शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

राहुल की जलेबी मोदी ने खाई

 


राहुल की जलेबी मोदी ने कैसे खाई | "बटेंगे तो कटेंगे" ने कैसे हरियाणा का अंतर्मन झंझोड़ दिया |    हिन्दू पुनर्जागरण के इस कालखंड में हिन्दू विरोधी राजनैतिक दल क्या अस्तित्व बचा पाएंगे


जम्मू-कश्मीर और हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम सामने हैं. जहाँ जम्मू कश्मीर के चुनाव परिणाम आशानुकूल ही रहे वहीं हरियाणा विधानसभा के चुनावों ने सभी को चौंका दिया. कांग्रेस ने बड़े यत्न पूर्वक ऐसा विमर्श खड़ा किया था जिससे लगने लगा था कि हरियाणा में उसकी सरकार बनने जा रही है. राहुल गाँधी लिख कर दे रहे थे कि कांग्रेस की सुनामी चल रही है, और कांग्रेस भारी बहुमत से सरकार बनाएगी. उन्होंने कहा कि उन्होंने मोदी का जादू समाप्त कर दिया है, जनता में अब उनके प्रति कोई आकर्षण नहीं बचा और उनकी लोकप्रियता पूरी तरह खत्म हो चुकी है. अन्य राज्यों की तरह यहाँ भी कांग्रेस ने मुफ्त रेवड़ियां बांटने की घोषणाओं की झड़ी लगा दी. मतदाताओं को 100 वर्ग मीटर के प्लॉट से लेकर आसमान से तारे तोड़ लाने के जुमले उछाले गए, जिसके वित्तीय प्रबंधन के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. इसी चक्कर में हिमाचल सरकार पूरी तरह से कंगाल हो चुकी है और उसके पास राज्य कर्मचारियों को वेतन और सेवानिवृत्त राज्यकर्मियों को पेंशन देने के लिए धन नहीं है. आर्थिक संकट से जूझ रही हिमाचल सरकार ने संसाधन जुटाने के लिए घरों में बने शौचालय पर प्रति सीट ₹25 प्रति माह टैक्‍स लगा दिया, जिसका व्यापक विरोध हुआ और मजबूरन इसे वापस लेना पड़ा. हिमाचल सरकार के भयंकर वित्तीय संकट का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जहाँ महिलाओं को सम्मान और सुरक्षा के साथ साथ स्वास्थ्य और स्वच्छता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री शौचालय योजना के अंतर्गत प्रत्येक घर में शौचालय का निर्माण कराया जा रहा है, उस पर कांग्रेस सरकार टैक्स लगा रही है. हिमाचल सरकार की खस्ता वित्तीय हालत का असर हरियाणा के चुनाव पर पड़ा और जनता ने कांग्रेस द्वारा किए गए वायदों पर विश्वास नहीं किया.

सबसे आश्चर्यजनक बात ये रही कि एग्जिट पोल करने वाली एजेंसियां भी कांग्रेस और उसके देशी-विदेशी प्रचार तंत्र के भ्रामक विमर्श का शिकार हो गईं. लगभग सभी एग्जिट पोल में कांग्रेस को भारी बहुमत की सरकार बनाते हुए दिखाया गया था. यद्यपि एग्ज़िट पोल एजेंसियां पहली बार गलत साबित नहीं हुई है, इसके पहले वे छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के अलावा लोकसभा में भाजपा को 400 सीटें देकर यह सिद्ध कर चुकी है कि उनके निष्कर्ष भी विमर्श का शिकार हो सकते हैं. सूत्रों की मानें तो कांग्रेस ने इन राज्यों के चुनावों में मतदाताओं को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विमर्श बनाने वाली एजेंसियों का भी सहारा लिया था. उन्ही के परामर्श पर राहुल गाँधी चुनावों के बीच ही अमेरिका यात्रा पर गए जहाँ वे अनेक भारत विरोधी इस्लामिक कट्टरपंथी तथा वामपंथी संगठनों के प्रतिनिधियों से मिले और विवादास्पद बयानबाजी की. योजना के अनुसार उनकी यात्रा के पल पल की चर्चा भारतीय मीडिया में करवाई जाती रही. अमेरिका में ही राहुल गाँधी ने अपने बौद्धिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गुरु सत्यनारायण गंगाराम विश्वकर्मा उर्फ सैम पित्रोदा से पप्पू न होने का प्रमाणपत्र ले लिया और अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि उन्होंने रामायण, महाभारत, गीता सहित अनेक हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया है, और वह सच्चे हिंदू हैं लेकिन उन्होंने हिंदू और सनातन धर्म के विरुद्ध हर संभव विष वमन किया. वापस आने पर हरियाणा और जम्मू कश्मीर की चुनावी सभाओं में अपना भाषण अदानी, अंबानी और मोदी के प्रति नफरत की आग उगलने तक ही सीमित रखा. संसद में जहाँ वह हलवा खाने वालों की जाति पूछ रहे थे, वहीं उन्होंने हरियाणा में जलेबी की फैक्टरी लगाने तथा उसमें हजारों लोगों को रोजगार देने और जलेबी निर्यात करने का एक नया किन्तु अजीबो गरीब विचार सामने रखा. लोगों को याद आ गया जब उनके पिता राजीव गाँधी खेतों में शक्कर बोने की बात करते थे. यहीं से लोगों में यह धारणा पुनः बलवती हो गई कि राहुल गाँधी के पप्पूपन में कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन कांग्रेस के मीडिया विभाग ने राहुल गाँधी की मूर्खतापूर्ण बात को सही ठहराने में पूरी शक्ति लगा दी और चुनाव की बात तो एकदम किनारे रख दी. एक झूठ को छिपाने के लिए, झूठ का अंबार खड़ा कर दिया गया. यही कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या है कि वह देश से अधिक गाँधी परिवार के प्रति वफादार है.

लगातार जातिगत जनगणना की रट लगाने वाले राहुल हरियाणा चुनाव में पूरी तरह से हुड्डा परिवार पर आश्रित थे और उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री भी घोषित कर दिया था. हुड्डा के पिछले शासनकाल की याद करके राज्य के लोग चिंतित हो उठे और उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया और भाजपा के पीछे एकजुट हो गए. योगी आदित्यनाथ के “बटेंगे तो कटेंगे” नारे ने हिंदुओं के मन मस्तिष्क को झकझोर दिया और उन्होंने जाति-पांत से ऊपर उठकर कांग्रेस के चंगुल में न फंसने और भारतीय जनता पार्टी को वोट देने का निर्णय कर लिया. कुमारी सैलजा की उपेक्षा ने दलितों में भी नकारात्मक संदेश दिया, रही सही कसर दीपेन्द्र हुडा के मंच पर एक दलित महिला के साथ अभद्र व्यवहार के वीडियो के वायरल होने ने पूरी कर दी. कुछ विशिष्ट लोगों को केंद्र में रखकर गढ़े गए जय जवान, जय किसान, और जय पहलवान के नारे ने भी कांग्रेस की कोई सहायता नहीं की उल्टे पहलवान आंदोलन में कांग्रेस की संदेहास्पद भूमिका सार्वजनिक हो गई. चुनाव परिणाम आए तो कांग्रेसी गुब्बारे की हवा निकल गई. भाजपा 48 सीटें सरकार बनाने जा रही है और कांग्रेस 36 सीटों पर सिमटकर प्रमुख विपक्षी दल बन गई है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही पिछली बार की तुलना में क्रमशः 4 और 8 सीटों का फायदा हुआ है. चुनाव बाद के विश्लेषणों से स्पष्ट है कि जहाँ मोदी ने हरियाणा में सिर्फ चार जनसभाएं कर के चुनाव की दिशा बदल दी, वहीं राहुल गाँधी ने जहाँ जहाँ रैली की, कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया. कांग्रेस ने ईवीएम पर बेतुके प्रश्न उठा कर अपनी स्थिति को हास्यास्पद बना लिया है. पवन खेड़ा ने कहा कि ईवीएम में जहाँ बैटरी 90% से अधिक चार्ज थी, वहाँ कांग्रेस हार गई लेकिन जहाँ बैटरी 60 से 70% चार्ज थी, वहाँ कांग्रेस जीत गई. उन्होंने चुनाव परिणाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

उत्तर प्रदेश में जली भाजपा ने हरियाणा में फूंक फूंक कर कदम रखा. उसनें अनुभव किया कि लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण तथा अन्य कारणों से कार्यकर्ता नाराज थे और वे घर से नहीं निकले थे. हरियाणा में भाजपा ने टिकट वितरण से लेकर मतदान केंद्रों तक का अत्यंत कुशल प्रबंधन किया और उसके कार्यकर्ता जी जान से चुनाव में जुटे. इसके विपरीत इंडी गठबंधन में कांग्रेस ने सहयोगी समाजवादी और आम आदमी पार्टी को पूरी तरह से नज़रअन्दाज़ कर दिया, जिस कारण वे सभी अलग अलग चुनाव लड़ें. यद्यपि वे एक भी सीट नहीं जीत सके लेकिन उन्होंने कांग्रेस को कई सीटों पर हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

कांग्रेस और राहुल गाँधी अपने कार्यकर्ताओं से ज्यादा भरोसा भारत विरोधी वामपंथी और इस्लामिक गठबंधन के षड्यंत्रकारियों पर करते हैं. अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उनके सहयोग से ही गाँधी परिवार हिंदुओं में जातिगत विभेद बढ़ाकर वर्ग संघर्ष उत्पन्न करने तथा भारतीय अर्थव्यवस्था को छिन्न भिन्न करने का कार्य कर रहा है. हाल में अदानी ग्रुप पर हमला करते हुए सुनियोजित रूप से भारतीय शेयर बाज़ार को ध्वस्त करने के प्रयास किए गए, जिसका ज्यादा प्रभाव इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि वर्तमान समय में भारत की अर्थव्यवस्था काफी मजबूत और स्थिर है, तथा विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भण्डार है. भारत में पूंजी खाता की पूर्ण परिवर्तनीयता न होना भी कई मामलों में सुरक्षा का काम करता है.

हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति पर प्रहार करना राहुल गाँधी के स्वभाव का अहम हिस्सा बन गया है. हरियाणा में एक जनसभा में उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह को नाचगाना समारोह बताया था. एक अन्य जनसभा में वह अजान की आवाज सुनकर न केवल स्वयं चुप हो गए बल्कि मुँह पर अंगुली रखते हुए भीड़ को चुप रहने का संकेत किया. एक धर्म के प्रति इतना सम्मान और हिन्दू धर्म का बार बार अपमान, अब हिन्दू इसका मतलब समझने लगे हैं. इसलिए योगी आदित्यनाथ की “बटेंगे तो कटेंगे” जैसी सीधी और सपाट बातें उनके अंतर्मन को झकझोर देती हैं. कांग्रेस निसंदेह मुसलमानों की पार्टी है, पर जब हिंदू मुँह मोड़ लेंगे तो वह सत्ता में कभी नहीं आ पाएगी. मोहन दास करमचंद गाँधी और कांग्रेस ने देश के लिए क्या किया, यह सब जान गए हैं, इसलिए अब यह बड़ा मुद्दा नहीं है लेकिन गाँधी परिवार ने देश के लिए क्या किया और क्या कर रहा है, यह वर्तमान में बहुत बड़ा मुद्दा है. हरियाणा तो बस एक शुरुआत है, उसके बाद महाराष्ट्र है, दूसरे राज्य हैं और फिर 2029 में लोकसभा के चुनाव हैं. सब जगह कांग्रेस की अधोगति अवश्यंभावी हो गयी है.

हिन्दू पुनर्जागरण के इस कालखंड में बहुसंख्यक हिंदुओं की उपेक्षा करके कोई भी राजनीतिक दल अपना अस्तित्व बचा पाएगा इसकी संभावना समाप्त होती जा रही है. अगर हिंदू ही, हिंदुओं की उपेक्षा करने वाले तथा मुस्लिम तुष्टिकरण में आकंठ डूबे राजनैतिक दलों का अस्तित्व बचाकर सत्ता में पहुंचाते हैं, तो हिंदुओं का अस्तित्व बचे रहने की संभावना समाप्त हो जाएगी. सभी हिंदुओं को जाति पाति से ऊपर उठकर इस पर गंभीरता से चिंतन और मनन करना चाहिए. संकीर्ण जातिगत स्वार्थ के कारण ही समाज का पतन हुआ है, और इसे यदि रोका नहीं गया, तो ना जाति बचेगी और न समाज बचेगा.

शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

न लेबनान ने भारत से सीखा, न भारत लेबनान से सीख रहा

 

न लेबनान ने भारत से सीखा, न भारत लेबनान से सीख रहा | "कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी" कहने वाले खुद मिटेंगे और देश को भी मिटा देंगे


लेबनान को भारत से जो सीखना चाहिए था, उसने नहीं सीखा. परिणाम स्वरूप ईसाइयों का भयानक नरसंहार हुआ और देश पर जिहादियों ने कब्जा जमा लिया. एक ईसाई बाहुल्य राष्ट्र, मुस्लिम बहुल राष्ट्र बन कर सदा सर्वदा के लिए अशांत के दलदल में फंस गया. लंबे समय तक तुर्की के खलीफा के आधीन ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा रहा ये क्षेत्र, प्रथम विश्व युद्ध में मित्र सेनाओं की विजय के बाद फ्रांस के अधीन आ गया. 1920 में फ्रांस ने लेबनान की सीमाओं को पुनर्निर्धारित किया, जिसके बाद ही आधुनिक लेबनान की नींव पड़ सकी. 1943 में फ्रांसीसियों ने लेबनान को आजादी दे दी. जाते जाते फ्रांसीसियों ने लेबनान की 1932 की अंतिम अधिकारिक जनगणना, जिसमें ईसाई लगभग 60%, सुन्नी 20% और शिया 18% थे, के आधार पर तय कर दिया था कि देश का राष्ट्रपति ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी और संसद का स्पीकर शिया होगा ताकि लेबनान को जेहाद द्वारा इस्लामिक राष्ट्र बनाना संभव न हो सके.

आजादी मिलने के बाद लेबनान में मुस्लिम घुसपैठियों की बाढ़ आ गई. 1947 में इजराइल की स्थापना के पश्चात तो यह देश फिलिस्तीनी शरणार्थियों का गढ़ बना गया. बाद में फिलिस्तीनी शरणार्थी शिविर आतंकवादियों के अड्डे बन गए. फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (पीएलओ) ने तो यहाँ अपना मुख्यालय स्थापित कर लिया था. आज इसके बड़े भूभाग पर ईरान समर्थित आतंकवादी संगठन हिज़्बुल्ला का कब्जा है, जिसका प्रमुख उद्देश्य लेबनान से ईसाइयों को और इजराइल से यहूदियों को खदेड़कर इस्लाम का परचम लहराना है. गाजा में इजराइल के विरुद्ध एक और आतंकवादी संगठन “हमास” ने मोर्चा खोल रखा है. आसानी से समझा जा सकता है कि लेबनान और फ़िलिस्तीन क्षेत्र में गैर मुस्लिमों की क्या स्थिति होगी. संयुक्त राष्ट्रसंघ के एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान में लेबनान में ईसाईयों की आबादी घटकर लगभग 25% रह गई है और मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ कर लगभग 75% हो गयी है.

आजादी के बाद लेबनान की अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय प्रगति हुई और इसे मिडिल ईस्ट का स्विट्जरलैंड कहा जाने लगा, जो विदेशी निवेशको और सैलानियों के साथ साथ खेलकूद, तैराकी, पीने-पिलाने और मौज मस्ती करने वालों के लिए पसंदीदा जगह बन गया. आर्थिक विकास के साथ साथ इस्लामिक जिहाद का पहिया भी बड़ी तेजी के साथ घूमता रहा, जिस पर ध्यान नहीं दिया गया. मिस्र, सीरिया और इराक की राजनीतिक अस्थिरता के कारण इन इन देशों के मुस्लिम व्यापारी लेबनान में बसने लगे, जिनके साथ अवैध मुस्लिम अप्रवासियों की भीड़ भी आने लगी. छोटे से इस देश में आज कितने आतंकवादी संगठन काम कर रहे हैं इसका आकलन करना मुश्किल है. एक क्विदंती के अनुसार जिस जगह जीसस क्राइस्ट ने अपना पहला चमत्कार दिखाया था, वहाँ अब आतंकी संगठन हिज़्बुल्लाह अपना करिश्मा कर रहा है.

फ्रांस ने लेबनान को आजादी देते समय जनसंख्या के अनुसार सरकार में पदों का निर्धारण किया था लेकिन मुस्लिमों को लगता था कि फ्रांस ने मुस्लिमों के साथ अन्याय किया है, इसलिए सरकार में उनकी हिस्सेदारी बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या के हिसाब से बढ़ाई जानी चाहिए. राजनैतिक वातावरण कुछ कुछ ऐसा ही था जैसा आजकल भारत में है. ईसाई समुदाय में एकता नहीं थी और राजनेता धर्मनिरपेक्ष दिखाई पड़ने के लिए भारत की तरह मुस्लिम तुष्टीकरण का सहारा लेने लगे. शुरू में संसद में ईसाई सांसदों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में 60% होती थी किन्तु तुष्टीकरण के कारण अनेक संविधान संशोधन किये गए जिसके परिणामस्वरूप ईसाई और मुस्लिम सांसदों की संख्या लगभग बराबर होने लगी और सरकार में मुस्लिम हावी हो गए. 1975 आते आते लेबनान में गृह युद्ध शुरू हो गया. उस समय वहीं 29 उग्रवादी संगठनों के लगभग 2 लाख लड़ाके गृह युद्ध में शामिल थे. पहले साल 10 हजार से ज्यादा लोग मारे गए और 40 हजार घायल हुए, और इसके बाद के सालों में क्या हुआ सब कुछ इतिहास बन गया. लेबनान बुरी तरह अशांत हो गया और 15 वर्षों तक गृहयुद्ध की आग में जलता रहा. संपन्न ईसाईयों ने भाग कर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में शरण ले ली. जान बचाने के लिए बड़ी संख्या में ईसाईयों ने दीन की दावत कबूल कर ली और मुसलमान बन गए. इस तरह लेबनान मुस्लिम बाहुल्य राष्ट्र बन गया और ईसाई अपने ही देश में अल्पसंख्यक होकर अत्यंत दयनीय अवस्था में पहुँच गए.

भारत में इस्लामिक आक्रांताओं का इतिहास पूरी दुनिया के लिए अकल्पनीय उदाहरण है, जहाँ नरपिशाचों ने विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के धर्मस्थलों को तोड़ा, उन पर मस्जिदें खड़ी की, तलवार के ज़ोर पर धर्मांतरण करवाया, लाखों महिलाओं और बच्चों के साथ दुष्कर्म किया, और उन्हें गुलाम बनाया. भारत ऐसा राष्ट्र है, जहाँ 10 करोड़ से भी अधिक हिंदुओं, बौद्धों और जैनियों का नरसंहार हुआ है. ये पृथ्वी पर मानव सभ्यता का सबसे बड़ा नरसंहार है, जो शायद हिंदुओं, बौद्धों और जैनियों को भी याद भी नहीं होगा. 1947 में स्वतंत्र होने तक भारत में विभाजन के अतरिक्त और क्या क्या हुआ, पूरी दुनिया के लिए इस्लामिक भाई-चारे की हकीकत है, लेकिन लेबनान ने भारत से कुछ नहीं सीखा और वही ग़लतियाँ कीं जो भारत में हुईं थी. अवैध मुस्लिम घुसपैठियों और शरणार्थियों को बिना रोक टोक आने दिया गया, एकता की कमी के शिकार ईसाइयों के राजनैतिक नेतृत्व ने गाँधी और नेहरू की तरह मुस्लिम तुष्टिकरण किया, खुद के लिए अहिंसा किन्तु उपद्रवियों को हिंसा करने की छूट दी, वामपंथियों पर विश्वास किया और उन्हें शैक्षणिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दखलंदाजी का अवसर दिया, उनका विश्वासघात करना स्वाभाविक था. इस सब का परिणाम हुआ कि धार्मिक जनसंख्या का बदलता घनत्व नजरंदाज कर दिया गया. विश्व के सारे इस्लामिक देशों का इतिहास साक्षी है कि जहाँ जहाँ धार्मिक संरचना बदली, सब के सब इस्लामिक राष्ट्र बन गये.

भारत को इजराइल और लेबनान दोनों की चुनौतियों पर गंभीर चिंतन कर सीख लेने की आवश्यकता है. लेबनान पहले ईसाई बाहुल्य देश हुआ करता था जहाँ संवैधानिक तौर पर ईसाइयों के लिए संसद में 60% स्थानों का आरक्षण था, ताकि ईसाई बाहुल्य देश में सत्ता का नियंत्रण ईसाइयों के हाथ में रहे और राष्ट्रांतरण की संभावना न बन सके लेकिन राजनेताओं की तुष्टीकरण की नीतियों ने “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” के नाम पर संविधान संशोधनों द्वारा इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया. जब संसद ने मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादा हो गई तो वही हुआ जो आज पूरा विश्व देख रहा है, लेबनान के ईसाई आज शरणार्थी बनकर अमेरिका और पश्चिमी देशों में भटक रहे हैं, जो बच गए हैं वह अपने देश में ही कब तक सुरक्षित रहेंगे कहना मुश्किल है.

हाल के घटनाक्रम में सऊदी अरब ने फलीस्तीन के समर्थन में कोई पोस्टर निकालना या प्रार्थना करना प्रतिबंधित कर दिया है. इजराइल द्वारा हमास और हिज़्बुल्ला के विरुद्ध कार्रवाई करने पर अधिकांश इस्लामिक देश खामोश हैं और ईरान के इजराइल पर आक्रमण के बाद सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात, जॉर्डन, इराक आदि इस्लामिक राष्ट्र तो अमेरिका के साथ खड़े हैं, जबकि बांग्लादेश में हिंदू नरसंहार पर चुप रहने वाले भारत के मुसलमान, इजराइल के विरोध में बेचैन हैं. हिज़्बुल्ला कमांडर हसन नसरुल्ला की मौत पर किये गए प्रदर्शनों मे राजनीतिक हस्तियां और मुस्लिम धर्मगुरु भी शामिल हुए. इसके पहले आतंकी संगठन हमास पर इजरायल की कार्रवाई के विरोध में भी प्रदर्शन किए गए थे और फलस्तीन के झंडे लहराए गए थे. भारत माता की जय या भारत की जय से परहेज करने वाले ओवैसी ने तो संसद में शपथ लेते समय ही जय फ़िलिस्तीन का नारा लगाया था. यक्ष प्रश्न है कि भारत के मुसलमानों का इतना असामान्य व्यवहार क्यों है? इसका उत्तर 1919 में भारतीय मुसलमानों द्वारा तुर्की के खलीफा को अपदस्थ किए जाने के विरोध में शुरू किए गए खलीफ़त आंदोलन से मिल सकता है. गाँधी ने इसे भरपूर समर्थन दिया था और हिंदुओं को भ्रमित करने के लिए इसका नाम खिलाफत आंदोलन कर दिया था ताकि ये स्वतंत्रता आंदोलन की तरह दिखाई पड़े. इस आंदोलन का उद्देश्य प्रथमदृष्टया किसी बड़े उद्देश्य (देश का विभाजन) की प्राप्ति के लिए मुस्लिमों को एकजुट करने और शक्ति प्रदर्शन द्वारा गैर मुस्लिमों को भयभीत करना था. खलीफत आंदोलन के तत्वावधान में देशभर में दंगे हुए. सबसे वीभत्स नरसंहार मोपला में हुआ, जिसे मुस्लिम तुष्टीकरण के धृतराष्ट्र बन चुके गाँधी और गांधारी बन चुकी कांग्रेस ने पूरी तरह अनदेखा कर दिया था.

“कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी” भारत में ऐसा कहने वालों को सच का सामना करना चाहिए कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान बर्मा थाईलैंड श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया आदि भारत से ही निकलकर बने हैं. भारत के नौ राज्यों जम्मू कश्मीर, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल, पंजाब, लक्ष्यद्वीप और लद्दाख में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुकें हैं. पूरे भारत में 100 से भी अधिक जिलों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं. पीएफआई ने 2047 तक भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की घोषणा कर रखी है. ऐसे में कब तक हस्ती बचेगी, कहना मुश्किल नहीं है.

लेबनान ने भारत से भले ही कुछ न सीखा हो, लेकिन आज भारत को लेबनान से अवश्य सबक लेना चाहिये अन्यथा भारत का राष्ट्रांतरण रोकना किसी के बस में नहीं रह जाएगा.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~

राहुल की जलेबी मोदी ने खाई

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