बुधवार, 3 नवंबर 2021

पटखा विहीन दिवाली - सुनियोजित षड्यंत्र

 


पटाखा विहीन  दीवाली

यह तो अब किसी से छिपा नहीं है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के विरुद्ध लंबे समय से एक अघोषित युद्ध चल रहा है । वैसे तो स्वतंत्र भारत में यह काम वामपंथी इस्लामिक गठ जोड़, तथाकथित प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष लोगों द्वारा किया जा रहा है लेकिन इसकी शुरुआत भारत में  आक्रांताओं  के  आने की समय से ही शुरू हो गई थी. रही सही कसर अंग्रेजी शासन में सुनियोजित षड्यंत्र के रूप में पूरी कर दी थी. शायद ही हिंदुओं का कोई ऐसा त्यौहार हो जिसके  विरुद्ध कोई अभियान न चलाया जाता हो. अबकी बार तो रक्षाबंधन पर भी एक अभियान चलाया गया था जिसमें गायों के दूध सेवन का विरोध किया गया था. इसी कड़ी में गुजरात के अमूल ब्रांड के विरुद्ध व्यापक अभियान छेड़ा गया.

होली और दिवाली हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार है और इनके विरुद्ध तो अनेक कारण गिना कर विरोध किया जाता है. जहां होली में खतरनाक रंगों और पानी की बर्बादी के रूप में विरोध किया जाता है वही दिवाली को  पटाखों के वायु और ध्वनि प्रदूषण के नाम पर निशाने पर लिया जाता है. 

दिल्ली की  केजरीवाल सरकार ने जनवरी 2022 तक पटाखों की भंडारण और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया.  कोलकाता उच्च न्यायालय ने राज्य में दुर्गा पूजा के पूर्व ही किसी भी तरह के पटाखों के भंडारण और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया. पश्चिम बंगाल के पटाखा व्यापारियों की ओर से दायर एक याचिका में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि सभी तरह के पटाखों पर रोक नहीं लगाई जा सकती है और ग्रीन पटाखे चलाए जा सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय कि भारत में केवल ग्रीन पटाखों का ही उत्पादन और बिक्री की जा सकती है, का स्वागत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि इससे  कुछ तो राहत मिली है अन्यथा आज भारत में स्थिति यह है कुछ राजनीतिक दल और उनकी सरकारें वर्ग विशेष को खुश करने के लिए होली और दिवाली त्यौहारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए भी तत्पर हो सकती हैं.

 सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय उत्तर भारत के राज्यों के लिए जहां सर्दियों में प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है, तो उचित है लेकिन दक्षिण भारत सहित तमाम उन राज्यों के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं है, जहां प्रदूषण की कोई समस्या नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय को भी इस तरह के निर्णय करते समय भारत भूमि की विशालता और जलवायु  विविधता का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि यह मामला लोगों के रोजगार से भी जुड़ा है.

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पटाखों के चलने से ध्वनि और वायु प्रदूषण होता है लेकिन क्या भारत में प्रदूषण का केवल यही एक कारण है ?  क्या पटाखे सिर्फ दिवाली में ही प्रदूषण फैलाते हैं?  और क्या पटाखों के प्रदूषण की समस्या केवल भारत तक ही सीमित है?

 अगर हम इन प्रश्नों की  विस्तार से विवेचना करें तो पाते हैं कि भारत में पटाखे केवल दिवाली पर ही  नहीं  वरन शादी समारोह और अन्य खुशी के मौकों पर भी चलाए जाते हैं. हाल ही में नशा सेवन और कारोबार के आरोपी शाहरुख खान के पुत्र आर्यन खान की जेल से  रिहाई पर उनके आवास के सामने ही इतने  पटाखे चलाए गए जो किसी छोटे-मोटे शहर में दीवाली पर चलाये जाने  वाले पटाखों से भी ज्यादा थे लेकिन कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दी . कोई बड़ी बात नहीं कि ये पटाखे शाहरुख खान द्वारा स्वयं ही उपलब्ध कराए गए हो ताकि उनकी खोई प्रतिष्ठा की कुछ भरपाई की जा सके .

दिल्ली, पंजाब ,हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वायु प्रदूषण के लिए सबसे अधिक अगर कुछ जिम्मेदार है तो है वाहनों से निकलने वाला धुआं और किसानों द्वारा जलाई जाने वाली पराली लेकिन इस दिशा में कोई खास  कदम नहीं उठाया जा सका है. पराली जलाने की समस्या का आज भी कोई समाधान नहीं निकला है और यह कार्य बदस्तूर जारी है. केजरीवाल वाहनों के लिए आड-एविन वार्षिक कार्यक्रम और  टीवी चैनलों पर 24 घंटे विज्ञापन देकर प्रदूषण कम करने का सफल आयोजन करते हैं वहीं पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश को यह भी करने की आवश्यकता नहीं पड़ती.

स्वच्छ भारत मिशन ने एक बेहद संवेदनशील मामले को छुआ जरूर और लोगों को जागरूक भी किया लेकिन इसमें भी उल्लेखनीय प्रगति हुई हो ऐसा नहीं कहा जा सकता. आज भी अधिकांश शहरों, पर्यटन और सार्वजनिक स्थलों पर पॉलिथीन, प्लास्टिक की खाली बोतले और अन्य  कचरा पूरे अभियान का मजाक उड़ाता दिखाई पड़ता है. राजनीतिक रैलियां आयोजित करने के बाद सभा स्थल और आसपास के अ क्षेत्रों में फैलाई गंदगी महीनों तक लोगों का जीना दूभर करती  हैं. नमामि गंगे परियोजना के अनेक  वर्ष  बीत जाने के बाद भी फैक्ट्रियों का औद्योगिक कचरा और गंगा के किनारे बसे शहरों के नाले और सीवर का पानी आज भी गंगा के उद्धार  में बहुत बड़ी बाधा है.

भारत में चीन के बाद सबसे अधिक स्मार्टफोन इस्तेमाल किए जाते हैं और उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार लगभग 55 करोड़ लोग व्हाट्सएप,  40 करोड फेसबुक,  20 करोड़  इंस्टाग्राम, 5 करोड़  टि्वटर और 10 करोड़ अन्य सामाजिक प्लेटफार्म उपयोग करते हैं. एक छोटा टेक्स्ट मैसेज 3 से 5 ग्राम कार्बन फुटप्रिंट उत्पन्न करता है और इसकी मात्रा फोटो या फाइल संलग्न करने से बढ़ती जाती है. इस समय भारत में एक अनुमान के अनुसार 700 से 1000 करोड़ संदेश सभी सामाजिक प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रेषित किए जा रहे हैं. इन  सबका कुलकार्बन फुटप्रिंट लगभग 15 करोड़ किलोग्राम प्रतिदिन आता है. सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन सब की तुलना में पटाखों द्वारा फैलने वाला प्रदूषण कुछ भी नहीं है.

एक चीज और ध्यान देने योग्य है कि दुनिया के लगभग हर देश में खुशी और खास मौकों पर पटाखे चलाए जाते हैं और आतिशबाजी का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता है. चीन के बाद सबसे अधिक पटाखों का प्रयोग विकसित देशों में किया जाता है. ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों में अधिकारिक  तौर पर सरकारी समारोहों में भी आतिशबाजी का जमकर इस्तेमाल होता है लेकिन  यह सभी देश पूरे साल भर प्रदूषण नियंत्रण के उपाय पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ करते रहते हैं जिससे ये  देश न केवल साफ-सुथरे हैं बल्कि प्रदूषण स्तर के मामले में भारत की तुलना में काफी बेहतर स्थिति में है. चीन में तो पटाखों पर कोई खास प्रतिबंध नहीं है इसलिए यहां पर भी पटाखों का जमकर उपयोग होता है और आजकल चीन पटाखा निर्यात करने वाला विश्व का सबसे प्रमुख देश है.

मैंने अपने जीवन में  कभी नहीं सुना कि किसी भी व्यक्ति या संस्था ने बकरीद पर जानवरों की हत्या, फैलने वाली बीभत्स गंदगी और उसके फलस्वरूप  संक्रमण से होने वाली बीमारियों का विरोध किया हो. इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा मस्जिदों में लाउडस्पीकर की रोक के बावजूद  उत्तर प्रदेश में गली मोहल्लों में गैर कानूनी ढंग से बनाई गई सभी अनगिनत मस्जिदों में बेहद तेज ध्वनि के साथ ध्वनि प्रदूषण फैलाने का काम धड़ल्ले से किया जा रहा है, जिससे  बच्चों,  बुजुर्गों और बीमार व्यक्तियों को  अत्यधिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.  किसी भी राजनीतिक दल या स्वयंसेवी संगठन ने इसका विरोध नहीं किया है.  मुंबई में  गायक सोनू निगम ने उनके घर के पास की मस्जिद से  बेहद तेज  लाउडस्पीकर से की जा रही अजान से उन्हें और मोहल्ले के निवासियों को होने वाली परेशानियों का मामला उठाया था.  जिस पर उनके विरुद्ध तमाम फतवे जारी हो गए और  कई राजनीतिक दलों ने भी सोनू निगम की भर्त्सना की. बॉलीवुड के कॉकस ने उन्हें काम देना भी बंद कर दिया. जिहादी जिद ने  उस मस्जिद में  लाउडस्पीकर की संख्या बढ़ाकर ध्वनि को और कई गुना और बड़ा दिया.

प्रदूषण नियंत्रण मामले में भी अन्य मामलों की तरह,  भारत की सबसे बड़ी समस्या सरकार  की ढुलमुल नीति है और उधार लिए गए कानून हैं.   कई मामलों में तो सरकार स्वयं निर्णय न ले कर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय पर निर्भर रहती है. जनता के प्रति जवाबदेही के अभाव में  सर्वोच्च न्यायालय का न्यायिक दृष्टिकोण न तो  व्यापक हो सकता है और न ही सरकार के नीति निर्माता का स्थान ले सकता है. इसलिए स्वाभाविक रूप से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सामाजिक सरोकार वाले मामलों में दिए गए निर्णय वामपंथ और छद्म  धर्मनिरपेक्षता से प्रेरित होने का आभास देते हैं.

होली और दिवाली पर तथाकथित सामाजिक संगठनों द्वारा किसी न किसी रूप में इन त्योहारों का उत्साह कम करने की कोशिश हमेशा की जाती रही  है. दिवाली  का प्रसंग तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की अयोध्या वापसी से जुड़ा है और इसलिए जो लोग राम के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते उन्हें  ना तो दिवाली के त्योहार से और नहीं इन त्योहारों को मनाने वालों से कोई मतलब है.

सामाजिक संगठन तर्क देते हैं कि पटाखों का प्रचलन लगभग 100 वर्ष पहले से ही शुरू किया गया अन्यथा दिवाली और दशहरा में  पटाखों का क्या काम. यह त्यौहार मनाने की प्राचीन परंपरा  नहीं है. ये बातें  बिल्कुल सही है लेकिन कोई भी सामाजिक संगठन किसी अन्य धार्मिक समुदाय के लिए इस तरह की प्रगतिशील बातें नहीं कर सकता है. लाउडस्पीकर तो अभी बहुत नई खोज है इसका अजान देने में कोई योगदान नहीं हो सकता. लेकिन यह कोई नहीं कह सकता.

मेरे विचार से  पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध और ग्रीन पटाखों का उत्पादन और बिक्री भारत में प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं है. अगर हमें प्रदूषण पर नियंत्रण करना है तो इसके लिए व्यापक दृष्टिकोण अपना कर प्रभावी नीति बनानी होगी जिसे बिना किसी भेदभाव को लागू किया जाना चाहिए. दिवाली और दशहरा जैसे हर्षोल्लास के त्योहारों पर पटाखों पर प्रतिबंध लगाना समस्या का समाधान नहीं बल्कि एक बहुत बड़ी समस्या को जन्म देना है. इस तरह के प्रतिबंध बहुसंख्यक वर्ग में कुंठा उत्पन्न करते हैं जिसका दूरगामी प्रभाव राष्ट्रीय हित में तो बिल्कुल भी नहीं है. बहुसंख्यक वर्ग  को भी इन तथाकथित सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों  से और  अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है, ताकि वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राचीन भारतीय संस्कृत को संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ बस दुष्प्रभावित करने और हिंदू जनमानस के मनोबल तोड़ने का का कार्य न कर सकें.

- शिव मिश्रा 

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