शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

बीमार है ! सर्वोच्च न्यायालय

 


बीमार है ! सर्वोच्च न्यायालय | हर पल मिट रही है देश की हस्ती | अब बहुत समय नहीं बचा है भारत के इस्लामिक राष्ट्र बनने में


अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यक्रम में देश के सर्वोच्च न्यायालय की खुलकर आलोचना की तो मैं हैरान रह गया लेकिन कुछ दिन बाद ही वर्तमान राष्ट्रपति जो बिडेन ने अमेरिकी न्यायपालिका के पक्षपात तथा भ्रष्टाचार के लिए जमकर आलोचना करते हुए उस पर अविश्वास व्यक्त किया और इसी आधार पर अपने बेटे को क्षमादान दे दिया. भारत इस मामले में सर्वथा अलग है. न्यायाधीशों की अपारदर्शी नियुक्तियां, भाई भतीजाबाद, भ्रष्टाचार, राजनीतिक पक्षपात तथा इस्लामिक और वामपंथी शक्तियों के दबाव में काम करने के बाद भी न्यायपालिका का यहाँ बहुत सम्मान किया जाता है. यद्यपि सम्मान की यह भावना स्वतः स्फूर्त नहीं है, हो सकता है कि इसके पीछे अवमानना का भय तथा राजनीतिक आडंबर हो.

कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पूजा स्थल कानून 1991 के विरुद्ध दायर की गई अनेक याचिकाओं पर जो निर्णय दिया, उसने पूरे देश में एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली और निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. याचिकाओं में कहा गया है कि अधिनियम धर्मनिरपेक्षता और कानून के शासन के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, जो अदालत का दरवाजा खटखटाने और न्यायिक उपाय मांगने के उनके मौलिक अधिकारों का हनन है. अधिनियम उन्हें अपने पूजा स्थलों और तीर्थस्थलों के प्रबंधन, रखरखाव और प्रशासन के अधिकार से भी वंचित करता है. याचिकाओं में कहा गया है कि यह अधिनियम अक्रांताओं द्वारा नष्ट किए गए हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध पूजा स्थलों और तीर्थस्थलों को बहाल करने के अधिकारों पर भी प्रतिबंध लगाता है.

सर्वोच्च न्यायालय ने बिना सुनवाई किए याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध ही आदेश पारित कर दिया और देशभर की अदालतों को मस्जिदों के सर्वे की मांग करने वाले किसी भी नए मुकदमे या याचिका को स्वीकार करने या आदेश पारित करने पर प्रतिबंध लगा दिया. अदालत ने मौजूदा मुकदमों में भी सर्वे या कोई अन्य प्रभावी आदेश पारित करने पर पूरी तरह से रोक लगा दी है. मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अगुवाई वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि वे केंद्र के जवाब के बिना इस पर फैसला नहीं कर सकते. पीठ ने भारत सरकार से इस संदर्भ में चार सप्ताह में हलफनामा दाखिल करने के लिए कहा है. इस प्रकार यह मामला एक बार फिर ठंडे बस्ते में चला गया है.

न्यायपालिका में सबसे अधिक विवादास्पद फैसले सर्वोच्च न्यायालय के ही होते हैं लेकिन आज तक उसके फैसलों का बहुसंख्यक हिंदुओं ने कभी खुलकर विरोध नहीं किया. इसके विपरीत मुस्लिम समुदाय, हर उस फैसले का, जो उनके विरुद्ध होता है, विरोध करते हैं. उनके विरोध का प्रभाव भी इतना होता है कि सत्तारूढ़ दल विशेषकर तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दल पहले तो सर्वोच्च न्यायालय पर दबाव बनाते हैं और फिर भी यदि मुस्लिम समुदाय के मनमाफिक फैसला नहीं आता है तो संसद में कानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक बदल देते हैं. आज का सर्वोच्च न्यायालय भारत की ऐसी परिस्थितियों से निपटने में परिपक्व हो गया है. स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग 50 वर्ष तक, जब केंद्र में एक ही राजनीतिक दल और एक ही परिवार की सत्ता थी, सर्वोच्च न्यायालय को भारत सरकार के एक विभाग की तरह काम करने की आदत हो गयी थी. केंद्र सरकार ही उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करती थी और इसलिए ऐसा कोई व्यक्ति न्यायाधीश ही नहीं बन पाता था जो केंद्र सरकार की इच्छा के विरुद्ध फैसला दे सकने की हिम्मत जुटा सके. कांग्रेस के कई संसद सदस्य त्यागपत्र देकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बन जाते थे और फिर वहां से त्यागपत्र देकर या सेवा निवृत्त होकर सांसद भी बन जाते थे. सेवानिवृत्ति के बाद कई पसंदीदा न्यायाधीश आकर्षक / संवैधानिक पदों पर नियुक्ति किये जाते थे. यही नहीं सरकार से सुर न मिलाने वाले न्यायाधीशों को प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती थी. वे उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय नहीं पहुँच पाते थे. उनकी वरिष्ठता को अनदेखा करते हुए कनिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश बना दिया जाता था. केंद्रीय एजेंसियों तथा महा-अभियोग का भय भी एक बड़ा कारक रहता था. ऐसी असहज स्थिति से बचने या अपना सम्मान बचाने के लिए उच्च / सर्वोच्च न्यायालय, कोई ऐसा फैसला नहीं करता था, जो समुदाय विशेष को आक्रोशित करें और केंद्र सरकार को नाराज करें. केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारों के आने के बाद स्थितियां तो बदल गई लेकिन न्यायपालिका की आदत नहीं बदली. संभवत: कांग्रेस और समुदाय विशेष का भय अभी भी उनके मन - मस्तिष्क में व्याप्त है. न्यायपालिका के अलावा यही स्थिति नौकरशाही की भी है. इसीलिए, लोग कहते हैं कि “सरकार बदल गईं लेकिन सिस्टम अभी भी उनका है”

इस बीच प्रयागराज उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर यादव के बयान की मनचाही व्याख्या करते हुए मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों, विशेषकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने न्यायमूर्ति यादव पर व्यक्तिगत टिप्पणियां करते हुए जबरदस्त हो हल्ला मचा दिया जिससे सर्वोच्च न्यायालय भी इतना भयभीत हो गया कि प्रशासनिक कार्रवाई करने के उद्देश्य से उसे तुरत फुरत प्रयागराज उच्च न्यायालय से आख्या मांगनी पडी. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी सहित पूरे विपक्ष ने न्यायमूर्ति यादव के विरुद्ध महाभियोग लाने की भी तैयारी शुरू कर दी है. इन राजनीतिक दलों का उद्देश्य न्यायपालिका को सन्देश देने के साथ कि वह समुदाय विशेष के विरुद्ध कोई भी आदेश देने और टिप्पणियां करने से बचे, मुस्लिम समुदाय को भी यह संदेश देना है कि वे उनके सच्चे हितैषी हैं और उन्हें, उनके लिए असंवैधानिक और गैरकानूनी कार्य करने में भी कोई संकोच नहीं है.

जहाँ तक पूजा स्थल कानून 1991 का प्रश्न है, कोई अनपढ़ व्यक्ति भी बता सकता है कि यह तुष्टिकरण की पराकाष्ठा है, तथा असंवैधानिक, गैरकानूनी और सनातन धर्मियों के साथ खुला अन्याय है, लेकिन कांग्रेस ने आजतक हिंदू विरोधी कार्य करने में कभी संकोच नहीं किया. गाँधी नेहरू के मुस्लिम प्रेम के कारण ही देश का विभाजन हुआ था लेकिन विभाजन के बाद भी उन्होंने मुस्लिम तुष्टीकरण का खेल बंद नहीं किया. गाँधी नेहरू परिवार आज भी मुस्लिम समुदाय का उसी तरह ध्यान रखता है जैसे वर्तमान परिस्थितियों में कोई मुगल वंश करता.

एक तथ्य यह भी है कि पूजा स्थल कानून 1991 जिस समय संसद में पारित हुआ था, उस समय लोकसभा में भाजपा के लगभग 120 सांसद थे और अटल आडवाणी जैसे दिग्गज नेता सांसद थे. दुर्भाग्य से राष्ट्र के विनाशकारी तीन कानून - पूजा स्थल, वक्फ बोर्ड और अल्पसंख्यक आयोग उस समय बने जब भाजपा के दोनों भारत-रत्न अटल और आडवाणी संसद में थे तथा एक अन्य भारत रत्न पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे. इन तीनों भारत रत्नों ने मिलकर हिंदुओं की बर्बादी और भारत के राष्ट्रांतरण के लिए घातक हथियार उपलब्ध करा दिए. क्या इनमें से कोई भी इतना दूरदर्शी नहीं था जो इन कानूनों के दुष्प्रभावों का अंदाज़ा लगा सकता?

केंद्र में 2014 से लगातार 10 साल तक दो कार्यकाल तक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार थी लेकिन वह भी इन ऐतिहासिक गलतियों को ठीक करने का साहस नहीं जुटा सकी. वह “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” के माया मोह में उलझ गई. यहाँ सबका मतलब केवल मुस्लिम समुदाय से हैं. मैं शुरू से ही लिखता रहा हूँ कि आरएसएस, भाजपा और मोदी मुस्लिमों को प्रसन्न करने के लिए चाहे ध्रुव-तपस्या करें, यह समुदाय किसी भी हालत में उनको वोट नहीं करेगा लेकिन यह उनको तभी समझ में आया जब लोकसभा सांसदों की संख्या 240 रह गई. मोदी सरकार हिन्दुओं के हर महत्वपूर्ण मुद्दों का समाधान सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर रखकर करना चाहती है.सर्वोच्च न्यायालय ने बार बार संकेत दिया है कि सरकार स्वयं कुछ करें लेकिन सरकार ने बयानबाजी के अलावा कुछ नहीं किया.

महाराष्ट्र के चुनाव में भाजपा के पक्ष में जितना ध्रुवीकरण हुआ है, वह हाल के कई दशकों में नहीं देखा गया. यह भी भारत की जनता की ओर से संकेत है कि अभी नहीं तो कभी नहीं. मोदी सरकार को कानून बना कर हिन्दुओं की सभी महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान जितनी जल्दी हो सके, निकालना चाहिए. अन्यथा बहुत देर हो जाएगी क्योंकि हर पल देश की हस्ती मिटती जा रही है. भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनने में अब बहुत अधिक समय नहीं बचा है. अगर भाजपा और मोदी सरकार अभी नहीं चेते, तो इतिहास में उनका उल्लेख ऐसे संगठन और ऐसी सरकार के रूप में किया जाएगा जो अपने धर्म और संस्कृति को भी नहीं बचा सके जबकि उनके पास पर्याप्त समय, सुअवसर और सत्ता थी और वे ऐसा कर सकते थे .

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 23 नवंबर 2024

महाराष्ट्र ने दिखाया रास्ता : नहीं बंटेंगे और जुड़े रहेंगे तो जीतेंगे भी और कटेंगे भी नहीं.

 


महाराष्ट्र ने दिखाया रास्ता : नहीं बंटेंगे और जुड़े रहेंगे तो जीतेंगे भी और कटेंगे भी नहीं.


हरियाणा के चुनाव में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने “बंटेंगे तो कटेंगे” और “एक रहेंगे तो नेक रहेंगे” का नारा दिया था तो कथित धर्मनिरपेक्षतावादी और हिंदुओं को जातियों में बांटने वाले लोग तिलमिला गए थे, क्योंकि यह बात अटपटी जरूर लेकिन अक्षरस: सत्य है. इन लोगों ने योगी को कठघरे में खड़ा करने के साथ साथ चुनाव आयोग से शिकायत भी की कि यह नारा विभाजनकारी सांप्रदायिकता को बढ़ावा देगा.

महाराष्ट्र के चुनाव में योगी के इस नारे को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का समर्थन मिला. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस नारे को अपना लिया और इस नारे को नई तरह से प्रस्तुत किया कि “एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे”, और इसके बाद तो अमित शाह से लेकर देवेन्द्र फड़णवीस तक सभी ने योगी के बांटेंगे तो कटेंगे नारे को दोहराया. इस नारे का प्रभाव सामान्य जन मानस तक गया ओर विपक्षी महाअघाड़ी गठबंधन को इस बात का पूरा विश्वास था कि मुसलमान तो एकजुट होकर वोट करते हैं लेकिन हिंदू कभी एक नहीं हो सकते और ना ही एक एकजुट होकर वोट कर सकते हैं. महाअघाड़ी के सभी घटक दलों में इस नारे का पुरज़ोर विरोध किया और कहा कि महाराष्ट्र में ये नहीं चल सकता है. बीजेपी की महायुती गठबंधन के घटक अजीत पवार ने भी इस नारे को अनुचित बताया. और तो और महाराष्ट्र बीजेपी के एक बड़े नेता रहे गोपीनाथ गुंडे की बेटी पंकजा मुंडे ने भी इस नारे से अपने को असंबद्ध कर लिया. उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या ने भी इस नारे से अपने को अलग कर लिया.

लेकिन ! महाराष्ट्र में तो इस नारे ने सभी राजनीतिक पंडितों को गलत साबित करते हुए चुनावी सफलता के अब तक के सारे कीर्तिमान ध्वस्त करते हुए भाजपा गठबंधन को 235 सीटें जिसमें भाजपा को 136, शिवसेना को 57, और एनसीपी अजित पवार को 41 सीटें मिलती दिख रही है. एक लंबे अरसे बाद महाराष्ट्र में तीन चौथाई बहुमत की सरकार बनेगी.

राहुल गाँधी, शरद पवार और उद्धव ठाकरे ने मुसलमानों की शरण में पहुँच गए. कांग्रेस और महाआघाडी ने उनकी 17 सूत्री मांगों को राष्ट्रीय हित दरकिनार करते हुए स्वीकार कर लिया था कि इसके सहारे वे चुनावी वैतरणी पार कर लेंगे. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और ऑल इंडिया उलेमा बोर्ड ने उनके पक्ष में फतवे भी जारी कर दिए लेकिन फतवों की फजीहत उड़ गई. उद्धव ठाकरे की शिवसेना 21, कांग्रेस 17 और शरद पवार की एनसीपी 9 सीट पर सिमटने वाली है. इसमें कोई भी अपनी इज्जत बचाने में सफल नहीं हो सका. सबसे अधिक अपमान शरद पवार का हुआ है जिन्होंने उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी देश हित से समझौता किया राष्ट्र की एकता और अखंडता से समझौता किया लेकिन जनता ने उनके मुँह पर कालिख पोत दी. अब तो वह सम्मान सहित संन्यास भी नहीं ले पाएंगे.

  1. वैसे तो यही परिस्थितियां झारखंड में भी थी लेकिन वहाँ का राजनैतिक वातावरण थोड़ा अलग हैं जिसमें राष्ट्रवाद प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाया उस पर हम लोग अलग से चर्चा करेंगे. 

लेकिन बटेंगे तो कटेंगे आज का यथार्थ है .

साबरमती रिपोर्ट- मार्मिक सच्चाई : हिन्दुओं की जान की कोई कीमत नहीं

 साबरमती रिपोर्ट- मार्मिक सच्चाई : हिन्दुओं की जान की कोई कीमत नहीं


साबरमती रिपोर्ट नाम की फिल्म सिनेमा घरों में प्रदर्शित हो रही है। इस फ़िल्म से आज की युवा पीढ़ी को गोधरा कांड की सच्चाई मालूम पड़ सकेगी और अन्य लोगों को भी सांप्रदायिक भाई चारे के राजनीतिक प्रपंच के गहरे जख्म की यादें ताजा हो जाएंगी. विपक्षी राजनीतिक दल इस पर चर्चा से भी बच रहे हैं, क्योंकि अगर चर्चा होगी और इस फ़िल्म के माध्यम से जो सच सार्वजनिक हो रहा है, उससे कांग्रेस कठघरे में है और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी तत्कालीन यूपीए सरकार के सभी घटक दल भी कटघरे में हैं।

पुरानी पीढ़ी के लोगों को तो अच्छे ढंग से याद होगा कि 2002 में गोधरा में क्या हुआ था लेकिन आज की पीढ़ी के वे लोग जिन की उम्र 35 वर्ष से कम है उन्हें शायद इसके बारे में बहुत अधिक पता नहीं होगा। इसलिए उन्हें इस मामले की पृष्ठभूमि बताना आवश्यक है। 27 फरवरी 2002 को सुबह लगभग 7:30 बजे साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन को गोधरा स्टेशन के पास सिग्नल फलिया पर रोका गया और मुसलमानों की उग्र भीड़ इस ट्रेन पर पथराव कर दिया. ट्रेन के कोच नंबर S6 में घुस कर बड़ी मात्रा में पेट्रोल डालकर आग लगा दी और दरवाजे बाहर से बंद कर दिये. 59 श्रद्धालुओं को जिंदा जलाकर मार दिया गया, जिसमे 25 महिलाएं और 20 बच्चे शामिल थे। इस कोच में राम भक्त थे जो अयोध्या से राम लाला के दर्शन का महायज्ञ करके वापस आ रहे थे, जहाँ भगवान श्री राम के मंदिर को आक्रांता बाबर द्वारा तोड़ कर बाबरी मस्जिद का निर्माण करा दिया गया था। 1992 में इस ढांचे को कार सेवकों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था. यह बर्बरतापूर्ण कृत्य इसी का बदला लेने के उद्देश्य से किया गया था. इस घृणित और अमानवीय कृत्य में 59 लोगों की मौके पर ही मृत्यु हो गई थी और अनेक लोग गंभीर रूप से जल गए थे. कई लोग इस कार्रवाई को देख कर अपना दिमागी संतुलन खो बैठे थे.

27 फ़रवरी, 2002 की सुबह जैसे ही साबरमती एक्सप्रेस गोधरा स्टेशन से निकली, आपातकालीन ब्रेक लगाकर मुस्लिम बाहुल्य इलाके में रोक लिया गया. 2000 से अधिक नर पिशाचों की भीड़ ने इस ट्रेन पर पथराव किया और पेट्रोल डालकर एस 6 कोच में आग लगा दी तथा अन्य चार बोगियों को भी क्षतिग्रस्त कर दिया. इस ट्रेन द्वारा 1700 से अधिक श्रद्धालु अयोध्या से वापस आ रहे थे और इन सभी को जलाकर मार देने की योजना थी. एक कोच को आग के हवाले करके वह 59 श्रद्धालुओं को ज़िंदा जलाकर मारने में सफल हो गए. अचानक 2000 लोगों की भीड़ वहां कैसे इकट्ठा हो गई और वे कौन थे जिन्होंने ट्रेन पर पथराव किया? वे कौन थे जो सैकड़ों लीटर पेट्रोल साथ लेकर आये थे, जिसे डालकर ट्रेन में आग लगायी गयी? इतना पेट्रोल कैसे मिला? वे कौन लोग थे जिन्होंने इस षड्यंत्र को दुर्घटना साबित करने का भरपूर प्रयास किया? देश को ये जानने का अधिकार उस समय भी था और आज भी है लेकिन यह पता चलना तो दूर, इस पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी बात भी नहीं करते. ऐसा शायद इसलिए क्योंकि मरने वाले हिंदू थे और हिंदुओं की जान की इस देश में कोई कीमत नहीं. सोचिए अगर इनकी जगह ट्रेन में जलकर मरने वाले लोग मुसलमान होते तो क्या प्रतिक्रिया होती और कांग्रेस तथा धर्मनिरपेक्षता और मानवतावादियों का विमर्श क्या होता, समझना मुश्किल नहीं है.

इस राक्षसी कार्य की प्रतिक्रिया स्वरूप गोधरा में दंगे भड़क उठे जिसमे लगभग 700 मुसलमान और 350 से अधिक हिंदू हताहत हुए लेकिन विमर्श बनाने वालों ने, जिसमें राजनीतिक दल तथा वामपंथी-इस्लामिस्ट मीडिया भी शामिल थी, साबरमती एक्सप्रेस की असलियत पर पर पर्दा डालने की कोशिश की और इसे दुर्घटना सिद्ध करने का हर संभव प्रयास किया लेकिन इस जघन्य षड्यंत्रकारी नरसंहार की प्रतिक्रिया स्वरूप भड़के दंगों को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करने और हिंदुओं को आक्रमणकारी और मुसलमानों को पीड़ित सिद्ध करने का लगातार प्रयास किया.

6 मार्च 2002 को गुजरात सरकार द्वारा ट्रेन में आग के कारणों तथा उसके बाद भड़के दंगों की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया गया था जिसके अध्यक्ष गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीष केजी शाह थे. कांग्रेस ने न्यायमूर्ति शाह की राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से नजदीकी होने का आरोप लगाया और आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया. इस कारण आयोग का पुनर्गठन किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जी टी नानावती को आयोग का अध्यक्ष बनाया गया. इसलिए इस आयोग को नानावती आयोग के रूप में जाना जाता है. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 कोच में पूर्व नियोजित षड्यंत्र के अंतर्गत आग लगाई गई.

गोधरा दंगों के कारण ही समूचे हिंदू समुदाय, भाजपा, गुजरात सरकार और विशेषकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया गया और पूरी दुनिया में बदनाम भी किया गया. मोदी को अमेरिका का वीजा न मिले इसलिए भारत के कथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों ने अमेरिका को ज्ञापन भी भेजे. 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनने के बाद मुस्लिम तुष्टीकरण को और धार देने के उद्देश्य से मोदी को जेल भेजने के लिए जाल बिछाया गया. साबरमती ट्रेन में जिंदा जलाकर मार डाले गए 59 श्रद्धालुओं की मौत को दुर्घटना सिद्ध करने के लिए तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश उमेश चन्द्र बेनर्जी की अध्यक्षता में बेनर्जी आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट में कार सेवकों द्वारा कोच के अंदर खाना बनाने के कारण आग लगना बता कर इसे दुर्घटना सिद्ध करने की कोशिश की. आप समझ सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का भी स्तर क्या हो सकता है.

कांग्रेस ने तीस्ता सीतलवाड़ नाम की एक कट्टरपंथी महिला को आगे किया गया. उसके सबरंग नाम के एनजीओ को विदेशों से करोडो रुपये की फंडिंग मिली जिससे उसने भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरुद्ध बहुत बड़ा विमर्श खड़ा किया. गुजरात के कट्टरपंथी नेता अहमद पटेल ने भाजपा और मोदी के विरुद्ध षड्यंत्रकारी विमर्श द्वारा मोदी और अमित शाह को फंसाने के लिए एक आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया. कांग्रेस, वामपंथियों, मुस्लिम चरमपंथियों और अर्बन नक्सलियों के षड्यंत्र के कारण कई पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी तथा भाजपा नेताओं को जेल भी जाना पड़ा. तीस्ता सीतलवाड़ जैसे चरमपंथियों तथा चाटुकार मीडिया को तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा समय समय पर सम्मानित भी किया गया. तीस्ता सीतलवाड को भाजपा और मोदी के विरुद्ध सांप्रदायिक षड़यंत्रों और विमर्शों की लंबी श्रृंखला बनाने में उल्लेखनीय योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया. उसकी कट्टरपंथी और अलगाववादी विचारधारा को प्रोत्साहन देने के लिए उसे सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल का सदस्य भी बनाया गया. हिंदुओं का और अधिक दमन करने के लिए कांग्रेस जिस सांप्रदायिक हिंसा विधेयक का प्रारूप तैयार कर रही थी, उसका ड्राफ्ट बनाने वाली समिति में भी तीस्ता सीतलवाड़ को कुछ अन्य चरमपंथियों के साथ शामिल किया गया था.

अनन्तोगत्वा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गुजरात दंगों की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया गया और उसकी रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के मामले में क्लीनचिट दी गई लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्र की विघटनकारी शक्तियों ने हार नहीं मानी और बीबीसी के माध्यम से गुजरात दंगों पर झूठे और षड्यंत्रकारी विमर्श पर आधारित एक डॉक्यूमेंट्री का निर्माण कराया गया, जिसमें साबरमती ट्रेन में कारसेवकों को जिंदा जलाकर मार देने की घटना को दुर्घटना बताया गया है. विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 31 लोगों को दोषी पाया, जिसमें 11 को फांसी, 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई। 63 अन्य पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण बरी कर दिया. अरशद मदनी और महमूद मदनी का देवबंदी गिरोह इन सजायाफ्ता अपराधियों के मामले सर्वोच्च न्यायालय में लड़ रहा है, जो शुरू से ही गोधरा मामले को मुसलमानों के विरुद्ध विमर्श के रूप में प्रचारित प्रसारित करता रहा है.

फ़िल्म में सच्चाई प्रदर्शित होने के बाद भी वामपंथ-इस्लामिक और विमर्शवादी मीडिया इससे हिंदू मुस्लिम भाई चारा बिगड़ने की बात कर रहा है लेकिन देश सच का सामना करने के लिए तैयार है. आज की युवा पीढ़ी को देखना और समझना चाहिए कि हिंदू बाहुल्य इस देश में हिंदुओं के साथ कितना भेदभाव किया जाता है. यह समझ उनके भविष्य, अस्तित्व और सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

बुधवार, 20 नवंबर 2024

Shabarmati Report reopens Godhara Incident | Persons below 35 years must...

Shabarmati Report reopens Godhara Incident | Persons below 35 years must watch It


साबरमती रिपोर्ट - गोधर कांड पर हिन्दुओं की आँखे खोलने का प्रयास 

साबरमती रिपोर्ट नाम से एक डॉक्यूमेंटरी रिलीज हुई है और यह फिल्म सिनेमाघरों में है। इस फ़िल्म के माध्यम से आज की युवा पीढ़ी को गोधरा कांड की सच्चाई मालूम पड़ सकेगी और अन्य लोगों को भी गोधरा कांड की यादें ताजा हो जाएंगे

यह स्वाभाविक है कि साबरमती रिपोर्ट फ़िल्म के बाद गोधरा कांड एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है लेकिन विपक्षी राजनीतिक पार्टियां इस पर चर्चा से बच रही हैं। ये राजनीतिक पार्टियां नहीं चाहती है की इस पर चर्चा हो क्यों? क्योंकि अगर इस पर चर्चा होगी और जो सच इस फ़िल्म के माध्यम से सामने आया है उसके कारण कांग्रेस पार्टी कठघरे में खड़ी होगी और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार के सारे घटक दल भी कटघरे में आयेंगे।

हमारी पीढ़ी के लोगों को तो अच्छे ढंग से याद है की 2002 में गोधरा में क्या हुआ था लेकिन आज की पीढ़ी के वे लोग  जिन की उम्र 35  वर्ष से कम है उसे शायद इसके बारे में बहुत अधिक पता भी नहीं होगा। इसलिए पूरे मामले की एक शुभम बताना आवश्यक होगया।  27 फरवरी 2002 को सुबह साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन को गोधरा स्टेशन के पास रोका गया ओर मुसलमानों की उग्र भीड़ ने इस ट्रेन के कोच नंबर s 6 में आग लगा दी और  59 श्रद्धालुओं को जिंदा जलाकर मार दिया गया। इस कोच में श्रद्धालु राम भक्त थे जो अयोध्या से वापस आ रहे थे जहाँ भगवान श्री राम के मंदिर को आक्रांता बाबर द्वारा तोड़ कर उस पर बाबरी मस्जिद का निर्माण करा दिया गया था। मुस्लिमों द्वारा  यह बर्बरतापूर्ण कृत्य इसलिए किया गया था की ये सभी श्रद्धालु राम जन्मभूमि पर निर्मित श्री राम के अस्थायी मंदिर में दर्शन करके आ रहे थे । इस घृणित और अमानवीय कृत्य में 25 महिलाएं और 20  बच्चों सहित 59 लोगों की मौके पर ही मृत्यु हो गई थी. अनेक लोग गंभीर रूप से जल गए थे और कई ऐसे लोग थे है जो इस कार्रवाई को देख कर अपना दिमागी संतुलन खो बैठे थे.

 साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन ने जैसे ही गोधरा स्टेशन से निकलकर रफ्तार पकड़ी, आपातकालीन ब्रेक लगाकर  मुस्लिम बहुल इलाके में इसे रोक लिया गया. 2000 से अधिक नर पिशाचों की भीड़ ने इस ट्रेन पर पथराव किया और पेट्रोल डालकर एस 6 कोच में आग लगा दी तथा अन्य चार बोगियों को भी क्षतिग्रस्त कर दिया. इस ट्रेन में 1700 से अधिक श्रद्धालु अयोध्या से वापस आ रहे थे इसलिए इन सभी को जलाकर मार देने की योजना थी लेकिन एक कोच को आग के हवाले करके वह 59 श्रद्धालुओं को ज़िंदा जलाकर मारने में सफल हो गए.  वे कौन लोग थे जिन्होंने ट्रेन पर पथराव किया? वे कौन लोग थे जिन्होंने पेट्रोल डालकर ट्रेन में आग लगायी? देश को ये जानने का अधिकार उस समय भी था और आज भी है लेकिन यह जानना तो दूर, इस  आगजनी में मृतकों के नाम उजागर नहीं किए गए. लेकिन इस पर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दल और मानवतावादी बात नहीं  करते, क्योंकि मरने वाले हिंदू थे और हिंदुओं की जान की इस देश में कोई कीमत नहीं. सोचिए अगर इनकी जगह ट्रेन में जलकर मरने वाले लोग मुसलमान होते तो क्या प्रतिक्रिया होती और कांग्रेस एवं इन धर्मनिरपेक्षता और मानवतावादियों का विमर्श क्या होता, समझना मुश्किल नहीं है.

इस राक्षसी कार्य की प्रतिक्रिया स्वरूप गोधरा में दंगे भड़क उठे जिसमे लगभग 700 मुसलमान और 350 से अधिक हिंदू हताहत हुए लेकिन विमर्स बनाने वाले लोगों ने, जिसमें राजनीतिक पार्टियां और भारत का वामपंथी इस्लामिस्ट मीडिया भी शामिल था,  इस पर पर्दा डालने की कोशिश की, कि साबरमती एक्सप्रेस में क्या हुआ किन्तु  इस जघन्य घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप  भड़के दंगों को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करने और हिंदुओं को आक्रमणकारी और मुसलमानों को विक्टिम सिद्ध करने में जुट गई.

6 मार्च 2002 को गुजरात सरकार द्वारा ट्रेन में आग के कारणों तथा उसके बाद भड़के दंगों की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया गया था जिसकी अध्यक्षता गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश केजी शाह थे. कांग्रेस ने न्यायमूर्ति शाह की राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से नजदीकी पड़ने का आरोप लगाया और आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया. इस कारण इस आयोग का पुनर्गठन किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के  न्यायाधीश जी टी नानावती को इस आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया इसलिए इस आयोग को नानावती शाह आयोग के रूप में जाना जाता है. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 कोच को पूर्व नियोजित षड्यंत्र के अंतर्गत आग लगाई गई.

गोधरा दंगों के कारण ही समूचे हिंदू समुदाय, भाजपा, गुजरात सरकार और विशेषकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट किया गया और पूरी दुनिया में बदनाम भी किया गया. मोदी को अमेरिका का वीजा न मिले इसलिए भारत के कथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों ने अमेरिका को ज्ञापन भी भेजे. 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनने के बाद मुस्लिम तुष्टीकरण को धार देने के उद्देश्य से मोदी को जेल भेजने के लिए जाल बिछाया जाने लगा.  साबरमती ट्रेन में जिंदा जलाकर मार डाले गए 59 श्रद्धालुओं की मौत को दुर्घटना सिद्ध करने के लिए तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रेलवे सेफ्टी एक्ट के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बेनर्जी की अध्यक्षता में बेनर्जी आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट में कार सेवकों द्वारा कोच के अंदर खाना बनाने के कारण आग लगना बता कर इसे दुर्घटना सिद्ध करने की कोशिश की. आप समझ सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का भी स्तर क्या हो सकता है.

कांग्रेस ने तीस्ता सीतलवाड़ नाम की एक कट्टरपंथी मुस्लिम महिला को आगे किया गया. उसके सब रंग नाम के एनजीओ को विदेशों से करोडो रुपये की फंडिंग मिली जिससे उसने भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरुद्ध बहुत बड़ा विमर्श खड़ा किया. गुजरात के कट्टरपंथी मुस्लिम नेता अहमद पटेल ने भाजपा और मोदी के विरुद्ध षड्यंत्रकारी विमर्श के द्वारा मोदी है फिर और अमित शाह को फंसाने की इसके लिए उन्होंने एक आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया. कांग्रेस, वामपंथियों, मुस्लिम चरमपंथियों और अर्बन नक्सलियों के लगातार षड्यंत्र के कारण कई पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी तथा भाजपा नेताओं को जेल में भी रहना पड़ा. तीस्ता सीतलवाड़ जैसे चरमपंथियों तथा मीडिया के विमर्श कार्यों को तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा समय समय पर सम्मानित किया गया. तीस्ता सीतलवाड को भाजपा और मोदी के विरुद्ध सांप्रदायिक षड़यंत्रों और विमर्शों की लंबी श्रृंखला के उल्लेखनीय योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया. तीस्ता सीतलवाड की विघटनकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल का सदस्य भी बनाया गया. हिंदुओं का दमन करने के लिए सांप्रदायिक हिंसा बिल ड्राफ्ट करने वाली समिति में भी उन्हें शामिल किया गया.

अनन्तोगत्वा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गुजरात दंगों की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया गया और उसकी रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के मामले में क्लीनचिट दी गई. लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्र की विघटनकारी शक्तियों ने हार नहीं मानी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को लांछित करने के लिए बीबीसी के माध्यम से गुजरात दंगों पर झूठ और षड्यंत्रकारी विमर्श आधारित एक डॉक्यूमेंट्री का निर्माण कराया गया, जिसे केंद्र सरकार को प्रतिबंधित करना पड़ा. फिर भी कांग्रेस द्वारा राष्ट्र विरोधी शक्तियां के माध्यम से इस फ़िल्म का प्रदर्शन करवाया गया. इस डॉक्यूमेंट्री में साबरमती ट्रेन में कारसेवकों को जिंदा जलाकर मार देने की घटना की असलियत नहीं है.

विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 31 लोगों को दोषी पाया, जिसमें  11 को फांसी, 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई।  63 अन्य पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण बरी कर दिया. अरशद मदनी और महमूद मदनी का देवबंदी गिरोह इन सजायाफ्ता अपराधियों के मामले सर्वोच्च न्यायालय में लड़ रहा है, जो शुरू से ही गोधरा मामले को मुसलमानों के विरुद्ध विमर्श के रूप में प्रचारित प्रसारित करता रहा है. धन की इस गिरोह के पास कमी नहीं है क्योंकि हलाल सर्टिफिकेशन और सरकारी अनुदान से निचोड़ा गया हिंदुओं का पैसा हिंदुओं के विरुद्ध ही इस्तेमाल किया जा रहा है.

फ़िल्म रिलीज होने के बाद भी वामपंथ-इस्लामिक और विमर्शवादी मीडिया चुप हैं और इस फ़िल्म को इग्नोर कर रहा है लेकिन देश चुप नहीं रह सकता खासतौर से राष्ट्रवादी चुप नहीं रह सकते. आज की युवा पीढ़ी को इसे अवश्य देखना चाहिए और समझना चाहिए कि हिंदू बाहुल्य इस देश में हिंदुओं के साथ कितना भेदभाव किया जाता है. यह समझ उनके भविष्य, अस्तित्व और सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है. अधिकांश राजनीतिक दल मुस्लिमों के थोक वोट बैंक के सौदागर हैं और इसलिए हिंदुओं के वास्तविक मुद्दों को भी अनदेखा करते हैं. बात अगर मुसलमानों की हो तो हिंदुओं की जान की भी कोई कीमत नहीं.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


शनिवार, 16 नवंबर 2024

बटेंगे तो कटेंगे : कांग्रेस चुनाव जीतना चाहती है लेंकिन उलेमा हिन्दुस्तान जीतना चाहते हैं

 

बटेंगे तो कटेंगे ? लेकिन क्यों और कैसे ? यह कहना सांप्रदायिक है या फिर यह हिन्दू एकता का नारा है ?


राजनीति में बटेंगे तो सांप्रदायिकता से कटेंगे, स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है महाराष्ट्र चुनाव में  जहाँ कांग्रेस चुनाव जीतना चाहती है लेंकिन ... ...वे हिन्दुस्तान जीतना चाहते हैं 


लगभग 100 साल बाद भारत में वैसा ही वातावरण बनाया जा रहा है जैसा 1920 में जिन्ना की मुस्लिम संगठनों ने तैयार किया था. तुर्की के खलीफा की पद से हटाए जाने के विरोध में भारत में शुरू किये गए खलीफ़त आंदोलन को गाँधी और कांग्रेस ने समर्थन दिया था, जिसने मुस्लिम कट्टरपंथ को चरम पर पहुंचा कर देश में विभाजन की नींव तैयार कर दी थी. हिंदुओं की आँखों में धूल झोंकने के लिए गाँधी ने बड़ी चालाकी से इस आंदोलन का नाम खलीफ़त से खिलाफत आंदोलन कर दिया था. गाँधी और कांग्रेस के प्रश्रय में जिन्ना ने 1929 में मुसलमानों के लिए 14 सूत्रीय मांगें रखी, जिन का समर्थन गाँधी और कांग्रेस ने किया था, जिससे मुस्लिम कट्टरपंथियों के हौसले बुलंद हुए और यही हिन्दुओं के वीभत्स नरसंहार तथा देश के विभाजन का आधार बना. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में लगभग वैसा ही वातावरण बनता जा रहा है. आखिल भारतीय मुस्लिम उलेमा बोर्ड ने जिन्ना के नक्शेकदम पर चलते हुए 17 सूत्री मांगपत्र कांग्रेस को सौंपा है, जैसे कांग्रेस ने बिना समय गंवाए स्वीकार कर लिया है. 1929 और 2024 में केवल इतना अंतर है की अब कांग्रेस के साथ उसके इंडी गठबंधन के सभी सहयोगी भी शामिल है जिनमे शरद पवार के साथ साथ हिंदू हृदयसम्राट बाला साहब ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव बाल ठाकरे भी शामिल है.

जिन्ना और ऑल इंडिया मुस्लिम उलेमा बोर्ड की मांगों में बहुत समानता है. 1929 का जिन्ना का प्रस्ताव भारत में मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग का पहला कदम माना जाता है, वहीं ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल की मांगों में भी उसी की झलक देखी जा सकती है। कांग्रेस और शरद पवार द्वारा सभी शर्तों को स्वीकार करने के बाद मुस्लिम उलेमा बोर्ड ने कांग्रेस और महाअघाड़ी गठबंधन को चुनाव में समर्थन का ऐलान कर दिया है और सभी मुसलमानों को महा अघाड़ी के उम्मीदवारों को वोट देने का फतवा जारी कर दिया है.

उलेमा बोर्ड ने कांग्रेस को समर्थन देने के लिए जो 17 शर्तें रखी हैं उनमें 1- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध, 2- शिक्षा और नौकरियों में मुस्लिमों को 10% आरक्षण, 3- वक्फ बिल का विरोध, 4- महाराष्ट्र वक्फ मंडल के विकास के लिए 1000 करोड़ रुपये का फंड, 5- 2012 से 2024 तक के दंगों के मामलों में बंद मुसलमान कैदियों की रिहाई, 6-मौलाना सलमान अजहरी की रिहाई, 7- मस्जिदों के इमामों और मौलवियों को15 हजार रुपये सरकारी वेतन, 8- मुस्लिम युवाओं को पुलिस भर्ती में प्राथमिकता, 9- रामगिरी महाराज और नितेश राणे पर सख्त कार्रवाई, 10- उलेमा बोर्ड के मौलवियों और इमामों को सरकारी समितियों में शामिल करना, 11- महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड में 500 कर्मचारियों की नियुक्ति,12- वक्फ में केवल मुसलमान युवकों की भर्ती,13- चुनाव मे 50 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट,14- वक्फ बोर्ड की संपत्तियों से अतिक्रमण हटाने हेतु सख्त कानून,15- पैगंबर मोहम्मद साहब के खिलाफ बोलने पर प्रतिबन्ध, 16- राज्य के 48 जिलों में मस्जिदों, कब्रिस्तानों और दरगाहों की जब्त जमीनों की वापसी,17- उलेमा बोर्ड को 48 जिलों में संसाधन उपलब्ध कराना.

मुस्लिम उलेमा बोर्ड की शर्तों के पीछे छिपी विभाजनकारी मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है और इन शर्तों को स्वीकार करने की कांग्रेस की मानसिकता को भी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि जो कांग्रेस मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए भारत का विभाजन कर सकती है, वह कांग्रेस शेष भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने में संकोच नहीं करेगी. कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व पूरी तरह से मुस्लिम कट्टर पंथियों के प्रभाव में है. जवाहर लाल नेहरू से लेकर राहुल गाँधी तक, इस परिवार का मुस्लिम प्रेम जगजाहिर है. नेहरू परिवार अपनी को भारत से अधिक मुगलों के नजदीक समझता है. नेहरू और इंदिरा गाँधी की कार्यशैली हमेशा हिंदू विरोधी और मुस्लिम रही जिससे उन्होंने किसी तरह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी कि उनका मुस्लिम प्रेम देश प्रेम पर भारी पड़ता आया है. संविधान में मुसलमानों के लिए विशेष प्रावधान तथा हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति को नष्ट करने के प्रयास इस शंका का समर्थन करते हैं कि नेहरू भारत का जल्द से जल्द इस्लामिक बनाना चाहते थे.

राहुल गाँधी ने तो कई मौकों पर यह कहने से भी गुरेज नहीं किया है कि कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी है. उनका वायनाड से चुनाव लड़ना और मुसलिम लीग तथा अन्य मुस्लिम संगठनों सहित जमीयत उलेमा ए हिंद का समर्थन लेना केवल एक संकेत है. वायनाड उपचुनाव में राहुल गाँधी की जगह प्रियंका वाड्रा को उम्मीदवार बनाना भी गाँधी परिवार का मुस्लिम लीग और मुस्लिम संगठनों के साथ गहरे संबंधों को उजागर करता है इसकी बानगी चुनाव प्रचार में देखी जा सकती है. जो व्यक्ति अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को नाच गाने का समारोह बताता है और मस्जिद से अजान की आवाज आने पर अपना भाषण बंद कर देता हो और संकेतों से जनता को भी चुप खड़े रहने की अपील करता हो, उससे हिंदू क्या अपेक्षा कर सकते हैं. यद्यपि वह हिंदुओं को मूर्ख बनाने के लिए कभी कभी कभी मंदिर जाने का नाटक करता है, और स्वयं को दत्तात्रेय गोत्र का ब्राह्मण बताता है. कोई भी औसत बुद्धि और विवेक का व्यक्ति समझ सकता है कि जब उनके पिता, दादा और परदादा हिंदू नहीं थे तो वह ब्राह्मण कैसे हो गए, और उन्हें दत्तात्रेय गोत्र कहाँ से मिला. अमेरिका और ब्रिटेन में राहुल गाँधी की सभाओं का आयोजन कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों द्वारा किया जाता रहा है, जिनमें से कई का संबंध आतंकवादी संगठनों से भी मिलता है. नेहरू से लेकर राहुल तक गाँधी परिवार का कोई भी ऐसा सदस्य नहीं है जो अफगानिस्तान में बाबर की मजार पर सजदा करने ना गया हो. ढाका से प्रकाशित ब्लिटज वीकली ने राहुल गाँधी और उनके परिवार पर जो सनसनीखेज खुलासे किए हैं उसे स्वयं कांग्रेसी भी हैरान हैं. जो परिवार हिंदुओं का वोट लेने के लिए, इतना बड़ा छलावा करता हो, उस पर विश्वास कैसे किया जा सकता है, आज इस प्रश्न पर सभी हिंदुओं को बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए.

हरियाणा विस चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भारत में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा किए गए हिंदू नरसंहार के परिपेक्ष्य में एक नारा दिया था “बटोगे तो कटोगे” जिसने हिंदुओं के मन मस्तिष्क में गहरा प्रभाव डाला. वास्तव में इस छोटे से नारे में सातवीं शताब्दी से लेकर औरंगजेब के शासनकाल तक भारत में हिंदुओं के भयानक नरसंहार की कहानी छुपी है. मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा भारत भूमि पर लगभग 10 करोड़ हिंदुओं का वीभत्स नरसंहार किया गया, जो पृथ्वी पर मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार है, जिसका कारण भी हिंदुओं में एकता का अभाव था. इतना हो जाने के बाद भी हिंदू नहीं चेते उन्हें न तो अपनी सुरक्षा के प्रति सजगता और सतर्कता उत्पन्न हो सकी और न हीं नरसंहार करनेवाले मुस्लिम आक्रांताओं को अपना पूर्वज कह कर गुणगान करने वालों के प्रति शत्रु भाव उत्पन्न हो सका. पता नहीं यह हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति सहिष्णुता है या हिंदुओं की स्वयं को नष्ट करने की प्रबल आकांक्षा.

पिछले लोकसभा चुनाव में विमर्श आधारित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर पहुँच गया था जिसका आभास प्रधानमंत्री मोदी को हुआ लेकिन बहुत देर से. पिछले 10 साल की पूर्ण बहुमत वाली अपनी सरकार के कार्यकाल में वह इसे भांप नहीं सके. इसलिए कट्टरपंथियों और गज़वा ए हिंद के प्रवर्तकों के विरुद्ध जो सख्त कदम उठाए जाने चाहिए थे वह नहीं उठाए गए. देर से ही सही न केवल भाजपा वरन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी इसका अहसास हो गया है. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी योगी के इस नारे का न केवल समर्थन किया बल्कि उसे प्रचारित और प्रसारित भी किया. आज महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में इसकी गूंज सुनाई पड़ रही है. इसका असर तो चुनाव परिणामों के बाद ही दिखाई पड़ेगा लेकिन इतना निश्चित है कि हिंदू अभी भी सचेत नहीं हुआ तो ना तो हिंदू बचेगा और ना ही हिंदुस्तान.

~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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