तुरत फुरत किसी इकोनामिक मॉडल को बदल पाना बहुत मुश्किल होता है. स्वतंत्रता के बाद भारत की अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था बनाई गई थी, जिसका मतलब होता है पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर का साथ साथ काम करना.
दुर्भाग्य से पब्लिक सेक्टर में जहां निवेश किया गया वह ऐसे स्थान थे जहां प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा दिया जाना चाहिए था. श्रीमती इंदिरा गांधी के समय में इसमें कुछ परिवर्तन करने की कोशिश की गई, बहुत अच्छे परिणाम भी निकले लेकिन जल्दी ही सब कुछ वोट बैंक के हवाले हो गया.
इस कारण बैंक राष्ट्रीयकरण करने के एक अच्छे कार्य के बाद, बड़ी संख्या में कपड़ा, जूट, कताई, चीनी, खाद, बीज, स्कूटर, ट्रैक्टर, घड़ी जैसे तमाम तरह के यांत्रिक मिलों का भी अधिग्रहण सरकार ने किया जिसमे बहुत पैसा निवेश किया गया लेकिन कालांतर में यह सारी मिले बंद हो गई.
इस तरह के कार्य से पैसा तो बर्बाद हुआ ही, प्राइवेट सेक्टर को याचक की मुद्रा में खड़ा कर दिया गया और उसके बाद प्राइवेट सेक्टर और उस को गति देने वाली पूंजी पतियों को स्थाई रूप से चोर और बेईमान घोषित कर दिया गया, दुनिया में ऐसा कहीं नहीं होता और यह भी एक बहुत बड़ा कारण है भारतीय अर्थव्यवस्था के गति न पकड़ पाने का. दुनिया में जितनी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी है, ज्यादातर या लगभग सब प्राइवेट सेक्टर से है और वह अपने देशों के लिए दुनिया भर से राजस्व कमा कर लाती हैं . क्या भारत में एक भी ऐसी प्राइवेट कंपनी है जिसका कोई भी उत्पाद पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो ?
दुर्भाग्य से ऐसी कोई भी कंपनी भारत में नहीं है.
कौन है सबके लिए जिम्मेदार ? केवल और केवल सरकारी नीतियां.
- सरकार का काम व्यापार करना नहीं है और दुनिया की ज्यादातर सरकारें व्यापार में भाग नहीं लेती हैं . भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश में सरकार के पास इतना धन नहीं होता है कि वह व्यापार कर के अपनी पूंजी गवां दे और जो धन कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए गरीबों के जीवन उत्थान के लिए काम आ सकता है व्यर्थ में बर्बाद कर दिया जाए.
- हमारा आयात बहुत ज्यादा है और निर्यात बहुत कम और यह व्यापार घाटा प्रतिवर्ष बढ़ता जा रहा है. इसका प्रमुख कारण है कि औद्योगिक क्षेत्र में भारत का निष्पादन गुणवत्ता और लागत के हिसाब से विश्व स्तर पर प्रतियोगी नहीं है.
- जो सामान चीन से बन कर, तमाम करों का भुगतान करने के बाद भी फुटकर दुकानों में बहुत सस्ता मिलता है किन्तु उसकी उत्पादन लागत भारत में इतनी ज्यादा होती है कि वह इनके सामने कहीं नहीं ठहरते.
- इससे उबरने के लिए हमें न केवल अपना औद्योगिक मूलभूत ढांचा व्यवस्थित करना पड़ेगा बल्कि हड़ताल और विभिन्न श्रमिक असंतोष उनसे मुक्ति पानी होगी.
- भारत को न केवल अपने उपभोग की चीजों को देश में बनाना होगा बल्कि ऐसी चीजें भी बनानी होगी जिनका बड़े पैमाने पर निर्यात किया जा सके ताकि हमारा व्यापार घाटा खत्म हो सके.
- स्वतंत्रता के बाद से सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान निरंतर घटता जा रहा है और अब यह लगभग 16% के आसपास आ गया है.
- कितनी बड़ी विडंबना है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां की 75% आबादी आज भी कृषि या कृषि आधारित उद्योगों पर आधारित हो , उस क्षेत्र का योगदान सिर्फ 16% है . हमें इसे बढ़ाना होगा ताकि न केवल नए रोजगार सृजित किए जा सकें बल्कि अर्थव्यवस्था को भी गति दी जा सके.
- इसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है कृषि सुधारों की ताकि कृषि को लाभकारी तथा उपयोगी और उद्योगपूरक बनाया जा सके.
अगर भारत आने वाले कुछ वर्षों में कृषि तथा उद्योगों के बीच, और प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके तो अब शीघ्र ही उत्प्रेरित किया जा सकता है.
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