शनिवार, 6 अप्रैल 2024

सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ऐक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के फैसले पर लगाई रोक


हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ निर्णय चर्चा में रहे जिनमें न्यायिक सर्वोच्चता के साथ साथ न्यायिक अतिसक्रियता भी परलक्षित हुई, जिससे लोगों ने तरह तरह के कयास लगाने शुरू कर दिए.

कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ऐक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के फैसले पर रोक लगा दी. रोक लगाते हुए उसने जो टिप्पणी की वह गंभीरतो है ही, कयासों को हवा देने वाली भी हैं, कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला कि मदरसा बोर्ड की स्थापना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन है, सही नहीं हो सकता. बड़ी हैरानी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय तुरंत इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि उच्च न्यायालय का निर्णय सही नही है. अब वह पूरे मामले की फिर से सुनवाई करेगा, तब तक वर्तमान व्यवस्था चलती रहेगी. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय कब आएगा इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है और यह मुकदमा भी 80 हजार लंबित मुकदमे में शामिल हो जाएगा और अनंतकाल तक पडा रह सकता है. ज्ञातव्य है कि 22 मार्च 2024 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के समानांतर मदरसा शिक्षा बोर्ड का कानून बनाना धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध है. चूँकि उ.प्र.मदरसा शिक्षा बोर्ड उत्तर प्रदेश में संचालित मदरसों की इस्लामिक शिक्षा व्यवस्था का उत्तरदायित्व संभालता है, जिसमे केवल मुस्लिम छात्र पढ़ते है, इस तरह की सरकारी व्यवस्था एक देश दो विधान वाली है.

ज्ञानवापी के मामले में पूरे देश ने देखा कि कैसे भारतीय पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण को अनावश्यक विलंब का सामना करना पड़ा. सर्वोच्च न्यायालय ने मामला सेशन अदालत से लेकर जिला न्यायाधीश की अदालत को स्थानांतरित किया. दो कदम आगे और चार कदम पीछे चलने की प्रक्रिया से मामला कई बार उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के गलियारों से गुजरा और कीमती समय बर्बाद हुआ. नई पीढ़ी के लोग इससे आसानी से समझ सकते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का 1950 में शुरू हुआ मुकदमा 2019 तक (लगभग 70 वर्ष) तक क्यों लटका रहा.

नेशनल जुडिशल डेटा ग्रिड पर प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में इस समय लगभग 80 हजार मुकदमे लंबित हैं, इसमें 50 हजार से अधिक मुकदमे एक साल से अधिक समय से लंबित है. कुछ मुकदमे 40 वर्ष से भी अधिक समय से लंबित है. लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि जितने मामलों का निपटारा होता है उससे अधिक नए मामले आ जाते हैं. अगर लंबित मामलों का विश्लेषण करें तो यह बिलकुल स्पष्ट है कि 2013 के बाद साल दर साल मुकदमो की संख्या बढ़ती जा रही है. पिछले वर्ष 2023 के 10481 मुकदमे लंबित हैं, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. सभी उच्च न्यायालयों मे मिलाकर 62 लाख मुकदमे लंबित हैं, जिनमे लगभग 80% एक वर्ष से अधिक समय से लंबित है, बड़ी संख्या में मामले कई दशकों से लंबित हैं. वर्तमान समय में सभी न्यायालयों में मिलाकर 4.4 करोड़ मुकदमे लंबित है, इनमें राजस्व, चकबंदी, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर, विभिन्न त्रय्बुनल के मुकदमे शामिल नहीं है.

सर्वोच्च न्यायालय में 80 हजार से भी अधिक मुकदमे लंबित होने के वास्तविक कारण हो सकते हैं लेकिन असाधारण रूप से जनता को अंग्रेजों के जमाने के ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश खटकते हैं जिस पर सोशल मीडिया में जमकर विरोध किया जाता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और ये व्यवस्था पूरे शान-ओ-शौकत के साथ चलती जा रही है. मुकदमों के शीघ्र निपटान के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोई वैकल्पिक व्यवस्था या प्राथमिक स्तर पर सरलीकृत व्यवस्था का सुझाव दिया गया हो ऐसा भी नहीं है. तो फिर इन लंबित मुकदमो की जिम्मेदारी किसकी है, इसका भी समुचित उत्तर नहीं मिलता. ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में गंभीर नहीं है. न्याय की आश में पीढ़ियां गुजर जाती हैं लेकिन मुकदमें ज्यों के त्यों चलते रहते हैं. कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कुछ ऐसे मुकदमे भी लंबित हो जिनसे दोनों पक्ष के पैरवीकार मर खप गए हो और मुकदमे तारीख का इंतजार कर रहे हो.

लंबित मुकदमों के बढ़ते जाने का एक सबसे बड़ा कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के निर्णयों पर रोक लगाना हो सकता है. आखिर सभी न्यायाधीश कोलिजियम की कथित बेहतरीन व्यवस्था से निकले हैं तो इतना विरोधाभास या अविश्वास क्यों. जनहित याचिकाओं को बढ़ावा देना भी प्रमुख कारण है. प्रभावशाली, धनाढ्य और राजनीतिक व्यक्तियों तथा मुस्लिम संगठनों को सर्वोच्च वरीयता प्रदान करना भी, बड़ा कारण है. जनहित याचिकाएं हमेशा से विवादों के घेरे में रहती आई है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ जनहित याचिकाएं बहुत ही महत्वपूर्ण और जनहित में दायर की गई होती है लेकिन कुछ याचिकाएं ऐसी होती हैं जो प्रथम दृष्टया स्वार्थ पूर्ण लगती हैं. हाल में एक ऐसी जनहित याचिका दायर की गई जिनमें कोलेजियम द्वारा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को भेजी गई सूची को निश्चित समय सीमा में स्वीकृत प्रदान करने से संबंधित थी. समझा जा सकता है कि जनहित याचिकाकर्ता का सर्वोच्च न्यायालय से, या कोलिजियम सूची में नामित सदस्यों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कितना गहरा संबंध है.

हाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक निर्णय में चुनाव आयुक्तों सहित कुछ अन्य नियुक्तियों के लिए बनी कमेटी में मुख्य न्यायाधीश को एक सदस्य घोषित किया था. कितनी हास्यास्पद बात है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसने खुद किसी कमेटी का सामना नहीं किया, कोई साक्षात्कार नहीं दिया, वह इन कमेटियों का सदस्य बनना चाह रहा है ताकि नियुक्तियां पारदर्शी हो सके.

सर्वोच्च न्यायालय की अतिसक्रियता या संसद के अधिकारों के अतिक्रमण करने का एक संगीन मामला तब सामने आया जब उसने संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को निरस्त कर दिया. कारण बताया गया कि यह संविधान विरोधी है. हाल में इलेक्टोरल बांड का 2019 में बना कानून भी असंवैधानिक बता कर निरस्त कर दिया है. इन सभी पर राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर कर चुके थे. अगर सर्वोच्च न्यायालय संसद से भी सर्वोच्च है तो क्यों न उसे लोकसभा, राज्यसभा के साथ तीसरे सदन की मान्यता दे दी जाय और जब तक सर्वोच्च न्यायालय अनुमति न दे कोई नया कानून न बनाया जाय. ऐसा विश्व में किसी देश में नहीं होता है. सर्वोच्च न्यायालय पर जो आरोप लगते हैं उसका कारन इस तरह के पक्षपाती दिखने वाले फैसले ही होते हैं.

1991 में पारित पूजा स्थल कानून में यह व्यवस्था है कि देश के धार्मिक स्थलों का जो स्वरूप 15 अगस्त 1947 को था उसे यथारुप बनाए रखा जाएगा. क्या कोई ऐसा कानून बनाया जा सकता है जो 43 वर्ष पीछे से लागू किया जाए. इस कालखंड में अगर हिंदुओं ने अपने उन धर्म स्थलों का पुनः प्राप्त कर जीर्णोद्धार कर लिया होता, जिन पर मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़फोड़ कर मस्जिदे बना दी थी, तो कितने विषम स्थिति उत्पन्न हो गई होती. वक्फ बोर्ड का कानून भी किसी भी दृष्टिकोण से न तो संवैधानिक है और न ही धर्मनिरपेक्षता के अनुरूप लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इन सब पर खामोश रहा, खामोश हैं और खामोश रहेगा. मंदिरों पर सरकारी नियन्त्रण और उनके चढ़ावे को हड़पने का जो कानून जवाहर लाल नेहरू ने बनाया था उस पर भी सर्वोच्च न्यायालय को कभी कोई आपत्ति नहीं हुई. संविधान की प्रस्तावना में इंदिरा गाँधी द्वारा “सोसलिस्ट सेक्युलर” जोड़ने पर भी उसे कोई समस्या नहीं. ऐसा क्यों.

कई ऐसे मौकों पर जब न्यायपालिका को सक्रिय होकर अपनी राष्ट्रीय भूमिका अदा करना चाहिए था, सर्वोच्च न्यायालय निष्क्रिय रहा. लंबे समय तक शाहीन बाग में चले सीएए विरोधी आंदोलन के कारण दिल्लीवासियों को हुई भयानक असुविधाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने कोई निर्देश देने की बजाय अपने वार्ताकार भेज दिये. न्यायपालिका के इस अभिनव प्रयोग की प्रशंसा नहीं की जा सकती. किसान आंदोलन के नाम पर दिल्ली घेरकर बैठे कुछ आंदोलनकारियों और असामाजिक तत्वों के धरने प्रदर्शन पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने जो रवैया अपनाया उससे भी न्यायपालिका की गरिमा की गंभीर क्षति हुई.

धारा 370 हटाने के विरोध में दायर की गई लगभग 40 याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने 16 दिन तक लगातार सुनवाई की. यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने धारा 370 हटाने पर मुहर लगा दी लेकिन संसद द्वारा पारित कानूनों की इतनी सूक्ष्म विवेचना और उस पर लगाए जाने वाले समय को कम किया जा सकता था.

मेरा अपना मत है कि पांच सात न्यायाधीशों की पीठ संसद, जो भारत के 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, द्वारा बनाये गए किसी कानून को निरस्त करने की हकदार नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय न्यायपालिका में तो सर्वोच्च है लेकिन देश में सर्वोच्च है, इस गलतफहमी से जितनी जल्दी हो सके बाहर आ जाने में ही उसकी और देश की भलाई है.

~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

शनिवार, 30 मार्च 2024

वैश्विक घेराबंदी की कोशिश

 




अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने भारत के संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) को लागू करने की केंद्र सरकार की अधिसूचना पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि किसी को भी धर्म या विश्वास के आधार पर नागरिकता से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। आयोग के आयुक्त स्टीफन श्नेक ने एक बयान में कहाकि विवादास्पद नागरिकता कानून पड़ोसी देशों से भागकर भारत में शरण चाहने वालों के लिए धार्मिक भेदभाव पर आधारित है. उन्होंने कहा कि जहां सीएए हिंदुओं, पारसियों, सिखों, बौद्धों, जैनियों और ईसाइयों के लिए नागरिकता का त्वरित मार्ग प्रदान करता है, वहीं कानून स्पष्ट रूप से मुसलमानों को बाहर करता है। अगर कानून का उद्देश्य वास्तव में सताए गए धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा करना है, तो इसमें बर्मा के रोहिंग्या मुस्लिम, पाकिस्तान के अहमदिया मुस्लिम, या अफगानिस्तान के हजारा शिया, अन्य भी शामिल किये जाने चाहिए। किसी को भी धर्म या विश्वास के आधार पर नागरिकता से वंचित नहीं किया जाना चाहिए. आयोग ने अमेरिकी सरकार से आग्रह किया है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की वकालत करने वाले मनमाने ढंग से हिरासत में लिए गए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को रिहा करने के लिए भारत पर दबाव बनाएं. अमेरिकी सीनेटर बेन कार्डिन ने तो यहाँ तक कहा वे भारत सरकार के इस विवादास्पद कानून और उसके भारतीय मुसलमानों पर पड़ने वाले प्रभाव से बेहद चिंतित हैं. मामले को बदतर बनाने वाली बात यह है कि इसे रमज़ान के पवित्र महीने के दौरान लाया गया है।

यद्यपि भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह भारत का आंतरिक मामला है और किसी देश या विदेशी संस्था को इस पर टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है लेकिन इससे एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि इन सबकी भाषा बिल्कुल वही है जो भारत के कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं की है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि भारत विरोधी षड्यंत्रकारियों के हाथ कितने लंबे हैं और उनका भारत विरोध कितना गहरा है. एक ओर जहाँ वह भारत के राष्ट्रांतरण के षड्यंत्र की सफलता के लिए प्राचीन सनातन धर्म और संस्कृति को वैश्विक स्तर पर बदनाम कर रहे हैं, वही भारत और अमेरिका के आपसी रिश्तों में खटास पैदा करके तकनीक हस्तांतरण तथा मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के समक्ष अवरोध खड़े कर रहे हैं. इसके साथ ही सरकार और मोदी विरोधी आंदोलनों के लिए समर्थन जुटाकर भारतीय अर्थव्यवस्था की गति को रोक रहे हैं.

भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने का यह अकेला मामला नहीं है. हाल ही में शराब घोटाले में पिछले छह महीने से लगातार 9 सम्मन देने के बाद भी हाजिर न होने वाले वांछित आरोपी अरविन्द केजरीवाल को प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तार करने पर भी कई देशों ने अनावश्यक टिप्पणियां की और सुनियोजित रूप से मामले को विदेशी मीडिया में प्रचारित और प्रसारित किया गया. पहले जर्मनी और बाद में अमेरिका ने इस मामले में अनुचित प्रतिक्रिया दी.  जर्मनी ने कहा कि उन्होंने मामले का संज्ञान लिया है और उम्मीद करते हैं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांतों से संबंधित मानकों को इस मामले में भी लागू किया जाएगा. उन्हें निष्पक्ष सुनवाई उपलब्ध होगी और बिना किसी प्रतिबंध के सभी उपलब्ध कानूनी रास्तों का उपयोग करने की छूट उपलब्ध होगी. भारतीय विदेश विभाग ने जर्मन दूतावास प्रमुख को बुलाकर कड़ी आपत्ति ज़ाहिर की और उसके बाद जर्मनी की भाषा में नरमी आ गई लेकिन  इसके बाद भी अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने कहा कि वे स्थिति का बारीकी से निगरानी कर रहे हैं और  चाहते हैं कि केजरीवाल के लिए निष्पक्ष पारदर्शी और समय पूर्ण कानूनी प्रक्रिया उपलब्ध हो. हद तो तब हो गयी जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस की ओर से एक बयान जारी किया गया कि केजरीवाल की गिरफ्तारी के मद्देनजर उन्हें बहुत उम्मीद है कि भारत में, जैसा कि चुनाव वाले किसी भी देश में होता है, राजनीतिक और नागरिक अधिकारों सहित सभी के अधिकारों की रक्षा की जाएगी, और हर कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष माहौल में मतदान करने में सक्षम होगा। कांग्रेस के खातों को फ्रीज करने संबंधित समाचार पर भी अमेरिका सहित कुछ अन्य देशों ने प्रतिक्रियाये दी. हमेशा की तरह भारत विरोधी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, द वॉशिंगटन पोस्ट, अल जज़ीरा, सीएनएन आदि ने लेख छापे और विशेष वार्ताएं प्रसारित और प्रकाशित की.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय की इन प्रतिक्रियाओं पर सत्तारूढ़ भाजपा के अलावा किसी अन्य राजनीतिक दल ने विरोध व्यक्त नहीं किया बल्कि आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस ने विदेशी प्रतिक्रियाओं का समर्थन किया है. राहुल गाँधी तो पहले ही देश विदेश में अपनी प्रेस वार्ताओं में यह कह चुके हैं कि भारत में लोकतंत्र नहीं है. शायद उन्हें लगता है कि यदि भारत में लोकतंत्र होता तो निश्चित रूप से कांग्रेस सत्ता में होती है और  भारत में तब तक लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सकता जब तक कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं हो जाती.

इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं और मीडिया कवरेज से स्पष्ट है कि भारत के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय शक्तियां पूरी तरह सक्रिय है और ये किसी भी हालत में भारत की बढ़ती आर्थिक शक्ति और सामर्थ्य को रोकना चाहती है. जहाँ कुछ देश आज भी भारत को विकसित और सशक्त राष्ट्र की श्रेणी से बहुत दूर एक बड़े बाजार के रूप में बनाए रखना चाहते हैं, वहीं कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन भारत को जल्द से जल्द इस्लामिक राष्ट्र बना कर हजारों वर्ष पहले देखे गए गज़वा ए हिंद के सपने को साकार करना चाहते हैं. संशोधित नागरिकता कानून में मुसलमानों को शामिल करना इस मुहिम में उत्प्रेरक का काम करेगा क्योंकि भारत में अवैध रूप से घुसे पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और रोहिंग्या भारत के नागरिक हो जाएंगे.

भारत लंबे समय से वैश्विक षडयंत्रकारियों के निशाने पर है और स्थिति में कुछ भी  परिवर्तन नहीं हुआ है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बहुत पहले से ही कई देशों की बुरी नजर भारत पर रही है. पहली शताब्दी से लेकर 17वी शताब्दी तक विश्व अर्थ व्यवस्था में एक तिहाई हिस्सेदारी के साथ भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रहा है. इसी कारण भारत सोने की चिड़िया था और इसलिए कुछ देशों की बुरी नजर होना बहुत स्वाभाविक था. भारत पर दो तरह के आक्रमण हुए, धार्मिक और आर्थिक. आक्रमणकारियों ने भारत की अतुल्य अकल्पनीय धन सम्पदा को जितना लूट सकते थे लूटा और ले गए. दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक रूप से उन्नत सनातन धर्म के सामने अत्यंत दुर्बल, दीन हीन, कबीलाई संस्कृति के अनपढ़ और पैशाचिक प्रवृत्ति वाले इन आक्रमणकारियों ने सनातन धर्म और संस्कृति को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया. ऐसा साल दो साल नहीं, 700 वर्षों के लंबे कालखंड तक होता रहा लेकिन यह सब भी भारतीयों में राष्ट्र की रक्षा के लिए जिस राष्ट्रभक्ति और समर्पण की भावना की आवश्यकता थी, वह पूर्ण रूप से जागृत नहीं कर सका. यह सही है कि अनेक राष्ट्र भक्तों ने राष्ट्र रक्षा के लिए अथक संघर्ष किया और आत्म बलिदान दिया, लेकिन देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जो पूरे घटनाक्रम के मूकदर्शक बने रहे. इसका परिणाम अंग्रेजों की गुलामी के रूप में सामने आया.

इसके बाद संगठित रूप से राष्ट्रीय लूट शुरू हो गई और सनातन धर्म और संस्कृति को पथ भ्रष्ट या नष्ट करने का कुचक्र शुरू हो गया. कालान्तर में देश स्वतंत्रता तो जरूर हुआ लेकिन वैश्विक षडयंत्र ने भारत के दो टुकड़े कर दिए. एक खंड धार्मिक आधार पर पाकिस्तान बन गया लेकिन दूसरा खंड विभाजन का नासूर लिए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना दिया गया. इसके लिए गाँधी, नेहरू और कांग्रेस इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार थे. कोई कुछ भी कहे इस षड्यंत्रकारी विभाजन को देखकर ऐसा लगता है कि या तो ये समझदार और सक्षम नहीं थे, या षड्यंत्र का शिकार हो गए थे या स्वयं षड्यंत्र में शामिल थे.

दुर्भाग्य से राष्ट्र की एकता और अखंडता तथा सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए जिस तरह एक बड़ा वर्ग पहले मूकदर्शक था, वही स्थिति आज भी है. अंतरराष्ट्रीय वामपंथ-इस्लामिक गठजोड़ के षड्यंत्रकारी संगठन तथा ऐसे दूसरे देश और संस्थान जो भारत से अनुचित लाभ प्राप्त करने में असफल है, मिलकर भारत के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं. ये सभी भारत को कमजोर करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते हैं. उनकी हमेशा कोशिश रहती है कि सनातन धर्म और सनातन संस्कृति की विकृत छवि प्रस्तुत करें और यह सिद्ध कर सकें कि भारत में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है ताकि भारत में चलाये जा रहे धर्मांतरण के षड्यंत्र से लोगों का ध्यान हटा सकें और राष्ट्रांतरण के लिए गज़वा ए हिंद जैसी योजना को निरंतर ऊर्जा भी प्रदान करते रहे. वे सफल भी हो रहे क्योंकि अधिकांश भारतीय विशेषतय: सनातनी लोग अब मूक दर्शक नहीं सुप्तावस्था में हैं. इसलिए ये देश कब तक सुरक्षित रह सकेगा कहना मुश्किल है.

चुनाव का मौसम है, विभिन्न राजनैतिक दलों के वक्तव्यों और प्रतिबद्धताओं से स्पष्ट है कि भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति की रक्षा करने वाले दल कौन हैं, उन्हें ही वोट दें. यही समय है, सही समय है जब सभी देशवासी महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों से ऊपर उठकर देश बचाने का प्रयास करें. महंगाई और बेरोजगारी केवल भारत की नहीं, वैश्विक समस्या है, जब देश ही नहीं बचेगा, हमारी संस्कृति ही नहीं बचेगी, तो सभी समस्याएं खत्म भी हो जाये तो क्या लाभ.

~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

 

 

 

 

 

 

शनिवार, 23 मार्च 2024

केजरीवाल - भ्रष्टाचार की रजनीति या राजनीति का भ्रष्टाचार

 


राजनीति का भ्रष्टाचार

आखिरकार दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल गिरफ्तार हो ही गए. ये गिरफ्तारी ईडी द्वारा 9 सम्मन देने के बाद भी कैजरीवाल के उपस्थित न होने के कारण उनके निवास पर छापेमारी  की गयी. पूंछ तांछ में प्रश्नों का जबाब न देने और जांच में सहयोग न करने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया. न्यायालय ने केजरीवाल को 6 दिन की रिमांड पर प्रवर्तन निदेशालय को सौंप दिया है. इसके पहले केजरीवाल ने ईडी के सभी सम्मनों को यह कहकर खारिज कर दिया था कि ये गैर कानूनी है. गिरफ्तारी से बचने के लिए वह निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गुहार लगा चूके हैं लेकिन उन्हें कोई राहत नहीं मिली. उनकी यह गिरफ्तारी शराब घोटाले के अंतर्गत की गयी है. दिल्ली जल बोर्ड में वित्तीय अनियमितताओं के लिए भी उन्हें सम्मन जारी किया गया है. नैतिकता, सुचिता, ईमानदारी और देश के लिए समर्पित राजनीति करने के नाम पर सत्ता में आई आम आदमी पार्टी के कई बड़े नेता मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन संजय सिंह आदि अभी भी जेल में हैं और उन्हें सर्वोच्च न्यायालय तक से जमानत नहीं मिल पाई है.

इसके पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाना पड़ा. पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार के अनगिनत मामले सामने आए जिसमे कई मंत्री और विधायक जेल की हवा खा रहे हैं. तमिलनाडु में सरकार के मंत्री सेंथिल बालाजी जेल में हैं, और कई जेल जाने की राह पर है. कई राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री जांच एजेंसियों के राडार पर हैं और उनमें से भी कई शीघ्र ही जेल जा सकते हैं. कांग्रेस की अगुवाई वाली एंडी एलायंस के घटक दल केंद्र सरकार पर जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगा रहे हैं लेकिन अभी तक जो नेता एजेंसी द्वारा जेल भेजे गए उनकी जमानत किसी भी अदालत से नहीं हो पाई है जो यह रेखांकित करता है कि उनके विरुद्ध कितने मजबूत और पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध है. इसके विपरीत कोई भी विपक्षी दल मोदी सरकार के पिछले 10 साल के कार्यकाल से संबंधित भ्रष्टाचार का कोई भी मुद्दा सामने नहीं ला सकी है. भारत के वर्तमान परिवेश में ये मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जायेगी. भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करना और सही दिशा देना भी छोटा कार्य नहीं है और इसके साथ ही देश की बड़ी जनसंख्या के लिए मुफ्त राशन, पक्के मकान, शौचालय, नल का जल, मुफ्त गैस सिलिंडर और किसान सम्मान निधि देना बेहद उल्लेखनीय कार्य है. इतने बड़े लाभार्थी वर्ग, विकासोन्मुख योजनाओं, आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद पर प्रभावी कार्रवाई के कारण मोदी सरकार के विरुद्ध सत्ता विरोधी कोई लहर नहीं है. वैश्विक परिवेश में भारत का मान सम्मान बढ़ा है और मोदी की छवि बेहद सफल और लोकप्रिय वैश्विक राजनेता के रूप में जानी जाती है. ऐसे में तीसरी बार भाजपा सरकार बनने में विपक्ष सहित किसी को कोई संदेह नहीं है लेकिन आरोप और प्रत्यारोप मजबूरी की औपचारिकता है.  

भ्रष्टाचार भारत की बहुत बड़ी बीमारी है, और तमाम प्रयासों के बाद भी इस पर रोक लगना तो दूर, कम होने की भी कोई सूरत नजर नहीं आ रही. इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीतिक भ्रष्टाचार, जो देश को आजादी मिलने के पहले ही शुरू हो गया था. आजादी के बाद तो राजनीतिक दलों ने सत्ता हासिल करने के लिए वित्तीय ही नहीं, हर तरह के भ्रष्टाचार किये और आज राष्ट्र के समक्ष जो गम्भीर चुनौतियां हैं, उनका सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही है. भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए सभी सरकारों और राजनीतिक दलों ने समय समय पर बड़े बड़े वायदे किए, लेकिन धरातल पर विशेष कुछ नहीं हुआ. यदि मोदी सरकार के पिछले 10 वर्ष के कार्यकाल को छोड़ दें जिसमें सरकार पर भ्रष्टाचार का कोई भी गंभीर आरोप नहीं है, स्वतंत्रता के बाद केंद्र में कोई भी ऐसी सरकार नहीं रहीं जिसपर भ्रष्टाचार के आरोप न लगे हो.

कांग्रेस की कोई भी सरकार इससे अछूती नहीं रही. देश के प्रथम आम चुनाव से पहले ही 1951 में जवाहर लाल नेहरू की पहली सरकार के दौरान ही मूंदड़ा स्कैंडल सामने आया था, उनके दामाद फिरोज खान गाँधी ने उजागर किया था लेकिन अपने वित्तमंत्री टीटी कृष्णामचारी की बलि देकर नेहरू ने इसे निपटा दिया. सरकारी उपक्रम बनाने में भी चुनावी फंड जुटाने को लेकर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में रक्षा सौदों में दलाली के गंभीर आरोप लगे थे. उनके समय हुआ कुख्यात नागरवाला कांड आज भी इतिहास के चर्चित घोटालों में गिना जाता है. 1973 में मारुति घोटाला सुर्खियों में आया था, जिसमें सोनिया गाँधी को बिना किसी तकनीकी योग्यता के कंपनी का प्रबंध निदेशक नियुक्त कर दिया गया था. मिस्टर क्लीन के नाम से विख्यात राजीव गाँधी पर बोफोर्स घोटाले में सोनिया गाँधी के रिश्तेदार क्वात्रोची के माध्यम से रिश्वत लेने का आरोप लगा. एचडीडब्लू पनडुब्बी घोटाले ने उनकी सरकार को बेनकाब कर दिया था. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही उनकी सरकार वापसी नहीं कर सकी. कांग्रेस की पीवी नरसिम्हा राव सरकार तो बहुमत जुटाने में “वोट के बदले नोट” में फंसी रही. हर्षद मेहता कांड भी इसी बीच हुआ. 2004 से 2013 तक कांग्रेस की संप्रग सरकारों के दोनों कार्यकाल भ्रष्टाचार के पर्याय बन गए थे. टूजी, कोलगेट, सत्यम, हसनअली टैक्स घोटाला, देवास एंट्रिक्स जैसे अनेकों घोटाले रोज़ रोज सामने आते थे. नेशनल हेराल्ड, वाड्रा डीएलएफ़, अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर, कॉमनवेल्थ खेल, जैसे घोटाले लोगों की स्मृति में आज भी ताजा हैं. नेशनल हेराल्ड घोटाले में सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी दोनों ही जमानत पर हैं. जनता दल की गठबंधन सरकार में सुखराम का टेलीकॉम घोटाला और केतन पारिख का वित्तीय घोटाला सुर्खियों में रहे. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में ताबूत घोटाले का आरोप तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस पर लगा था.

ऐसा नहीं है कि घोटाले केवल केंद्र की सरकारों में ही हुए, राज्य सरकारें भी पीछे नहीं रहीं. क्षेत्रीय दलों की सरकारे बनने के बाद तो जैसे घोटालों की बाढ़ आ गई. हर क्षेत्रीय दल ने अपना वर्चस्व बढ़ाने, सत्ता बनाए रखने के लिए जमकर भ्रष्टाचार किया और वोटों के लालच में मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाकर न केवल हिंदू एकता और सनातन धर्म के विरुद्ध काम किया बल्कि कदम कदम पर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के साथ समझौता भी किया, जिसके दुष्परिणाम पूरा देश भुगत रहा है. कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडीअलायन्स के प्रमुख घटक राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव को भ्रष्टाचार के कई मामलों में सजा हो चुकी है और कई मुकदमे अभी भी चल रहे हैं जिनमे नौकरी के बदले जमीन का मामला प्रमुख है और उसमें भी बड़ी सजा की संभावना है. अब तक पांच मामलों में उन्हें 32.5 वर्ष की सजा हो चुकी है. इस समय वह चिकित्सा कराने के लिए पैरोल पर जेल के बाहर है. जेल की जितनी सजा उन्हें और काटनी है शायद वे उनके वर्तमान जीवनकाल में संभव भी ना हो सके लेकिन नैतिकता को ताक पर रखकर वह पार्टी का चुनाव प्रचार कर रहे हैं, प्रधानमंत्री मोदी को गालियां दे रहे हैं, गठबंधन की बैठकों में हिस्सा ले रहे हैं और सार्वजनिक रैलियो में अन्य नेताओं के साथ मंच भी साझा कर रहे हैं. दूसरे नेताओं की भी इससे कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि उनमे से अधिकांश किसी न किसी घपले घोटाले में फंसा है. एक सजायाफ्ता कैदी को ये सुविधा और उसका दु:साहस कानून का दुरुपयोग नहीं, कानून की धज्जियां  उड़ाना है. शायद यह कानून की ही कमजोरी है.

भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था ही देश की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है और यह व्यवस्था संविधान में बनाई गयी है. ब्रिटेन की चुनावी प्रणाली की नकल करके बनायी गयी बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था भारत के लिए कदापि उपयुक्त नहीं है. इस व्यवस्था के कारण ही विभिन्न दलों के बीच अनैतिक प्रतिस्पर्धा होती है. भारत में राजनीति एक उद्योग बन गया है. क्षेत्रीय दल भी राजनीति के माध्यम से पुराने समय के राजे रजवाड़े  बन गए हैं, जो भारत को वित्तीय और राजनीतिक रूप से खोखला करता जा रहा है. इन दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए धर्म और जाति का जमकर उपयोग किया जाता है, इससे हिन्दु समाज आंतरिक संरचनात्मक व्यवस्था में पहले से भी अधिक विखंडित हो गया है. सामाजिक समरसता की दिन प्रतिदिन कमी होती जा रही है. धार्मिक ध्रुवीकरण करने फायदा उठाने के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण की सारी सीमाएं टूट और अब तो हिंदू समाज को तोड़ने की भी सारी जुगत लगाई जा रही है. अगड़े, पिछड़े, दलित आदिवासी और अल्पसंख्यकों की एकजुटता के नाम पर सांप्रदायिक विषमता उत्पन्न की जा रही है.

अभी तक क्षेत्रीय दल ही जातिगत भावनाओं को भड़काते थे लेकिन अब कांग्रेस जैसा राजनीतिक दल  जो ठेके पर देश को आजादी दिलाने का दावा करता है, मुस्लिम हितों की वकालत करता है,  भी जातिगत जनगणना की पुरज़ोर वकालत कर रहा है और इसे हर मर्ज की दवा साबित करने की कोशिश कर रहा है और जातिगत संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है. यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा  कि सबसे पुरानी पार्टी के नेता राहुल गाँधी ने अपनी भारत जोड़ा न्याय यात्रा में केवल जातिगत जनगणना पर ही प्रमुखता से बात की और एक तरह से लोगों को वर्ग संघर्ष के लिए उकसाया. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम जैसे दल जातिगत विभेद उत्पन्न करने के साथ साथ मुस्लिम तुष्टीकरण की भी सारी सीमाएं लांघ चुके हैं, लेकिन कांग्रेस से इतने गैर जिम्मेदारी के आचरण की अपेक्षा नहीं थी.  अब इसके बाद  कांग्रेस ने राष्ट्र विरोधी के हर कार्य के साथ अपने आपको संबद्ध कर लिया हैं और राष्ट्रीय दायित्व का उसका स्तर क्षेत्रीय दलों से भी नीचे गिर चुका है.

सभी विपक्षी दल जांच एजेंसियों द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई पर शोर शराबा कर रहे हैं और इसे राजनीति प्रेरित कदम बता रहे हैं. मोदी सरकार द्वारा बिना किसी विपरीत प्रतिक्रिया के चुपचाप निडरता से काम करते रहना, उसकी सबसे बड़ी ताकत बन गई है जिससे जनता का भरपूर समर्थन मिल रहा है. विपक्षी दलों द्वारा की जा रही अनर्गल बयानबाजी से उनकी स्थिति और अधिक कमजोर होती जा रही है. ऐसे में वे स्वयं नरेंद्र मोदी की तीसरी बार ताजपोशी का रास्ता साफ करते जा रहे हैं. देश की जनता का ये उत्तरदायित्व है की वही उसी दल का समर्थन करें जो राष्ट्र की गंभीर चुनौतियों को समझता हो और उनका सफलतापूर्वक सामना करते हुए अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन कर सकता हो. देश में दो दलीय व्यवस्था की अत्यंत आवश्यकता है, इस पर सरका को गंभीरता से विचार करना चाहिए.

                   ~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

आखिर आ ही गया सीएए

 


आखिर आ ही गया सीएए

दिसंबर 2019 में पास किए गये संशोधित नागरिकता कानून की अधिसूचना के बाद 11 मार्च 2024 से यह कानून प्रभावी हो गया है. 4 साल तक ठंडे बस्ते में डालने के बाद भाजपा सरकार ने हिम्मत दिखाई और लोकसभा चुनाव के ठीक पहले यह कानून लागू कर दिया. 2019 में जब संसद में इस विधेयक को पास किया गया तो काफ़ी हो हल्ला हुआ था और शाहीन बाग में तो एक साल से भी अधिक लंबा आंदोलन चलाया गया. लगभग सभी विपक्षी दलों ने इस कानून का विरोध किया. वैसे तो इसमें विरोध करने जैसा  कुछ भी नहीं है लेकिन अगर विरोध का केंद्र बिंदु मुसलमान हों तो मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले सभी राजनीतिक दल इसका विरोध करेंगे ही. आज पूरे विश्व को यह मालूम है कि भारत के राजनीतिक दल वोटो के लालच में मुस्लिम तुष्टिकरण करते हैं और राष्ट्रीय हितों की किसी भी हद तक अनदेखी कर सकते हैं. उनकी सभी नाजायज मांगों को पूरा करने के कारण बहुसंख्यक हिंदू न केवल अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं बल्कि  तिल तिल कर भारत इस्लामिक राष्ट्र होने की ओर बढ़ रहा है. सत्ता के स्वार्थ में कोई राजनैतिक दल स्वयं इस्लामिक राष्ट्र बनाने में शामिल हो जाय तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

इस बार भी अधिसूचना जारी होने के बाद इसका विरोध शुरू हो गया. मुस्लिम संगठनों को तो करना ही था लेकिन चुनावी वैतरणी पार करने के उद्देश्य से सभी राजनेताओं ने इसका विरोध किया. तुष्टिकरण में सबसे आगे रहने की होड़ में ममता बनर्जीं ने अपनी जान देकर भी सीएए लागू न करने की बात कही. यह छिपी बात नहीं है कि पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के बहुत बड़ी संख्या है, जो तृणमूल कांग्रेस के वोट बैंक है. विभिन्न एजेंसियों की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में संगठित गिरोह योजनाबद्ध तरीके से उनके लिए आधार कार्ड राशन कार्ड और वोटर आइडी कार्ड का इंतजाम करते हैं और विभिन्न जगहों पर बसाते हैं. उन्हें सरकारी सुविधाओं का फायदा दिया जाता है. आवश्यकता पड़ने पर इनका प्राइवेट आर्मी की तरह इस्तेमाल  किया जाता है. हाल के कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल में चुनाव के समय होने वाली हिंसा में इन अवैध घुसपैठियों का इस्तेमाल के प्रमाण हैं. इसलिए ये ममता बनर्जीं की बहुत बड़ी राजनैतिक पूंजी है.

तुष्टीकरण के इस खेल में अरविंद केजरीवाल कहाँ पीछे रहने वाले थे तो उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर मुस्लिमों को नागरिकता देकर अपना वोट बैंक बनाना चाहती है. इन देशों से आने वाले गैर मुस्लिम भारत की कानून और व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी समस्या बन जाएंगे जो लूटपाट हत्या और बलात्कार जैसे अपराध करेंगे. देश के युवाओं के रोजगार खा जाएंगे और महंगाई बढ़ाने का काम करेंगे. दिल्ली के बारे में सामान्य जानकारी रखने वाले लोगों को मालूम होगा कि केजरीवाल ने किस तरह से दिल्ली में अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के लिए बेहतरीन इंतजाम किए हैं और अपना वोट बैंक बनाया है. पिछली बार सीएए के विरोध में शाहीन बाग में हुए धरना प्रदर्शन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगे की रिपोर्ट से पता चला कि दंगों में इन अवैध घुसपैठियों का जमकर इस्तेमाल किया गया था.

तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने कहा कि वह राज्य में सीएए लागू नहीं करेंगे यद्यपि इसे रोकना राज्य सरकार के हाथ में नहीं है क्योंकि यह केंद्रीय कानून है और इसे केंद्रीय अधिकारी ही लागू करेंगे. केरल सरकार ने एक कदम और आगे जाकर सीएए के विरोध में विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर दिया और  सर्वोच्च न्यायालय में इस पर रोक लगाने के लिए याचिका दायर की है. सर्वोच्च न्यायालय याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार भी हो गया है. कांग्रेस भी सीएए लागू करने के खिलाफ़ है और उसका मानना है कि यह असंवैधानिक है क्योंकि यह धर्म के आधार पर नागरिको में भेद करता है. कांग्रेस नेता शशि थरूर ने घोषणा कर दी है कि यदि कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह इस कानून को खत्म कर देंगे. उत्तर प्रदेश में  समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल भी इसके स्वाभाविक विरोधी हैं. असदुद्दीन ओवैसी जिन्ना की भूमिका में हैं, इसलिए कोई भी राष्ट्रीय मुद्दा हो और वह हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिकता न देखें, हो नहीं सकता. वे सीएए के साथ एनपीआर और एनआरसी को भी जोड़ कर मुसलमानों को भड़काने का काम कर रहे हैं. सभी विपक्षी दलों ने उनका काम आसान कर दिया है.

 अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक वामपंथ गठबंधन के संगठन पूरी मुस्तैदी के साथ भारत की  सीएए का विरोध कर रहे हैं, इस कार्य में  भारत विरोधी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया भी उनका साथ दे रही है. बीबीसी, वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, सीएनएन, अल जज़ीरा आदि भ्रम फैलाने का कार्य कर रहे हैं. भारतीय राजनीतिक दलों के विरोध को देखते हुए अमेरिकी विदेश विभाग ने भी कहा कि वह चिंतित है और इस पर नजर रखे हुए हैं. और तो और सरकारी संरक्षण में हिंदुओं का धार्मिक उत्पीड़न करने वाले घोर सांप्रदायिक और भारत विरोधी इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान ने भी भारत के इस कानून को भेद-भावपूर्ण  बताते हुए कहा कि यह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का प्रयास है. भारत विरोध के लिए कुख्यात एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि नागरिकता का यह कानून भारतीय संविधान और अंतरराष्ट्रीय मानको के विपरीत है. 

विरोध करने वालों का तर्क है कि इस कानून में मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया इसलिए यह असंवैधानिक है क्योंकि संविधान (अनुच्छेद 14) भारतीय नागरिको के साथ भेदभाव करने के विरुद्ध है. ये विद्वान भूल जाते हैं कि यह कानून भारतीय नागरिको के लिए नहीं, विदेशी नागरिको यानी पाकिस्तान अफगानिस्तान और बांग्लादेश के नागरिकों के लिए है, जो धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हैं. ये तीनों ही देश मुस्लिम राष्ट्र है तो वहाँ पर मुस्लिमों का धार्मिक उत्पीड़न कैसे हो सकता है और अगर हो रहा है तो संघर्ष करे. एक और तर्क है कि भारत सेक्युलर सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक रिपब्लिक है तो धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में यह भेदभाव क्यों. “सेक्युलर सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक रिपब्लिक” शब्द मूल संविधान का हिस्सा नहीं है। इसे 1975 में इंदिरा गाँधी ने मुस्लिम नेताओं के दबाव में किया था, जो भारत की बहुसंख्यक जनता के साथ धोखाधड़ी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भाजपा सहित किसी भी राजनैतिक दल ने इसका विरोध नहीं किया। अगर धर्मनिरपेक्षता की इतनी चिंता है तो पूजा स्थल 1991 कानून, वक्फ बोर्ड कानून, अल्पसंख्यक आयोग, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड  क्यों हैं. अल्पसंख्यकों को धार्मिक शिक्षा देने का अधिकार लेकिन हिन्दुओं को नहीं, हिन्दुओं के मंदिरों पर सरकारी कब्जा, किन्तु अल्पसंख्यक संस्थान स्वतन्त्र. भारत में अगर अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव होता तो आजादी के समय मुसलमानों की 3.5 करोड़ जनसंख्या आज 25 करोड़ से अधिक कैसे हो जाती. 

भ्रम फैलाने की इस प्रक्रिया में लोग यह भूल जा रहे हैं कि वर्तमान संशोधित नागरिकता कानून इन तीन पड़ोसी देशों के गैर मुस्लिमों के लिए विशेष कानून है जबकि नागरिकता प्रदान करने की सामान्य प्रक्रिया अभी भी है जिसके अंतर्गत पूरे विश्व के किसी भी देश के नागरिक को नागरिकता का आवेदन करने का अधिकार है और उसके आधार पर ही पाकिस्तान सहित अन्य देशों के मुसलमानों को भी नागरिकता प्रदान की गई है।

2019 में जब संशोधित नागरिकता कानून पास हुआ था उस समय इसके विरोध में बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा करने का षड्यंत्र रचा गया था आंदोलन के स्वरूप को देखकर ऐसा लगता था कि यह आंदोलन केवल  भारतीय मुसलमानों द्वारा चलाया जा रहा है लेकिन इसे सभी विपक्षी  दलों का समर्थन प्राप्त था और  भारत विरोधी शक्तियां, जिनमे इस्लामिक वामपंथ गठजोड़ से सम्बद्ध सभी संगठन शामिल हैं, ने पूरे आंदोलन का वित्तपोषण किया था. यह छिपी बात नहीं है कि भारत के ज्यादातर मुस्लिम संगठनों और उनके अंतरराष्ट्रीय प्रायोजकों का उद्देश्य भारत को दारुल इस्लाम यानी इस्लामिक राष्ट्र बनाना है. इस कानून का विरोध करने वालों अधिकांश मुसलमानों और मुस्लिम संगठनों का संबंध गज़वा ए हिंद से है. ये सभी इस कानून में मुसलमानों को भी शामिल करवाकर अवैध मुस्लिम घुसपैठियों को भारत का नागरिक बनाकर भारत का जनसंख्या परिवर्तन करना चाहते हैं. कोई भी राजनैतिक दल इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है कि अगर इस कानून में मुसलमानों को भी शामिल कर लिया जाये तो भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनने में ज़रा भी देर नहीं लगेंगी.

 1971 में बांग्लादेश बनने के समय लगभग 5 करोड़ बांग्लादेशी शरणार्थी भारत में आ गए थे. भारत की सेनाओं ने अपनी जान पर खेलकर बांग्लादेश का निर्माण करवाया था. यह सही है कि युद्ध में पाकिस्तान बुरी तरह से पराजित हुआ था और उसके नब्बे हजार  सैनिकों ने भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण किया था. भारत इन सैनिकों का इस्तेमाल पाक अधिकृत कश्मीर प्राप्त करने के लिए कर सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह मान लेना उचित नहीं होगा कि इंदिरा गाँधी को इतनी समझ नहीं थी. इंदिरा गाँधी ने आम चुनाव में भारतीय जीत को जमकर भुनाया और अपने घोषणा पत्र में यह भी कहा कि वह शरणार्थियों की की सम्मानजनक वापसी होगी किन्तु कोई बांग्लादेशी शरणार्थी वापस गया, इसका कोई प्रमाणिक दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है. इस बात की संभावना भी नहीं लगती कि कोई बांग्लादेशी घुसपैठिया या शरणार्थी भारत आकर अपने आप बांग्लादेश वापस चला जाएगा. इस प्रश्न का आज भी कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है कि बांग्लादेश युद्ध से भारत को क्या हासिल हुआ. दो जगहों पर स्थित बंटा हुआ पाकिस्तान, भारत के लिए ज्यादा अच्छा था या पाकिस्तान और बांग्लादेश के रूप में दो स्वतंत्र इस्लामिक राष्ट्र भारत के लिए अच्छे हैं.

बांग्लादेश बनने के बाद भारत में बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों की बाढ़ आ गई, जो आज भी अनवरत जारी है. बेरोजगारी महंगाई पर छाती पीटने वाले राजनैतिक दल इस बात का कोई जवाब नहीं देते कि इन घुसपैठियों ने भारत महंगाई और बेरोजगारी में कितना बड़ा योगदान किया है.  कुछ समय पहले म्यांमार से भागे रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी के रूप मेंबांग्लादेश पहुंचे जिनके नाम पर बांग्लादेश ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से जमकर वित्तीय सहायता और प्रशंसा प्राप्त की. लेकिन सारे के सारे रोहिंग्या शरणार्थी बांग्लादेशी घुसपैठियों की तरह भारत आ गए. हाल के दिनों में बांग्लादेश सीमा पार कर भारत आए बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों की संख्या लगभग 5 करोड़ है. अगर 1971 के बांग्लादेश युद्ध के बाद आए घुसपैठियों की पूरी संख्या देखी जाए तो यह लगभग 10 करोड़  के आसपास  है. कई देशों की कुल जनसंख्या भी इतनी नहीं है जितनी संख्या मुस्लिम घुसपैठियों की भारत में है, लेकिन विरोध हो रहा है नए कानून से  कुछ सौ या कुछ लाख गैर मुस्लिम शरणार्थियों का. आज कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ पर बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिये न हो. पश्चिम बंगाल से केरल तक, तमिलनाडु से लेकर जम्मू तक और उत्तराखंड की सुदूर दुर्गम स्थानों पर भी इन घुसपैठियों की पैठ हो चुकी है. गंभीरता का अंदाजा आप केवल इस बात से लगा सकते हैं कि रेलवे ट्रैक के किनारे झुग्गी झोपड़ी लगाकर रहने वाले इन अवैध घुसपैठियों की इतनी बड़ी संख्या है कि आधे घंटे के अंदर देश का पूरा रेलवे नेटवर्क ठप कर सकते हैं. संशोधित नागरिकता के कानून से भारत में रह रहे मुसलमान किसी भी तरीके से प्रभावित नहीं है। उनका विरोध केवल शक्ति प्रदर्शन करके तुष्टिकरण में लगे राजनीतिक दलों को उनकी औकात बताना हैं. गज़वा ए हिंद की योजना में कोई विघ्न बाधा न पहुंचे, इसका प्रयास भी लगता है।

ये सही है कि मोदी सरकार ने इस कानून की अधिसूचना जारी करने में आवश्यकता से अधिक विलंब किया। हो सकता है उनका इरादा इसे हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डालने का रहा और लोकसभा चुनाव में राजनैतिक लाभ लेने के उद्देश्य से लागू किया गया हो। जो भी हो देर आए दुरुस्त आए। सभी राष्ट्रवादियों को इसका स्वागत करना चाहिए। अगर राष्ट्रहित में कोई काम राजनैतिक लाभ के लिए भी किया जा रहा है तो उन्हें राजनैतिक लाभ देने में कोई हर्ज नहीं है। ये भी सही है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने दूसरे कार्यकाल में मुस्लिम समुदाय को रिझाने के लिए लगातार प्रयास करते रहे हैं और इस कार्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी उनका साथ देता रहा है। हकीकत यह है कि भाजपा और आरएसएस कुछ भी कर ले मुस्लिम समुदाय ना तो भाजपा को पसंद करता था, ना ही पसंद करता है और ना करेगा। इसलिए भाजपा का  चुनावी लाभ के लिए तुष्टीकरण या संतृप्तिकरण करना बेकार है। बिना हिंदुओं समर्थन के भाजपा की सरकार बनना संभव नहीं है, इस बात को भाजपा और आरएसएस जितनी जल्दी समझ जाएं, उनके हित में है   और राष्ट्र के हित में भी.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

रविवार, 10 मार्च 2024

मदरसों का मकड़जाल - उप्र SIT की जांच रिपोर्ट

 

मदरसों का मकड़जाल

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अभियान चला कर यह पता लगाने की कोशिश की थी कि कितने मदरसे अवैध रूप से संचालित किए जा रहे हैं. मुस्लिम संगठनों और नेताओं के हो हल्ला के बीच प्रारंभिक परिणाम चौंकाने वाले थे. कुख्यात मदनी परिवार की छत्रछाया में चलने वाला देवबंद का मदरसा भी अवैध है और उतना ही कुख्यात और भारत विरोधी है जितना की मदनी परिवार. मज़े की बात यह है कि यह अवैध मदरसा इस्लामिक शिक्षा से संबंधित बड़ी बड़ी डिग्रियां देता है और ऐसे विषयों पर भी शोध करवाता है जो कि सभ्य समाज और मानवता विरोधी हैं. इस मदरसे के पाठ्यक्रम में भारत विरोधी और गज़वा ए हिंद की प्रेरणा स्रोत सामिग्री की भरमार है. जिस पर प्रख्यात विद्वान और केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने एक प्रेस वार्ता में विस्तृत चर्चा की थी. ये कोई छिपी बात नहीं है कि देवबंद के इस मदरसे से तालिबान और आईएसआईएस जैसे आतंकवादी संगठन भी खासे प्रभावित हैं और प्रशंसक भी है. कश्मीर में दशकों तक चलती रही आतंकी गतिविधियों का प्रेरणा स्रोत भी देवबंद का यह मदरसा रहा है. यह अवैध मदरसा और देश विरोधी मदरसा स्वयं देश भर में सैकड़ों मदरसे संचालित करता है. प्रायः यहाँ पर पुलिस और विभिन्न खुफिया एजेंसियों के छापे पड़ते रहते हैं, और आतंकवादी बरामद किए जाते हैं. हैरानी की बात है कि इतना सब होने के बाद भी आज तक किसी भी सरकार ने इस मदरसे के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की और वह भी जब मदनी चाचा और भतीजे सनातन धर्म के विरोध में बयान देते रहते हैं.

पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने तीन सदस्यों वाली एक विशेष जांच दल गठित किया था जिसका उद्देश्य अवैध मदरसों और उन्हें वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने वाले व्यक्तियों और संगठनों की पहचान करना था. इस जांच दल ने कुछ दिन पहले सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. जिसके अनुसार प्रदेश में लगभग 13,000 अवैध मदरसे हैं जिनमे 8448 मदरसे ऐसे हैं जिनके वित्तीय स्रोत संदिग्ध हैं और गतिविधियाँ भी. इसलिए इन्हें तत्काल बंद करने की संस्तुति की गई है. बड़ी संख्या में ऐसे मदरसे नेपाल से सटी सीमा के 15 से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित है. इनमें सबसे अधिक मदरसे महाराजगंज, श्रावस्ती, सिद्धार्थ नगर, बहराइच आदि में स्थित है. सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि कई ऐसी जगह भी मदरसे, मस्जिदे और दरगाहें बनाई गई है जहाँ पर मुस्लिमों की संख्या नगण्य है. नेपाल सीमा पर तैनात सशस्त्र सीमा बल इस संबंध में सरकार को समय समय पर पहले ही आगाह करता रहा है. यह स्वाभाविक है कि इन्हें पाकिस्तान सहित भारत विरोधी देशों और संगठनों ने भारत में गज़वा ए हिंद की योजना के अंतर्गत आतंकवादी गतिविधियाँ करने तथा गृह युद्ध जैसे हालत उत्पन्न करने के नेटवर्क के रूप में विकसित किया हो. सभी मदरसों ने विशेष जांच दल को बताया की मदरसों का संचालन जकात से किया जाता है लेकिन इस संबंध में वे कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके.

उत्तर प्रदेश में इस समय लगभग 25,000 मदरसे हैं, जिनमें लगभग 13,000 अवैध हैं. यक्ष प्रश्न है कि अवैध क्यों है? सामान्य समझ की बात यह है कि मोटे तौर पर ऐसे सभी संस्थान जो गैरकानूनी कार्यों और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलग्न हो, अवैध हैं. मदरसों के मामले में सिर्फ उन मदरसों को अवैध माना जाता है जिन्होंने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद में पंजीकरण नहीं कराया हो और उन्हें मान्यता न मिली हो. अधिकांश अवैध मदरसे वर्ष 2000 के बाद खोले गए हैं और इनके खुलने के साथ ही कई गोरखधंधे शुरू हो गए. वैसे तो मदरसों की शिक्षा और गतिविधियों को लेकर हमेशा से गंभीर शिकायतें सामने आती रही हैं, लेकिन तुष्टिकरण आधारित राजनीतिक दल हमेशा यह तर्क देते रहे हैं कि मदरसों में आवांछित गतिविधियों का कारण समुचित वित्तीय साधन और छात्रों के लिए समुचित साधन उपलब्ध न होना है.

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने 2004 में मदरसा शिक्षा परिषद का गठन किया था ताकि मान्यता प्राप्त और पंजीकृत करके मदरसों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जा सके तथा मदरसा शिक्षकों को राज्य के अन्य शिक्षकों की तरह वेतन और भत्ते उपलब्ध कराए जा सके. इसके साथ साथ छात्रों को छात्रवृत्तियां भी उपलब्ध कराई जा सके. लेकिन मदरसा शिक्षा परिषद के गठन के बाद भी मूल समस्या है ज्यों की त्यों रही क्योंकि ना तो मदरसों के पाठ्यक्रम में कोई बदलाव हो पाया और असामाजिक और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर अंकुश लग पाया. कुल मिलाकर मदरसा शिक्षा परिषद बनने का परिणाम यह हुआ कि माध्यमिक शिक्षा परिषद के समानांतर एक संगठन खड़ा हो गया और सरकारी खर्चे पर इस्लामिक प्रचार और कट्टरता बढाने की योजना बिना रोक टोक के चल निकली .

वर्ष 2022 में जब मदरसों की पड़ताल की जा रही तब यह सामने आया कि देवबंद मदरसा भी पंजीकृत नहीं है तो मदरसा शिक्षा परिषद के अध्यक्ष इफ्तखार अहमद जावेद ने देवबंद मदरसे की जमकर तारीफ की थी और उसकी तुलना सूर्य से की थी. विशेष जांच दल की रिपोर्ट और संदिग्ध मदरसों पर लगाम कसने की सिफारिश पर उन्होंने सरकार को पत्र लिख कर इन अवैध मदरसों को मान्यता देने की मांग करते हुए कहा कि इन मदरसों में ज्यादातर पसमांदा मुसलमानों के बच्चे पढ़ते हैं, और चूँकि मोदी सरकार पसमांदा मुसलमानों के लिए इतना कुछ कर रही है, तो योगी जी को इन मदरसों को तत्काल मान्यता देकर वैध कर देना चाहिए. उन्होंने कहा कि पिछले आठ वर्षों से यानी योगी सरकार आने के बाद से मान्यता देने का कार्य बंद हो गया है. इफ्तखार अहमद जावेद भाजपा के सदस्य हैं और मदरसा परिषद में जितने भी सदस्य हैं सबकी राजनीतिक पृष्ठभूमि है जिससे यह समझना मुश्किल नहीं है की उत्तर प्रदेश में मदरसा शिक्षा परिषद की क्या भूमिका है.

हाल ही में देवबंद मदरसे द्वारा दिया गया एक फतवा सुर्खियों में आया था जिसमें गज़वा-ए-हिंद को धार्मिक कृत्य बताकर हर मुसलमान को इसे पूरा करने का कर्तव्य बताया था. अभी तक हम सभी भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की साजिशों के बारे में सुनते जरूर थे लेकिन भारत का कोई भी मुस्लिम संगठन खुलकर इसकी हिमायत करने की हिम्मत नहीं जुटा सका था, यद्यपि इसमें कोई शक नहीं है कि सभी मुस्लिम संगठन इसके लिए कार्य कर रहे हैं और ज्यादातर भारतीय मुसलमान भी खुलकर न सही, इसका समर्थन अवश्य करते है. इस पर जब अरशद मदनी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि गज़वा ए हिंद हदीस का हिस्सा है, जिसे मानना और पूरा करना हमारा मजहबी दायित्व है. जब गज़वा ए हिंद हमारे मजहब का हिस्सा है और संविधान के अनुसार हमें अपने मजहब का पालन करने की आजादी है, तो फिर इस पर फतवा जारी करने से हमें कोई कैसे रोक सकता है. यानी अब देवबंद दारुल उलूम से गज़वा ए हिंद की आधिकारिक घोषणा हो गई है.

पाकिस्तान के मुल्ला मौलवी और अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक संगठन लगातार गज़वा ए हिंद पूरा करने के लिए कसम खाते हैं बल्कि इसके लिए मदरसों, मस्ज़िदों और जिहादी संगठनों को वित्तीय संसाधन भी उपलब्ध कराते हैं. पीएफआई और उसके अनुषांगिक संगठन सहित भारत के सभी कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन, इस्लामिक आतंकवादी संगठन और सभी अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक संगठन संगठित रूप से गज़वा ए हिंद के अभियान पर कार्य कर रहे हैं. भारत में जिहादी गतिविधियों के लिए मस्ज़िदों का दुरुपयोग कोई नई बात नहीं है. मदरसा कट्टरपंथी और जिहादी मानसिकता तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. भारत में हर मस्जिद कम से कम एक मदरसा आवश्यक चलाती है और बड़ी मस्जिदें तो कई मदरसे संचालित करती हैं. इसके अलावा कई मुस्लिम संगठन केवल अधिक से अधिक मदरसे और मस्जिदे बनाने में जुटे हैं.

सऊदी अरब तथा कई मुस्लिम देशों में मस्ज़िदों को नमाज़ के समय ही खोला जाता है और उसके बाद बंद कर दिया जाता है. शुक्रवार को तकरीर करने की इजाजत नहीं है लेकिन भारत में हर मस्जिद में न केवल अनेक शक्तिशाली लाउडस्पीकर लगाकर साम्प्रदायिकता को हवा दी जाती है बल्कि शुक्रवार को कई कई घंटे की तकरीरें होती है. तकरीर करने वाले मौलवियों को बाहर से आमंत्रित किया जाता है. जहरीले और भड़काऊ भाषण देने वाले मौलवियों की खासी मांग रहती है. तब्लीगी जमात और दूसरी मुस्लिम संस्थाएँ जलसे आयोजित करती है जिनमें भारत विरोधी भाषण होते हैं. यह सब कुछ गज़वा ए हिंद की परियोजना का हिस्सा है. दुर्भाग्य से कोई भी राजनैतिक दल गज़वा ए हिंद के बारे में बात करना और सुनना पसंद नहीं करता. इसलिए उनके हौसले बुलंद हैं.

आज जरूरत इस बात की है कि सभी मदरसों को या तो प्रतिबंधित किया जाए या उनका सरकारीकरण करके समान शिक्षा व्यवस्था लागू की जाए. मस्ज़िदों को उसी तरह नियंत्रित किया जाए जैसे ये सऊदी अरब ने की जा रही है. जिहादी और कट्टर पंथी तत्वों के विरुद्ध अभियान चलाकर सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए अन्यथा भारत को इस्लामिक राष्ट्र होने से कोई नहीं बचा सकता. भाजपा और मोदी जी से ये जरूर पूंछने की आवश्यकता है कि भारत विकसित राष्ट्र पहले बनेगा या इस्लामिक राष्ट्र. यदि भारत विकाश के साये इस्लामिक राष्ट्र का आकार ले रहा है तो ऐसे विकाश का कोइ मतलब नहीं. राष्ट्र का मजबूत होना सनातन संस्कृति का आधार कितना मजबूत है इस पर निर्भर करता है. इसलिए विकाश से ज्यादा जरूरी हैं सनातन संस्कृति का मजबूत होना जो अब मोदी जो को याद भी है, पता नहीं.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


रविवार, 3 मार्च 2024

पतंजलि ने की अवमानना

 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय स्वामी रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद को अवमानना का नोटिस जारी किया है. ये नोटिस सर्वोच्च न्यायालय के पिछले आदेश का उल्लंघन करने को लेकर जारी किया गया है जिससे न्यायालय ने पतंजलि आयुर्वेद को अपने औषधीय उत्पादों के बारे में बड़े बड़े दावे करने वाले विज्ञापन देने से रोका था, जो इंडियन मेडिकल असोसिएशन की याचिका पर सुनवाई के दौरान किया गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने औषधियाँ और जादुई उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 के परिपेक्ष में ये आदेश दिया. न्यायालय ने इस बीच पतंजलि आयुर्वेद को अपने उत्पादों का विज्ञापन या ब्रांडिंग करने से भी रोक दिया. न्यायालय ने पतंजलि आयुर्वेद को मेडिकल की किसी भी प्रणाली के प्रतिकूल कोई भी बयान देने से आगाह किया। वास्तव में यह लड़ाई पतंजलि या स्वामी रामदेव से नहीं, लडाई आयुर्वेद से है और ये आयुर्वेद से एलोपैथी को होने वाले नुकशान का भय है.

कोविड19 के समय हमने जाना कि एलोपैथी में इसका कोई इलाज नहीं है. उस समय कोई वैक्सीन भी आविष्कृत नहीं हो पाई थी और संभावनाओं के आधार पर ऐलोपैथिक डॉक्टर उसका इलाज कर रहे थे. बीमारी इतनी भयावह थी कि किसी भी अस्पताल में जगह नहीं थी और ऑक्सीजन की भारी किल्लत थी. लोग मर रहे थे और एलोपैथी असहाय थी. लॉकडाउन के कारण लोग अपने अपने घरों में बंद थे. सरकार और दूसरे माध्यमों द्वारा इस बात का प्रचार किया गया कि इस बीमारी का बचाव प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर किया जा सकता है. इसलिए अधिकांश लोगों ने जमकर योग का प्रयोग और आयुर्वेदिक उत्पादों का उपयोग क्या. इससे बड़ी संख्या में लोग अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल भी हुए. शायद ही कोइ एलोपैथिक चिकित्सक और एलोपैथी से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति हो जिसने योग और आयुर्वेद का प्रयोग न किया हो.

उस समय पतंजलि आयुर्वेद ने कोरोना-रोधी दवा विकसित की जिसका नाम कोरोनिल और श्वासारि बटी रखा गया लेकिन इंडियन मेडिकल असोसिएशन को बर्दाश्त नहीं हुआ और वह न्यायालय पहुँच गया क्योंकि एलोपैथी में कोई दवा नहीं थी. सरकार ने भी दबाव में आकर क्लिनिकल ट्रायल के बाद पतंजलि की कोरोना रोधी दवा अनुमति दी. स्वामी रामदेव ने योग के प्रचार और प्रसार में जितना काम किया है, उसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है. उन्होंने शहर शहर घूमकर योग के शिविर आयोजित किये और लोगों को रोज़ योग करने की प्रेरणा दी. टीवी और मीडिया द्वारा योग के प्रसारण से इसका इतना प्रचार और प्रसार हुआ की आज हर गाँव, गली मोहल्ले और पार्को में लोगों को योग और व्यायाम करते देख सकते हैं. योग के साथ साथ आयुर्वेद के प्रचार में भी उनका बहुत बड़ा हाथ है. लोग कहने के लिए स्वतंत्र हैं कि वे आयुर्वेदिक औषधियों का व्यापार करते है और अब किराने का सामान भी बेचने लगे हैं. लेकिन कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि पतंजलि आयुर्वेद से प्रतियोगिता के कारण ही दूसरी आयुर्वेदिक कंपनियों के उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार हुआ है और उनकी कीमतें सामान्य लोगों की पहुँच में आ पायीं. इसके साथ ही औषधीय पौधों की खेती तथा औषधीय गुण वाली शाक सब्जियों (लौकी,करेला आदि) का उपयोग बढ़ने से किसानों का भी फायदा हुआ है. गाय के सभी उत्पादों की खपत कई गुना बढ़ गई है. गौमूत्र से फर्श की सफाई करने वाला पदार्थ व्यापारिक रूप से बनेगा और घरों में पहुंचेगा, सोचना भी मुश्किल था. आज गाय के गोबर, गोमूत्र तथा पंचगव्य से बने अनेक पदार्थ अधिकांश हिंदु अपने घरों में इस्तेमाल करते हैं.

भारत में ऐसे लोगों एक वर्ग है जो सनातन धर्म ही नहीं, भारत की प्राचीन सभ्यता और उपलब्धियों से भी घृणा करता है. इसलिए यदि योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार प्रसार हो तो भला इन लोगों को कैसे रास आ सकता था. इसलिए दुष्प्रचार किए गए. पतंजलि की आयुर्वेदिक औषधियो से कई राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की बिक्री बुरी तरह प्रभावित हुई तो पतंजलि के विरुद्ध षडयंत्र शुरू हो गए. वामपंथी नेताओं ने पतंजलि के उत्पादों में तरह तरह की कमियां गिनाईं और उन्हें हिंदू परिवारों से दूर करने के लिए यहाँ तक कहा कि उनके निर्माण में जानवरों की हड्डियों का स्तेमाल किया जा रहा है. भ्रष्टाचार का विरोध करने के कारण स्वामी रामदेव पहले ही एक राजनीतिक दल के निशाने पर रहे हैं. इसलिए पतंजलि के रास्ते में अनेक बाधाएं खड़ी की गयी.

पतंजलि की कोविड19 के लिए कोरोनिल और श्वासारी बटी दवा लांच होने के समय आईएमए ने पतंजलि के साथ ऐसा शत्रुवत व्यवहार किया जैसे उसका भारत से कोई लेना देना नहीं है. पतंजलि के विरुद्ध इस तरह की याचिकाएं आईएमए ही दाखिल करता है, जो प्रथम दृष्टया दवा कंपनियों के हित साधने के साथ आयुर्वेद को ऐलोपैथी से कमतर साबित करने और आयुर्वेद का अपमान करने के लिए की गयी प्रतीत होती हैं.

  1. अंग्रेज जब भारत आये तो यहाँ की प्राचीन उपलब्धियों को देखकर आश्चर्यचकित रह गये. उन्होंने संस्कृत सीख कर वेद, पुराणों और उपनिषदों का अध्ययन किया और उनमें अनेक वैज्ञानिक शोध और गणनाओं को अपने देश ले गए और उन्हें अपने नाम करके दुनिया में वाहवाही लूटी. ऐसा नहीं है कि आयुर्वेद पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ी, लेकिन जिन जड़ी बूटियों और औषधीय पौधों का उपयोग उसमें होता है, वे ब्रिटेन में नहीं होती हैं, इसलिए योग आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांतों को वे अपने देश के नाम कर भी नहीं सकते थे क्योंकि उनकी चोरी पकड़ी जाती. इसलिए उसे सरकारी स्तर पर हतोत्साहित किया. उन्होंने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अवैज्ञानिक, रहस्यमयी और केवल एक धार्मिक विश्वास के रूप प्रचारित किया और एलोपैथी को संरक्षण प्रदान किया। आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति को नष्ट करने का भी हर सम्भव प्रयास किया जिसके कारण इसका विकास दब गया. यह उन क्षेत्रों में जीवित रहा जो 'आधुनिक सभ्यता' की पहुँच से दूर थे और परम्परागत चिकत्सा पर पूरी तरह निर्भर थे।  

जिन असाध्य और कठिन से कठिन बीमारियों का इलाज एलोपैथी में आज भी नहीं है, उनकी चिकित्सा योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा प्राचीन समय से होती आ रही है. अंग्रेज चूँकि एलोपैथी को बढ़ावा देना चाहते थे और आयुर्वेद को नष्ट करना चाहते थे इसलिए उन्होंने 1940 में ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट बनाया. स्वतंत्र भारत में भी इस नीति में कोई बदलाव नहीं आया क्योंकि अगर जवाहर लाल नेहरू की त्वचा का रंग छोड़ दें तो वह पूरी तरह से अंग्रेज थे. ऐसा अंग्रेज भारत के लिए क्या कर सकता है, जो भारत की हर प्राचीन उपलब्धि से नफरत करता हो, जिसे भारत की सत्ता के अलावा भारत की और कोई भी चीज़ पसंद न हो. उसने अंग्रेजों से भी कड़े कानून बनाए जिससे भारत की प्राचीन सनातन सभ्यता और सनातन धर्म को नष्ट किया जा सके और हिंदू समुदाय को गुलाम बनाए रखा जा सके. संविधान से लेकर भारत के हर कानून में इसकी स्पष्ट झलक मिलती है और इसीलिए बहुसंख्यक हिंदू अपने ही देश में दुसरे दर्जे के नागरिक बने हुए हैं.

जवाहर लाल नेहरू द्वारा 1954 में बनाया गया औषधियाँ और जादुई उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1940 अंग्रेजों द्वारा बनाए गए ड्रग्स ऐंड कॉस्मेटिक्स ऐक्ट का ही परिवर्तित रूप है. इस अधिनियम में 54 ऐसी इलाज बीमारियां चिन्हित की गई जिनके ठीक करने का दावा करने पर प्रतिबंध हैं. इनमें रक्तचाप, हृदय की बीमारी, कैंसर, डायबिटीज़, बांझपन, नपुंसकता, आँतों में घाव, टाइफाइड, टीबी, आदि कई ऐसी बीमारियां हैं जो अब असाध्य नहीं है और जिनका पूरी तरह इलाज संभव है. इसे बदलने की आवश्यकता है. आयुर्वेद में तो इनकी चिकित्सा बहुत पहले से ही उपलब्ध है. आयुर्वेद के मूल ग्रंथों कश्यपसंहिता, चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, भेल संहिता तथा भारद्वाज संहिता में इनका विस्तृत वर्णन है. चरक संहिता के रचयिता महर्षि चरक, महर्षि आत्रेय, महामेघा, अग्निवेश तथा दृढबल हैं, जो बेहद उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे. महर्षि सुश्रुत शल्य चिकित्सक थे. वह गर्भस्थ शिशु को मां के पेट की शल्य क्रिया करके निकालने और मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा उस समय करते थे जब एलोपैथी का जन्म भी नहीं हुआ था.

सरकार बजट आवंटन में भी पक्षपात करती है वर्ष 2024-25 के बजट में चिकित्सा के लिए कुल 90,171 करोड़ रुपये के आवंटन के सापेक्ष आयुर्वेद को केवल 3712 करोड़ रुपये उपलब्ध कराया गया है जो केवल 3.5 प्रतिशत है. चीन में परंपरागत चिकित्सा सुविधा को 40-50 प्रतिशत बजट आवंटित किया जाता है और परंपरागत चिकित्सा सुविधा का नेटवर्क एलोपथिक चिकित्सा के बराबर है किंतु भारत में ऐसा नहीं है. कारण है दवा कंपनियों का खेल जो विश्व स्वास्थ्य संगठन से शुरू होकर आपके पास के मेडिकल स्टोर तक फैला है

भारत में आयुर्वेद के महर्षियों के नाम कोई बड़ा अस्पताल नहीं? विश्वविद्यालय या आयुर्वेदिक शोध केंद्र नहीं? आयुष्मान कार्ड से आयुष का इलाज नहीं? आयुष मन्त्रालय है लेकिन आयुष के लिए बजट नहीं? आयुष चिकत्सक एलोपैथिक चिकित्सकों के समक्ष भी नहीं माने जाते. आयुर्वेद के विकास पर भी सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही. ये सब अनायास नहीं , वर्षो की म्हणत का परिणाम है.

आज जरूरत है आयुर्वेद के छिपे खजाने को खोलने और उस पर अधिकाधिक निवेश करने की जिसमें भारत के समृद्धि और स्वास्थ्य की कुंजी छिपी है.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~

सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ऐक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के 22 मार्च 2024 के फैसले पर लगाई रोक

हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ निर्णय चर्चा में रहे जिनमें न्यायिक सर्वोच्चता के साथ साथ न्यायिक अतिसक्रियता भी परलक्...