मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का हिंदू विरोध क्यों ?

 



स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का हिंदू विरोध क्यों ?

आजकल एक दंडी बाबा  स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती बहुत चर्चा में है. वह अपने आप को ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य कहते हैं. सामान्य जनता भी उन्हें शंकराचार्य ही समझती है और मीडिया ने तो उन्हें शंकराचार्य के रूप में स्थापित कर ही दिया है. उन्होंने पहलगाम में हुई घटना के लिए मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि सबसे पहले तो चौकीदार को पकड़ा जाना चाहिए वह क्या कर रहा था और इस तरह उन्हें जिम्मेदार ठहराया है. पाकिस्तान के विरुद्ध प्रस्तावित कार्रवाई का भी उन्होंने मखौल उड़ाते हुए कहा कि मोदी कहते रहते हैं कि ये कर देंगे वो कर देंगे और जनता को बेवकूफ बनाते हैं. सिंधु नदी का जल रोका ही नहीं जा सकता है क्योंकि भारत के पास इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री झूठ बोल रहे हैं और मीडिया भी सनसनी फैला रहा है कि पाकिस्तान को बूंद बूंद पानी को तरसा देंगे.

इसके पहले भी वह कई मामलों में हिंदू विरोध की दस्तक दे चुके हैं. उन्होंने मुर्शीदाबाद की घटना को कानून और व्यवस्था का मामला बताते हुए कहा कि इसे हिंदू मुस्लिम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. तीर्थराज प्रयाग में आयोजित महाकुंभ 2025 में भगदड़ मचने वाली घटना के बाद उन्होंने योगी आदित्यनाथ पर जमकर प्रहार किया था और उन्हें झूठा मुख्यमंत्री करार दिया था. उनके इस्तीफ़े की मांग की और महाकुंभ को सरकारी कुंभ की संज्ञा देते हुए तमाम अव्यवस्थाओं को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया और योगी सरकार की आलोचना की. दंडी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती भाजपा को घेरने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते और कई मौकों पर तो ऐसा लगता है कि उनका व्यवहार विशुद्ध राजनैतिक है और वे किसी राजनीतिक दल का मोहरा बने हुए हैं. 

उनके व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे वह एक असंतुष्ट व्यक्ति हैं और भाजपा से खासे नाराज उनकी नाराजगी की वजह क्या है, इस पर शोध करने से पता चलता है कि अविमुक्तेश्वरानंद को लगता है कि केंद्र की भाजपा सरकार ने उन्हें ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य बनने से रोकने की कोशिश की और उनके कारण ही सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी पट्टाभिषेक पर रोक लगा दी है.

अविमुक्तेश्वरानंद गुजरात की द्वारका-शारदा पीठ और उत्तराखंड की ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के शिष्य हैं. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का 11 सितंबर २०२२ को निधन हो गया था। इसके बाद उनकी वसीयत के आधार पर उनके निजी सचिव ने अविमुक्तेश्वरानंद को ज्योतिष पीठ का नया शंकराचार्य घोषित कर दिया था। यह बहुत असामान्य घटना थी क्योंकि किसी भी शंकराचार्य की नियुक्ति वसीयत के आधार पर नहीं हो सकती. वास्तव में शंकराचार्य के चयन की एक प्रक्रिया है जिसका पालन नहीं किया गया था. इस कारण संन्यासी अखाड़े ने अविमुक्तेश्वर को ज्योतिष पीठ का नया शंकराचार्य मानने से इनकार कर दिया। निरंजनी अखाड़ा और अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने भी विरोध किया और कहा कि शंकराचार्य की नियुक्ति की निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा. अविमुक्तेश्वरानंद ने अपने समर्थन में झूठ बोल कर कहा कि उनकी नियुक्ति का समर्थन गोवर्धन पीठ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने भी किया है लेकिन गोवर्धन पीठ पुरी के शंकराचार्य की और से एक हलफनामा दायर कर बताया गया कि उन्होंने अविमुक्तेश्वरानंद की शंकराचार्य के रूप में नियुक्ति का समर्थन नहीं किया है. भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल ने भी इस बात की पुष्टि की जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अविमुक्तेश्वरानंद के पट्टाभिषेक समारोह पर अगले आदेशों तक रोक लगा दी, जो आज भी लगी है. पट्टाभिषेक समारोह वह होते हैं जिसमे चयनित शंकराचार्य की विधिवत शंकराचार्य के रूप में पदस्थापना की जाती है. इसलिए अविमुक्तेश्वरानंद ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य नहीं है.

ज्योतिषपीठ की विडंबना यह भी है की अविमुक्तेश्वरानंद के गुरु स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती भी पूरे कार्यकाल विवादों से घिरे रहे और उनकी नियुक्ति भी शंकराचार्य के रूप में कभी नहीं हो सकी थी. 1973 में जब ज्योतिष्पीठ में शंकराचार्य का पद रिक्त हुआ तो काशी विद्वत परिषद और भारत धर्म महामंडल ने शंकराचार्य की जिम्मेदारी स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को दे दी लेकिन एक अन्य सन्यासी स्वामी वासुदेवानंद ने शंकराचार्य के पद पर अपनी दावेदारी पेश कर दी और मामला प्रयागराज उच्च न्यायालय पहुँचा. 44 साल बाद उच्च न्यायालय ने 2017 में अपने फैसले में वासुदेवानंद  की दावेदारी को ठुकरा दिया और स्वरूपानंद सरस्वती की नियुक्ति को अवैध घोषित कर दिया. उच्च न्यायालय ने काशी विद्वत परिषद को अन्य तीन मठों के प्रमुखों से सलाह करके किसी योग शंकराचार्य को चुनने का निर्देश दिया लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा कि जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती स्वरूपानंद सरस्वती ज्योतिर्मठ के कार्यवाहक शंकराचार्य के रूप में कार्य कर सकते हैं. वह अपनी आखिरी सांस तक केयरटेकर शंकराचार्य के रूप में कार्य करते रहे. इन्हीं केयर टेकर शंकराचार्य की वसीयत के आधार पर अपनी दावेदारी पेश करने वाले अविमुक्तेश्वरानंद की नियुक्ति का मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा और उनके पट्टाभिषेक पर रोक लग गई.

शंकराचार्य के रूप में अपनी नियुक्ति ना हो पाने के लिए वे केंद्र की मोदी सरकार को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराते हैं और इसलिए वह राजनैतिक रूप से अत्यन्त मुखर होकर हर संभव उनका विरोध करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय में कांग्रेस ने अपने वकीलों के माध्यम से उनकी सहायता की थी इसलिए वह कांग्रेस के पक्षधर हैं और कांग्रेस के पक्षधर होने के नाते वे पूरे इंडी गठबंधन के भी पक्षधर हैं. कांग्रेस ने अपने मीडिया विभाग के माध्यम से उन्हें शंकराचार्य के रूप में स्थापित कर दिया है और उन्हें इस्तेमाल कर रही है. अविमुक्तेश्वरानंद के गुरु स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती पर भी कांग्रेसी शंकराचार्य होने का आरोप पूरी जिंदगीभर चस्पा रहा क्योंकि वह धार्मिक मामलों में भी कांग्रेस का पक्ष आगे बढ़ाते थे तथा भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ खुलकर मोर्चा संभालते थे.

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के निवासी अविमुक्तेशरानंद  का नाम उमाशंकर उपाध्याय है जिहोने डॉक्टर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से शास्त्री और आचार्य की डिग्रियां लेते हुए राजनीति में भी ज़ोर आजमाइश की और छात्र राजनीति में हिस्सा लिया. अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने शंकराचार्य के प्रतिनिधि के रूप में मुस्लिम त्यौहार के परिदृश्य में गणेश प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगाने के सरकार के फैसले के विरुद्ध साधु संतों के एक प्रदर्शन का आयोजन किया था और सरकार के निर्देश पर पुलिस द्वारा उनकी जमकर पिटाई की गई थी.  महाकुंभ के दौरान अखिलेश यादव ने उनसे मिलकर पिछली घटना के लिए खेद व्यक्त किया तो उन्होंने अतीत की पीड़ा भूल कर अखिलेश यादव के साथ मिलकर महाकुंभ के नाम पर केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार को जमकर घेरा.

सूत्र बताते हैं कि भाजपा के चुनाव चिन्ह पर उन्होंने 2014 में लोकसभा का चुनाव लड़ने की भी इच्छा ज़ाहिर की थी जिसे भाजपा ने उनके कांग्रेसी संबंधों के चलते स्वीकार नहीं किया. 2019 के लोकसभा चुनावों में अविमुक्तेश्वरानंद ने वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र के खिलाफ एक उम्मीदवार उतारने का प्रयास किया था जो सफल नहीं हो सका लेकिन 2024 में गौ गठबंधन के बैनर तले एक उम्मीदवार उतार भी दिया था. कांग्रेस नेता अजय राय द्वारा वाराणसी में मोदी के विरोध में आयोजित राजनैतिक धरना प्रदर्शन में भी अविमुक्तेश्वरानंद ने बढ़ चढ़कर भाग लिया था.

भाजपा का विरोध करने के लिए वे आज सन्यासी की गरिमा को गिराते हुए हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी लाइन ले रहे हैं, जो उन्हें शंकराचार्य के पद हेतु पूरी तरह से अयोग्य सिद्ध करता है . ऐसे धर्मगुरु, साधु, सन्यासी और शंकराचार्य  जो अपने निजी स्वार्थ में लिप्त हैं,  सनातन धर्म और सनातन संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकते.

~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

पहलगाम में काफिरों पर कहर | आतंकवाद का धर्म है और धर्म का ही आतंक है

 


पहलगाम में काफिरों पर कहर | आतंकवाद का धर्म है और धर्म का ही आतंक है | आतंवादियों ने न जाति पूँछी और न ये कि पीडीए कौन है

कश्मीर में पहलगाम की खूबसूरत वादियों में छुट्टियां मनाने गए लोगों को इस्लामिक आतंकियों ने बेहद क्रूरता से मौत के घाट उतार दिया. इन मुस्लिम उन्मादी राक्षसों ने सैलानियों से उनका नाम पूछा, धर्म पूछा और हिंदुओं तथा सभी गैरमुस्लिमों को निर्दयता पूर्वक गोलियों से भून दिया. लोगों से कलमा पढ़ने को कहा गया. कपड़े उतरवाकर खतना देखा गया और 28 लोगों को मौके पर ही निर्ममता पूर्वक मार डाला गया. इससे भारत की षड्यंत्रकारी छद्म धर्मनिरपेक्षता ओर मुस्लिम तुष्टीकरण के उस नारे की एक बार पोल खुल गयी कि आतंकवादियों का धर्म नहीं होता. भारत में तो आतंकवाद का धर्म बिल्कुल स्पष्ट है और किसी को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए. जातिगत जनगणना की मांग करने वाले और पीडीए की बदौलत सत्तासीन होने का सपना देखने वाले राजनेताओं की आंखें खुल जानी चाहिए कि मुस्लिम आतंकवादियों ने किसी की जाति नहीं पूछी, नहीं पूछा कि वे पीडीए है. उनके लिए केवल यह जानना जरूरी था कि वे हिंदू हैं और इसी आधार पर सभी को मौत के घाट उतार दिया.

इस घटना से पूरे देश में उबाल है. लोगों में बेहद गुस्सा है आतंकवादियों तथा पाकिस्तान के लिए और थोडा केंद्र सरकार के लिए भी. निश्चित रूप से इस बात की समीक्षा की जानी चाहिए कि इतनी बड़ी घटना की नैतिक जिम्मेदारी किसकी है. राज्य की कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार के पास है, जिसमें गृहमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की महत्वपूर्ण भूमिका है. आखिर इतनी बड़ी सुरक्षा चूक कैसे हो गई. जहाँ खुफिया एजेंसियों की विफलता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, वहीं राज्य में स्थानीय राजनेताओं के दबाव में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती में की गई कटौती भी एक प्रमुख कारण है. उपराज्यपाल की कार्यप्रणाली राजनैतिक रूप से सही भले ही हो लेकिन जम्मू कश्मीर जैसे आतंकवाद से प्रभावित अति संवेदनशील राज्य के लिए रणनीतिक रूप से बहुत उपयुक्त कभी नहीं रही. केंद्र सरकार जोरशोर से इस बात का प्रचार करती रही कि राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति बिल्कुल सामान्य है, जिसके पीछे भी उपराज्यपाल का सही वस्तुस्थिति से अवगत न कराना प्रमुख कारण हो सकता है.

अधिकांश क्षेत्रों में सफलता अर्जित करने वाले अजित डोभाल भी राज्य की स्थिति से अनभिज्ञ कैसे बने रहे. केंद्र सरकार को राज्य की सुरक्षा स्थिति की सघन समीक्षा करनी चाहिए और बिना किसी राजनीतिक बाजीगरी के सुरक्षा कमजोरियों को तुरंत दूर किया जाना चाहिए. केंद्रीय सुरक्षा बलों को घाटी में तब तक रहना चाहिए जब तक आतंकवाद का पूरी तरह से खात्मा नहीं हो जाता. राज्य के पुलिस और प्रशासनिक कर्मचारी अब केंद्र शासित प्रदेशों के कैडर का हिस्सा है, इसीलिए राज्य के अधिक से अधिक कर्मचारियों को दूसरे केंद्र शासित प्रदेशों में तत्काल स्थानांतरित करने की आवश्यकता है, जिनके स्थान पर दूसरे केंद्र शासित प्रदेशों के कर्मचारियों अधिकारियों को लाया जा सकता है. इससे राज्य के कर्मचारियों और पृथकतावादियों के बीच का वर्षों से चला आ रहा तंत्र टूट सकेगा और राज्य का वातावरण बदलने में सहायता मिल सकेगी.

पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद भारत के लिए नया नहीं है. दशकों से हम लोग आतंकवाद के साये में ही रहते आए हैं. हमने वह समय भी देखा है जब रेडियो और टीवी पर लगातार सूचनाएं प्रसारित की जाती है कि किसी भी लावारिस वस्तु को हाथ न लगाएं यह बम हो सकता है. रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर गाड़ियों की सूचनाओं के बीच में यह सूचना लगातार प्रसारित की जाती थी. लोग जब घरों से कार्यालय, व्यवसाय या किसी कार्य से बाहर जाते थे तो उन्हें विश्वास नहीं होता था कि वह वापस आ पाएंगे और घर वाले भी वापस आने तक चिंता में डूबे रहते थे. मोदी सरकार बनने के बाद आतंकवाद पर जबरदस्त अंकुश लगा इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती. धारा 370 हटाना, जम्मू कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करना बहुत सकारात्मक कदम था. राज्य में कानून व्यवस्था को सामान्य बनाना बहुत बड़ी चुनौती थी जिसमें भी मोदी सरकार को बहुत सफलता मिली. अच्छा होता यदि जम्मू को भी अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाता, तो आतंकवाद के प्रभाव को केवल घाटी तक सीमित किया जा सकता था. जम्मू कश्मीर में बाहरी लोगों द्वारा संपत्ति खरीदने और स्थायी निवासी बनने के मामले में मोदी सरकार कमजोर पड़ गयी. राज्य में लोकसभा और विधानसभा सीटों के परिसीमन के मामले में भी केंद्र सरकार हिचकिचाहट से बाहर नहीं निकल पाई, इस कारण आज भी राज्य में सत्ता की धुरी कश्मीर घाटी है, जो भारत विरोधियों और पृथकतावादियों से बुरी तरह प्रभावित है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ दिन पहले ही फारूक अब्दुल्ला ने मुर्शीदाबाद हिंदू नरसंहार और पलायन पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह भारत की मुस्लिमों के प्रति नफरत की राजनीति का परिणाम है. इंजीनियर रशीद का लोकसभा में दिया गया भाषण भी कश्मीर घाटी के माहौल को रेखांकित करता है. एक प्रश्न यह भी है कि राज्य में चुनाव करवाने की इतनी जल्दी क्या थी जबकि इससे सुधरते माहौल का पटरी से उतरने का खतरा था, जो सही साबित हो गया. हो सकता है इसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ का दबाव हो जब उन्होंने कहा था कि राज्य को लंबे समय तक लोकतंत्र से बिरत नहीं रखा जा सकता लेकिन देश की एकता और अखंडता की जिम्मेदारी तो केंद्र सरकार की है.

भारत में हर आतंकवादी घटना को पाकिस्तान से जोड़ दिया जाता है, यह भारत के मुस्लिम संगठनों और मुस्लिम तुष्टिकरण का राजनीतिक विमर्श है, जो सरकारों के लिए भी उपयुक्त होता है लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि पाकिस्तान चाहे कितना ही ज़ोर लगा ले बिना स्थानीय समर्थन और सहयोग के भारत में किसी आतंकवादी घटना को अंजाम नहीं दिया जा सकता. भारत की विडंबना है कि हम स्थानीय आतंकवादियों पर कार्रवाई करना तो दूर उनकी तलाश तक नहीं करते और जब कभी स्थानीय रंगे हाथों पकड़े जाते हैं तो विभिन्न राजनैतिक दल उन्हें बचाने का प्रयास करते हैं और सफल भी हो जाते हैं. इस काम में न्यायपालिका का भी भरपूर समर्थन मिलता है उनके लिए रात 12:00 बजे सर्वोच्च न्यायालय खुल जाता है. उन्हें जेल जाने से बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायलय में एक ही दिन में तीन तीन बेंचों का गठन कर जमानत देना सुनिश्चित कर लिया जाता है. कोई देश चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, जब तक आतंकवाद की स्थानीय इकाइयों को नष्ट नहीं करता, आतंकवाद का सफाया नहीं कर सकता.

भारत विश्व का इकलौता देश है जहाँ, इस्लामिक आक्रान्ताओं और मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा 10 करोड़ हिंदुओं का नरसंहार किया गया. वह देश भी कितना दुर्भाग्यशाली है जो आज तक यह नहीं समझ सका कि आतंकवाद का धर्म होता है. हिंदुओं का नरसंहार करना कुछ लोगों का धार्मिक कृत्य है. इस नासमझी के कारण ही भारत में आतंकवाद के विरुद्ध भारत में कभी कोई गंभीर लड़ाई लड़ी ही नहीं गई. कश्मीर मामले में भी मोदी सरकार का मत था कि घाटी के आतंकवाद पर सांप्रदायिक दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए और इसलिए आतंकवाद से लड़ने के लिए विकास का मॉडल चुना गया. जम्मू कश्मीर को जितनी केंद्रीय सहायता आज तक दी गयी उतनी तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े और गरीब राज्यों को भी कभी नहीं दी गई. घाटी को दी गई इस सहायता राशि का बड़ा हिस्सा राजनेताओ ने हड़प लिया, जो अप्रत्यक्ष रूप से अलगाववादियों और आतंकवादियों को भी पहुंचता रहा क्योंकि राज्य में राजनीति और आतंकवाद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की अपेक्षा के अनुरूप आतंकवादियों और उनके आकाओं को मिट्टी में मिला देने की चेतावनी देते हुए कहा है कि उन्हें ऐसी सजा मिलेगी जिसकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते. संतोष की बात है कि पूरा विश्व भारत के साथ खड़ा है लेकिन भारत की उस राजनीति का क्या करें, जिसमें समूचा विपक्ष आतंकवादियों और पाकिस्तान के साथ खड़ा है क्योंकि उनकी पूरी राजनीति मुस्लिम तुष्टिकरण पर ही आधारित है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” के नारे के साथ भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की धुन में है. उन्हें लगता है कि हिन्दुओं के विरुद्ध नफरत की भावना तथा भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की कामना को विकास के मॉडल से दूर किया जा सकता है, जो पूरी तरह से गलत है. यह वही गलती है जिससे विश्व की कई सभ्यताएं नष्ट हो गई और दुनिया में इस्लामिक राष्ट्रों की संख्या बढ़कर 57 हो गई. इस्लामिक विद्वान कहते हैं कि गज़वा-ए-हिंद धार्मिक कृत्य है, तो फिर इससे कौन इनकार कर सकता है कि भारत निशाने पर हैं.

~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

लोग जेल में, देश डर में और परिवार सत्ता में, आपातकाल का यही सारांश है

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