रविवार, 30 जनवरी 2022

क्या नेहरू एक अय्याश व्यक्ति थे?


यह एक खुला रहस्य है और इसमें जितना गहराई तक जायेंगे उतनी ही गंदगी दिखाई पड़ेगी. इसलिए मेरा मानना है कि इसमें बहुत अधिक पड़ने की आवश्यकता नहीं है लेकिन आज के युवा वर्ग को सच्चाई जानने की उत्सुकता रहती है, इसलिए इस तरह के प्रश्न बार बार आते रहेंगे. उनका जबाब दिया ही जाना चाहिए.

गांधी और नेहरू के बारे में भारतीय बच्चों को कम से कम 10+2 वही सब कुछ मालूम होता है जो पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाता है वही परीक्षा में पूछा जाता है और स्वाभाविक रूप से बच्चे रट लेते हैं. इसलिए उनके मन में गांधी नेहरू के प्रति श्रद्धा और लोकप्रियता के किस्से जबरदस्ती ठूंसे गए हैं. भारत के इतिहास में नेहरू को बेहद महान, प्रगतिशील और भारत के भाग्य विधाता वाली छवि कृत्रिम रूप से गढ़ी गई है और उसे ही पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है.

जिस किसी भी लेखक ने नेहरू के बारे में सच्चाई लिखी उन किताबों को प्रतिबंधित कर दिया गया. सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में कुछ भी छुपाना मुश्किल है और इसलिए नेहरू के बारे में बहुत सी जानकारी, जिन्हें विदेशी लेखकों ने लिखा उपलब्ध है. भारतीय लेखकों की प्रतिबंधित पुस्तकें भी आज इंटरनेट पर उपलब्ध है.

इन सब के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जवाहरलाल नेहरू का चरित्र साफ सुथरा नहीं था. अय्यासी उनके चरित्र का अनिवार्य हिस्सा थी. वह सेक्स के शौकीन थे. स्त्री बच्चे और यहां तक कि कुछ पुरुषों के प्रति भी उनका आकर्षण था.

नेहरू ने अपने सात साल के लंदन प्रवास में एक ख़्वाब जैसी जिंदगी जी थी - अच्छी पढ़ाई, शानदार सोसाइटी व रिश्ते , बेहतरीन शामें, हसीन रातें, खुली, उन्मुक्त और आज़ाद जिंदगी. भारत में इसे आप अय्यासी ही कहेंगे. यहीं से अय्यासी उनके जीवन का हिस्सा बन गयी लेकिन यह उनका निजी मुद्दा है और देश को इससे ज्यादा मतलब नहीं बशर्ते इससे उनका कर्तव्य निर्वहन बाधित नहीं होता हो.

लेडी माउंटबेटन या एडविना से उनका दिव्य प्रेम सार्वजनिक है और इसे नेहरू ने भी कभी छुपाया नहीं. एडविना के लिए उन्होंने सबकुछ दावं पर लगा दिया था, देश को भी, क्या इसे कोई उचित ठहरा सकता है. कुछ लोग इसका जबाब हाँ में दे सकते हैं क्योंकि यह सच्चाई अब सामने आ चुकी है कि नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने में एडविना की प्रमुख भूमिका थी. इसके बाद वाइसराय ( माउंट बैटिन ) ने गांधी जो को तैयार किया जिन्होंने चालाकी से सरदार बल्लभ भाई पटेल को किनारे कर दिया.

एडविना को उपहार देना, प्रेमपत्र लिखना तो ठीक है लेकिन यदि देश का विभाजन, कश्मीर का एक भाग पाकिस्तान को सौपना (अप्रत्यक्ष रूप से कश्मीर का भी विभाजन ) आदि के पीछे भी एडविना है, और जिन्ना ने एडविना का स्तेमाल किया है तो इसे क्या कहा जाएगा ? दुर्भाग्य से नेहरू की इस चरित्रहीनता ने भारत को बहुत अधिक प्रभावित किया आजादी के पहले भी और उसके बाद तो आज तक हम सभी भुगत रहें हैं.

मॉर्गन जेनेट ने अपनी किताब ‘एडविना माउंटबेटन: अ लाइफ ऑफ़ हर ओन’ में लिखा है कि वे नेहरू को समझाने मशोबरा - एक हिल स्टेशन - ले गईं. नेहरु मान गए थे.

एडविना की बेटी ने एक किताब " India Remebered" लिखी है जिसमें आज़ादी के पहले और बाद की बहुत सी ऐसी बातें लिखी हैं जिनमे एडविना द्वारा नेहरु के स्तेमाल की साफ़ झलक है.

(एडविना की बेटी पामेला की किताब से लिया गया चित्र )

ब्रिटिश इतिहासकार फिलिप जिएग्लर ने माउंटबेटन की जीवनी में एक चिट्ठी का जिक्र किया है जो डिकी ने अपनी बेटी पेट्रिशिया को लिखी थी. नेहरू और एडविना का रिश्ता माउंटबेटन की जिंदगी के सबसे बड़े काम यानी विभाजन को आसान बना रहा था. वे यह भी समझते थे कि नेहरू के लिए एडविना उन्हें छोड़ नहीं सकतीं. इसलिए कहीं न कहीं वे इसे बढ़ावा भी दे रहे थे.

एलेक्स वॉन तुन्जलेमन ने अपनी किताब ‘इंडियन समर’ में एडविना और नेहरु की चिट्ठियों का ज़िक्र किया है. जवाहरलाल जहां भी कहीं जाते, एडविना के लिए तोहफ़े ख़रीदते. उन्होंने इजिप्ट से लायी गयी सिगरेट, सिक्किम से फ़र्न - एक तरह का पौधा, और एक बार उड़ीसा के सूर्य मंदिर में उकेरी हुई कामोत्तेजक तस्वीरों की किताब एडविना माउंटबेटन को भेजी और लिखा, ‘इस किताब को पढ़कर और देखकर एक बार तो मेरी सांसे ही रुक गयीं. इसे मुझे तुम्हें भेजते हुए किसी भी तरह की शर्म महसूस नहीं हुई और न ही मैं तुमसे कुछ छुपाना चाह रहा था.’

एडविना इसके जवाब में लिखती हैं कि उन्हें ये मूर्तिया रिझा रही हैं. ‘मैं संभोग को सिर्फ ‘संभोग’ की तरह से ही नहीं देखती यह कुछ और भी है, यह आत्मा की खूबसूरती जैसा है..’

जवाहरलाल नेहरू के संदर्भ में वैसे तो अनगिनत उदाहरण है लेकिन उनके निजी सचिव रहे एम ओ मथाई ने अपनी किताब 'Reminiscences of the Nehru Age', page 206. में लिखा है कि - 1948 की शरद ऋतु में बनारस की एक युवती श्रद्धा माता नामक संन्यासी के रूप में नई दिल्ली पहुंची, जिन्हें नेहरु के एक कर्मचारी एस.डी. उपाध्याय लाये थे.

वह एक संस्कृत विद्वान थीं और प्राचीन भारतीय शास्त्रों में पारंगत थीं. वह युवा, सुडौल और सुंदर थी. उनके प्रवचन सुनने के लिए सांसदों सहित लोग उनके पास उमड़ पड़े। नेहरू ने उन्हें अपना इंटरव्यू दिया था बाद में नेहरू की उनसे मुलाकात रात में अपना काम खत्म करने के बाद बार -बार होने लगी । एक दिन श्रद्धा माता ने उन्हें एक पत्र भेजा जिसे पढ़ कर नेहरु परेशान हो गए और उन्हें आधी रात में बुलाया गया . वह आयीं और इसके बाद अचानक श्रद्धा माता गायब हो गईं।

नवम्बर 1949 में बंगलौर एक कान्वेंट से पत्रों के एक बण्डल के साथ एक व्यक्ति प्रधान मंत्री आवास पहुंचा, ये पत्र नेहरु ने श्रद्धा माता को लिखे थे . उसने बताया कि उत्तर भारत से एक युवती यहां पहुंची थी जिसने कुछ महीने पहले कॉन्वेंट में एक बच्चे को जन्म दिया। उसने अपना नाम बताने या कोई विवरण देने से इनकार कर दिया था. जैसे ही वह बाहर जाने लाइक ठीक हो गई, वह बच्चे को छोड़ कर चली गयी लेकिन यह चिट्ठियों का यह बण्डल वहीं छूट गया था .

मथाई लिखते हैं कि उन्होंने बच्चे का पता लगाने की बहुत कोशिश की लेकिन पता नहीं चल सका. नेहरु के संज्ञान में यह बात आयी तो उन्होंने रहत की साँस ली.

सरोजिनी नायडू की बेटी पद्मजा नायडू के आलावा 50 के दशक तक देश के शीर्ष उद्योगपति रहे रामकृष्ण डालमिया की बेटी नीलिमा और गुजरात के व्यापारी साराभाई परिवार की बेटी मृदुला से भी उनके प्रसंगो की हवा खूब उडी थी.

अब आप सोच सकते हैं, फैसला कर सकते हैं कि नेहरू का चरित्र कैसा था और उससे देश कैसे प्रभावित हुआ ?

बहुत से लोग नेहरु को आधुनिक भारत का निर्माता कहते हैं और यह बिलकुल सही है और मेरा इरादा नेहरु की महानता को कम करना बिलकुल भी नहीं है.

लेकिन कल्पना करिए कि आप भारत के पहले प्रधान मंत्री होते तो क्या अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य से राष्ट्र निर्माण के लिए जी जान एक नहीं कर देते ? बिलकुल करते. और शायद भारत की अस्मिता और सार्वभौमिकता पर आंच भी नहीं आने देते


शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

नेताजी, भारतीय गणतंत्र और आजादी का अमृत महोत्सव






नेताजी,  भारतीय गणतंत्र और आजादी का अमृत महोत्सव

 

वैसे तो यह संयोग है कि  नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती ( 23 जनवरी ) के तीन दिन  बाद गणतंत्र दिवस आता है लेकिन शायद  यह बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत को आजादी मिलने  और  उसके कारण गणतंत्र की स्थापना  का सौभाग्य नेताजी के कारण ही  मिला है. ऐसे  समय जब भारत स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है, नेताजी की 125 वीं जयंती और उसके बाद पड़ने  वाला  ७३ वां  गणतंत्र दिवस काफी उत्साहजनक रहा. इसका कारण था प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा  दिल्ली में राजपथ पर नेताजी की प्रतिमा की स्थापना की घोषणा  और उनकी होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण करना.

नेताजी की प्रतिमा उसी स्थान पर स्थापित की जाएगी जहां कभी ब्रिटिश के राजा जॉर्ज पंचम की मूर्ति लगाई गई थी, जो स्वतंत्र भारत में 1968 तक इंडिया गेट पर पूरे शान शौकत के साथ लगी रही और इसे हटाया भी तभी गया जब राष्ट्रवादी लोगों ने ब्रिटेन के राजा की इस प्रतिमा को क्षत-विक्षत  करके इस पर कालिख पोत दी थी . लोगों के भारी रोष के कारण इसे दिल्ली  स्थिति कोरोनेशन पार्क  में रख दिया गया था. तबसे इंडिया गेट पर विशेष रूप से बनाई गई यह छतरी खाली पड़ी थी.  इसके बाद कई कांग्रेसी सरकारें आई और  गई लेकिन कोई भी सरकार उस स्थान पर  किसी अन्य प्रतिमा को रखने का साहस नहीं जुटा सकी यद्यपि  इंदिरा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू की, और मनमोहन सरकार ने  इंदिरा गांधी की प्रतिमा लगाने पर गंभीरता से विचार किया लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी. 

आखिरकार  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  ब्रिटेन  के राजा की प्रतिमा की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा लगाने का निर्णय लिया जिसका पूरे देश में तहे दिल से स्वागत किया गया. लोगों ने यह भी  मांग की है कि  ब्रिटेन की राजा के नाम पर बने राजपथ का नामकरण भी  आजाद हिंद पथ किया जाय जो पूरी तरह उचित है. कहना अनुचित नहीं होगा कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस को उनकी 125 वीं जयंती पर भारत में उन्हें पहले से ज्यादा और बहुत  गर्मजोशी से याद  किया गया.


नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती  और सत्ता हस्तांतरण के 75 वर्ष बाद, उनकी मौत का रहस्य आज भी  बरकरार है. भारत को स्वतंत्रता दिलाने का  श्रेय नेताजी  और उनकी आजाद हिंद फौज को जाता है. चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और राजगुरु जैसे अनेक क्रांतिकारियों  का संघर्ष और  बलिदान भी स्वतंत्रता दिलाने में मेल का पत्थर साबित हुआ. क्लेमेंट अटली जो  १९४५ से १९५१ तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे, ने भारत यात्रा के दौरान बताया था  कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने में प्रथम द्रष्टया  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द सेना का बहुत बड़ा हाथ था  जबकि अहिंसा और सत्याग्रह आन्दोलन की भूमिका अत्यंत सीमित थी. जनरल जी डी बक्शी ने भी अपनी किताब  "बोस एन इंडियन समुराई" में  बहुत विस्तार से इस बात का उल्लेख किया है कि भारत की आजादी में नेताजी और उनकी आजाद हिन्द फौज का सबसे बड़ी भूमिका थी.   

सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में, सोशल मीडिया की सक्रियता और तमाम गुप्त दस्तावेजों के सार्वजनिक कर दिए जाने से  जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई  है कि  "दे दी हमें आजादी बिना खडक बिना ढाल" केवल एक जुमला है और भारत को स्वतंत्रता दिलाने में इसकी और भारत छोड़ो आंदोलन की कोई खास भूमिका नहीं थी.  द्वितीय विश्व युद्ध के बाद  नवंबर 1945 में लाल किले में हुए आई एन ए के वार ट्रायल के दौरान जब ऐसे पोस्टर देखे गए  जिसमें लिखा था कि अगर आजाद हिंद फौज के किसी भी सैनिक को  फांसी पर लटकाया जाता है तो एक भी अंग्रेज भारत से जिंदा वापस नहीं जाएगा. तब ब्रिटिश सरकार ने  इस बात को शिद्दत से महसूस किया कि अब भारत में और अधिक शासन करना संभव नहीं है. १८५७ के  स्वतंत्रता संग्राम से सहमें अंग्रेज परिवारों में असुरक्षा की भावना घर कर गई और कुछ  अंग्रेज परिवार भारत छोड़कर वापस जाने लगे.  नौसेना के विद्रोह ने  इस बात को और पुख्ता कर दिया कि यदि सेना ने  विद्रोह किया  तो भारत में शासन करना तो दूर की बात, अंग्रेजों को  जान बचा कर भागना  भी संभव नहीं हो पाएगा. यह भी एक तथ्य है लालकिला में हुए वॉर ट्रायल में किसी को भी फांसी की सजा नहीं सुनाई  गयी थी.  अंग्रेजों ने भारत से सुरक्षित निकलने की योजना बनायी, सत्ता हस्तातंरण जिसका महत्वपूर्ण भाग था.    

यह बात समझने योग्य है कि भारत में अंग्रेजों ने भारतीयों के माध्यम से ही  क्रूरतायें  की और  शासन किया. कुल मिलाकर लगभग 5000 अंग्रेज  ही भारत में थे, जो  उच्च पदों पर थे. उन्होंने सेना तथा सरकारी विभागों में  भारतीयों को नियुक्त किया और उनकी स्वामिभक्ति से ही भारत पर शासन किया. इसलिए आनन-फानन में ब्रिटिश सरकार ने सत्ता छोड़ने का निर्णय लिया और कांग्रेस से वार्ता करके उसे अपनी शर्तों पर सत्ता हस्तांतरण करने का फैसला किया और सत्ता के लालच में कांग्रेश, विशेषकर जवाहरलाल नेहरू ने सभी शर्तों को सहर्ष  को स्वीकार कर लिया. यह अब कोई छिपी  बात नहीं है कि अंग्रजों ने  कांग्रेस का गठन अपनी सत्ता को निष्कंटक बनाने   अनवरत चलाने  के लिए किया था और  ब्रिटिश सरकार को गांधी के बाद सबसे अधिक प्रिय जिन्ना और जवाहरलाल नेहरू ही  थे. नेहरु और  जिन्ना  लार्ड माउंट बैटन  से अपनी  निकटता के कारण सत्ता के शिखर पर पहुंचे लेकिन सही अर्थों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ही अविभाज्य  भारत के मुखिया थे और उनकी सरकार को कई देशों ने मान्यता भी दी थी.   

यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिन लोगों को  अंग्रेजों ने सत्ता का हस्तांतरण किया उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक नायकों  नेताजी सुभाष चंद्र बोस और  क्रांतिकारियों के  नाम इतिहास से मिटाने का पाप किया ताकि  आजादी दिलाने का एक मात्र श्रेय  गांधी और नेहरू जैसे कांग्रेसी नेताओं के नाम  सुरक्षित किया जा सके और इसी कारण नेताजी की मौत का रहस्य आज भी  रहस्य बना हुआ है.

नेताजी की मृत्यु से संबंधित तीन विचारधाराएं  हैं. पहली विचारधारा के अनुसार नेताजी की मौत 18 अगस्त 1945 ताइवान में एक हवाई दुर्घटना हो गई थी जब वह जापान जा रहे थे. दूसरी विचारधारा के अनुसार द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी सोवियत रूस चले गए थे जहां उन्हें गिरफ्तार करके साइबेरिया की एक जेल में रखा गया था और वही उनकी मौत हो गई. तीसरी विचारधारा के अनुसार नेताजी सोवियत रूस गए थे और वहां ताशकंद समझौते के समय  लाल बहादुर शास्त्री के साथ उनकी मुलाकात भी हुई थी. यह भी कहा जाता है कि शास्त्री जी उन्हें अपने साथ भारत लाना चाहते थे  लेकिन ताशकंद में शास्त्री जी  की मृत्यु हो गई. छद्म वेश में  कुछ समय बाद नेताजी भारत वापस आ गए और फैजाबाद में गुमनामी बाबा के रूप में रहते रहे.

गुमनामी बाबा की मृत्यु के बाद उनके पास से बरामद सामान में वह सब कुछ मिला जिससे उनके नेताजी होने की पुष्टि होती है, लेकिन चूंकि  अटल  सरकार द्वारा गठित मुखर्जी आयोग को गुमनामी बाबा और नेता जी के डीएनए में समानता की पुष्टि नहीं हो सकी इसलिए अधिकारिक रूप से इस विचारधारा को भी स्वीकार नहीं किया गया.  उनके  छद्म  वेश में  सन्यासी के रूप में  रहने का कारण लोग कयास लगते थे कि तत्कालीन केंद्र  सरकार ने ब्रिटेन के साथ गुप्त  समझौता किया था कि यदि नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत में जिंदा पाए जाते हैं तो उन्हें गिरफ्तार करके ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाएगा. जन सामान्य को विश्वास था कि महात्मा गांधी और  जवाहरलाल नेहरू कभी भी ऐसा नहीं कर सकते हैं, लेकिन अभी इस तरह की बातें सामने आ रही हैं, कि सत्ता हस्तांतरण के समय एक गुप्त समझौता किया गया था जिसमें इस तरह की शर्त भी हो सकती है.  इसके पहले गठित दो आयोग शाहनवाज आयोग (१९५६) और खोशला आयोग(१९७०)  ने नेता जी की मृत्यु का रहस्य सुलझाने के गंभीर प्रयास नहीं किये.

 

यद्दपि मोदी सरकार द्वारा  राजपथ पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने से देश ने नेताजी के एक बड़े कर्ज का छोटा सा फर्ज अदा करने का कार्य किया गया है लेकिन  सरकार को  चाहिए कि वे नेता जी की  मृत्यु के  रहस्य  की गुत्थी तुरंत  सुलझाए और इसके लिए आवश्यक है कि  सत्ता हस्तांतरण के समय हुए गुप्त समझौते को तुरंत सार्वजनिक करें और नेताजी की आजाद हिंद फौज के खजाने को लूटने वाले नेताओं के नाम भी उजागर करें  क्योंकि इस खजाने में भारतीय महिलाओं द्वारा नेता जी को दिए गए अपने सुहाग के स्वर्ण आभूषणों का भी दान शामिल था. इसलिए इस खजाने को  लूटने और व्यक्तिगत और राजनैतिक  इस्तेमाल करने वाले भारतीय नेताओं के नाम जनता को जानने का अधिकार है, जिनमें से कुछ को  आधुनिक भारत का निर्माता और भाग्य विधाता भी कहा जाता है.

नेताजी सुभाष चंद्र बोस को वह स्थान मिलना ही चाहिए जिसके वह वास्तविक हकदार हैं और जिसे स्वार्थी राजनेताओं द्वारा इतिहास से उनका नाम मिटा कर वंचित करने का महापाप किया  गया है.

-                                                                                                                                      - शिव मिश्रा

 

 

 

 

 

 

 

 

 

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

स्वाधीनता की प्रतीक्षा में सनातन धर्म


 


भारत में स्वतंत्रता मिले या सत्ता का हस्तांतरण हुए 70 वर्ष से भी अधिक हो गए हैं लेकिन सनातन धर्म और सनातन  संस्कृति अभी भी स्वतंत्रता प्राप्ति  करने के लिए संघर्ष कर रहा है. लगभग सभी परतंत्र देशों में, यह सामान्य बात हुई है कि  शासकों  ने उस देश की संस्कृति को  नष्ट भ्रष्ट  करने के  हर संभव प्रयास किए, वहां के बौद्धिक संपदा को नुकसान पहुंचाया, स्थानीय समाज के  मूल चरित्र को बदलने के क्रम में उस सभ्यता की प्राचीन उपलब्धियों को दबाया छिपाया और वहां का इतिहास ही बदल दिया ताकि आगे आने वाली पीढ़ियां अपनी सभ्यता और संस्कृति पर  गर्व महसूस करने के वजाय शर्म महसूस करें. भारत में इस्लामिक आक्रमणकारियों और अंग्रेजों ने बहुत क्रूरता और धूर्तता से यह सब कुछ किया और उनके इस कुकृत्य में कुछ भारतीयों ने उनका साथ दिया.  

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात ऐसे सभी नव स्वतन्त्र  देशों ने अपनी सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्थापना के लिए बहुत मेहनत और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ कार्य किया और समाज में नव चेतना का संचार किया. आज ऐसे सभी देश जो लगभग उसी समय स्वतंत्र हुए जब भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी, भारत से बहुत  आगे हैं किन्तु  भारत आज भी आक्रमणकारियों, आतताइयों और पूर्व शासकों के बुने हुए जाल में फंसा हुआ है. इसका एकमात्र कारण यह है कि अंग्रेजों से सत्ता का हस्तांतरण जिन लोगों को हुआ वह भी आचार विचार और व्यवहार से अंग्रेज ही थे. इन लोगों की सिर्फ चमड़ी ही काली नहीं  थी,  दिल भी  काला था.

 

गांधी ने देश को धोखे में रखा कि उनकी लाश पर ही देश का विभाजन होगा किन्तु उनकी सहमति से सांप्रदायिक आधार पर देश का विभाजन हुआ. एक देश पाकिस्तान बना और दूसरा हिंदुस्तान बना.  स्वाभाविक रूप से जनसंख्या की अदला बदली होनी चाहिए थी, जैसा कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और सरदार वल्लभभाई पटेल के अलावा समस्त हिन्दू  जनमानस चाहता था लेकिन एक नियोजित षडयंत्र के तहत जिन लोगों ने पाकिस्तान बनाने में संघर्ष किया था, वे पाकिस्तान नहीं गए और लगभग सब के सब हिंदुस्तान में हीं जमें रहे. उन्हें भारत में  रोकने का पाप  चाचा और बापू ने किया. वसुधैव कुटुम्बकम के प्रणेता  सनातन धर्म का मतलब  धर्मनिरपेक्ष होता है फिर भी भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया. चूंकि पूरी कांग्रेस पार्टी सरदार बल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी, गांधी ने अपनी प्रतिष्ठा का दुरुपयोग करके जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंप दी. अपनी कमजोर स्थिति को मजबूत करने के लिए नेहरू अपना एक वोट बैंक बनाना चाहते थे जिसे उन्होंने मुसलमानों को हिंदुस्तान में रोककर और हिंदुओं से अधिक महत्व देकर बना लिया. 



स्वतंत्रता के बाद अपेक्षा की जाती थी कि लगभग 800 वर्ष की गुलामी के दौरान राक्षसी प्रवृत्ति के लुटेरों, आक्रमणकारियों, और देश पर  बलात कब्जा करने वाले  अंग्रेजों ने प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जो क्षति पहुंचाई है, उसे सुधारने के प्रयास किए जाएंगे. राष्ट्रीय अस्मिता के जिन स्थलों को तोड़ा गया है, उन्हें  पुनर्स्थापित किया जाएगा  और भारत विश्व गुरु वाली अपनी छवि के पुनर्निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाना शुरू करेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.  इसके उलट सनातन धर्म के पैरों में और अधिक बेड़ियां डाल दी गई. संविधान में ऐसे प्रावधान किए गए और ऐसे कानून बना दिए गए जिससे स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले की यथास्थिति बनाए रखने का दंड भी सनातन धर्मियों  को दिया गया. हिंदू समाज का दुर्भाग्य देखिए कि सनातन संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता के जिन  प्रतीकों और धर्म स्थलों को मुस्लिम आतताइयों  ने तोड़ा था, उनका पुनर्निर्माण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी नहीं किया जा सका. यह कैसी स्वतंत्रता है? और संपूर्ण सनातन समाज के लिए ऐसी स्वतंत्रता का  क्या अर्थ  है ?




यह देश के बहुसंख्यक समाज के साथ की गई  ऐसी धोखाधड़ी है, जिस की पीड़ा से पूरा हिंदू जनमानस कराह  रहा है. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण 500 साल के संघर्ष, जिसमें  70 वर्ष स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के हैं, के बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर हो रहा है, लेकिन मथुरा और काशी जिनका  भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के साथ-साथ धार्मिक और पौराणिक महत्व है, अभी भी अस्मिता पर गहरा आघात है. इन सभी धर्म स्थलों  पर विवाद उन  मुसलमानों ने, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं गए थे, दायर कर रखा है.  कांग्रेसी  सरकारों ने राम को काल्पनिक पात्र ही नहीं बताया बल्कि  धर्म स्थलों की 1947 की पहली वाली यथास्थिति को बनाए रखने का कानून बनाने का महापाप भी किया है. राम का नाम लेकर सत्ता में आयी  भाजपा भी  इस दिशा में किंकर्तव्यविमूढ़ दिखाई पड़ती है.

 

हिंदुओं के मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण है. श्रद्धालुओं के  चढ़ावे  से होने वाली आमदनी सरकारी खजाने में  जाती है और  केवल एक छोटा सा हिस्सा मंदिरों के रखरखाव पर खर्च किया जाता है. कई राज्यों में मंदिरों से होने वाली आय  मुस्लिम और क्रिश्चियन धर्म स्थलों और उनके द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं को दी जाती है. शायद आज की सरका रें ही  नहीं, हम सब भी भूल गए हैं कि देश की  सभ्यता, कला व संस्कृति,  और भारतीय दर्शन के  उद्भव और विकास में इन मंदिरों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है. शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र में इन मंदिरों के कारण भारत के विश्व गुरु बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ था. सनातन का दुर्भाग्य देखिये कि इनके  मंदिर आज भी स्वतंत्र नहीं है. इसके  विपरीत दूसरे धर्म के पूजा स्थलों  को सरकारी धन उपलब्ध कराया जा रहा है बल्कि उन्हें बड़ी मात्रा में विदेशी धन भी  प्राप्त होता है और इस धन का  बड़ा भाग धर्मांतरण और सनातन संस्कृति को लांछित  करने पर खर्च किया जाता है. इस समय जब मंदिर मुक्ति के लिए आंदोलन चलाए जा रहे हैं, भाजपा की उत्तराखंड सरकार ने  चारो धाम का अधिग्रहण करने का दुस्साहस किया था, भारी विरोध के बाद इसे वापस लिया गया है.



 

कुछ समय पहले संत महात्माओं द्वारा आयोजित धर्म संसद में कालीचरण महाराज द्वारा गांधी के प्रति कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया था, जिसके कारण  कांग्रेस की  छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र सरकार द्वारा उनके विरुद्ध मुकदमा पंजीकृत कर  गिरफ्तार किया गया था. किसी भी अमर्यादित भाषा का समर्थन तो नहीं किया जा सकता लेकिन संत कालीचरण महाराज के बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा होनी चाहिए. गांधी को पैगंबर बनाकर सनातन धर्म के संत और महात्माओं का निरादर किया जाना स्वीकार नहीं किया जा सकता. इसी तरह हरिद्वार धर्म संसद में दिए गए भाषण के आधार पर जितेंद्र नारायण त्यागी ( पूर्व वसीम रिजवी) को गिरफ्तार किया गया था. उनकी रिहाई को लेकर यति नरसिंहानंद हरिद्वार में उपवास कर रहे थे, उन्हें भी गिरफ्तार किया गया है और उन पर धर्म संसद के अलावा अन्य कई मामले दर्ज किए गए हैं.




कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि  वसीम रिजवी द्वारा कुरान की आयतों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय जाने,  मोहम्मद नाम की एक पुस्तक लिखने और बाद में  सनातन धर्म अपनाने के कारण वह वामपंथी इस्लामिक गठजोड़ के निशाने पर हैं. चूंकि वसीम रिजवी का धर्मांतरण डासना मंदिर में यति नरसिंहानंद की देखरेख में हुआ था जिन्होंने वसीम रिजवी को अपना गोत्र प्रदान किया था, वह  भी आतंकवादियों सहित इस गठजोड़ के निशाने पर हैं. बेहद चौंकाने वाली बात यह है कि भाजपा की उत्तराखंड सरकार ने तथाकथित धर्मनिरपेक्ष इस्लामिक वामपंथ गठजोड़ के दबाव में इन्हें गिरफ्तार किया है. इससे हिंदू जनमानस में बहुत रोष व्याप्त है. उत्तराखंड में पिछले 5 साल में भाजपा तीन मुख्यमंत्री बदल चुकी है, पर ऐसा लगता है कि भाजपा ने अब सरेंडर कर दिया है और इस देव भूमि में पुन: सरकार न बनाने का आत्मघाती  निर्णय ले लिया है.

 

धर्म संसद के विरुद्ध  याचिकाकर्ता के वकील कपिल सिब्बल और उनकी पार्टी कांग्रेस का  हिंदू और सनातन धर्म  विरोध जग जाहिर है. इसलिए उन्होंने जो टिप्पणियां की उस पर आश्चर्य नहीं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह इन याचिकाओं पर कड़ी प्रतिक्रिया दी और त्वरित कार्यवाही की वह अवश्य चौंकाने  वाली है. कुछ समय पहले कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार पर दायर की गई एक जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए सुनवाई नहीं की थी कि इसमें अत्यधिक विलंब हो चुका है. 15 मिनट के लिए पुलिस हटाने (ओवैसी) , २०  करोड़ मुसलमान 100 करोड़ हिंदुओं पर भारी पड़ेंगे (वारिस पठान) , मोदी की बोटी बोटी  काट देंगे  ( इमरान मसूद), हर हिंदू आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी हिंदू ही क्यों होता है (रहमानी), जैसे बयानों  पर सर्वोच्च न्यायालय खामोश रहता है. कुछ समय पहले कांग्रेस के सहयोगी तौकीर रजा ने कानून अपने हाथ  में लेकर  हिंदुओं के खात्में की  चेतावनी देते हुए कहा था उन्हें हिंदुस्तान में छिपने  की कोई जगह नहीं मिलेगी, इस पर भी  सर्वोच्च न्यायालय मौन रहा. 


न्यायालय द्वारा इस तरह की  कुछ खास याचिकाओं पर ही त्वरित कार्यवाही जनमानस को उद्वेलित करती है लेकिन सबसे बड़ी पहेली यह है कि  पिछले कुछ वर्षों से मोदी सरकार भी इस तरह के मामलों में शिथिल हो गई लगती है और कई मामलों में तो ऐसा लगता है कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर ही बंदूक रखकर चलाना चाहती है. मामला चाहे शाहीन  बाग का हो, किसान आंदोलन का हो,  विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में हुए हिंदुओं के भयानक नरसंहार का हो या फिर स्वयं प्रधानमंत्री की पंजाब में हुई षड्यंत्रकारी सुरक्षा चूक का हो, यह समझ से परे है कि क्यों इस तरह के  मामलों  में सरकार लुंज पुंज और  असहाय नजर आती है?

 

सरकार की मजबूरियां हो सकती है लेकिन सनातन हिंदू समाज की तो कोई मजबूरी नहीं है. पूरे समाज को संगठित होकर, जाति, उपजाति, वर्ण आदि का भेद भूलकर जन जागरण करना होगा और  सरकार पर दबाव बनाना होगा. समय तेजी से निकल रहा है और सनातन समाज नित नए चक्र व्यूह  में फंसता जा रहा है. स्थिति "अभी  नहीं तो कभी नहीं" वाली आ गई है.  पूरे हिन्दू समाज को संगठित होकर अपने हित में आवाज उठानी  होगी अन्यथा बहुत देर हो जायेगी.

-                                                                                                                         --        शिव  मिश्रा

शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

शास्त्री जी को किसने मारा ? और क्यों मारा ?


 

लाल बहादुर शास्त्री को किसने मारा और उनकी ह्त्या क्यों की गयी थी, एक खुला रहस्य है, जो कांग्रेसी सरकारों के निहित स्वार्थ, ह्त्या के कलंक और उससे उपजने वाली जनता की नाराजगी से बचने के लिये बनाए रखा गया. लेकिन जनता सरकार क्यों चुप रही, अटल सरकार ने क्यों कुछ नहीं किया और अब मोदी सरकार क्यों चुप है समझ से परे हैं .


इस सम्बन्ध में मेरा एक लेख एक समाचार पत्र में उ लाला बहादुर शास्त्री की ५६वीं पुण्य तिथि पर प्रकाशित हुआ है, वही उद्दृत है


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बीते 11 जनवरी 2022 को लाल बहादुर शास्त्री की ५६वीं पुण्य तिथि पर भी उनकी मौत पर रहस्य जस का तस है. 1966 में ताशकंद में शास्त्री जी की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी. यद्यपि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार ऐसा लगता है कि सुनियोजित तरीके से उनकी हत्या की गयी थी, लेकिन भारत सरकार ने अभी भी बहुत से गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किए हैं, इसलिए रहस्य पर अभी पर्दा पडा है. यद्दपि आधिकारिक तौर पर यही बताया गया था कि उनकी मौत ह्रदय गति रुक जाने हुई .

कुछ समय पहले एक फिल्म आई थी "ताशकंद फाइल्स" जिसमें शास्त्री जी की मौत से संबंधित कई रहस्यमई परिस्थितियों का फिल्मांकन किया गया था लेकिन फ़िल्मी कहानी की अपनी एक सीमा होती है और उन रहस्यों को उजागर नहीं किया जा सकता था जो शास्त्री जी के परिवार को मालूम होते हुए भी सरकार ने सार्वजनिक नहीं किए थे.

हाल ही में पत्रकार अनुज धर की एक किताब प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है "योर प्राइम मिनिस्टर इज डेड" इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए अनुज धर ने वर्षों कड़ी मेहनत की है और बहुत से ऐसे दुर्लभ और गुप्त दस्तावेजों को प्राप्त कर पुस्तक में सम्मिलित किया है जिससे शास्त्री जी की मौत या हत्या के कारण बिल्कुल स्पष्ट हो गए लगते हैं. लेखक ने सही अर्थों में खोजी पत्रकारिता की सार्थकता सिद्ध कर दी है. इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद शास्त्री जी की मौत एक बार फिर चर्चा में आ गयी है.


शास्त्री जी ताशकंद में युद्ध के बाद के हालात पर वार्ता करने के लिए पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान से शांति समझौते के लिए गए हुए थे। इस समझौते के बाद कुछ ही घंटों के अंदर उनकी अचानक मौत हो गई थी । यद्दपि भारत सरकार ने इस बारे में जनता को कभी कुछ नहीं बताया फिरभी यह मानने के कोई कारण नहीं है कि भारत सरकार को कोई जानकारी नहीं थी. भारत सरकार ने रूस से कुछ पूंछने या जानने की कोशिश नहीं की बल्कि मौत के कारण जनता से छिपाने की लगातार हर संभव कोशिश की गई. ऐसा कांग्रेसी सरकारों ने तो किया ही लेकिन गैर कांग्रेसी सरकारों ने भी शास्त्री जी की मौत से संबंधित गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं किया. आधिकारिक तौर पर यही बताया गया कि लाल बहादुर शास्त्री की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी.

(क्या नेता जी सुभाष चन्द्र बोस तासकंद में शास्त्री जी के साथ थे ?)


शास्त्री जी के नाती ( बेटी के बेटे ) संजय नाथ सिंह के अनुसार पूरे परिवार का मानना है शास्त्री जी की हत्या हुई थी और उनको जहर दिया गया था. इस संदर्भ में उन्होंने एक इंटरनेट चैनल से बात करते हुए कई अनसुनी बातें बताई. उन्होंने बताया कि ताशकंद में शास्त्री जी और उनकी टीम के सभी सदस्यों के रुकने के लिए एक आधुनिक होटल में व्यवस्था की गई थी जहां स्वास्थ्य सुविधा के लिए इंटेंसिव केयर यूनिट बनाया गया था ताकि किसी भी आपात स्थिति का सामना किया जा सके.

प्रधानमंत्री शास्त्री के दौरे से पहले भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्री, व्यवस्था देखने के लिए ताशकंद गए थे और उन्होंने यह कह कर कि शास्त्री जी बहुत ही साधारण जीवन जीते हैं, इसलिए वह यहां फाइव स्टार होटल में नहीं ठहरेंगे और फिर अकेले शास्त्री जी की रहने की व्यवस्था उस होटल से लगभग 20 किलोमीटर दूर एक विला में करा दी गई था. शास्त्री जी के व्यक्तिगत डॉक्टर सहित उनकी टीम के सभी सदस्यों को उसी होटल में ठहराया गया था . इसलिए जब उन्हें तथाकथित रूप से हृदयाघात पड़ा या उनकी हत्या की गई, और जब उन्हें सहायता की नितांत आवश्यकता थी, उनके पास कोई भी नहीं था. आपको उत्सुकता होगी कि वह सूचना और प्रसारण मंत्री कौन थे, वह थीं श्रीमती इंदिरा गांधी, जो शास्त्री जी की मौत के बाद बने अंतरिम प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा के बाद प्रधानमंत्री बनी थीं.

श्रीमती गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कहा था शास्त्री जी एक पुरातन पंथी हिंदू थे जिनके पास आधुनिक और नवोन्मेषी विचारों का पूरी तरह अभाव था.

शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बन जाने से नेहरु / गांधी परिवार बेहद गुस्से में था . नेहरु की बहिन विजय लक्ष्मी पंडित ने संसद में शास्त्री की जी भर कर आलोचना की थी जबकि वह कांग्रेस पार्टी में थी विपक्ष में नहीं .

राज नारायण ने बताया था और जो उनके हवाले से संसदीय दस्तावेजों में दर्ज है कि श्रीमती गांधी ने शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कहा था कि मेरे घर का नौकर प्रधानमंत्री बन गया और मैं तो ऐसे ही रह गयी .

शास्त्री जी की अचानक हुई मृत्यु से रूस बहुत असहज स्थिति में था उन्होंने शास्त्री जी का पोस्टमार्टम कराने का प्रस्ताव दिया था ताकि उनकी हत्या का कारण पता चल सके और भारतीय प्रधानमंत्री की मृत्यु दोनों देशों के संबंधों के बीच बाधा ना बने. बताया जाता है कि रूस में भारत के तत्कालीन राजदूत टी एन कौल ने पोस्टमार्टम कराने से यह कहकर मना कर दिया कि यह हिंदुओं में अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि इससे मृत शरीर दूषित हो जाता है. टी एन कौल किसके नजदीकी थे यह बताने की आवश्यकता नहीं. 

 नीचे फोटो में नेहरु के पीछे खड़े हैं कौल .

शास्त्री जी के मृत शरीर को कन्धा देते रूसी प्रीमियर और पकिस्तान के राष्ट्रपति


जब शास्त्री जी का मृत शरीर भारत में पालम एअरपोर्ट पर आया तो सभी दुखी थे लेकिन कुछ लोग खुश भी थे . क्यों ?



शास्त्री जी का परिवार और स्टाफ विलाप कर रहा था. सभी अश्रु पूरित थे . जब उनका पार्थिव शरीर भारत लाया गया तो परिवार वालों को काफी समय तक मृत शरीर के पास नहीं जाने दिया गया. बाद में परिवार वालों और कई प्रत्यक्षदर्शियों को उनके चेहरे और शरीर पर अप्राकृतिक नीले और सफेद धब्बे नजर आए। इतना ही नहीं उनके पेट और गर्दन के पीछे कटने के निशान भी देखे गए थे।

उस समय शास्त्री जी की मां जिंदा थी और उन्हें संदेह हुआ तो उन्होंने देसी घी शास्त्री जी के होंठो पर लगाकर कुछ परीक्षण किया और फिर रोते हुए कहा कि उनके बेटे को जहर दिया गया है. परिवार वालों ने शास्त्री जी का पोस्टमार्टम कराने का अनुरोध किया जिसे तत्कालीन सरकार ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि इससे अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की छवि को धक्का लगेगा और इस प्रकार शास्त्री जी के मृत शरीर का न तो पोस्टमार्टम कराया गया और न ही कोई अन्य परीक्षण कराया गया.

बड़े दुख और हैरानी की बात है कि एक प्रधानमंत्री की मृत्यु के बाद उसके परिवार वालों के साथ कुछ घंटे पुरानी कांग्रेस की गुलजारी लाल नंदा (जो कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे) सरकार का ऐसा व्यवहार क्यों था ? क्या भारत सरकार का कोई प्रभावशाली व्यक्ति शास्त्री जी की हत्या के षड्यंत्र के पीछे था जो हर हालत में शास्त्री जी की मौत को एक सामान्य मौत दिखाना चाहता था.

संजय नाथ सिंह के अनुसार जब वह ताशकंद में थे तो उन्होंने घरवालों से फोन पर बात की और जब उन्हें बताया गया कि पाकिस्तान से समझौते के विरोध में अटल बिहारी वाजपेई और राम मनोहर लोहिया ने ऐलान किया है कि वह काले झंडों से उनका स्वागत करेंगे तो शास्त्री जी ने बताया कि वह ऐसा कुछ लेकर भारत आ रहे हैं, जिसे वह लोग भी पसंद करेंगे और यह मुद्दा बहुत छोटा हो जाएगा. परिवार वालों का अनुमान है कि वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में बात कर रहे थे. आखिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सार्वजनिक हो जाने से किस परिवार या राजनीतिक दल को खतरा था, यह समझना मुश्किल नहीं.

फरवरी 1966 में संसद में शास्त्री जी की मौत को लेकर काफी हंगामा हुआ. अटल बिहारी बाजपेई, लाल कृष्ण आडवाणी, राम मनोहर लोहिया और राज नारायण ने सरकार से ऐसे ऐसे प्रश्न किए जिसके जवाब में सरकार ने बताया कम, छिपाया ज्यादा. बाजपेई जी ने पूछा कि सोने के पहले शास्त्री जी को दूध का गिलास किसने दिया था, उनका इशारा भारत के तत्कालीन राजदूत टी एन कौल के सरकारी रसोईया जान मोहम्मद की तरफ था, जिसे मास्को से लाकर ताशकंद में शास्त्री जी के रसोइए के साथ बिना वजह लगाया गया था. बाजपेई ने यह भी पूछा कि शास्त्री जी के कमरे में टेलीफोन क्यों नहीं लगा था, जिसके कारण उन्हें अपने घर बात करने के लिए बीमारी की हालत में चलकर दूसरे कमरे में जाना पड़ा. सरकार ने जवाब दिया कि सुइट (कई कमरों वाला फ्लैट नुमा निवास) में टेलीफोन लगा हुआ था यानी किसी अन्य कमरे में था. अटल जी द्वारा यह पूछने पर कि क्या उस समय धर्मा तेजा मास्को में था, सरकार ने जवाब दिया कि वह ताशकंद में नहीं था. इसका मतलब वह मास्को में था. धर्मा तेजा नेहरू जी के दरबारी और कृपापात्र उद्योगपति थे और गांधी परिवार से अंत तक उसके अत्यंत मधुर सम्बन्ध रहे किंतु शास्त्री जी से उसके संबंध मधुर नहीं थे क्योंकि शास्त्री जी ने उसके विरुद्ध कार्यवाही की थी. सरकार ने सदन में स्पष्ट कर दिया कि चूंकि सरकार को शास्त्री जी की मौत के संबंध में संदेह नहीं है, इसलिए कमिशन ऑफ इंक्वायरी गठित नहीं की जाएगी.

1991 में भारत में उपलब्ध सोवियत लैंड नाम की मैगजीन में एक प्रकाशित हुआ जिसे केजीबी की एक पूर्व अधिकारी ने लिखा था उसने बताया कि शास्त्री जी जिस कमरे में ठहरे थे उसे बग किया गया था यानी उसकी कॉल रिकॉर्डिंग के साथ-साथ पूरी जासूसी की जा रही थी. इसमें लिखा है जब शास्त्री जी का सीजर किया गया तो रूस को मालूम हो गया लेकिन भारत सरकार को इसलिए आगाह नहीं किया जा सका क्योंकि तब इस बात का खुलासा हो जाता कि जासूसी की जा रही थी.

अनुज धर की खोज में यह बात सामने आई है कि १९९८ में रूस के एक अखबार में अहमद सत्ताराव, जिसे रूस ने शास्त्री जी के विला में रसोइए के रूप में लगाया था, का इंटरव्यू छपा जिसमें सता राव ने बताया की शास्त्री जी की मौत रात में 1:00 बजे हुई थी और 3:00 बजे उसे केजीबी ने पूछताछ के लिए पकड़ लिया था क्योंकि केजीबी को शक था कि शास्त्री जी को भोजन में जहर दिया गया था. थोड़ी देर बाद ही भारतीय कुक जान मोहम्मद को भी पकड़ कर वहां लाया गया था. चूंकि जान मोहम्मद भारतीय दूतावास का कर्मचारी था, इसलिए बिना दूतावास को सूचना दिए उसे गिरफ्तार नहीं किया गया होगा. इससे स्पष्ट है कि केवल शास्त्री जी के परिवार वालों को ही उन्हें जहर दिए जाने का संदेह नहीं था बल्कि रूस को उसी समय शक हो गया था और उसने उस पर कार्यवाही भी शुरू कर दी थी. फिर क्या कारण था कि भारत सरकार ने इस विषय में जांच नहीं करवाई. सरकार ने उस समय संसद में भी झूठ बोला था.

2009-10 में कुलदीप नैयर जो शास्त्री जी के प्रेस सलाहकार थे और ताशकंद में उनके साथ थे, ने करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्हें भी शास्त्री जी को जहर दिए जाने का शक था. नैयर ने यह भी बताया कि रूस में भारत के तत्कालीन राजदूत टी एन कौल बाद में विदेश सचिव बन गए थे और तब उन्होंने नैयर पर जहर देने की साजिश पर बात करने पर चेतावनी दी थी.

दहया भाई पटेल जो सरदार बल्लभ भाई पटेल के पुत्र और लोकसभा सांसद थे, ने अपनी किताब में शास्त्री जी की मौत के बारे में बहुत बेबाकी से लिखा था और जहर देकर उनकी ह्त्या काआरोप लगाया था. दुर्भाग्य से दयाभाई की किताब भारत में कहीं भी उपलब्ध नही है. शास्त्री जी का जो सामान वापस आया था उसमें उनका चश्मा भी था. चश्में के खोल में एक छोटी सी पर्ची निकली जिसमें शास्त्री जी की राइटिंग में लिखा था कि मेरे साथ धोखा हुआ है. संजय नाथ सिंह ने यह भी बताया कि जब श्रीमती गांधी उनके परिवार से मिलने आयीं तो उन्होंने कहा था कि अगर शास्त्री जी की ह्त्या हुई है तो सोचिये कि प्रधान मंत्री की ह्त्या करने वाले कितने ताकतवर लोग होंगे और वे आपके परिवार के लिए अब भी ख़तरा हैं इसलिए चुप रहना ही बेहतर है.

लेकिन वह दिन और आज का दिन, सरकार चुप है. केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार ने कई मामलों से संबंधित गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक किए हैं फिर भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस या लाल बहादुर शास्त्री दोनों की मौत पर रहस्य ज्यों का त्यों है. देश हित में सरकार को चाहिए शास्त्री जी की मौत से संबंधित सभी गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक करें और एक जांच समिति / आयोग बनाये ताकि उनकी मौत के कारण स्पष्ट हो सकें.

लेकिन सरकार अगर कुछ भी न करे तो क्या आपको मालूम नहीं हो सका कि ह्त्या किसने करवाई और क्यों करवाई ?

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- शिव मिश्रा 




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