यूक्रेन पर रूस के आक्रमण का आज सातवाँ दिन है, जब मै यह लेख लिख रहा हूँ और रूस की आशा के ठीक विपरीत वह अब तक यूक्रेन की राजधानी कीव पर कब्जा नहीं कर पाया है. रूस इस युद्ध को जितना आसान समझ रहा था वह उतना ही मुश्किल साबित हो रहा है. यूक्रेन के आम नागरिक अपने देश की सेना के साथ मिलकर रूस की सेना का डटकर मुकाबला कर रहे हैं. राष्ट्रभक्ति की यह भावना सराहनीय है और इसके पीछे हैं यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की, जो स्वयं सेना की वर्दी पहनकर सैनिकों के साथ दिखाई पड़ रहे हैं. उन्होंने अमेरिका के उन्हें सुरक्षित यूक्रेन से निकालने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और पलायन करने की बजाय आखिरी दम तक देश के लिए लड़ने का संकल्प लिया.
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण
और उस पर पूरे वैश्विक समुदाय की प्रतिक्रिया के संदर्भ में हमें एक बात हमेशा
ध्यान रखना चाहिए कि यूक्रेन पर रूस का आक्रमण केवल रूस के कारण नहीं हुआ है बल्कि
इसके पीछे अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों सहित बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय ताकतें भी
शामिल हैं, जो किसी भी हालत में रूस और यूक्रेन के बीच तनाव बढ़ा कर युद्ध की स्थिति
चाहती थी. इसके पीछे इन सभी के अपने अपने
स्वार्थ जुड़े हुए हैं. फिर भी रूस द्वारा एक स्वतंत्र और संप्रभु देश पर आक्रमण
किसी भी हालत में उचित नहीं ठहराया जा सकता और इसकी निंदा होनी ही चाहिए.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पूरे चार
वर्ष के कार्यकाल में अमेरिका ने कोई नया युद्ध शुरू नहीं किया था बल्कि पुराने चल
रहे संघर्ष से भी निकलने की कोशिश की गई
थी. इससे अमेरिका की हथियार बनाने वाली लॉबी उनसे बेहद नाराज थी और चुनाव में
उन्होंने ट्रम्प का जमकर विरोध भी किया था और बिडेन का समर्थन. अमेरिका और सभी
पश्चिमी देशों में रक्षा उपकरण हथियार आदि निजी क्षेत्र में बनाये जाते है और
सरकारें ज्यादा से ज्यादा टैक्स लेने और राजनीतिक पार्टियों के लिए इनका समर्थन
हासिल करने के लिए, अप्रत्यक्ष रूप से इनकी मार्केटिंग करती है. अब
चूंकि बिडेन राष्ट्रपति हैं तो उन पर इसी हथियार लॉबी का जबरदस्त दबाव है, और इस कारण यूक्रेन और रूस में तनाव बढ़ाने के लिए जबरदस्त वातावरण तैयार किया
गया. एक तरह से रूस को आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया गया या मजबूर कर दिया
गया.
सोवियत संघ के विघटन के बाद 15 नये देश बने उनमें यूक्रेन, रूस के बाद यूरोप का सबसे बड़ा देश था और परमाणु संपन्न भी लेकिन अमेरिका और नाटो
देशों द्वारा आश्वासन के बाद यूक्रेन ने परमाणु निशस्त्रीकरण का फैसला लिया और
अपने सभी परमाणु हथियार नष्ट कर दिये लेकिन उसके बाद भी यूक्रेन का न तो यूरोपियन
यूनियन और न हीं नाटो में प्रवेश हो पाया है और इस युद्ध में उसे इसका
खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. वास्तव में सोवियत संघ के विघटन के बाद नाटो की आवश्यकता ही नहीं रह गई थी क्योंकि रूस आर्थिक
रूप से बहुत कमजोर हो गया था और इस तरह
अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बचा था. अमेरिका,
यूरोपीय देशों और रूस के बीच बनी समझ के
अनुसार नाटो को समाप्त किया जाना था और कम से कम इसका विस्तार तो बिल्कुल भी नहीं
किया जाना था लेकिन अमेरिका ने न केवल नाटो को बनाए रखा बल्कि सोवियत संघ से बाहर आये
नए देशों को नाटो का सदस्य भी बनाया. यूक्रेन
और जार्जिया को भी नाटो की सदस्यता दिए
जाने का प्रस्ताव था, जिसके बाद यदि नाटो देशों के परमाणु हथियार और मिसाइल
यूक्रेन और जॉर्जिया में तैनात की जाती तो रूस को स्वाभाविक रूप से खतरा था. इसलिए
रूस का यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाए
जाने का विरोध समझ में आता है.
रूस पहले ही जॉर्जिया में सैन्य अभियान चला कर उसके दो राज्यों पर कब्जा कर
चुका है. यूक्रेन में चले रूस विरोधी आन्दोलन के कारण रूसी समर्थित यूक्रेन के राष्ट्रपति यानोकोविच
को देश छोड़कर भागना पड़ा था . रूस विरोधी माहौल के कारण यूक्रेन के रूसी भाषी
क्षेत्र क्रीमिया में यूक्रेन सरकार के प्रति असंतोष के स्वर उभरे तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने इस अवसर को भुनाया और
क्रीमिया को रूस में शामिल कर लिया. क्रीमिया में सामरिक महत्व का हवाई अड्डा है
जिसका नाटो के लिए भी बहुत महत्व था लेकिन क्रीमिया के रूस के साथ मिल जाने से,
अमेरिका के लिए यूक्रेन को नाटो में शामिल करने का आकर्षण कम हो गया. पुतिन ने यूक्रेन पर आक्रमण के बाद उसके
दो पूर्वी क्षेत्र डोनेस्क और लोहान्स्क को
स्वतंत्र देश की मान्यता प्रदान कर दी है.
राष्ट्रपति पुतिन ने रूस को कमजोर आर्थिक स्थिति से निकालने में महत्वपूर्ण
योगदान दिया जिसके लिए यूरोपीय देशों को गैस की आपूर्ति करना बहुत बड़ा कारक था. कई
यूरोपीय देशों के रूस से संबंध बहुत मधुर होते जा रहे थे, जो अमेरिका के हित में
नहीं थे. यूरोप को गैस आपूर्ति करनेवाली रूसी पाइप लाइन यूक्रेन से होकर गुजरती है
और इसके लिए यूक्रेन को काफी आकर्षक राजस्व भी मिलता था. यूक्रेन में रूस विरोधी माहौल
बनने के बाद रूस ने यूरोप को गैस सप्लाई करने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी शुरू
कर दी जिससे यूक्रेन को राजस्व का नुकसान होना तय था. इन परिस्थितियों में अमेरिका
चाहता था कि नाटो के सदस्य देशों की नजदीकी रिश्ते रूस से न बनने दिये जाए ताकि वे अपनी आवश्यकताओं के लिए अमेरिका पर
निर्भर रहे. इसी प्रष्ठ भूमि से तनाव
बढ़ाने का कार्य शुरू किया गया जिसकी परिणिति रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण के रूप हुई.
अमेरिका ने यूक्रेन में नाटो की सेना भेजने से इनकार कर दिया और रूस के भीषण आक्रमण का इंतजार किया. इस बीच पूरे
विश्व में रूस के विरुद्ध प्रचार किया गया और सभी देशों को रूस के विरुद्ध लामबंद
होने के लिए प्रेरित किया गया. परिणाम स्वरूप
ज्यादातर देशों ने रूस के हमले की न केवल निंदा की बल्कि वह अमेरिका के पक्ष में
खड़े नजर आए लेकिन भारत ने रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण की निंदा तो की लेकिन
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और महासभा में रूस के विरुद्ध प्रस्ताव में मतदान
में हिस्सा नहीं लिया. तकनीकी तौर पर भारत की भूमिका भले ही तटस्थ हो लेकिन
यूक्रेन सहित अमेरिका और पश्चिमी देशों ने इसे रूस के प्रति भारत का समर्थन माना
यद्यपि अमेरिका ने भारत अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए भारत की भूमिका पर संतोष
व्यक्त किया.
इस बीच अमेरिका और कई पश्चिमी देशों ने अत्याधुनिक हथियार उक्रेन को देने शुरू
कर दिए. इनमे कुछ ऐसे हथियार हैं जिनका परीक्षण पहली बार हो रहा है. उपग्रह से
इनके वीडियोग्राफी हो रही है. इनके विडियो वायरल किये जा रहें हैं और उनकी सफलता की कहानियां बढ़ा चढ़ा कर बखान की
जाती रहेंगी . पूरी दुनिया इन्हें देखेगी, कि कैसे इन हथियारों की वजह से रूस को पीछे हटना पडा या
कीव पर कब्जा करना मुश्किल हो गया. यूक्रेन के नागरिको के अदम्य साहस की सराहना तो
होनी ही चाहिए लेकिन उनकी वीरता की कहानियों को बढ़ा चढ़ाकर सोशल मीडिया पर परोसा जा
रहा है, ताकि यूक्रेन के नागरिको का मनोबल
ऊंचा बना रहे और हथियार चलाने वाले लोग लगातार उपलब्ध होते रहे और युद्ध लंबा
खिंचे. आज यूक्रेन हथियारों का टेस्ट ग्राउंड बन गया है.
अनेक देशों पर इस युद्ध में प्रयोग हुए हथियार खरीदने का मानसिक दबाव होगा. हथियार कंपनिया मालामाल हो जायेंगी
और इनके देश भी टैक्स पाकर खुश होंगे. एक बात और जिसे समझने की है कि यूक्रेन के
मामले में कहा जा रहा है कि इस देश ने इतने हथियार दिए उस देश ने इतने दिए, ये सब भ्रामक है. ज्यादातर हथियार भी निर्माता कंपनिया ही देतीं है और इस तरह युद्ध
भी परोक्ष रूप से वही लडती हैं. पूरे विश्व को रूस के पक्ष और विपक्ष में खड़ा करने
की कवायद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर केवल हथियारों की बिक्री बढ़ाना ही नहीं बल्कि रूस
को खलनायक बना कर अलग थलग करना और हथियारों के व्यवसाय में अधिकाधिक हिस्सेदारी हासिल करना भी है. भारत हथियारों
की आपूर्ति के लिए अभी भी रूस पर काफी अधिक निर्भर है इसलिए रूस विरोधी लॉबी पूरा
प्रयास कर रही है कि भारत भी रूस के विरुद्ध खड़ा हो जाए ताकि उसे अपने हथियार
आपूर्ति के लिए अमेरिका और पश्चिमी देशों के पास जाना पड़े.
रूसी हमले से यूक्रेन की मूलभूत परियोजनाएं नष्ट हो रही है. धन जन की बहुत
हानि हो रही है और अगर यूक्रेन बच भी गया तो इसकी भरपाई करने में दशकों लग जाएंगे.
रूस पर भी अमेरिका और यूरोपीय देशों ने बहुत कड़े प्रतिबंध लगाए हैं. उसे स्विफ्ट
सिस्टम से बाहर कर दिया गया है ताकि अंतरराष्ट्रीय भुगतान रुक जाए. इसके साथ ही
रूस की परिसंपत्तियों को अमेरिका और यूरोपीय देशों में फ्रीज किया जा रहा है. आने
वाले समय में रूस की आर्थिक स्थिति बहुत
खराब हो सकती है और उसे संभालने
में वर्षों लग जाएंगे. इसलिए यह आक्रमण यूक्रेन
और रूस दोनों के लिए ही विनाशकरी शाबित होगा .
यूक्रेन इस समय जो भी कर रहा है वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के प्रभाव में कर रहा है क्योंकि वह हर हालत में नाटो की सदस्यता चाहता है और इसलिए उनके
इशारे पर हर संभव कोशिश कर रहा है कि भारत
संयुक्त राष्ट्र संघ सहित हर अंतर्राष्ट्रीय पटल पर यूक्रेन का साथ देकर रूस का
विरोध करे. इसलिए भारतीय छात्रों को बंधक के रूप में इस्तेमाल करना, और उनके देश छोड़ने में बाधा उत्पन्न करना एक रणनीति के अंतर्गत किया जा रहा
है. इसी दबाव के कारण यूक्रेन के सैनिक सीमा पर भारतीय छात्रों से अवैध वसूली भी
कर रहे हैं. यही नहीं अंतर्राष्ट्रीय लॉबी भारत सरकार पर दबाव बनाने के लिए सोशल
मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के माध्यम से इन छात्रों के
अभिभावकों को मानसिक रूप से तोड़ने और सामान्य जनमानस में भारत सरकार की नकारात्मक
छवि पेश करने का भी कार्य कर रहा है.
यह भी एक सोची समझी रणनीति है और आम भारतीय इसका शिकार होता जा रहा है. मोदी
सरकार के विरुद्ध लगातार मुददे तलाशने वाली कांग्रेस और अन्य
विपक्षी दल भी जाने अनजाने में इस अंतरराष्ट्रीय साजिश का मोहरा बन गए हैं.
भारतीय छात्रों को यूक्रेन से वापस लाने की मांग को लेकर कांग्रेस ने तो विदेशमंत्री के आवास के बाहर धरना प्रदर्शन
और पुतला जलाने का कार्य शुरू कर दिया है. जब भारत सरकार सभी छात्रों को सुरक्षित देश वापस लाने के
संकल्प के साथ ऑपरेशन गंगा के अंतर्गत छात्रो की वापसी शुरू हो गयी है और चार
केन्द्रीय मंत्री उक्रेन के पड़ोसी देशों में कैंप कर रहें हैं तो फिर दुष्प्रचार क्यों
? भारत विश्व का पहला ऐसा देश है जो यूक्रेन से अपने नागिरकों और छात्रों को सुरक्षित
वापस लाने का कार्य कर रहा है. अमेरिका सहित विश्व के लगभग सभी देशों ने अपने
नागरिको से स्वयं की व्यवस्था से यूक्रेन छोड़ने की एडवाइजरी जारी की है.
भारत सरकार पर दबाव बनाने के उद्देश्य से, इन छात्रों से भी ऊलजलूल वीडियो बनवा कर वायरल किए जा रहे हैं. भारतीय मीडिया भी न केवल रूस के विरुद्ध बल्कि भारत सरकार के विरुद्ध भी माहौल तैयार करने में सहयोगी बनती जा रही है. अगर हम इसे भूल भी जाएँ कि यूक्रेन ने अतीत में भारत का कई संवेदन शील मामलों में विरोध किया था, हम अपने राष्ट्रीय हितों को ताक रख कर रूस का विरोध नहीं कर सकते. यद्दपि भारत ने रूस के आक्रमण की निंदा की है और आपसी बातचीत द्वारा संकट के समाधान की अपील की है. देश वासियों और विपक्ष को भी इस तरह के दुष्प्रचार के दुष्चक्र को समझना चाहिए.
- शिव मिश्रा
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