शनिवार, 30 अप्रैल 2022

Be Truly Secular

 

My compliments to Republic TV for this campaign. 

Bharat that is India had been secular because of Sanatan Dharma and its Vasudhaiv Kutumbkam Sanskriti. Pseudo secularism started in  a way when Gandhi started practicing Muslim minoritism. After partition of India both Gandhi and Nehru did not allow all the Muslims to go to Pakistan because of vested interest. Nehru in order to strengthen his weak  position in the Congress, started Muslim appeasement while claiming himself as champion of the secularism. That was a period when pseudo  secularism got  Momentum in India and there after all governments except Vajpayee and Modi governments continued the Muslim appeasement policy. 

Almost all the Regional political parties are following appeasement policy for vote bank politics. Gradually the secularism in India has been changed to criticizing Hindu and appeasing Muslims. now Hindu temples are controlled by the government and the religious places of other communities are free from any interference.  In fact, money of temples is being spent on other religious institutions. 

See few recent examples of secularism -

1. Maharashtra government issued instruction that Azan on loudspeakers will go as it is and 15 minutes before and after Azan no loudspeaker can be played within the 100 meters of Mosque  area. At the same time the same government has  arrested  MP Navneet Rana and his husband an independent MLA for merely declaration to recite Hanuman Chalisa in front of Matoshree.

2. Rajasthan government blocked the roads and  closed the Markets  in Jaipur and made all necessary arrangements including fitting of  loudspeakers on   poles with full volumes  in the city for performing   Namaz on the roads. 

Same Rajasthan government did not provide any security to the processions on  Ram Navami and Hanuman Janmotsav, resulting into stone pelting on the procession by minority community.   

 3. Yogi Govt. in UP  ensured that Namaz is not performed on roads to avoid inconvenience to the public in general . He also ensured  removal of  loudspeakers from temples, mosques and Gurudwaras and lowering down the volume of the remaining to ensure Supreme Court's  instructions. 

There was not even a single clash on Ram Navami, Hanuman Janmotsav and Alvida Namaj.  

Now imagine  who is more secular ? Yogi is branded communal but Uddhav and  Gehlot are secular. 

This is the country where - 

  • One can find place for Namaz in every Airport. 
  • All the states have Haz Houses.
  • Rioters, stone palters  are called secular,  but bulldozers are communal.

Please do not tolerate appeasement and pseudo secularism.   

Let everybody “Be truly secular” in India.

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- Shiv Mishra 

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2022 में किस राजनीतिक दल ने सबसे ज्यादा अवसर गवा दिए ?

 

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव कई मायनों में बहुत रोमांचकारी रहे. इसमें भाजपा और सपा गठबंधन के बीच सीधा मुकाबला था. बसपा और कांग्रेसी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे लेकिन एआई एमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने  उत्तर प्रदेश में प्रयोग कर रहे थे   कि क्या मुस्लिम मतदाता किसी मुस्लिम पार्टी के पक्ष में लामबंद हो सकते हैं.

जहां भाजपा मोदी और योगी की लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर दूसरी बार सत्ता पाने के लिए आत्मविश्वास पूर्वक मैदान में थी, वहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर योगी को खलनायक के रूप में पेश करते हुए मैदान में ताल ठोक रहे थे. वह 2012 में समाजवादी पार्टी को मिली सफलता को दोहराना चाह रहे थे. उन्होंने छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन किया था और भाजपा से कुछ मंत्रियों और विधायकों को तोड़कर योगी विरोधी लहर बनाने की कोशिश की.

बात करते हैं  राष्ट्रीय लोक दल के नेता जयंत चौधरी की जिन्होंने  अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया था. एक साल तक दिल्ली की सीमाओं पर तंबू कनात लगाए बैठे तथाकथित किसान आंदोलनकारियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बाहुल्य क्षेत्र की भी सहानुभूति हासिल थी और उसके पीछे कारण थे राकेश टिकैत जो जाट होने के साथ साथ भारतीय किसान यूनियन नेता भी थे और इस कारण क्षेत्र में ऐसा माहौल बनाया गया था जिसे लगता था कि इस बार यहां भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाएगा, जहां भाजपा ने पिछले तीन चुनावों, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव, में लगातार शानदार सफलता हासिल की थी. यही जयंत मात खा गए.  

वैसे तो जयंत चौधरी चौधरी अजीत सिंह के बेटे और चौधरी चरण सिंह के पौत्र हैं और यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक हैसियत भी है, अन्यथा पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका कोई खास वजन नहीं है. हमेशा जाट पहचान से जुड़े होने के कारण चौधरी चरण सिंह भी सीटों की संख्या में  आशातीत बढ़ोतरी नहीं कर सके थे . राजनीतिक विस्तार के लिए उन्होंने पहले अजगर ( AJGR-अहीर,जाट, गुर्जर और राजपूत ) और बाद में मजगर (MAJGR - मुसलमान, जाट, गुर्जर और राजपूत) मतदाताओं को संगठित करने की कोशिश की लेकिन फिर भी अपने दम पर बड़े दल के रूप में नहीं उभर पाए.

चौधरी अजीत सिंह ने अपने पिता चरण सिंह की विरासत को संभाला जरूर  लेकिन राजनीतिक विस्तार में उन्हें भी कोई अप्रत्याशित सफलता नहीं मिली और उनका आधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुल सीटों तक ही सीमित रहा. उन्हें यह गलतफहमी कभी नहीं रही कि वह अपने राजनीतिक दल के सहारे कभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन पाएंगे इसलिए अपने अत्यंत छोटे संख्या बल के सहारे भी अपने राजनीतिक कौशल से लगभग हर राजनीतिक दल की केंद्र सरकार में मंत्री पद प्राप्त करने में सफल रहे और शायद  यही  उनकी सबसे बड़ी सफलता थी.

जयंत चौधरी अपने पिता के इस राजनैतिक कौशल को ठीक से समझ नहीं पाए. राष्ट्रीय लोक दल के नेता के रूप में वह चाहे जितने भी गठबंधन करें वह कभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी प्राप्त नहीं कर सकते हैं, और ना ही केंद्र में कभी किंग मेकर की भूमिका में आ सकते हैं. इसलिए उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है अपना राजनीतिक वजूद बनाए रखना जिसके लिए उन्हें किसी ऐसे राजनीतिक दल से गठबंधन करने की आवश्यकता हमेशा पड़ेगी जो या तो सत्ता में हो या जिसकी सत्ता में आने की संभावना हो, जिसके सहारे वह सत्ता में भागीदारी कर सकें और अपने मतदाताओं की अपेक्षाओं को भी पूरा कर सकें. लंबे समय तक विपक्ष में रहकर कोई भी राजनीतिक दल अपना अस्तित्व बचाकर नहीं रख सकता.

जयंत चौधरी के पास गठबंधन करने के लिए दो अच्छे विकल्प थे भाजपा और सपा. उन्होंने सपा से गठबंधन किया जो तभी  सार्थक हो सकता था जब सपा सत्ता में आती और उन्हें कुछ मंत्री पद हासिल हो जाते. भाजपा के साथ गठबंधन करने से उन्हें गारंटीड रिटर्न  मिल  सकता था. यदि प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती  तो उन्हें यहां सत्ता में भागीदारी मिलती  और यदि प्रदेश में भाजपा सरकार नहीं भी बनती तो भी  केंद्र में सत्ता में भागीदार बनने की भरपूर संभावना थी. भाजपा ने उनसे गठबंधन करने के संकेत भी दिए थे, अमित शाह ने इसका जिक्र भी किया था,  जिसे  वह ठीक से समझ नहीं सके. केंद्रीय मंत्रिमंडल में अभी भी जाटों का प्रतिनिधित्व कम है. आज की परिस्थितियों में उनके पास सिवाय असमंजस के कुछ भी नहीं बचा है, यहाँ तक की भाजपा का उनकी फिलहाल जरूरत नहीं  है.  

अखिलेश यादव जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसके चलते अगर उनका सपा के साथ गठबंधन चलता भी रहा  तो भी अगले लोकसभा चुनाव में भी उनके पास बहुत अवसर नहीं है और उसके बाद 2027 के विधानसभा चुनाव में भी कोई अच्छे आसार नजर नहीं आते. उनकी पार्टी भी इतनी बड़ी नहीं है जिससे किसी चमत्कार होने की आशा हो. 

हाल ही में उन्होंने सपा के असंतुष्ट नेता आजम खान के  परिवार से मुलाकात की और एक नए राजनीतिक गठबंधन के संकेत दिए. अगर ऐसा हो भी जाता है तो वह अखिलेश यादव का तो बहुत नुकसान होगा  लेकिन उनका अपना कितना फायदा होता है, यह देखने की बात होगी. वैसे आजम खान भी पुराने नेता है और वह राष्ट्रीय लोक दल जैसे एक  छोटे राजनीतिक दल में  शामिल होंगे इसकी संभावना नहीं लगती. हां अगर आजम खान अपनी अलग पार्टी बनाते हैं तो राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन कर सकते हैं, लेकिन ऐसा गठबंधन सत्ता में पहुंचेगा इसकी संभावना नहीं लगती.

यद्यपि पिछले विधानसभा चुनाव की अपेक्षा जयंत चौधरी के विधायकों की संख्या बढ़ गई है फिर भी भाजपा के साथ गठबंधन करने में उनका बहुत फायदा था जिसे नजरअंदाज करके उन्होंने राजनीतिक अदूरदर्शिता का ही  परिचय दिया है. इसलिए उनके  विधायकों की संख्या तो बढी लेकिन वह जीत कर भी जीत नहीं पाए.  हो सकता है कि उन्हें भी इसका मलाल हो लेकिन राजनीति में उचित समय पर उचित निर्णय का बहुत महत्त्व होता है और इस मामले में जितिन प्रसाद और नितिन अग्रवाल इनसे बीस साबित हो गए.  

- शिव मिश्रा 


मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

हिन्दुस्तान में हनुमान चालीसा पढ़ने की घोषणा भी राष्ट्रद्रोह

 

क्या हिंदुस्तान में हनुमान चालीसा पढ़ना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है ?


हनुमान चालीसा पढ़ने की घोषणा करने पर किसी पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर करने की खबर अगर आप मीडिया में सुनते हैं या समाचार पत्र में पढ़ते हैं, तो आप पक्का समझ ले कि यह हिन्दुस्तान तो नहीं होगा, भारत होगा.

अब आते हैं हनुमान चालीसा पर जिसके पढ़ने की घोषणा मात्र से राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज किया जाता है मुंबई में अमरावती की सांसद नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा पर. उन्हें राष्ट्रद्रोह, दो समुदायों के बीच वैमनस्यता फैलाने और सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में गिरफ्तार किया गया.

नवनीत राणा ने घोषणा की थी कि वह मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा का पाठ करेंगी. उनका ऐसा कहना मुंबई में लाउडस्पीकर से हनुमान चालीसा के पाठ पर प्रतिबंध लगाए जाने के विरोध स्वरूप किया गया था, जो उनका लोकतांत्रिक अधिकार है. यद्यपि बाद में प्रधानमंत्री के मुंबई में कार्यक्रम को देखते हुए उन्होंने अपनी इस घोषणा को वापस ले लिया था लेकिन इसके
बाद शिवसेना कार्यकर्ताओं ने उनके निवास पर काफी हुड़दंग मचाया, उनके घर कि चारों ओर मेडिकल एंबुलेंस लगाकर रास्ता बंद कर दिया गया. रात में ही राणा दंपति को गिरफ्तार कर लिया गया. रात भर उन्हें पुलिस लॉकअप में रखा गया और दूसरे दिन शाम को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. सभी सरकार की समझदारी पर हैरान है.

नवनीत राणा निर्दलीय सांसद है और उनके पति भी निर्दलीय विधायक हैं. आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि जो व्यक्ति निर्दलीय चुनाव लड़ कर बड़े दलों को हरा सकता है उसकी लोकप्रियता अपने क्षेत्र में कितनी होगी. हिंदूवादी विचारधारा के कारण वह भाजपा नेताओं के काफी करीब है, यह भी एक कारण है.
वैसे तो
महाराष्ट्र की उद्धव सरकार पहले दिन से ही गलत कारणों से सुर्खियों में रहती आयी है लेकिन नवनीत राणा का मामला उद्धव सरकार का निहायत अविवेकपूर्ण और बदले की भावना से किया गया मामला है. स्वयं संजय राउत और उद्धव ठाकरे ने अपने बयानों से स्पष्ट कर दिया है कि पुलिस कार्यवाही राणा दंपति को सबक सिखाने के लिए की गई है.

संजय राउत ने कहा है कि १."मातोश्री से जो पंगा लेगा उसे जमीन में 30 फीट नीचे गाड़ दिया जाएगा". वह यहीं नहीं रुके, उन्होंने दोहराया कि जो मातोश्री को चुनौती देना चाहता है वह अपने अंतिम संस्कार के सामान का इंतजाम भी कर ले." एक लोकतांत्रिक देश में एक सांसद द्वारा कहे गए ये शब्द है, और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी लोगों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. हो सकता है यह
विनाश काले विपरीत बुद्धि" की भावना को चरितार्थ कर रहा हो लेकिन केंद्र सरकार की क्या जिम्मेदारी है?


महाराष्ट्र में हनुमान चालीसा ने भूचाल ला दिया है. इसकी शुरुआत तब हुई जब सिने जगत की सुप्रसिद्ध गायिका अनुराधा पौडवाल ने पास की मस्जिद के अत्यधिक शोरगुल से होने वाली पीड़ा साझा की और ध्वनि को नियंत्रित करने की मांग की. सोशल मीडिया में इस पर खूब चर्चा हुई. यह पाया गया कि ध्वनि नियंत्रित करने के संबंध में मुंबई हाई कोर्ट और सर्वोच्च न्यायालय के के दिशा निर्देश है, जिनका पालन नहीं किया जा रहा है और धार्मिक स्थलों में पूरे वॉल्यूम के साथ लाउडस्पीकर बजाए जा रहे हैं. अजान के शोर और रमजान का महीना होने के कारण रात भर चलने वाले शोर से लोग परेशान हैं .

मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने उद्धव सरकार से विशेष संप्रदाय के धार्मिक स्थलों से कानून को दरकिनार करते हुए पूरे वॉल्यूम में लाउडस्पीकर बजाने पर रोक लगाने की मांग की है . उन्होंने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा भी कि अगर 3 मई के बाद यह जारी रहता है तो वह मुंबई के हर मंदिर में हर चौराहे पर पांचों वक्त लाउडस्पीकर से हनुमान चालीसा का पाठ करेंगे. 3 मई तक का समय इसलिए दिया गया ताकि रमजान का महीना खत्म हो जाए और सरकार को सोचने का समय भी मिल जाए.

इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने निर्देश जारी किये कि अजान के साथ कोई भी समझौता नहीं किया जाएगा और अजान जैसे चल रही थी वैसे ही चलेगी. पुलिस ने यह भी कहा की अजान के समय के 15 मिनट पहले और 15 मिनट बाद तक किसी भी मस्जिद के 100 मीटर के दायरे में कोई लाउडस्पीकर नहीं बजाया जा सकता, चाहे वह भजन - कीर्तन हो या अन्य कोई धार्मिक कर्मकांड क्यों न हो. इस फैसले ने राज ठाकरे को एक बहुत बड़ी चुनौती दे दी है और इसी चुनौती ने राज ठाकरे को एक बार फिर राजनीति में स्थापित होने में बड़ी सहायता की है. इसलिए 3 मई के बाद टकराव तो होगा ही क्योंकि राज ठाकरे मुंबई वासियों का समर्थन मिल रहा है भले ही वह कोरी राजनीति कर रहे हो.

कुल मिलाकर महाराष्ट्र सरकार और उसके शुभचिंतकों ने हनुमान चालीसा के पाठ को इस तरह से प्रस्तुत किया जैसे यह कोई संगीन अपराध हो. इसी से आहत होकर सांसद नवनीत राणा ने घोषणा की कि वह मातोश्री (उद्धव ठाकरे का निवास) के सामने हनुमान चालीसा का पाठ करेंगी. यह लोकतांत्रिक विरोध का तरीका है, उन्होंने सिर्फ घोषणा की थी, राणा दंपति मातोश्री के सामने पहुंचे भी नहीं थे. सामान्यतः पुलिस रोकने या गिरफ्तार करने की कार्यवाही तब करती है प्रदर्शनकारी प्रदर्शन स्थल पर पहुंचते हैं, लेकिन उनकी घोषणा के तुरंत बाद शनिवार शाम को ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया यद्यपि रविवार को मुंबई में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को देखते हुए उन्होंने अपना विरोध प्रदर्शन टाल दिया था लेकिन फिर भी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. नवनीत राणा की शिकायत पर लोकसभा अध्यक्ष ने  मुंबई पुलिस से 24 घंटे के अंदर जवाब मांगा है. 

सरकार से सामान्यतया जिस तरह के कार्यों की अपेक्षा की जाती है उस पर उद्धव सरकार कितनी खरी उतरी है यह तो अलग विमर्श का मुद्दा है संतुष्ट होना तो दूर, जनता स्तब्ध है और इस तरह के कारनामों से बरबस उन्हें हिन्दू ह्रदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे की याद आ जाती हैं. तरह-तरह के कांड इस सरकार के इस कार्यकाल में उजागर हुए हैं. वसूली और भ्रष्टाचार के मामले में सरकार के गृह मंत्री सहित 2 कैबिनेट मंत्री जेल में हैं.

कोविड-19 में सरकार ने जैसा किया उसे लोग कभी नहीं भूलेंगे.
तीन विभिन्न विचारधाराओं के दलों कि ये सरकार कभी एक दिशा में नहीं चलती है लोगों का मानना है कि शरद पवार ही इस सरकार के निर्माता है और पर्दे के पीछे से सरकार के संचालक भी. इसलिए लोगों की धारणा है कि शरद पवार शिव सेना को पूरी तरह से बर्बाद करके ही दम लेंगे . उनके पीछे चलना उद्धव की मजबूरी है, जिस दिन उद्धव अलग चलेंगे सरकार गिर जाएगी लेकिन क्या सरकार बचाने और मुख्यमंत्री बने रहने के लिए कोई कुछ भी कर सकता है. जो भी हो उद्धव ने राणा दंपत्ति को एक झटके महाराष्ट्र में हिंदुत्व के बड़े नायक के रूप में स्थापित कर दिया .

मुंबई उच्च न्यायालय ने राणा दंपति की FIR निरस्त करने की याचिका खारिज कर दी है, जिस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि अर्णव गोस्वामी, पालघर में पुलिस के सामने साधुओं की हत्या और कंगना रानौत के मामले में भी मुंबई उच्च न्यायालय का रुख पूरे देश में चर्चा का विषय था. निचली अदालत जिसने राणा दंपत्ति 14 दिन की न्यायिक हिरासत का आदेश दिया, उनके विवेक पर तो कोई बात करना ही बेकार है.

सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि केंद्र सरकार इतने बेबस और लाचार क्यों है? महाराष्ट्र को अभी क्या देखना बाकी है?
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- शिव मिश्रा
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रविवार, 24 अप्रैल 2022

रघुराम राजन का बयान "अल्पसंख्यक विरोधी" छवि भारत और भारतीय कंपनियों को नुकसान पहुंचाएगी.

रघुराम राजन ने कहा है कि "अल्पसंख्यक विरोधी" छवि भारत और भारतीय कंपनियों को नुकसान पहुंचाएगी। 


राहुल गांधी और रघुराम राजन के बीच क्या संबंध है? के लिए शिव मिश्रा (Shiv Mishra) का जवाब

रघुराम राजन ने जो कहा है उस पर विश्लेषण करने के पहले मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि मेरी राय में रघुराम राजन बहुत अच्छे और स्तरीय अर्थशास्त्री नहीं है, लेकिन भारत में उनका बहुत ज्यादा महिमामंडन किया गया है जिसका कारण है एंटी मोदी और एंटी इंडिया मीडिया और भारत का एक तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग जो मोदी के विरोध में खड़े हर व्यक्ति के साथ खड़ा हो जाता है.

आज यह बिल्कुल प्रमाणित है कि वह भारत विरोधी हैं और केंद्र में भाजपा और मोदी सरकार होने की वजह से देश के हालात को भारत विरोधी विदेशी लॉबी के चश्मे से देखते हैं.

उनकी नियुक्ति यूपीए के शासनकाल में हुई थी और उनके कार्यकाल का कुछ हिस्सा कांग्रेस सरकार और बाकी मोदी सरकार में था.

उनकी हार्दिक इच्छा राहुल गांधी के मनमोहन सिंह बनने की थी ( राहुल प्रधानमंत्री और वह वित्तमंत्री ). वह सोचते थे कि अगर 2019 में कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह वित्त मंत्री बन जाएंगे और उसके बाद अगर मिली जुली गठबंधन की सरकार का दौर चला तो कांग्रेश और गांधी परिवार के प्रति उनकी निष्ठा के कारण सर्वसम्मति के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं. उन्हें प्रधानमंत्री का पद अपने से सिर्फ दो कदम दूर लगता था एक कदम वित्त मंत्री बनना और दूसरा कदम प्रधानमंत्री बन जाना.

रिजर्व बैंक के गवर्नर की नियुक्ति 3 साल के लिए होती है जिसे और २ साल के लिए बढ़ाया जा सकता है. उनके कार्यकाल के दौरान डॉ सुब्रमण्यम स्वामी अनेक ऐसे तथ्य लाए जिनसे साबित होता था कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था और सरकार के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं. मोदी सरकार आने के बाद भी वह लगातार अपने गुरु पी चिदंबरम के संपर्क में रहते थे और उनकी सलाह पर कार्य करते थे. डॉक्टर स्वामी के जबरदस्त विरोध के कारण ही मोदी सरकार ने रघुराम राजन का कार्यकाल नहीं बढ़ाया. तब से लेकर आज तक रघुराम राजन मोदी और भाजपा सरकार के विरोध में खड़े हैं और हर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर सरकार की आलोचना करने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते.

रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में डॉक्टर रघुराम राजन ने भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में कोई खास सुधार तो नहीं किया लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद सरकार से उनका सामंजस्य टूट गया था. वैसे तो रिजर्व बैंक एक स्वायत्तशासी संस्था है लेकिन अगर रिजर्व बैंक सरकार से सहयोग करना बंद कर दें तो अर्थव्यवस्था की दुर्गति हो सकती है.

राजन के नीतिगत फैसलों के कारण बैंकिंग व्यवस्था चरमरा गई थी. बैंकों से ढूंढ ढूंढ कर एनपीए निकालना और उसके विरुद्ध प्रोविजन करना उनके कार्यकाल का एक प्रमुख कार्य कहा जा सकता है. इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की साख को बहुत धक्का लगा.

मजेदार तथ्य है कांग्रेश शासन के समय उन्होंने भारत में इस्लामिक बैंकिंग शुरुआत करने को सिद्धांत मंजूरी दे दी थी और प्रायोगिक तौर पर केरल में इसकी शुरुआत भी कर दी गई थी. रिजर्व बैंक से उनकी विदाई के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

आज अगर रघुराम राजन कहते हैं कि "भारत में तानाशाही है जो अपने अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करता है, जिसकी खबरें इकोनॉमिस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट में छपती हैं. देश में मौत के आंकड़े भी छिपाये जा रहे हैं।" इन सब बातों से बिल्कुल स्पष्ट है कि उनका रुख भारत विरोधी है और वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं. उनका यह कहना कि "अल्पसंख्यक विरोधी छवि भारत और भारतीय कंपनियों को नुकसान पहुंचाएगी" एक तरह से विदेशी निवेशको और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को भारत के प्रति प्रतिकूल संदेश देना है. उनके कथन के ठीक विपरीत अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और अन्य संस्थाएं भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रशंसा कर रही हैं, जैसे नीचे के चार्ट से देखा जा सकता है

वैसे तो उन्होंने कई भारतीय मुद्दों जैसे अर्थव्यवस्था की रिकवरी, श्रम कानून, न्यूनतम समर्थन मूल्य और निजीकरण आदि पर विवादित और बकवास पूर्ण बयान दिए हैं.

समझा जा सकता है कि आरबीआई के गवर्नर के रूप में उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल किया होगा. अच्छी बात यह है कि देश और विदेश में लोग उन्हें समझ गए हैं इसलिए उनकी बातों का कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता. मेरी व्यक्तिगत राय है कि हम सभी को डॉ सुब्रमण्यम स्वामी का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से ऐसी ऐसी सूचनाएं सार्वजनिक की जिसे कारण भाजपा सरकार भी बैक फुट पर आ गयी और उसने राजन का कार्यकाल नहीं बढ़ाया और देश का बड़ा नुकसान होने से बच गया हालाँकि इस पर बहुत दिनों शोर शराबा किया जाता रहा.
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- शिव मिश्रा 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

पकिस्तान बनाने के बाद भी मुस्लिम भारत में क्यों रहे?

भारत और पाकिस्तान के धार्मिक  आधार पर विभाजन के समय सारे मुसलमान पाकिस्तान क्यों नहीं गए?



यह बहुत बड़ा षड्यंत्र है. इसे समझाने के लिए थोडा पीछे जाना पडेगा.  भारत के मुसलमानों में लगभग सभी धर्मातरित हैं और वे  पहले हिंदू थे, लेकिन ये  सब इतने कट्टर हो गए कि वे स्वयं भी काफिरों का  यानी अपने हिंदू भाइयों का सफाया करने लगे. अंग्रेजों के शासन से मुक्ति के लिए जब 1857 में सैन्य विद्रोह हुआ और स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम आंदोलन शुरू हुआ तो उसमें भी हिंदू और मुसलमानों के बीच मतैक्य नहीं था. जब बहेलिया के जाल में दो अलग-अलग प्रजातियों के पक्षी फसते हैं तो मुक्ति के लिए दोनों साथ-साथ प्रयास करते हैं लेकिन यहां ऐसा भी नहीं हो पाया. मुसलमान चाहते थे कि अंग्रेजों ने मुगलों से शासन छीना है तो स्वतंत्रता के बाद शासन की बागडोर मुसलमानों के हाथ होनी चाहिए. 

इस मानसिकता के साथ उनकी मांग थी कि आंदोलन का मुखिया कोई मुसलमान हो. उस समय हिंदुओं की जनसंख्या 90% से भी अधिक थी फिर भी हिंदुओं ने दिल पर पत्थर रखकर अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय को आंदोलन का नेता स्वीकार कर उनकी अगुवाई में आंदोलन शुरू किया गया. बहादुर शाह जफर की उम्र लगभग 80 वर्ष थी और वह अपने पाजामे का नाड़ा भी खुद नहीं बाँध पाते थे. वह अंग्रेजों के मुखबिर बन गए और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सभी सेनानी एक-एक करके अंग्रेजी सेना के हाथों मारे गए. यहां से मुसलमानों को लगने लगा कि वह संख्या में कम होने के बाद भी जो चाहे कर सकते हैं.

1885 में अंग्रेजों ने कांग्रेश की स्थापना की ताकि इसके माध्यम से स्वतंत्रता की चाह रखने वाले लोगों को उलझा कर रखा जाए और अगले 100 वर्ष तक निश्चिंत होकर भारत पर शासन किया जा सकें. इस बीच हिंदू मुस्लिमों के बीच दूरियां बढ़ने लगी और 1906 मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद सभी को यह आभास हो गया था कि मुस्लिम कुछ गड़बड़ करेंगे. मुस्लिम नेताओं ने अंग्रेजों पर दबाव बनाकर भारत के साथ अन्य कई देशों जहां अंग्रेजों का शासन था, को शामिल करके बृहत भारत बनाने का सुझाव दिया ताकि उसमें मुसलमानों की संख्या इतनी ज्यादा हो जाए कि वे स्वयं सरकार बनाने में सक्षम हो जाएं, लेकिन जब ऐसा नहीं हो सका तो उन्होंने भारत की सत्ता पर काबिज होने के लिए अंग्रेजों पर दबाव बनाया. आखिरी दांव के तौर पर 1940 में लाहौर में प्रस्ताव पास करके मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बनाने की मांग कर दी.

भारत में ऐसे मुसलमानों की संख्या लगभग नगण्य थी जो पाकिस्तान की पक्षधर नहीं थे इससे कई हिन्दू  बुद्धिजीवियों को भरोसा था कि विभाजन के बाद  हिंदू और मुसलमान शांतिपूर्वक रह सकेंगे लेकिन देश का भौगोलिक बंटवारा इतना आसान नहीं था क्योंकि हिंदू और मुसलमान लगभग पूरे भारतवर्ष में मिलीजुली आबादी में  थे. इसलिए पाकिस्तान बनाने के लिए ऐसे भौगोलिक स्थान चुने गए जहां मुस्लिम जनसंख्या घनत्व बहुत ज्यादा था. 

बेहद चालाकी से पूर्वी और पश्चिमी छोर पर स्थान चिन्हित किए गए और ऐसे राज्य भी पाकिस्तान में मिलाने के प्रयास किए गए जहां पर शासक मुस्लिम थे लेकिन अधिकतर जनसंख्या हिंदू थी. इनमें जूनागढ़ और हैदराबाद प्रमुख थे. निजाम ने तो हैदराबाद में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाने के लिए बर्मा और चीन से भी मुसलमानों को लाकर बसाया. टर्की, मलेशिया, सऊदी अरब, अफगानिस्तान आदि के मुस्लिम धार्मिक  संगठन भारतीय मुसलमानों को निर्देश दे रहे थे कि वह पाकिस्तान मिल जाने के बाद भी  भारत में रह कर जिहाद करें  ताकि ghazwa-e-hind का काम लगातार चलाया जा सके.  इसलिए भारतीय मुस्लिम नेताओं का निष्कर्ष यही था कि मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए. एक समय ऐसा भी आया जब पाकिस्तान ने भी भारतीय मुसलमानों को संदेश दिया कि उन्हें हैदराबाद जाकर बसना चाहिए.

गांधी के बारे में अनेक तथ्य सामने आए हैं वह अंग्रेजों के एजेंट थे या नहीं यह विमर्श का विषय हो सकता है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि गांधी हिंदुओं के परीक्षा मुसलमानों के ज्यादा बड़े हितैषी थे. नेहरू के बारे में भी इस तरह की तमाम बातें की जाती हैं और उनकी हिंदू होने पर संदेह किया जाता है क्योंकि उनके पिता मोतीलाल नेहरू से आगे के वंश का कोई प्रमाणिक पारिवारिक इतिहास नहीं मिलता है. नेहरू की स्थिति कांग्रेस में अत्यंत कमजोर थी लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री का पद मिला जो उनकी योग्यता या लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आधार पर नहीं बल्कि एडविना माउंटबेटन की सहायता और गांधी के कांग्रेश पर तानाशाही पूर्ण वर्चस्व के कारण ही मिल सका था. कांग्रेस कार्यसमिति ने भारी बहुमत के आधार पर सरदार बल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री के रूप में चयनित किया था जिसे गांधी ने अपने तानाशाही वीटो से पलट दिया था और नेहरू को प्रधानमंत्री बना दिया था .

पूरा देश जिन्ना के साथ-साथ गांधी और नेहरू को विभाजन का प्रमुख गुनाहगार मानता था और इसलिए इन दोनों की लोकप्रियता में भारी गिरावट आ गई थी. गांधी मुस्लिम प्रेम में पागल थे और उनके लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार थे. लोग गांधी के सामने ही उनको भलाबुरा कहते थे गली देते थे. गांधी के बड़े  बेटे ने गांधी से स्वयं कहा था कि वह हिन्दुओं के नाम पर कलंक हैं.   

गांधी- नेहरू ने  मिलकर विभाजन के बाद मुसलमानों को हिंदुस्तान में  रोकने के लिए अनेक षड्यंत्र किये. डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक पाकिस्तान या भारत का विभाजन में लिखा है बिना जनसंख्या की अदला-बदली के हिंदुस्तान बनने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि पूरे विश्व में मुसलमानों के व्यवहार को देखते हुए अगर थोड़े से  मुसलमान भी हिंदुस्तान में बच जाते हैं तो वह हिंदुओं को शांति  से नहीं रहने देंगे और इसका सबसे अधिक नुकसान दलित समुदाय को होगा. डॉक्टर अंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू को इस संबंध में एक पत्र भी लिखा, जिसके जवाब में नेहरू ने बेहद हास्यास्पद बयान दिया था. उनका कहना था कि जनसंख्या की  अदला बदली करते हुए उनकी (नेहरु की ) पूरी उम्र निकल जाएगी, और कार्य पूरा नहीं हो पाएगा. मुसलमानों के जाने से उद्योग धंधों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी, देश में भुखमरी फैल जाएगी और हम अपनी जनता को मरता हुआ नहीं देख सकते. 


गांधी ने तो यहां तक कहा कि भारत से कोई भी मुसलमान  पाकिस्तान न जाय  बल्कि जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए हैं उनको वापस लाया जाएगा. एक  अत्यंत हृदय विदारक बात गांधी ने  कही  कि पाकिस्तान से आने वाले हिंदू शरणार्थियों को भारत न आने  दिया जाए, और जो आ गए हैं उन्हें वापस पाकिस्तान भेजा जाएगा. पूर्वी पाकिस्तान से आने वाली हिंदू शरणार्थियों के लिए नेहरू ने कहा था कि उनके लिए परमिट व्यवस्था लागू की जाए ताकि वहां से  अनावश्यक रूप से हिंदू  शरणार्थी भारत में प्रवेश न कर सके। गांधी ने नवंबर 1947 में  कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में एक प्रस्ताव पास करवाया जिसमें कहा गया था कि मुसलमानों को भारत से पाकिस्तान नहीं जाने दिया जाएगा और जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए हैं उन्हें वापस लाकर बसाया जाएगा.  गांधी में विश्वास रखने वाले पकिस्तानी इलाकों रहने वाले हिन्दुओं की लाशे ही रेलों से भारत आ सकीं.


नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिखकर उत्तर प्रदेश से किसी मुसलमान को पाकिस्तान न  जाने देने के आदेश दिए थे। देश का इससे अधिक दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि पाकिस्तान आंदोलन के मुस्लिम लीग के एक नेता को नेहरू ने संविधान सभा में शामिल कर लिया और जब 15 अगस्त 1947 को नेहरु स्वतंत्रता मिलने की घोषणा करने वाले थे उस दिन पाकिस्तान आंदोलन के कई नेता उनके साथ मंच पर बैठे थे.

 

पाकिस्तान आंदोलन की प्रमुख भूमिका निभाने वाली लखनऊ की बेगम एजाज रसूल भी पाकिस्तान नहीं गई और नेहरू ने उन्हें न केवलसंविधान सभा का सदस्य बनाया, बल्कि पद्म भूषण से सम्मानित भी किया. लखनऊ के जोश मलीहाबादी को नेहरू ने व्यक्तिगत अनुरोध करके भारत में रहने को कहा और इसकी एवज में उन्हें ऑल इंडिया रेडियो में महत्वपूर्ण भूमिका दी गई. जोस  का परिवार पाकिस्तान जा चुका था जिसके लिए नेहरू ने विशेष तौर से उनको एक साल में 4 महीने का वेतन सहित अवकाश पाकिस्तान अपने परिवार से मिलने जाने के लिए स्वीकृत किया था. 


नेहरू ने एक षड्यंत्र के तहत मुस्लिम लीग के सभी नेताओं, कार्यकर्ताओं और अन्य मुस्लिमों से कांग्रेस की चार आने वाली सदस्यता ग्रहण करने के लिए कहा ताकि वह देश में अपने लिए एक महत्वपूर्ण वोट बैंक की स्थापना कर सकें. हिंदुओं का नरसंहार करने वाले रजाकार संगठन के प्रमुख कासिम रिजवी तो पाकिस्तान चले गए थे लेकिन उनके संगठन के ज्यादातर सदस्य कांग्रेस में शामिल हो गए और कुछ ने एआईएमआईएम नाम की पार्टी बना ली और इस पार्टी ने भी कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया. आजकल असदुद्दीन ओवैसी इसके नेता है. 


विडंबना देखिए किस मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की आधारशिला रखी उसके भी अधिकतर लोग पाकिस्तान नहीं गए और उन्होंने मुस्लिम लीग  आगे  इंडियन यूनियन लगाकर इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग बना ली और जवाहरलाल नेहरू ने  उसके साथ गठबंधन भी कर लिया. 


नेहरू जहां अपने लिए वोट बैंक की स्थापना कर रहे थे वही टर्की से लेकर मलेशिया तक और सऊदी अरब से लेकर अफगानिस्तान तक मुस्लिम संगठन भारतीय मुसलमानों को निर्देश दे रहे थे कि वह पाकिस्तान मिल जाने के बाद भी  भारत में रहे ताकि ghazwa-e-hind का काम लगातार चलाया जा सके. 


विभाजन के समय भारतीय क्षेत्रों में लगभग चार करोड़ मुस्लिम आबादी थी, जिसमें से केवल 72 लाख मुस्लिम ही पाकिस्तान गए और इसमें से भी 50 लाख केवल पंजाब प्रांत से गए, शेष 22 लाख पूरे भारतवर्ष से गए. उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जहां पर मुस्लिम बड़ी संख्या में थे और जिन्होंने दंगे फसाद करने से लेकर पाकिस्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, अधिकतर मुस्लिम पाकिस्तान नहीं गए. 


इस तरह एक षड्यंत्र के तहत धार्मिक आधार पर पाकिस्तान की स्थापना हो जाने के बाद भी शेष भारत को हिंदू और मुसलमानों की ज्वाइंट प्रॉपर्टी बना दिया गया. कई बेशर्म जिनका नाम मिट्टी में मिल गया था, वह यह कहने से नहीं चूके कि  उनका खून भी शामिल है यहां की मिट्टी में. 


भारत अब एक फिर हिंदू मुस्लिम तनाव से झुलस रहा है और अविभाजित भारत की तरह शेष भारत पर भी एक विभाजन का खतरा मंडरा रहा है या संपूर्ण देश को गजवा ए हिंद का खतरा सता रहा है. अबकी बार यह खतरा पहले से कहीं बड़ा है क्योंकि  वामपंथी विचारधारा वाले हिंदू भी मुसलमानों के आक्रामक रुख में पूरी तरह भागीदार हैं. 

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- शिव मिश्रा 


सन्दर्भ -

१. भारत का विभाजन - डॉ आंबेडकर,

२. विभाजन के गुनाहगार - राम मनोहर लोहिया

३. अन ब्रेकिंग इंडिया - संजय दीक्षित

४. इंडिया विन्स फ्रीडम - अबुल कलाम आजाद

५. फ्रीडम एट मिडनाइट -लार्री कॉलिंस और डोमेनिक लेप्रे

६. सेलेक्ट वर्क्स ऑन नेहरु 






शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

गंगा जमुनी संस्कृति, भाई चारा और हिन्दू त्योहार

 गंगा जमुनी संस्कृति, भाईचारा और  हिंदू त्यौहार




कोविड-19 के कारण लॉकडाउन और  प्रतिबंधों की लंबी अवधि के बाद रामनवमी के  अवसर पर  पूरे भारतवर्ष में बहुत हर्षोल्लास का  वातावरण था. लंबे समय बाद लोगों को सामूहिक त्यौहार मनाने का मौका मिला था इसलिए बड़े उत्साह से भगवान श्री राम की शोभा यात्रायें  निकाली गई. चूंकि  भारत में गंगा जमुनी तहजीब और हिंदू मुस्लिम भाईचारे  का पुराना इतिहास है, इसलिए उत्तर प्रदेश को छोड़कर कई  राज्यों में इन शोभायात्राओं पर  फूलों के बजाय  पत्थर बरसाए गए. पांच राज्यों राज्यों राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल  में मुसलमानों की अराजक भीड़ ने शोभा यात्राओं पर पत्थर फेंके, लाठी-डंडों से हमला किया, दंगा फसाद में पेट्रोल बम और धारदार हथियारों का भी इस्तेमाल किया गया।  आगजनी और लूटपाट तो होनी ही थी।  हिंदू समुदाय के लोगों के घरों दुकानों आदमी में आग लगाई गई. राजस्थान में जहां हिंसा और अराजकता का वीभत्स तांडव हुआ,  कांग्रेश की गहलोत सरकार ने कोई भी प्रभावी कार्यवाही नहीं की और दंगों का मास्टरमाइंड आज भी स्वतंत्र घूम रहा है.  राजस्थान में तो यह बहुत स्वाभाविक है क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण के जो बीज गांधी ने बोये थे, नेहरू  जीवन पर्यंत जिसकी फसल काटते रहे, कांग्रेस की बाद  की सरकारें भी लगातार इसे आगे बढ़ाती रही. आज कांग्रेस   समाप्ति के आखिरी दौर में है लेकिन उसने अभी तक अपने इस नीति में कोई बदलाव नहीं किया है। वहीं कई राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने तुष्टिकरण करके ही सत्ता प्राप्त की  और सट्टा बनाए रखने के लिए तुष्टिकरण को  नए मुकाम पर पहुंचा दिया है। ऐसे दल मुस्लिम लीग से भी दो कदम आगे जाकर  सनातन विरोधी कार्य कर रहे हैं। जातियों में विभाजित हिंदू समाज  कुछ समझने और करने के बजाय अपनी करनी से अपना ही शिकार कर रहा है।


मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ ही हिंदुस्तान में  मुसलमानों द्वारा योजनाबद्ध ढंग से बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ किसी न किसी तरह  उलझने का प्रयास किया जाने लगा जो हिंदू मुस्लिम दंगों की शक्ल लेने  लगा था.  डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपनी 'पुस्तक पाकिस्तान या भारत का विभाजन' में लिखा है कि मुसलमानों के दिल और दिमाग में यह बैठा दिया गया था कि अल्लाह की यह धरती केवल मुसलमानों के लिए है, और दूसरे धर्मो के लोगों को उस पर रहने का कोई अधिकार नहीं है.  इसलिए जहां किसी और का शासन है वह दारुल हरब है और उन्हें वहां पर इस्लाम का शासन स्थापित करके दारुल इस्लाम बनाना है।  हिंदुस्तान उनके लिए दारुल हरब  है और जिहाद  द्वारा इसे दारुल इस्लाम बनाना है. मोपला और नोआखाली के  कुख्यात दंगे और मुस्लिम लीग द्वारा प्रायोजित डायरेक्ट एक्शन कुछ और नहीं जिहाद ही था। खिलाफत आंदोलन ने भारत में मुसलमानों को एकजुट किया और एक नए तरह के ध्रुवीकरण की शुरुआत की।  गांधी ने हिंदू मुस्लिम एकता के नाम पर आंख बंद करके खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की नींव रखी। गांधी खुलकर मुस्लिमों के पक्ष में खेल रहे थे यहां तक कि मोपला दंगों के बाद भी गांधी ने मुस्लिम हिंसा का विरोध नहीं किया और इससे दुखी एनी बेसेंट ने  दंगो में हिंदू बच्चों, पुरुषों और महिलाओं की निर्मम हत्याओ और हिंदू महिलाओं के साथ अमानुषिक  अत्याचारों पर   गांधी को एक लंबा चौड़ा मर्मस्पर्शी पत्र भी लिखा लेकिन गांधी नहीं पसीजे और वह  अहिंसा का मंत्र सिर्फ हिंदुओं पर ही लागू करते रहे. 


ऐसा लगता है कि  " अहिंसा परमो धर्म:,  धर्म हिंसा तथैव च " के मंत्र को भी विभाजित करके गांधी ने हिंदुओं को "अहिंसा परमो धर्म:," और मुसलमानों को "धर्म हिंसा तथैव च"  दिया. गौतम बुद्ध और महावीर  ने भारतीयों को  अहिंसक बनाने के प्रयास से उन्हें युद्ध से विरत रह कर, दब्बू और भीरु बनाने की नींव  डाली थी.  गांधी ने  हिंदुओं को न केवल अहिंसक  बल्कि डरपोक और कायर बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. इसका परिणाम यह हुआ कि जहां कहीं भी मुसलमानों  ने दंगा फसाद किया, ऐसी प्रत्येक जगह  से हिंदुओं का पलायन  हुआ. कश्मीर घाटी सहित ऐसी कोई  जगह मुझे याद नहीं आती, जहां हिंदुओं ने पलायन न करके अपने अस्तित्व के लिए जमकर मुकाबला किया हो या  कम से कम संघर्ष करने की कोशिश की हो। यह प्रक्रिया आज भी अनवरत जारी है। जहां कहीं भी हिंदू मुस्लिम दंगों की शुरुआत होती है, हिंदू परिवार "यह मकान बिकाऊ है" का बोर्ड लगा कर पलायन कर जाते हैं. राजस्थान, पश्चिम बंगाल और यहां तक कि भाजपा शासित गुजरात और मध्य प्रदेश में भी रामनवमी जुलूसों  पर आक्रमण के बाद ऐसा ही कुछ नजारा देखने को मिल रहा है।  पश्चिम बंगाल और राजस्थान में रामनवमी के जुलूस पर आक्रमण, दंगा और फसाद आदि समझ में आता है लेकिन भाजपा शासित मध्यप्रदेश और गुजरात में पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था में  निकली भगवान राम की शोभा यात्राओं पर आक्रमण कैसे हुआ लेकिन उत्तर प्रदेश में जहां कुछ समय पहले चुनाव के समय ध्रुवीकरण चरम पर था, ऐसा नहीं हुआ? भाजपा को इस पर मंथन अवश्य करना चाहिए ।  


अंग्रेजों के समय से आज तक ऐसा ही होता आया है कि हिंदुओं का कोई भी धार्मिक जुलूस निकले और अगर उस शहर कस्बे या गांव में कोई मुस्लिम  समुदाय है और फिर हिंदुओं के जुलूस पर पथराव न, हो यह संभव  नहीं. यह गांधी के हिन्दू - मुस्लिम भाई-भाई वाला और  नेहरू का धर्मनिरपेक्ष वाला भारत है जहां मस्जिद के सामने से कोई बारात नहीं निकल सकती, बैंड बाजा नहीं बज सकता.  मुस्लिम बाहुल्य  इलाकों में अगर कोई हिंदू अपने घर में अखंड रामायण करवाना चाहता है तो लाउडस्पीकर नहीं लगा सकता. मुझे तो याद नहीं आता कि हिंदुओं का कोई भी त्यौहार शांति पूर्वक मनाया जा सका हो,  जब देश में में कहीं न कहीं पथराव, आगजनी, लूटपाट या दंगा आदि न हुआ हो. 


 शायद यही भाईचारा है, और यह  वही भाईचारा है जिसे गांधी और नेहरू ने भारत को  दिया है. एक समुदाय विशेष भाई है और हिंदू चारा  हैं. लेकिन ऐसा क्यों ? इसका बहुत सीधा  जवाब है "बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय". मजहबी आधार पर भारत  का विभाजन हुआ और पाकिस्तान बना, जिसके बनने में ही बहुत  दंगा फसाद हुआ  कि  25 से 30 लाख लोगों की बलि चढ़ गई.  मुस्लिमों के लिए जब पाकिस्तान बन गया तो  फिर मुस्लिम पाकिस्तान क्यों  नहीं गए ?  यह यक्ष प्रश्न आज की नई पीढ़ी को हर दिन कचोटता  है. डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, सरदार पटेल तथा अन्य नेताओं ने जनसंख्या की अदला-बदली के लिए बहुत प्रयास किया और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली इसके लिए तैयार भी हो गए, लेकिन गांधी और नेहरू के षड्यंत्र के आगे सफल नहीं  हो सके.  अगर विभाजन के बाद, जनसंख्या की पूरी तरह से अदला-बदली हो गई होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता. 


 - सभी भारतीयों के लिए विशेषतया हिंदुओं के लिए सोचने वाली बात यह है कि इस विभाजन से उन्हें क्या मिला ? 

 - जब दंगा, फसाद और सांप्रदायिक माहौल जो आजादी के पहले था वह आज भी है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है, अगर ऐसा ही होना था तो फिर विभाजन क्यों किया गया? 

 - मुस्लिम को पाकिस्तान के रूप में एक इस्लामिक देश मिल गया लेकिन हिंदुओं के देश को ज्वाइंट प्रॉपर्टी क्यों बना दिया गया? यही बहुत बड़ा षड्यंत्र है, और आज के भारत की       सभी समस्याएं इसी षड्यंत्र की देन है.


गांधी- नेहरू ने  विभाजन के बाद मुसलमानों को हिंदुस्तान में  रोकने के लिए षड्यंत्र किया. डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक पाकिस्तान या भारत का विभाजन में लिखा है बिना जनसंख्या की अदला-बदली के हिंदुस्तान बनने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि पूरे विश्व में मुसलमानों के व्यवहार को देखते हुए अगर थोड़े से  मुसलमान भी हिंदुस्तान में बच जाते हैं तो वह हिंदुओं को शांति  से नहीं रहने देंगे और इसका सबसे अधिक नुकसान दलित समुदाय को होगा. डॉक्टर अंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू को इस संबंध में एक पत्र भी लिखा, उनकी बातें आज पूरी तरह से सत्य साबित हो रही हैं. नेहरू ने जनसंख्या की अदला बदली पर बेहद हास्यास्पद बयान दिया था. उनका कहना था कि जनसंख्या की  अदला बदली करते हुए उनकी (नेहरु की ) पूरी उम्र निकल जाएगी, और कार्य पूरा नहीं हो पाएगा. मुसलमानों के जाने से उद्योग धंधों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी, देश में भुखमरी फैल जाएगी और हम अपनी जनता को मरता हुआ नहीं देख सकते. 


गांधी ने तो यहां तक कहा की भारत से कोई भी मुसलमान  पाकिस्तान न जाय  बल्कि जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए हैं उनको वापस लाया जाएगा. एक  अत्यंत हृदय विदारक बात गांधी ने  कही  कि पाकिस्तान से आने वाले हिंदू शरणार्थियों को भारत न आने  दिया जाए, और जो आ गए हैं उन्हें वापस पाकिस्तान भेजा जाएगा. पूर्वी पाकिस्तान से आने वाली हिंदू शरणार्थियों के लिए नेहरू ने कहा था कि उनके लिए लागू की जाए ताकि वहां से  अनावश्यक रूप से हिंदू  शरणार्थी भारत में प्रवेश न कर सके। गांधी ने नवंबर 1947 में  कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में एक प्रस्ताव पास करवाया जिसमें कहा गया था कि मुसलमानों को भारत से पाकिस्तान नहीं जाने दिया जाएगा और जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए हैं उन्हें वापस लाकर बसाया जाएगा.  


नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिखकर उत्तर प्रदेश से किसी मुसलमान को पाकिस्तान न  जाने देने के आदेश दिए थे। इसके अलाव़ा नेहरू ने ऐसी संवैधानिक व्यवस्था की जिससे मुसलमानों को हिंदुओं से कहीं ज्यादा अधिकार और सुविधाएं प्राप्त हो. आजादी के बाद राजस्थान में हुए दंगे के आरोपों में  जब मुसलमान पकड़े गए तो नेहरू ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि हमें अपराधियों को पकड़ने में हिंदू और मुसलमानों के बीच संतुलन बनाना चाहिए यानी कि हिंदू और मुसलमान दोनों को बराबर संख्या में गिरफ्तार किया जाना चाहिए, गलती भले ही मुसलमानों की क्यों न  हो. तब से लेकर आज तक वही तुष्टीकरण चल रहा है जिसकी की गति बढ़ती जा रही है.


 तुष्टीकरण की पराकाष्ठा तब और शर्मशार हो गयी जब सोनिया सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक 2011 संसद में पेश किया. इस बिल को सोनिया गांधी की अगुवाई वाली एक समिति ने तैयार किया था जिसमें सैयद शहाबुद्दीन और तीस्ता सीतलवाड़ जैसे लोग भी  थे. इस विधेयक के अनुसार यदि हिन्दू,  अल्पसंख्यक वर्ग के विरुद्ध घृणा फैलाने का कार्य करते हैं तो उनके विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जाएगी लेकिन इसके उलट यदि अल्पसंख्यक हिन्दुओं  के विरुद्ध घृणा फैलाने का कार्य करते हैं तो उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही का प्रावधान नहीं. सांप्रदायिक हिंसा होने की स्थिति में बहुसंख्यक वर्ग को इसका उत्तरदायी माना जाएगा और सामूहिक जुर्माना लगाया जाएगा. सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति में यदि कोई अल्पसंख्यक वर्ग का व्यक्ति बहुसंख्यक वर्ग की महिला के साथ बलात्कार करता है तो यह अपराध की श्रेणी में नहीं माना जाएगा. सोचिये हिन्दुओं के प्रति इससे ज्यादा विद्वेष पूर्ण कार्य और क्या हो सकता है ?  दिग्विजय सिंह और असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग जिन्होंने इस बिल का समर्थन किया था आज मध्य प्रदेश सरकार द्वारा की जा रही कार्यवाही की इस आधार पर आलोचना कर रहे हैं कि मुसलमानों पर सामूहिक जुर्माना लगाने जैसा काम किया जा रहा है.


 यह इस  देश का दुर्भाग्य ही है कि आज भी कांग्रेस सहित लगभग सभी राजनीतिक दल तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं. कुछ राजनीतिक दलों का आधार ही मुस्लिम वोट बैंक है जिसमें कुछ एक हिंदू जातियों को जोड़कर सरकार बनाने का गुणा भाग किया जाता है। पिछले 8 सालों से केंद्र में राष्ट्रवादी सरकार होने के बाद भी अल्पसंख्यक की परिभाषा भी नहीं की जा सकी  है. दुनिया के किसी भी देश में इस तरह की व्यवस्था नहीं है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी जो देश की संख्या का 25% हो, उसे अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया हो. ज्यादातर प्रगतिशील देशों में देश की आबादी के 1% से भी कम जनसंख्या वाले समुदाय को अल्पसंख्यक होने का दर्जा दिया जाता है लेकिन अपने यहां तो अंधेर है. पारसी समुदाय जो वास्तव में अल्पसंख्यक है, उसके लिए तो सरकार क्या अन्य कोई दल बिल्कुल भी चिंतित नहीं. 


आज करदाताओं के एक बड़े हिस्से को अल्पसंख्यक कल्याण के नाम पर एक समुदाय विशेष पर लुटाया जा रहा है.  इसके विपरीत देश में लगभग 4 लाख मंदिरों पर सरकार का कब्जा है, जिनकी चढ़ावे की राशि को भी अल्पसंख्यक कल्याण पर खर्च किया जा रहा है. आंध्र प्रदेश में एक प्रसिद्ध मंदिर ट्रस्ट का अध्यक्ष एक गैर हिंदू को बनाया गया है. तमिलनाडु में मंदिरों से प्राप्त चढ़ावे को मदरसों, यतीम खानों और मस्जिदों के रखरखाव पर खर्च किया जा रहा है. मंदिर मुक्ति आंदोलनों के बाद अगर कोई राष्ट्रवादी सरकार भी मंदिरों को मुक्ति नहीं कर सकती, तो हिंदू कहां जाएं ? क्या करें? किस से कहें ? देश में जब गरीब मेधावी हिंदू छात्र आर्थिक तंगहाली के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं,  वहीं राष्ट्रवादी सरकार मदरसों के आधुनिकीकरण पर अंधाधुंध पैसा खर्च कर रही है और एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में लैपटॉप देने की बात कर रही है. गोरखनाथ मंदिर में सुरक्षाबलों पर हमला करने वाला आतंकवादी भी आईआईटी मुंबई से केमिकल इंजीनियर है। मुस्लिम बाहुल्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अल्पसंख्यक होने का लाभ उन्हें दिया जा रहा है, और देश के लिये  इससे ज्यादा दुखद और शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता,  जहां आर्थिक बदहाली से त्रस्त हिंदू समुदाय अपने  लिए अल्पसंख्यक होने का दर्जा मांग रहा हो. 


कश्मीर में धारा 370 खत्म होने के बाद भी, आर्थिक संसाधनों को पूरी तरह एक वर्ग विशेष के लिए न्योछावर किया जा रहा है, जहां के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का नाम कभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए चर्चा में था. यदि वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए  होते तो  आज का उत्तर प्रदेश कैसा होता ? और भाजपा कहाँ  होती? मुझे नहीं पता  लेकिन मैं इतना  कह सकता हूं कि उत्तर प्रदेश का योगी  मॉडल पूरे देश में भाजपा के लिए बहुत बड़ा संबल है और योगी पूरे देश के सनातनियों के लिए भाजपा के ब्रांड एंबेसडर हैं। चौथी  बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान भी देर से ही सही आनंतोगत्वा योगी के रास्ते पर चल पड़े हैं. आसाम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा शर्मा प्रशंसा के पात्र हैं जो इस  रास्ते पर काफी आगे निकल गए हैं , जिससे ऐसा लगता है कि वह गोपीनाथ बोरदोलोई  की तरह ही आसाम को सुरक्षित और संरक्षित करने का महान कार्य कर सकते हैं.  मोदी स्वयं इसी रास्ते से चलकर 15 साल तक गुजरात के अपराजेय मुख्यमंत्री रहे और प्रधानमंत्री  बने. 


भाजपा को अपनी हीन ग्रंथि या आत्मकुंठा  से बाहर आकर राष्ट्रहित में हिंदुओं और सनातन संस्कृति को बचाने के लिए तेजी से कदम बढ़ाना चाहिए. उसे डॉ राम मनोहर लोहिया की यह बात याद रखनी चाहिए कि जिंदा कौमें बहुत अधिक इंतजार नहीं करती. भाजपा को यह भी याद रखना चाहिए कि  सनातन धर्मी कभी किसी का ऋण अपने ऊपर नहीं रखते, बल्कि उसे ब्याज सहित समय से चुकाते  हैं और उसका यह उपकार हमेंशा याद रखते हैं. यह सही है कि धारा 370 हटा कर और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करके बहुत बड़ा काम किया है लेकिन जैसे  वर्षा की कुछ बूंदों से रेगिस्तान की प्यास नहीं बुझती, उसी तरह लगभग 1000 वर्षों के अत्याचार से कराहती सनातन संस्कृति का इस तरह के एक दो  कार्यों से भला नहीं हो सकता। इसलिए सरकार को दो बिंदुओं पर बहुत तेजी से कार्य करना चाहिए. पहला सनातन संस्कृति  पर आक्रमण तुरंत  बंद होने चाहिए, ताकि हिंदुओं को यह विश्वास हो सके कि उनका भी कोई देश है और उनकी सुधि लेने वाला भी कोई है. दूसरा सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए तुरंत लंबी अवधि की योजनाएं बनानी चाहिए,  और  लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए.   


आजादी के अमृत महोत्सव से सनातन संस्कृति  का भला नहीं होने वाला7, आज देश को सनातन संस्कृति के महोत्सव की अत्यंत आवश्यकता है.  इस पर भी अवश्य विचार करना चाहिए कि आजादी के 75 वर्ष बाद हिंदुओं का क्या हुआ ? और 100 वर्ष बाद,  2047 में भारत में हिंदुओं का भविष्य क्या होगा ? क्या तब तक हिंदू इस देश में अल्पसंख्यक नहीं हो जाएंगे? या यह देश इस्लामीकरण की राह पर इतना आगे निकल जाएगा, जहां से लाख कोशिशों के बाद भी वापसी संभव नहीं होगी? भाजपा सरकार को यह बात भी कभी नहीं भूलनी चाहिए कि सबका साथ और सबका विकास तो ठीक है, लेकिन सबका विश्वास उसे कभी हासिल नहीं हो सकता, चाहे पूरी भाजपा साष्टांग दंडवत ही क्यों न करने लग जाए? आज की परिस्थितियों में केवल भाजपा ही सनातन संस्कृति की रक्षा कर सकती है, और केवल सनातनी ही भाजपा को सत्ता में बनाए रख सकते हैं. कोई अन्य विकल्प नहीं है. 

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                              शिव मिश्रा (responsetospm@gmail.com


  










 


गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

डॉ. भीमराव अंबेडकर - सही मूल्यांकन की तलाश

डॉ.  भीमराव अंबेडकर - एक महापुरुष जिसे सबने अनदेखा किया




डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती पर उनको शत शत नमन। डॉक्टर अंबेडकर एक अत्यंत दूरदर्शी और स्पष्ट विचारों वाले राजनेता थे उन्होंने देश और समाज के लिए जो भी किया उसका आज तक उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है। वैसे तो डॉक्टर अंबेडकर को किनारे लगाने, उनके विचारों और योगदान को आभाहीन करने का काम कांग्रेस ने  किया लेकिन उनके  अनुयायियों ने भी उनके साथ काम ज्यादती  नहीं की जिन्होंने अपने फायदे के लिए  उनकी मूर्तियां जरूर लगाई लेकिन उनके जैसे राष्ट्रीय महापुरुष और अंतरराष्ट्रीय विद्वान को एक जाति विशेष के खांचे में फिट कर दिया।

डॉ भीमराव अंबेडकर समकालीन राजनीति में संभवत सबसे अधिक शिक्षित राजनेता थे । दूरदर्शी और प्रखर विचारों वाले अंबेडकर तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं से पूरी तरह सजग थे और जिनके समाधान के लिए उनके पास स्पष्ट विचार थे गांधी नेहरू और कांग्रेस ने डॉ आंबेडकर की प्रतिभा का जानबूझकर अनदेखा किया और  मुख्यधारा की राजनीति में न आने देने के लिए जानबूझकर उनका मार्ग बाधित किया गया और तरह-तरह की समस्याओं में उन्हें उलझाया गया । वह संविधान की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष अवश्य थे लेकिन वहां भी उन्हें स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं करने दिया गया जिसका पता संविधान सभा में रिकॉर्ड किए गए उनके नोट से चलता है। संविधान में ऐसी बहुत सी बातें हैं जो उनकी इच्छा के विरुद्ध डलवाई गई और बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें वे संविधान में डालना चाहते थे नहीं डाल पाए। अगर डॉक्टर अंबेडकर के सुझाव माने गए होते तो आज संविधान का प्रारूप और भी अच्छा होता।

डॉक्टर अंबेडकर की लिखी पुस्तकों से विशेषतया पाकिस्तान या भारत का विभाजन से उनके स्पष्ट विचारों का पता चलता है । देश के विभाजन के बाद उन्होंने हिंदू मुस्लिम जनसंख्या की अदला-बदली के लिए सरकार पर दबाव बनाया और नेहरू को एक पत्र भी लिखा लेकिन नेहरू और गांधी दोनों ने हीं उनके विचार को सिरे से नकार दिया। उन्होंने सरकार को ऐसा न करने के विपरीत परिणामों के लिए चेताया भी था

डॉ आंबेडकर अपनी बुद्धिमत्ता दूरदर्शिता और स्पष्ट वादिता के  कारण  हमेशा गांधी और नेहरू के आंख की किरकिरी बने रहे। गांधी हमेशा राजनीति के शिखर पर बने रहने हेतु प्रयासरत रहते थे और जो भी नेता राजनीतिक रूप से उन्हें चुनौती देने में सक्षम लगता उसे वह प्रभावित करने की कोशिश करते  ताकि उसे अपने झंडे के नीचे लाया जा सके अन्यथा उसे एक किनारे लगाया जा सके।  इसी क्रम में गांधी  ने 1929 में  अंबेडकर को मुलाकात के लिए बुलवाया। यह  वह समय था जब अंबेडकर प्रथम गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन जाने वाले थे क्योंकि गांधी इस सम्मेलन में नहीं जा रहे थे इसलिए हो सकता है कि वह अंबेडकर को अपने विचारों से प्रभावित करने और अप्रत्यक्ष रूप से अपने विचार गोलमेज सम्मेलन में पहुंचाने के लिए बुलाया हो । अंबेडकर ने  स्वयं लिखा है कि दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान लंदन में उनकी गांधी से लंबी मुलाकात हुई थी और विचारों का आदान-प्रदान भी हुआ था इस मुलाकात के बाद भी गांधी संभवत अंबेडकर को तनिक भी प्रभावित नहीं कर सके थे ।। अंबेडकर ने इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया कि गांधी दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान 5 -6 महीने तक ब्रिटेन में रुके थे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है गांधी इतने लंबे समय तक लंदन में क्या करने के लिए रुके थे .

डॉ अंबेडकर ने लिखा है कि क्या कारण है कि  पश्चिमी जगत गांधी में  इतना रूचि लेते हैं।  अगर इन दोनों बातों को जोड़ा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि गांधी और अंग्रेजों के बीच में कुछ तो था जिसके कारण गांधी अंग्रेजों की सुविधा का ध्यान रखते थे और अंग्रेज गांधी को अत्यंत महत्व देते थे।  अंबेडकर ने लिखा है कि उन्होंने गांधी को एक आम इंसान समझ कर  मुलाकात की और इस कारण वह गांधी को वास्तविक रुप से समझ सके कि उनके अंदर कितना जहर भरा हुआ है।  यह बात उनके नजदीकी लोग नहीं समझ सकते थे क्योंकि वह हमेशा गांधी को देव तुल्य  मानते थे और इसलिए हमेशा भक्तों   की तरह मिलते थे । गांधी को जब  लगा कि अंबेडकर उनके काबू में नहीं आएंगे और ना ही उनकी छत्रछाया में काम करना पसंद करेंगे इसलिए अपनी आदत के अनुसार गांधी ने अंबेडकर को व्यर्थ के कामों में उलझा दिया ताकि कहीं ऐसा ना हो अंबेडकर गांधी से भी आगे निकल जाए या भविष्य में नेहरू के लिए कोई चुनौती खड़ी करें। गांधी के  स्वभाव में एक बीमारी थी कि वह मुस्लिमों के साथ साथ दलित समाज के भी सर्व मान्य नेता बनना चाहते थे इसलिए वह दलित बस्तियों में जाकर कभी-कभी मैला साफ करने का भी काम करते थे, और डॉक्टर अंबेडकर के सूट बूट पर तंज कसते थे। 

गांधी के बाद नेहरू ने भी डॉक्टर अंबेडकर के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया । नेहरू जहां तुष्टिकरण के अंधे रास्ते पर चल निकले थे और अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार थे । वही अंबेडकर के अनुरोध के बावजूद दलित समुदाय के लिए अपेक्षित सहायता करने के लिए कंजूसी बरत रहे थे। दोनों के मतभेद बढ़ते गए और फिर रास्ते भी अलग अलग हो गए।

आज प्रत्येक राजनीतिक दल  डॉक्टर अंबेडकर को श्रद्धांजलि देते हुए उनका महिमामंडन करता है जिसमें कांग्रेश सबसे आगे रहती है लेकिन कांग्रेस से कोई ये नहीं पूछता कि जब अंबेडकर इतने ही महान थे तो उन्हें गांधी ने भारत का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया जिसके वह सर्वथा योग्य थे।

  काश डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भारत के पहले प्रधानमंत्री बनते  तो भारत के समक्ष आज जो संप्रदायिक चुनौतियां हैं वह नहीं होती , दलितों के उत्थान और जातिगत असमानता के लिए जो विमर्श खड़े किए जाते हैं उनकी आवश्यकता भी नहीं होती, विश्व स्तरीय शिक्षा व्यवस्था होती और भारत दुनिया के सबसे खुशहाल और शांतिप्रिय देशों में से एक होता.।

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- शिव मिश्रा

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सोमवार, 11 अप्रैल 2022

गांधी- नेहरु के प्रति ओगों में गुस्सा बढ़ रहा है

 


मोहनदास करमचंद गांधी जी कांग्रेस के कृत्रिम रूप से बनाए हुए पैगंबर हैं, जिन्हें कांग्रेस ने अपने कुकृत्यों और गांधी के गुनाहों पर पर्दा डालने के लिए पैगंबर बनाया है. गांधी ने हिंदुओं, सनातन संस्कृति और अखंड भारत की कीमत पर नेहरू को लाभ पहुंचाया और इसलिए नेहरू ने भी गांधी को देव तुल्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. षड्यंत्र के तहत नेहरू और गांधी की छवि निखारने के लिए इतिहास से छेड़छाड़ की गई, महत्वपूर्ण दस्तावेज गायब किए गए, अंधाधुंध धन खर्च करके पब्लिसिटी स्टंट किया गया. इस कारण हम सभी ने होश संभालते ही गांधी को जहां कहीं भी पढ़ा, सुना देव तुल्य ही बताया गया . इसलिए गांधी के प्रति श्रद्धा और सम्मान जीवन रक्षक दवा के रूप में हमारे व्यक्तित्व में जबरदस्ती इंजेक्शन लगा कर डाला गया है.

बदलते वैश्विक परिवेश में सूचना प्रौद्योगिकी की व्यापकता के कारण बहुत सी ऐसी गोपनीय सूचनाएं और दस्तावेज जो आम आदमी की पहुंच से बाहर थे, सार्वजनिक हो गये हैं. लोगों को अब समझ में आ गया है कि राम और कृष्ण के इस देश में जहां राम और कृष्ण को भी धरती पुत्र माना जाता है, वहां राम को आराध्य मानने वाले एक व्यक्ति को राष्ट्रपिता घोषित कर दिया जाना एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है. आज लोगों को यह पाखंड समझ में आ रहा है. गांधी के सत्य और ब्रह्मचर्य के विवादास्पद प्रयोगों को छोड़ भी दिया जाए, तो भी उनके मन वाणी और कर्म में कहीं सामंजस्य नहीं दिखाई पड़ता.

हाल के वर्षों में बहुत से दस्तावेज ब्रिटिश सरकार द्वारा सार्वजनिक किये गए हैं और भारत सरकार ने भी बहुत सारे दस्तावेज सार्वजनिक किए हैं, जिनमें गांधी के बारे में बहुत से ऐसे नए तथ्य सामने आए हैं जिनसे लोग हैरान हैं. स्वयं गांधी द्वारा लिखित किताबें मेरी आत्मकथा , सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, उनकी पोती मनु की डायरी और उसके द्वारा द्वारा लिखित किताबें, सिलेक्टेड वर्क्स ओन नेहरू, विभाजन के गुनाहगार ( डॉ राम मनोहर लोहिया), वेक अप इंडिया (एनी बेसेंट), पकिस्तान या भारत का विभाजन ( आंबेडकर) आदि पुस्तकें अगर कोई व्यक्ति पढ़ ले तो गांधी के बारे में उसका मिथक टूट जाएगा.

इसलिए जैसे जैसे लोगों को गांधी की असलियत मालूम होती जा रही है, उनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, जिसे बिल्कुल भी उचित नहीं कहा जा सकता और मैं इसका समर्थन भी नहीं कर सकता लेकिन ये बढ़ता जायेगा इसे कोइ भी रोक नहीं सकता . गांधी के व्यक्तित्व में बहुत सारी अच्छाइयां भी होंगी और उनके प्रति मेरे मन में भी बहुत सम्मान है लेकिन तथाकथित गांधी वादियों द्वारा जिस तरह का गांधी युद्ध सोशल मीडिया पर लड़ा जा रहा है उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मुझे डर है कि भारत में कभी वह दिन न आ जाए जब लोग रावण और मेघनाथ की तरह गांधी और नेहरू के पुतले न जलाना शुरू कर दें, तब रावण की तरह ही लोग गांधी नेहरु की सार्वजानिक रूप से प्रशंशा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे.

विश्व के अन्य देशों के लोगों को गांधी के बारे में उतना ही मालूम है जितना बिना पढ़े हम नेलसन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग,अब्राहम लिंकन, जुलियस सीजर, रूजवेल्ट आदि को जानते हैं. उनके मन में गांधी के प्रति कोइ दुर्भावना इसलिए भी नहीं होगी क्यों कि गांधी ने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा लेकिन हर जागरूक हिन्दू जनता है कि गांधी ने इस देश को विशेषतया हिन्दुओं को जितना नुकशान किया उतना सभी विदेशी आक्रान्ता और अंग्रेज मिलकर भी नहीं कर सके. इससे सबके बाद ये अपेक्षा करना कि लोग उन्हें देवतुल्य मानकर पूजें, ये संभव नहीं हो सकता. किसी भी व्यक्ति से श्रद्धा और सम्मान जबरदस्ती नहीं नहीं वसूला जा सकता.

सोचिये गांधी की इतनी महानता और अनेक सिफारिशों के बाद भी उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार क्यों नहीं मिल सका ? जबकि पिस्टल लगाकर चलने वाले यासिर अराफात को ये पुरस्कार दिया गया. अपनी छवि बनाने के लिए देश और सनातन संस्कृति को दांव पर लगाने वाले नेहरू का नाम भी कम से कम २० बार नोबेल पुरस्कार के लिए भेजा गया, लेकिन नहीं मिल सका. नेहरु ने भारत रत्न खुद अपने आप को दे दिया.

उए उचित समय है जब हमें देश के वास्तविक नायकों को जानने और समझना चाहिए और देश विरोधी सनातन विरोधी व्यक्तियों से हमेशा सतर्क रहना चाहिए. जिन्होंने देश तोड़ा, हिन्दुओं और सनातन संस्कृति के विरुद्ध काम किया, उन्हें दुनिया कुछ भी कहे, वे हमारे नायक नहीं हो सकते.

सन्दर्भ - मेरी आत्मकथा - गांधी , सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, ( भारत सरकार प्रकाशित ), मनु की डायरी, सिलेक्टेड वर्क्स ओन नेहरू, ( भारत सरकार प्रकाशित ), विभाजन के गुनाहगार ( डॉ राम मनोहर लोहिया), वेक अप इंडिया (एनी बेसेंट), पकिस्तान या भारत का विभाजन ( डॉ भीम राव आंबेडकर )