेजों से काले अंग्रेजों को स्थानांतरित सत्ता ने बहुसंख्यक हिंदुओं, प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को सदैव गुलामी की बेड़ियों में जकड़ने के उद्देश्य से न केवल अंग्रेजों के हिन्दू विरोधी काले कानून बनाए रखें बल्कि उन्हें और अधिक हिंदू विरोधी बना दिया.

ऐसा क्या हुआ ? क्यों हुआ ? कि स्वतंत्रता के बाद भारत में गुलामी के प्रतीकों को नहीं हटाया जा सका और राष्ट्रीय अस्मिता और स्वाभिमान की पुनर्स्थापना नहीं की जा सकी. एक आयोग बनाकर सभी विवादित धर्मस्थलों का धार्मिक, ऐतिहासिक और आस्था के आधार पर निपटारा किया जा सकता था. दूसरे पक्ष को सरकार जमीन और अनुदान देकर बनाने के लिए प्रेरित कर सकती थी लेकिन तुष्टीकरण आधारित वोटबैंक की रक्षा के लिए जानबूझकर ऐसा नहीं किया गया. प्रमुख हिंदू मंदिर आज भी सरकारी नियंत्रण में है, जिनके चढ़ावे की राशि अन्य धर्मों पर खर्च की जा रही है.



अगर असदुद्दीन ओवैसी की बात करें तो वह रजाकारों के वंशज हैं, जिन्हें नेहरू का आत्मीय संरक्षण प्राप्त था. आज नेहरूवियन इतिहास के कारण बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि नेहरू निजाम की हैदराबाद रियासत के भारत में विलय के पक्षधर नहीं थे. निज़ाम चाहते थे कि हैदराबाद या तो स्वतंत्र इस्लामिक राष्ट्र बने या उसका विलय पाकिस्तान में हो. वहां हिंदुओं की स्थिति लगभग वैसी ही थी जैसी गैर मुस्लिमों के लिए अरब देशों में आज है. वे सार्वजनिक और स्वतंत्र रूप से पारंपरिक विधि विधान के अनुसार कोई पूजा, अनुष्ठान या धार्मिक आयोजन नहीं कर सकते थे. मुसलमानों की संख्या बढ़ाने के लिए छल बल से हिंदुओं का धर्मांतरण किया जा रहा था. इनकार करने वाले हिंदुओं का रजाकारों द्वारा नरसंहार किया जाता था. हिन्दू महिलाओं के अपहरण और बलात्कार की घटनाएं बेहद सामान्य थी. दूसरे प्रदेशों और अन्य देशों से मुसलमानों को लाकर हैदराबाद में बसाया जा रहा था ताकि इसे इस्लामिक राष्ट्र बनाने में आसानी हो. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निजाम के इशारे पर ही रजाकार संगठन के अतिरिक्त, एक राजनैतिक संगठन भी बनाया गया था जिसका नाम रखा गया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन या एमआईएम, जिसे आज सभी एआइएमआइएम के नाम से जानते हैं और जिसके अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी है. रजाकार संगठन और एमआईएम एक ही सिक्के के दो पहलू थे और दोनों ही हिन्दुओं के विरुद्ध एक साथ मिलकर काम करते थे. रजाकार संगठन की स्थापना कासिम रिजवी ने की थी जो बाद में एमआईएम का अध्यक्ष भी बना.

दृढ़ निश्चयी लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पुलिस ऐक्शन द्वारा हैदराबाद का भारत में विलय सुनिश्चित किया. रजाकार संगठन और एमआईएम पर प्रतिबंध लगा दिया गया. एमआईएम अध्यक्ष कासिम रिजवी सहित उसके अन्य सहयोगियों को जेल में डाल दिया गया. पटेल की मृत्यु के पश्चात नेहरू ने हैदराबाद रियासत में तुष्टीकरण का खेल शुरू कर दिया और 1957 के आम चुनावों के पहले एमआईएम से प्रतिबंध हटा लिया और उसके अध्यक्ष कासिम रिजवी सहित सभी कार्यकर्ताओं और नेताओं को जेल से छोड़ दिया गया. कासिम रिजवी तो पाकिस्तान चला गया लेकिन नेहरू ने एमआईएम से साठगांठ की, जिसके आगे ऑल इंडिया शब्द लगा दिया गया और ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तहादुल मुसलमीन या एआईएमआईएम के नाम से पुनर्जीवित कर दिया गया. अब्दुल वाहिद ओवैसी ( असदुद्दीन ओवैसी के बाबा) को इस का अध्यक्ष बना दिया गया. यह कट्टरपंथी मुस्लिम राजनैतिक संगठन पारिवारिक रियासत बन गया. इसकी बागडोर बाबा के बाद असदुद्दीन ओवैसी के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी और फिर उनके पास आ गई. हैदराबाद विलय के बाद भी इस पार्टी ने कट्टरपंथी रूढ़िवादिता को नहीं छोड़ा और आज ओवैसी बंधु पूरे भारत में चरमपंथी इस्लामिक विचारधारा का प्रचार और प्रसार कर रहे हैं. मुसलमानों के हर छोटे बड़े, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुददे पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करते हैं. दूसरे राजनीतिक दल भले ही उन्हें भाजपा की बी टीम कहें लेकिन असलियत ये है कि रजाकार संगठन, एआईएमआईएम और ओवैसी खानदान का कांग्रेस से घनिष्ठ रिश्ता रहा है. ओवैसी ही नहीं, पार्टी के ज्यादातर नेताओं की विचारधारा आज भी एमआईएम तथा रजाकारों वाली ही है, 15 मिनट के लिए पुलिस हटा लो, हम( मुसलमान) 100 करोड़ पर भारी पड़ेंगे आदि इसका उदहारण है. हमास द्वारा इजराइल पर हमले के परिपेक्ष में इस पार्टी ने जो बयानबाजी की, उसके बाद इनसे राष्ट्रहित की अपेक्षा करना व्यर्थ है. राष्ट्रीय एकता अखंडता और धर्मनिरपेक्षता से इनका कोई लेना देना नहीं है. गज़वा ए हिंद के लिए तमाम मुस्लिम संगठनों दुष्कृत्यों को ओवैसी जैसे नेता राजनैतिक जामा पहनाते हैं. वैसे तो तेलंगाना में ओवैसी की पार्टी केसीआर की टीआरएस के साथ थी लेकिन कांग्रेस की सरकार बनते ही इसके कट्टरपंथी कांग्रेस के साथ मिलकर सांप्रदायिक विष वमन करने लगे हैं. कांग्रेस सरकार के शपथ ग्रहण के ही दिन भारत के राष्ट्रीय ध्वज में कलमा लिख कर सड़कों पर लहराया गया.

अयोध्या में राम मंदिर बन चुका है लेकिन इस बंद अध्याय को खोल रखे जाने के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से सरकार और न्यायपालिका पर दबाव बनाना है की कल कहीं ऐसे फैसले ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि के संबंध में ना आ जाए. कट्टरपंथी जानते हैं कि अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद दबाव में आए नरसिम्हा राव सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण की सारी सीमाएं लांघते हुए पूजा स्थल ओर वक्फ बोर्ड कानून बनाकर बहुसंख्यक समुदाय को अकल्पनीय क्षति पहुंचाई. अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा देते हुए तुष्टीकरण की एक नई रेखा खींची. राममंदिर केवल एक मंदिर का मुद्दा नहीं था बल्कि यह भारतीय अस्मिता और राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय है और इसका संघर्ष इस मामले में बेहद निर्णायक और महत्वपूर्ण है कि हिंदुओं का पुनर्जागरण प्रारंभ हुआ.

हमें ऐसे सभी लोगों से अत्यंत सावधान रहने की जरूरत है जो जातिगत या सांप्रदायिक आधार पर हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति की आलोचना या अपमान करते हैं क्योंकि ये सभी भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के षड्यंत्रकारी हैं. भारत तिल तिल कर इस्लामीकरण की ओर बढ़ रहा है. हजारों मदनी, ओवैसी, स्वामी प्रसाद, स्टॅलिन जैसे लोग इस कार्य में लगे हैं. अगर इनके षड्यंत्र को विफल नहीं किया गया तो समझ लीजिये कि धर्म निरपेक्ष देश के रूप में भारत की आयु बहुत कम शेष रह गयी है.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 25 नवंबर 2023

हलाल का मायाजाल



लखनऊ में एक जागरूक नागरिक द्वारा पुलिस में लिखाई गई रिपोर्ट के आधार पर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने त्वरित कार्रवाई करते हुए हलाल उत्पादों के बिक्री, वितरण और भंडारण पर प्रतिबंध लगा दिया है. खाद्य और औषधि विभाग ने छापेमारी करके हलाल प्रमाणित उत्पादों को जब्त करना और विक्रेताओं के विरुद्ध कार्यवाही शुरू कर दी है. योगी सरकार के इस कदम की जितनी प्रशंसा की जाय कम है, लेकिन यह राष्ट्रीय मुद्दा है, इसलिए यह कार्य तो मोदी सरकार को करना चाहिए था और बहुत पहले करना चाहिए था.

हलाल उत्पाद, हलाल अर्थशास्त्र का ही एक हिस्सा हैं. गैर मुस्लिम राष्ट्र में जहाँ कहीं भी मुसलमान होते हैं, राजनीतिक इस्लाम की वैश्विक योजना के अनुसार उस देश की अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में लेने की कोशिश की जाती है. छोटे छोटे कार्य अपने हाथ में लेकर बहुसंख्यक लोगों का दिल जीतने की कोशिश की जाती है जैसे सफाई, कूड़ा और कबाड़ घरों से लाकर इकट्ठा करना जिसके लिए गरीब मुस्लिमों, खासतौर से अवैध घुसपैठियों को लगाया जाता है. तत्पश्चात पंचर जोड़ने से लेकर स्कूटर, मोटरसाइकिल और कार की मरम्मत का कार्य ये लोग अपने हाथ में ले लेते हैं. डेंटिंग पेंटिंग से लेकर वेल्डिंग का काम करना शुरू करते हैं. बाल काटने से लेकर लुहार और बढ़ई का काम भी करते हैं. बहुसंख्यकों के दैनिक जीवन, तीज त्यौहार और उत्सवों का अध्ययन करके सेवा प्रदाता के रूप में अपनी पहुँच बनाते हैं. महिलाओं की चूड़ी, सिंदूर और सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री से लेकर सिलाई कढ़ाई बुनाई पर इस समुदाय ने अपनी गिरफ्त बना ली है. भारत में सब्जी और फलों के थोक बाजार पर मुस्लिम समुदाय का पूरा कब्ज़ा है और फुटकर विक्रेता के रूप में भी बाजार के बड़े हिस्से पर कब्जा है. मंदिरों में फूल और प्रसाद बेचने वाले भी बड़ी संख्या में इस समुदाय के लोग मिल जाएंगे. मीट बाजार लगभग पूरी तरह से इस समुदाय के पास है. त्योहारों में काम आने वाली अनेक वस्तुएं यहाँ तक कि गणेश लक्ष्मी की मूर्तियां भी इस समुदाय के लोग बेचते हैं.

सबसे बड़ी बात ये है कि हर मुस्लिम व्यक्ति चाहे वह छोटा व्यापारी हो या बड़ा अपनी आय का 10% मस्ज़िदों को दान करता है, जिससे जिहाद का चक्र चलाया जाता है. भारत में आज आप किसी भी क्षेत्र में दृष्टि डालें तो समुदाय विशेष के लोगों के अलावा कोई दूसरा आपको नजर नहीं आएगा. स्वाभाविक प्रश्न हैं, कि 80% बहुसंख्यकों का पुस्तैनी व्यवसाय कैसे छिन गया. इसका जवाब है कि बहुसंख्यकों की जातिगत भावनाएँ भड़काकर बांटने और आरक्षण द्वारा सरकारी नौकरियों के लिए वर्ग संघर्ष जैसी योजनाओं को राजनैतिक इस्लाम ही लम्बे समय से प्रायोजित कर रहा है. इसका नतीजा ये हुआ कि हिन्दुओं में बड़ी संख्या में लोग सरकारी नौकरी की चाह में जीवन भर के लिए बेरोजगार बनते जा रहे हैं.

अर्थव्यवस्था पर इस्लामिक पकड़ बनाने के बाद दूसरा कार्य शुरू होता है हलाल उत्पादों का, जिन्हें मजहब के नाम पर मुसलमानों को खरीदने के लिए प्रेरित किया जाता है और उत्पादकों पर दबाव बनाया जाता है कि वह हलाल उत्पाद ही बनाएँ. विक्रय बढ़ाने के लालच में खासतौर से निर्यातोन्मुख कंपनियां इस जाल में बड़ी आसानी से फंस जाती है. हलाल प्रमाण पत्र देने वाली निजी मुस्लिम संस्थाएं इसके बदले उत्पादक से मोटी रकम वसूल करती हैं, जो एक तरह का जजिया टैक्स ही है. इस तरह सरकार के समानांतर एक और अर्थव्यवस्था चलाने का दुष्चक्र चलाया जा रहा है. हलाल सर्टिफिकेट के रूप में वसूला जाने वाला यह पैसा संदिग्ध गतिविधियों में लगाया जाता है. भारत में हलाल सर्टिफिकेट देने वाली प्रमुख संस्थाएँ है- हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, जमीयत उलमा-ए-महाराष्ट्र, जमीयत उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट आदि.

इसमें से मदनी चचा भतीजे की "जमीयत उलेमा ए हिंद" उत्तर प्रदेश के हिन्‍दू नेता कमलेश तिवारी के हत्‍या प्रकरण के आरोपियों का अभियोग लड़ रहां हैं । इस संगठन ने ७/११ का मुंबई रेल बम विस्‍फोट, वर्ष २००६ का मालेगांव बम विस्‍फोट, पुणे में जर्मन बेकरी बमविस्‍फोट, २६/११ का मुंबई आक्रमण, मुंबई के जवेरी बजार में बमविस्‍फोटों की शृंखला, दिल्ली जामा मस्‍जिद विस्‍फोट, कर्णावती (अहमदाबाद) बमविस्‍फोट, आदि अनेक आतंकी घटनाओं के आरोपी मुसलमानों को कानूनी सहायता उपलब्‍ध कराई है । यही संस्था गोधरा कांड में मृत्युदंड और आजीवन कारावास की सजा पाने वाले आतंकवादियों का मामला सर्वोच्च न्यायालय में लड़ रही है. ऐसे हजारों संदिग्‍ध आतंकियों के अभियोग ये संस्थाएं लड रही है, जिसके लिए आवश्यक धन हलाल सर्टिफिकेट व्यवसाय से आता है. यह धन आप सभी उपलब्ध कराते हैं हलाल उत्पाद खरीद कर या हलाल सर्टिफिकेट लेकर यानी मियां की जूती और मियां की चांद.

दुनिया के अधिकांश देशों, विशेषतया विकसित देशों में हलाल सर्टिफिकेशन अनुमन्य नहीं है. भारत में भी कोई हलाल सर्टिफिकेशन संस्था, सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है, लेकिन अब तक सभी सरकारों ने मुस्लिम संस्थाओं द्वारा किए जा रहे हैं इस गैर कानूनी कृत्य से आंखें मूँद रखी हैं. हलाल सर्टिफिकेट बांटने वाली ये संस्थाएँ सरकार द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्था में सरकार के समानांतर ही टैक्स वसूलने वाली संस्थाएँ बन गई है. सबसे खतरनाक तथ्य ये है कि हलाल सर्टिफिकेशन से प्राप्त आय का किसी न किसी न किसी रूप से जिहादी योजनाओं और आतंकवादियों का वित्तपोषण करने में लगाई जाती है.

हलाल उत्पाद अल्लाह को समर्पित होता है, इसलिए जो आप खरीदते हैं वह अल्लाह का प्रसाद होता है. कोई गैर मुसलमान अल्लाह के इस प्रसाद को धार्मिक कार्यों और मठ मंदिरों में देवी-देवताओं पर चढ़ाने के लिए क्यों प्रयोग करेगा और उत्पाद के हलाल होने की बात अरबी फारसी या में लिखकर छुपाई जा रही है, तो घोर आपत्तिजनक है, और उसका विरोध होना ही चाहिए. भारत में बिकने वाले उत्पाद, जो पहले ही कई स्तर पर गुणवत्ता की कसौटी पर परखे जाते हैं और प्रमाणित किये जाते हैं. सभी डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ अनिवार्य रूप से एफएसएसएआई (FSSAI) द्वारा प्रमाणित होते हैं और इन पर शाकाहारी और मांसाहारी के लिए हरा और लाल निशान भी लगाने का प्रावधान है. जिस खाद्य पदार्थ का भारत सरकार द्वारा अनिवार्य रूप से प्रमाणीकरण किया जा रहा हो उसे हलाल प्रमाण पत्र लेने की क्या आवश्यकता.

ज्यादातर लोग सिर्फ हलाल मांस के बारे में ही जानते हैं, लेकिन आजकल लोगों की दिनचर्या में प्रयोग होने वाले अधिकांश उत्पादों पर हलाल सर्टिफिकेट दिया जा रहा है, जो भारत की 80% से भी अधिक गैर मुस्लिम जनसंख्या के लिए अशुद्ध और अस्वीकार्य है. इसलिए यह प्रमाणन घोर आपत्तिजनक है और पूरे भारत में तत्काल प्रभाव से बंद होना चाहिए. इस्लामिक मामलों के विशेषज्ञ भी यह मानते हैं कि हलाल केवल मांस पर लागू होता है, जिसके लिए जानवर को मारने की एक अलग प्रक्रिया अपनाई जाती है. सभी हिंदू और अन्य भारतीय परंपरागत रूप से झटका का मांस खाते हैं और उनके लिए हलाल मांस अस्वीकार्य है. हलाल प्रक्रिया के अनुसार वध करने में जानवर को अत्यधिक कष्ट होता है क्योंकि वह तड़प तड़प कर मरता है. इसके विपरीत झटका विधि के अनुसार जानवर का बध एक झटके से कर दिया जाता है जिसमे उसे कष्ट नहीं होता है.

हलाल सर्टिफिकेट जारी करने के लिए कई औपचारिकताएं होती हैं जिसमें उत्पाद बनाने के लिए मुसलमान कर्मचारियों का होना एक अनिवार्य शर्त है. यह बिना किसी संवैधानिक व्यवस्था के प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण करने जैसा है, जो मुस्लिम समुदाय को रोजगार प्राप्त करने के अवसर भी उपलब्ध कराता है. इसके अतरिक्त परिसर में प्रार्थना कक्ष, क़िबला दिशा सूचक, नमाज चटाई, स्थानीय नमाज की समय सूची, कुरान की कॉपी, रमजान से संबंधित सेवाएं उपलब्ध होना भी आवश्यक है. समझना मुश्किल नहीं है कि हलाल प्रमाण पत्र लेने वालों से ही इस्लाम का प्रचार और प्रसार करवाया जाता है.

हलाल सर्टिफिकेशन केवल खाद्य उत्पादों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी पहुँच जीवन के हर क्षेत्र में हो रही है जैसे गैर-अल्कोहल पेय पदार्थ, खाद्य प्रसंस्करण, फार्मास्यूटिकल और स्वास्थ्य उत्पाद, पारंपरिक हर्बल (आयुर्वेद) उत्पाद,सभी तरह के सौंदर्य प्रसाधन,सफाई उत्पाद और दैनिक उपभोग की सभी वस्तुए शामिल हैं. यही नहीं कच्चे माल, भण्डारण, और पूरी औद्योगिक इकाई पर भी हलाल प्रमाणन आवश्यक है। दो दशक पहले तक मांस को छोड़कर यह किसी पर लागू नहीं था। अब यह जीवन के हर क्षेत्र पर लागू है, जैसे अस्पताल, पर्यटन कंपनी, रेस्तरां, इन फ्लाइट भोजन, आवासीय योजना, फ्लैट, मकान तथा हलाल टूरिज्म आदि. अब तो हलाल डिजिटल करेंसी भी लांच की गयी है.

उद्देश्य स्पष्ट है इसके माध्यम से राष्ट्र का इस्लामीकरण करना जो केवल आतंवादियों और पत्थरबाजों द्वारा नहीं किया जा सकता. इसके लिए अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण भी आवश्यक है. गजवा ए हिन्द पर पहले से ही काम किया जा रहा है. भारत में हलाल अर्थ व्यवस्था अभी तो मकड़ी के जाल की तरह है, जिसे तुरंत साफ़ नहीं किया गया तो देश की अर्थव्यवस्था के लिए फांसी का फंदा साबित हो सकता है और भारत के राष्ट्रान्तरण का कारण भी बन सकता है.

~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~


रविवार, 15 अक्तूबर 2023

इसराइल, हमास और भारत

 

हमें इसराइल, हमास और भारत को आज के परिपेक्ष्य में समझना होगा. हमें हमास और फिलिस्तीन में भी अंतर करना होगा. इस समय फिलिस्तीन कहीं भी परिद्रश्य में नहीं है लेकिन वर्ग विशेष और उसके प्रेमी फिलस्तीन के बहाने आतंकवाद को समर्थ देते हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ की योजनानुसार 14 मई 1948 को रात 12:00 बजे अस्तित्व में आने के बाद से ही इजराइल इस्लामिक जिहाद का सामना कर रहा है क्योंकि अस्तित्व में आने के 5 मिनट बाद ही उस पर आक्रमण हो गया. तब से इजरायल ने न केवल इन आक्रमणों के साथ जीना सीखा बल्कि उनके साथ आगे बढ़ना भी सीखा और अपनी प्रगति और समृद्धि का उदाहरण दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया. विश्व के ज्यादातर लोग तभी से यहूदियों को सही अर्थों जान सके लेकिन उससे पहले इन यहूदियों पर कितना अत्याचार हुआ, इन्हें मिटाने का प्रयास किया गया, अधिकांश लोग नहीं जानते और विमर्श भी ऐसा बनाया जाता है की लोग सच्चाई जान भी नहीं पाते. 1949 में एक आर्मीस्‍टाइस लाइन खींची गई, जिसमें फिलिस्‍तीन के 2 क्षेत्र बने- वेस्‍ट बैंक तथा गाजा और दोनों के बीच इजराइल. इस प्रकार फ़िलिस्तीन दो जगह ठीक उसी प्रकार था जैसे विभाजन के बाद भारत के पश्चिमी और पूर्वी ओर पाकिस्तान था. गाजा लगभग 40 किलोमीटर लंबी और 6 से 8 किलोमीटर चौड़ी समुद्र के किनारे एक पट्टीनुमा जगह है इसलिए इसे गाजा पट्टी भी कहा जाता है, जो 2005 तक इजरायल के कब्जे में थी लेकिन 2005 में इजराइल ने शांति समझौते के अंतर्गत गाजा की इस भूमि से अपना कब्जा हटा कर फ़िलिस्तीन को सौंप दिया. फ़िलिस्तीन के हाथों से गाजा की यह भूमि आतंकी संगठन हमास के हाथों आ गई. हमास के मुखिया कतर में रहकर गाज़ा का शासन चलाते हैं. हमास की वित्तीय जरूरतें अरब देशों के अतिरिक्त ईरान पूरी करता है जिससे वह अपनी आतंकवादी गतिविधियाँ चलाता है. स्वाभाविक है इन देशों की सहायता से ही हमास इसराइल पर इतना बड़ा आक्रमण कर सका.

आतंकी संगठन हमास द्वारा इजराइल पर किया गया आक्रमण हाल के दिनों में इस्लामिक जिहाद की क्रूरतम घटनाओं में से एक है जिसने पूरे विश्व के अधिकांश मनुष्यों की अंतरआत्मा को झकझोर दिया सिवाय कुछ उन लोगों के जिनके अंदर मानवता नाम की कोई चीज़ नहीं होती. दुर्भाग्य से भारत का इतिहास इस्लामिक आक्रांताओं के इससे भी अधिक घिनौने भयानक और अमानवीय कुकृत्यों से भरा पड़ा है, जिसे आज की पीढ़ी ठीक से जानती भी नहीं क्योंकि नेहरू ने इतिहास में लीपापोती कर इस्लामिक आक्रांताओं के कुकृत्यों पर पर्दा डालने का काम किया. ये छिपी हुई बात नहीं कि हमास इजरायल को पूरी तरह समाप्त करके पूरे क्षेत्र को फ़िलिस्तीन घोषित करके इस्लामिक साम्राज्य स्थापित करना चाहता है.

  1. ऐसे समय जब इजराइल छुट्टियां मना रहा था और गाजा पट्टी के निकट संगीत महोत्सव चल रहा था, हमास ने इजराइल की बेहद चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए तीन तरफ से आक्रमण किया. संगीत महोत्सव में आये अधिकांश लोगों को आतंकियों नें बेहद निर्ममता से मार डाला और बहुत से लोगों को बंधक बना लिया. आतंकियों ने घरों में घुसकर क्रूरता की सारी सीमाएं तोड़ते हुए परिवार के परिवार साफ कर दिए. अगवा की गई महिलाओं और बच्चों के साथ दरिंदगी की सारी सीमाएं तोड़ दी गई. जीवित महिलाओं के साथ ही नहीं, उनकी लाशों तक के साथ दरिंदगी की गई. मृत महिलाओं के शरीर को निर्वस्त्र करके सार्वजनिक परेड कराई गई. कई छोटे छोटे बच्चो के सिर तन से जुदा कर दिए गए. इजराइल में मृतकों का आंकड़ा अब तक 1300 पार कर चुका है, लगभग 10,000 लोग घायल हैं, जिनमें 2000 की हालत गंभीर हैं. इजराइल ने स्वाभाविक प्रतिक्रिया स्वरूप युद्ध घोषित करते हुए गाजा पट्टी पर ताबड़तोड़ हमले किये. इजराइल की गई कार्रवाई के बाद हमास ने गाजा में अपहृत लोगों की परेड कराकर इजराइल को धमकी दी है कि अगर उसने गाजा पर हमले किए तो बंधकों की हत्या कर दी जाएगी। इस तरह का ब्लैकमेल इस्लामिक आतंकवादियों के लिए नया नहीं है। 

इसके बाद दुनियाभर के देश पक्ष विपक्ष में खड़े होने लगे. एक तरफ ऐसे देश हैं, ऐसे लोग हैं जिन्होंने हमास आतंकियों द्वारा की गई अमानवीय और हृदय विदारक कार्रवाइयों की घोर निंदा की है और आतंकी कार्रवाइयों के विरोध में एकजुटता प्रदर्शित करते हुए इजरायल के साथ खड़े हैं. वहीं दूसरी ओर ऐसे देश हैं जो इस्लामिक भाईचारा और जेहाद को समर्थन करते हुए हमास के साथ खड़े हैं. भारत के अंदर जैसी प्रतिक्रिया हुई है, हैरान करने वाली नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इजरायल पर आतंकी हमले की निंदा करने में बिल्कुल भी देर नहीं लगायी और आतंक के विरुद्ध इजरायल के साथ मजबूती से खड़े रहने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई. इसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है क्योंकि भारत में अब तक सरकारों द्वारा इस तरह के निर्णय केवल भारतीय मुसलमानों को देखकर ही किए जाते रहे हैं, मानवता या राष्ट्रीय हित गौण होते थे. इस प्रकार अधिकांश समय भारत की विदेश नीति पर तुष्टिकरण की छाया रहती आयी है। स्वतंत्रता के बाद शायद यह पहली बार है, जब किसी सरकार ने सच को सच और झूठ को झूठ कहने की हिम्मत दिखाई है, और ये बेहद साहसिक कदम है. सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत स्वतंत्र फिलिस्तीनी की मांग का भी समर्थन करता है और उसकी परंपरागत विदेशनीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है लेकिन किसी भी आतंकी कार्रवाई का समर्थन नहीं किया जा सकता है.

मोदी सरकार द्वारा इजरायल को समर्थन देने का फैसला राष्ट्रीय फैसला है, और सभी देशवासियों को इसका सम्मान करना ही चाहिए। दुर्भाग्य से भारत इस मामले में भी एकजुटता नहीं दिखा सका. कांग्रेस कार्यसमिति ने आतंकी कार्रवाई का विरोध नहीं किया लेकिन फ़िलिस्तीन को अपना समर्थन किया. यद्यपि वर्तमान मामला इजराइल और आतंकवादी संगठन हमास के बीच का है, और हमास को फ़िलिस्तीन की सेना नहीं माना जा सकता और अगर फ़िलिस्तीन की सेना भी होती, तो भी अमानवीय कार्रवाई स्वीकार्य नहीं की जा सकती. भारत के मुसलमानों के एक बहुत बड़े वर्ग ने हमेशा की तरह मुस्लिम ब्रदरहुड के नाम पर हमास का समर्थन किया और मोदी द्वारा हमास के बर्बर आतंकी तांडव का विरोध करने और इजरायल के साथ सहानुभूति प्रदर्शित करने की कड़ी भर्त्सना की. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हमास की कार्रवाई का समर्थन किया है। बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने बयान जारी कर कहा कि हमास की मौजूदा कार्रवाई फलस्तीनी जनता के साथ किए जा रहे जुल्म और मस्जिद अल-अक्सा की बेहुरमती (अपमान) की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। उसने कहा कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की परंपरा को नजरअंदाज कर शोषितों के बजाय उत्पीड़न करने वालों का खुला समर्थन किया, जो देश के लिए बेहद शर्मनाक और दुखद है। इस तरह की विचारधारा घृणित, सांप्रदायिक और मानवता विरोधी हैं, जिसकी हर संभव निंदा की जानी चाहिए. फ़िलिस्तीन के अधिकारों पर बात हो सकती है लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित दुर्दांत आतंकी संगठन और उसके कुकृत्यों की तरफदारी नहीं की जा सकती और उसके साथ खड़े होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अलावा भी कई मुस्लिम राजनेताओं ने हमास की कार्रवाई का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन किया. भारत में आतंकी घटनाओं पर मुस्लिम समुदाय हमेशा कहता है कि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता तो फिर आज धर्म के नाम पर हमास का समर्थन क्यों।

इंदिरा गाँधी के इशारे पर गठित मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड शुरू से ही देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच घृणा उत्पन्न करके देश का वातावरण सांप्रदायिक बनाने का कार्य कर रहा है. सरकार को चाहिए कि इस राष्ट्र विरोधी संगठन को तुरंत प्रतिबंधित करे. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का बेतुका बयान देश में दंगे कराने की बड़ी साजिश हो सकता है. वैसे भी 2024 के चुनावों के मद्दे नजर अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक बामपंथ गठजोड़ भारत में तरह तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहा है या उनके विमर्श स्थापित कर रहा है. जिसमे हिंदू मुस्लिम टकराव, हिंदुओं में जाति संघर्ष करवाना प्रमुख अजेंडा है। मणिपुर से मेवात तक और गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में घटित तमाम घटनाओं में इस अजेंडे की झलक है।

इस सबके बीच मुस्लिम समाज से आशा की एक किरण भी उभरी है, जो भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग के प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचायक है. ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम समाज ने इजराइल और फलस्तीन के बीच चल रहे युद्ध में आम नागरिकों के मारे जाने पर दुख जताते हुए संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष परवेज हनीफ ने कहा कि हम किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन नहीं करते हैं। उन्होंने कहा कि ये पूरा मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है, इसलिये भारत सरकार की जो भी रणनीति होगी, उनका संगठन उसका समर्थन करेगा। निश्चित रूप से ऐसे मुस्लिम संगठनों की जो कट्टरता का जाल तोड़कर राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ खड़े होने का साहस रखते हैं, प्रशंसा की जानी चाहिए और उनकी आवाज को महत्त्व भी दिया जाना चाहिए.

भारत के देशभक्त लोगों को बेहद सतर्क रहने की आवश्यकता है, क्योंकि इजराइल की ही तरह कई इस्लामिक संगठन गज़वा ए हिंद के माध्यम से भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाना चाहते हैं. इसलिए जाति पाति का भेदभाव भुलाकर जिहादी विचारधारा और इसका समर्थन करने वाले राजनैतिक दलों का पुरज़ोर विरोध करके यह यह भी सुनिश्चित करें कि ऐसे राजनीतिक दल किसी भी परिस्थिति में सत्ता में न सके अन्यथा भारत के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है.

~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~~~~~



बुधवार, 27 सितंबर 2023

क्या कल के ब्राह्मण (और अन्य ऊंची जातियां) आज के दलित बन रहे हैं?

 

François Gautier

 

THE DALITS AS BRAHMINS AND THE BRAHMINS AS DALITS

(François Gautier की रिपोर्ट का हिन्दी रूपांतर)


क्या कल के ब्राह्मण (और अन्य ऊंची जातियां) आज के दलित बन रहे हैं?

 

    ऐसे समय में जब ट्विटर के  जैक डोरसी भारत की यात्रा पर थे, 'तथाकथित' ब्राह्मण प्रभुत्व और जिसे 'जाति रंगभेद' कहा जाता है, का विरोध करने वाले पोस्टर के साथ फोटो खिंचवाई जाती है, कोई भी उच्च जातियों की दुर्दशा के बारे में बात नहीं करता है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों की सार्वजनिक छवि एक संपन्न, लाड़-प्यार वाले वर्ग की है। लेकिन क्या आज ऐसा है?


    खैर, आप खुद जज करें: दिल्ली में 50 सुलभ शौचालय (सार्वजनिक शौचालय) हैं; सभी की सफाई और देखभाल ब्राह्मणों द्वारा की जाती है (यह बहुत ही स्वागत योग्य सार्वजनिक संस्थान एक ब्राह्मण द्वारा शुरू किया गया था)। प्रत्येक शौचालय में 5 से 6 ब्राह्मण होते हैं। ये ब्राह्मण आय के स्रोत की तलाश में आठ से दस साल पहले दिल्ली आए थे, क्योंकि वे अपने अधिकांश गाँवों में अल्पसंख्यक थे, जहाँ दलित बहुसंख्यक (60 - 65%) हैं। यूपी और बिहार के अधिकांश गांवों में, दलितों का एक संघ है जो उन्हें गांवों में रोजगार सुरक्षित करने में मदद करता है। ब्राह्मणों के लिए बहुत बुरा ! क्या आप जानते हैं कि दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आपको कई ब्राह्मण कुली के रूप में काम करते हुए भी मिलते हैं? उनमें से एक, कृपा शंकर शर्मा का कहना है कि उनकी बेटी विज्ञान में स्नातक कर रही है, लेकिन उन्हें यकीन नहीं है कि वह नौकरी हासिल कर पाएगी या नहीं। वह कहते हैं, ''दलितों के अक्सर पांच से छह बच्चे होते हैं, लेकिन उन्हें भरोसा है कि वे उन्हें आसानी से और अच्छी तरह से पाल लेंगे। नतीजतन, गांवों में दलित आबादी बढ़ रही है। वह कहते हैं: “दलितों को आवास उपलब्ध कराया जाता है, यहाँ तक कि उनके सूअरों के लिए भी जगह है; जबकि ब्राह्मणों की गायों के लिए गोशालाओं का कोई प्रावधान नहीं है”।


    आपको दिल्ली में ब्राह्मण रिक्शा चालक भी मिल जाएंगे। पटेल नगर में 50% रिक्शा चालक ब्राह्मण हैं जो अपने अन्य भाइयों की तरह नौकरी की तलाश में शहर चले गए हैं। पूरे दिन की मेहनत के बाद भी, दो ब्राह्मण रिक्शा चालक, विजय प्रताप और सिद्धार्थ तिवारी का कहना है कि वे मुश्किल से अपना गुज़ारा चला पा रहे हैं। उनके रिक्शा, जो 25/- रुपये दैनिक किराए पर हैं, अक्सर चोरी हो जाते हैं। ये पुरुष हर दिन औसतन लगभग 100/- से 150/- रुपये कमाते हैं, जिसमें से 500/- से 600/- रुपये उनके कमरे के किराए में चला जाता है, जिसे 3 से 4 लोग या उनके परिवार साझा करते हैं।

    पश्चिम पटेल नगर में काम करने वाले रिक्शाचालक, उनमें से अधिकांश की उम्र तीस वर्ष है, बलजीत नगर और शादीपुर गाँव जैसे आस-पास के इलाकों में रहते हैं। ये सभी उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के रहने वाले हैं। उनमें से कुछ 28 वर्षीय ब्राह्मण अरुण कुमार पांडे जैसे योग्य हैं, जिन्होंने हाई स्कूल की पढ़ाई की है। उनका कहना है कि वह एक रिक्शाचालक के रूप में काम कर रहे हैं क्योंकि उनके गांव में रोजगार के अवसर कम हैं और स्कूली शिक्षा स्तर तक नहीं है। वह एक कमरे में किराए पर रह रहा है जिसे चार लोग साझा करते हैं और 600 रुपये मासिक भुगतान करते हैं। क्या आप यह भी जानते हैं कि बनारस के अधिकांश रिक्शेवाले ब्राह्मण हैं ?

    यह उल्टा भेदभाव नौकरशाही और राजनीति में भी पाया जाता है। अधिकांश बौद्धिक ब्राह्मण तमिल वर्ग तमिलनाडु के बाहर चले गए हैं। संयुक्त यूपी और बिहार विधानसभा में 600 में से केवल 5 सीटों पर ब्राह्मणों का कब्जा है - बाकी यादवों के हाथ में हैं। कश्मीर घाटी के पिछले 400,000 ब्राह्मण, कभी सम्मानित कश्मीरी पंडित, अब अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में रहते हैं, कभी-कभी जम्मू और दिल्ली में शरणार्थी शिविरों में भयावह स्थिति में रहते हैं। लेकिन उनकी फिक्र किसे है? उनका वोट बैंक नगण्य है।

क्या आपको लगता है कि यह केवल उत्तर में है? आंध्र प्रदेश में 75% घरेलू नौकर और रसोइया ब्राह्मण हैं। में एक जिले में ब्राह्मण समुदाय का एक अध्ययन आंध्र प्रदेश (चुघ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित जे.राधाकृष्ण द्वारा रचित ब्राह्मण ऑफ इंडिया) से पता चलता है कि आज सभी पुरोहित गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं।

 

सर्वेक्षण में शामिल 80 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनकी गरीबी और पोशाक और बालों की पारंपरिक शैली (टफ्ट) ने उन्हें उपहास का पात्र बना दिया था। "पिछड़े वर्गों" के लिए आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था के साथ मिलकर वित्तीय बाधाओं ने उन्हें अपने बच्चों को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने से रोक दिया।

वास्तव में इस अध्ययन के अनुसार ब्राह्मण छात्रों की संख्या में समग्र गिरावट आई है। ब्राह्मणों की औसत आय गैर-ब्राह्मणों की तुलना में कम होने के कारण, ब्राह्मण छात्रों का एक बड़ा प्रतिशत मध्यवर्ती स्तर पर पढ़ाई छोड़ देता है। 5-18 वर्ष आयु वर्ग में, 44 प्रतिशत ब्राह्मण छात्रों ने प्राथमिक स्तर पर और 36 प्रतिशत ने प्री-मैट्रिक स्तर पर शिक्षा छोड़ दी। अध्ययन में यह भी पाया गया कि सभी ब्राह्मणों में से 55 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे रहते थे जो प्रति व्यक्ति से नीचे है.

650 रुपये प्रति माह की आय

  • चूंकि भारत की कुल आबादी का 45 प्रतिशत आधिकारिक तौर पर गरीबी रेखा से नीचे बताया गया है, यह प्रतिशत इस प्रकार है
  • निराश्रित ब्राह्मणों की संख्या अखिल भारतीय संख्या से 10 प्रतिशत अधिक है। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि ब्राह्मणों की स्थिति देश के अन्य भागों में  अलग है
  • इस संबंध में यह उद्धृत करना भी उचित होगा. राज्य विधानसभा में कर्नाटक के वित्त मंत्री द्वारा बताई गई विभिन्न समुदायों की प्रति व्यक्ति आय: ईसाई रु.1562, वोक्कालिगा रु.914, मुसलमान -794 रुपये, अनुसूचित जाति  680 रुपये, अनुसूचित जनजाति 577 रुपये और ब्राह्मणों  537 रुपये।

भयावह गरीबी कई ब्राह्मणों को शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर करती है जिससे स्थानिक फैलाव होता है और परिणामस्वरूप उनके स्थानीय प्रभाव और संस्थानों में गिरावट आती है।

ब्राह्मणों ने शुरू में सरकारी नौकरियों और कानून और चिकित्सा जैसे आधुनिक व्यवसायों की ओर रुख किया। लेकिन गैर-ब्राह्मणों के लिए प्राथिमिकता की  नीतियों के कारण ब्राह्मण इन क्षेत्रों में भी पीछे धकेल दिए गए। आंध्र प्रदेश के अध्ययन के अनुसार, ब्राह्मणों का सबसे बड़ा प्रतिशत आज घरेलू नौकरों के रूप में कार्यरत है। इनमें बेरोजगारी की दर 75 फीसदी तक है.

अमीर और घमंडी ब्राह्मण पुजारी के सम्बन्ध प्रचिलित मिथक ? सत्तर प्रतिशत ब्राह्मण अभी भी अपने वंशानुगत व्यवसाय पर निर्भर हैं। सैकड़ों परिवार ऐसे हैं जो महज 10 रुपये पर गुजर-बसर कर रहे हैं। विभिन्न मंदिरों में पुजारी के रूप में प्रति माह 500 (धर्मस्व सांख्यिकी विभाग) पुजारी आज भारी कठिनाई में हैं, कभी-कभी जीवित रहने के लिए भीख माँगने के लिए भी मजबूर हो जाते है। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जिनमें वेदों का अध्ययन करने वाले ब्राह्मण पुजारियों का उपहास और अपमान किया जा रहा है। तमिलनाडु के रंगनाथस्वामी मंदिर में, एक पुजारी का मासिक वेतन 300 रुपये (जनगणना विभाग अध्ययन) और एक माप चावल का दैनिक भत्ता है। उन्हीं मंदिरों में सरकारी कर्मचारियों को प्रति माह 2500 रुपये से अधिक मिलते हैं। लेकिन इन तथ्यों ने इन पुजारियों  की " लुटेरे " और "शोषक" की छवि  नहीं बदली है। हिंदू पुजारियों की बदहाली ने किसी को भी विचलित नहीं किया, यहां तक कि हिंदू सहानुभूति के लिए जाने जाने वाले राजनैतिक दलों को भी नहीं।

आधुनिक भारत की त्रासदी यह है कि दलितों, ओबीसी और मुसलमानों के संयुक्त वोट किसी भी सरकार के निर्वाचित होने के लिए पर्याप्त हैं। आजादी के बाद कांग्रेस ने इसे तुरंत भुना लिया, लेकिन सोनिया और राहुल गांधी की कांग्रेस के अलावा शायद किसी  और राजनैतिक दल नें  वोट बटोरने के लिए भारतीय समाज को बांटने में इतनी बेशर्मी  नहीं दिखाई है। उनकी पिछली कांग्रेस सरकार ने मस्जिदों में इमामों के वेतन के लिए 1000 करोड़ और हज सब्सिडी के रूप में 200 करोड़ दिए लेकिन ब्राह्मणों और ऊंची जातियों के लिए ऐसी कोई सहायता उपलब्ध नहीं है।

 गैर-धर्मनिरपेक्ष दिखने के डर से वर्तमान भाजपा सरकार भी ज्यादा प्रयास नहीं कर रही है। नतीजतन, न केवल ब्राह्मण, बल्कि निम्न मध्य वर्ग की कुछ अन्य उच्च जातियां भी आज  पीड़ित और चुपचाप हैं, और धीरे-धीरे अल्पसंख्यकों को अपने बहुमत पर नियंत्रण करते हुए देख रही हैं। ब्राह्मण विरोध हिंदू विरोधी हलकों में उत्पन्न हुआ और अभी भी पनप रहा है। मार्क्सवादियों, मिशनरियों, मुसलमानों, अलगाववादियों और विभिन्न रंगों के ईसाई समर्थित दलित आंदोलनों के बीच इस पर विशेष रूप से खुशी  है। जब वे ब्राह्मणों पर हमला करते हैं, तो उनका लक्ष्य स्पष्ट रूप से हिंदू धर्म होता है।

ट्विटर और फेसबुक अलग नहीं हैं क्योंकि उनके पास इस्लामोफोबिया के खिलाफ दिशानिर्देश हैं, लेकिन हिंदूफोबिया का स्वागत करते हैं।

तो सवाल पूछा जाना चाहिए: क्या कल के ब्राह्मण (और अन्य ऊंची जातियां) आज के दलित बन रहे हैं?

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François Gautier की वेबसाईट -https://www.francoisgautier.com/2019/10/15/the-dalits-as-brahmins-and-the-brahmins-as-dalits-2/

से साभार लिया गया और हिन्दी रूपांतरित किया गया