शनिवार, 31 दिसंबर 2022

भारत का विकृत इतिहास

 भारत का विकृत इतिहास

भारत का इतिहास इतना तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया है कि सच्चाई को लगभग छिपा देने का प्रयास हुआ है और यह बात किसी से छिपी नहीं है. दिल्ली में  वीर बाल दिवस के अवसर पर आयोजित एक समारोह में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस बात को एक बार फिर दोहराया कि भारत में इतिहास के रूप में हमें षड्यंत्र पूर्वक गढ़ा गया विमर्श पढ़ाया गया है. भारतीय संस्कृति की महान उपलब्धियों को छुपाया गया और राष्ट्रीय नायकों के अनुकरणीय और प्रेरणादायक योगदान को अनदेखा किया गया और आक्रान्ताओं को महिमामंडित किया गया. हिंदू और राष्ट्र विरोधी शक्तियों ने यह सब जानबूझकर इसलिए किया ताकि हिंदू समाज कभी भी अपनी संस्कृति, धर्म, पूर्वजों की महान विरासत और उल्लेखनीय उपलब्धियों पर गौरवान्वित न हो सके.

वीर बाल दिवस, जिसका आयोजन गुरु गोविंद सिंह के दो साहिब जादों के प्रेरणादायक बलिदान को स्मरण करने और भावी पीढ़ियों को उनके अदम्य साहस, और धर्म के प्रति समर्पण की भावना से प्रेरणा प्राप्त करने के लिए आयोजित किया गया है, स्वयं एक ऐसा उदाहरण है जिसे स्वतंत्रता के 75 साल बाद गैर कांग्रेसी सरकार के समय सार्वजनिक किया जा सका. इतने बड़े बलिदान और अदम्य साहस की कहानी को न तो इतिहास में सम्मानजनक जगह  मिल सकी और ना ही सरकार ने अपने स्तर से कभी भावी पीढ़ियों को इससे प्रेरणा लेने के लिए पाठ्यक्रमों में शामिल किया.

क्रूर और बहसी मुगल शासक औरंगजेब ने हिंदुओं और सनातन संस्कृति में विश्वास करने वाले लोगों का जितना धार्मिक और सामाजिक उत्पीड़न किया, ऐसा उदाहरण संसार में कहीं नहीं मिलता. क्रूर हत्यारे औरंगजेब ने सबक सिखाने के उद्देश्य गुरु गोविंद सिंह के दो पुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंह, जिनकी उम्र 6 और 9 वर्ष थी, को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए डराया और उनके इनकार करने पर उन्हें दीवाल में जिंदा चुनवा दिया. इतनी छोटी उम्र में जान देकर भी धर्म परिवर्तन से इंकार करने का साहस, निडरता और निर्भीकता, भावी पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय उदाहरण है जिसे जानबूझकर अनदेखा किया गया. आज सरकार की अनदेखी और सामाजिक पतन का यह स्तर आ  गया है कि 1 किलो चावल, 2 किलो गेहूं, के लिए  भी धर्म परिवर्तन हो जाता है. आज लव जिहाद राष्ट्रव्यापी अभियान बन चुका है.

इतिहास में झूठे विमर्श  गढ़े जाने का कारण  राष्ट्रीय जन मानस में विशेषतया हिंदुओं में हीन भावना उत्पन्न करना है, ताकि वे कभी स्वाभिमान से अपना सिर ऊंचा न कर सकें और उन्हें हमेशा इस बात का मानसिक तनाव रहे कि उन पर मुस्लिमों और अंग्रेजों ने शासन किया था क्योंकि वे कमतर हैं.  यह सनातन राष्ट्र अपनी गुलामी की मानसिकता से बाहर आकर विश्व को यह  कभी न बता सके कि वे इस पृथ्वी पर सबसे पुरानी सभ्यता हैं, तथा सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक धरातल पर वे विश्व में सर्वश्रेष्ठ थे, इसलिए विश्व गुरु थे. ज्ञान और विज्ञान की जिस पराकाष्ठा को इस सभ्यता ने हजारों वर्ष पहले पार कर लिया था, संपूर्ण विश्व को उसकी जानकारी कई हजार वर्ष बाद तक नहीं हो पाई थी. यह वही संस्कृति है, नालंदा में जिसके ज्ञान के भण्डार को अनपढ़, जाहिल और जंगली मुस्लिम आक्रांताओं ने आग  के हवाले किया था और दुर्लभ ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों को जलने में 6 से 7 माह लग गए थे.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वामपंथ इस्लामिक गठजोड़ की दुरभि संधि  में शामिल होकर तथाकथित चाचा ने भारत की शिक्षा व्यवस्था, इतिहास और राष्ट्रीय गौरव को मौलाना आजाद के हवाले कर दिया था, जिन्होंने कुछ वामपंथी इतिहासकारों को खरीद कर वह सब कुछ लिखवा डाला जो मुस्लिम जगत को चाहिए था. इन गुलाम इतिहासकारों ने अकबर को महान, औरंगजेब को धर्मनिरपेक्ष और बाबर को लोकप्रिय शासक बना दिया. महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे वीरों  को लुटेरा बना दिया. चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और राजगुरु जैसे क्रांतिकारी वीरों  को आतंकवादी बना दिया. ये केवल कुछ उदाहरण है, भारत का पूरा इतिहास इस तरह के मनगढ़ंत झूठ का पुलिंदा है. अगर  स्वतंत्र इतिहासकारों की अत्यंत सीमित संख्या में पुस्तकें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध न होती, तो शायद हमें अपने पूर्वजों के बारे में  भी सच मालूम नहीं होता.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतिहास की इस विकृति  विसंगति के बारे में कई बार देश को सावधान किया है. गृहमंत्री अमित शाह और कई केंद्रीय मंत्री भी हमेशा यही बातें दोहराते रहते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साधारण प्रचारक से लेकर सरसंघचालक तक और उनकी सभी अनुषांगिक संगठन के पदाधिकारी प्रायः इतिहास में लिखे गए झूठ के बारे में बताते हैं. यह बहुत अच्छी बात है. सोशल मीडिया के इस युग में जनता बहुत जागरूक है और  उन सभी से पूरी तरह सहमत भी है.  जागरूक होता हिंदू जनमानस स्वत: स्फूर्ति से इतिहास की वास्तविक स्थिति का आदान प्रदान कर रहा है. छोटी कक्षाओं से स्नातकोत्तर की पाठ्य पुस्तकों में आज भी वही गलत इतिहास पढ़ाया जा रहा है. एनसीईआरटी और विश्वविद्यालयों की पुस्तकों में भी झूठ और मनगढ़ंत बातें आज भी बेरोकटोक चल रही हैं. स्वतंत्रता के 75 साल बाद देश के नौनिहाल झूठा और मनगढ़ंत इतिहास पढ़ रहे हैं और आत्मसात कर रहे हैं. यही इनका सच बन जाता है. ऐसी भावी पीढ़ियों से देश क्या अपेक्षा कर सकता है. 

प्रधानमंत्री मोदी की यह बात अत्यंत हृदयस्पर्शी है कि झूठे और गढे गए विमर्श को बदले जाने की आवश्यकता है. पूरा देश उनकी बात से सहमत हैं लेकिन यह कार्य करेगा कौन? यह कार्य किसी व्यक्ति  द्वारा नहीं सरकार द्वारा किया जाना है. इतिहास को परिमार्जित करना वर्तमान सरकार का उत्तरदायित्व ही नहीं, नैतिक धर्म भी है. भाजपा और उनके अनुषांगिक संगठन दशकों से इतिहास की इन विसंगतियों की तरफ जनता का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं.  अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज भाजपाई नेताओं ने संसद में इस मुद्दे पर अनेक बार अत्यंत प्रभावशाली ढंग से अपनी बातें रखीं. यह सब तब की बातें हैं जब भाजपा विपक्ष में थी. आज पिछले 8 वर्षों से  केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है, लेकिन भाजपा के नेता आज भी उसी तरह से बात कर रहे हैं जैसे तब करते थे जब वह विपक्ष में थे. विश्व का इतिहास गवाह है कि 8 वर्ष का समय कम नहीं होता. इतने समय में कई देशों ने अपना इतिहास परमार्जित कर डाला, राष्ट्रीय अस्मिता पर कलंक के धब्बों को धो डाला, और जरूरत पड़ने पर संविधान भी बदल डाला और राष्ट्रहित के विरुद्ध काम करने वालों  को समझा डाला.  

ऐसा नहीं है कि इतिहास को कुरूपित और विकृत करने का कार्य सिर्फ भारत में किया गया. ऐसा हर उस देश में हुआ जो पराधीन था, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन देशों ने जो काम सबसे पहले किया वह था अपनी सांस्कृतिक विरासत को पुनर्स्थापित करना, इतिहास को परिमार्जित करना और गुलामी के कलंक धोना. दुर्भाग्य से भारत में स्वतंत्रता के बाद परतंत्रता की निशानियां और गुलामी के कलंक हटाना तो दूर की बात तत्कालीन सरकारों ने भारत के इतिहास को और अधिक विकृत और कलंकित करने का कार्य  किया. परतंत्रता की त्रासदी के जख्म, आक्रांताओं की  क्रूर और भयावह कार्यवाही के अवशेष, देश के मूल निवासियों पर किए गए अत्याचारों की दर्द भरी दास्तान और उसके  प्रमाण यहां वहां हर जगह पूरे देश में बिखरे पड़े हैं. पिछली सरकारों ने तो इन्हें सुरक्षित रखने के पुख्ता उपाय किए और भविष्य में भी इन्हें सजा सवांर कर रखने के लिए कानून बनाकर राष्ट्र के मूल निवासियों के पैर में बेड़ियां डाल दी. आज विश्व की इस प्राचीनतम सभ्यता के मूल निवासियों को यह अधिकार भी नहीं है कि वह अपने ऊपर की गई ज्यादितियों का प्रतिकार कर सकें, दासता के कलंकित कार्यों का  परिष्कार कर सकें और गुलामी के प्रतीक हटाकर स्वतंत्रता का एहसास कर सकें.

 

यह  दुखद है कि  पिछले 8 वर्षों में केंद्र सरकार ने इतिहास की इन  विसंगतियों, झूठे विमर्श, सनातन संस्कृति और हिंदू धर्म को कलंकित करने वाले मनगढ़ंत कहानियोंराष्ट्रीय नायकों और महान विभूतियों की अनदेखी को न्यायोचित सुधारने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. केवल शिक्षा मंत्रियों को बदलने और शिक्षा नीति में बदलाव प्रस्तावित करने से ही इतिहास परिमार्जित नहीं हो जाया करता. जब स्मृति ईरानी शिक्षा मंत्री थी तब थोड़ा कार्य शुरू जरूर  हुआ था लेकिन दबाव में उनका मंत्रालय बदल गया और उसके बाद निशंक, जावड़ेकर और धर्मेंद्र प्रधान के कार्यकाल में इस संबंध में कोई प्रगति हुई हो ऐसा नहीं लगता.

क्या भारतीय इतिहास की इन विसंगतियों को अफगानिस्तान का तालिबान या पाकिस्तान ठीक करेगा? या भारत के उस वर्ग, जो  आक्रांताओं को अपना पूर्वज मानता है, से अपेक्षा की जा सकती है कि वह आगे आकर इतिहास का भूल सुधार करेगा

भारत के  विकृत और विसंगतियों भरे इतिहास का समय-समय पर उलाहना देना अगर भाजपा के लिए केवल एक नारा है, तब तो कुछ नहीं हो सकता, लेकिन यदि भाजपा गंभीर है तो उसे तत्काल इस संबंध में आवश्यक कदम उठाने चाहिए क्योंकि भारत में राष्ट्रीय जन जागरण का  अभियान आज जिस चरम पर है, यह काम मुश्किल नहीं है लेकिन इसमें अड़चन है भाजपा में इच्छाशक्ति की कमी.  अब तो 2024 के लोकसभा चुनाव की दुंदुभी बज चुकी  है, अगर अभी भी इसकी शुरुआत नहीं हो सकी तो मानना चाहिए कि इसकी शुरुआत कभी नहीं होगी और यह कार्य भी कभी पूर्ण नहीं होगा, विशेषकर तब जब भाजपा पर “सबका विश्वास” प्राप्त करने का दबाव या सनक सवार हो गई हो. 

~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा~~~~~~~~~~~~~~







शनिवार, 24 दिसंबर 2022

लखनऊ में रोहिंग्या और बंगलादेशी

 

लखनऊ के घेरे हैं बंगलादेशी और रोहिंगिया

लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक राष्ट्रीय हिंदी समाचार पत्र ने लखनऊ के विभिन्न क्षेत्रों में बसी अवैध बस्तियों पर श्रृंखलाबद्ध ढंग से खोजी समाचार प्रकाशित किये. समाचार पत्र ने झुग्गी झोपड़ियों की अवैध बस्तियां बसाने वाले माफियाओं, पुलिस, संबंधित  विभागों और राजनेताओं की संलिप्तता और इन झुग्गी झोपड़ियां को  बसाए जाने के पीछे का अर्थतंत्र उजागर किया. कई दिन तक लगातार प्रकाशित होने वाले  इन समाचारों ने प्रमाण सहित बताया कि लखनऊ में ऐसा कोई  क्षेत्र नहीं, ऐसी कोई दिशा नहीं, जहाँ इस तरह की अवैध झुग्गी झोपड़ियों की बस्तियां न हो. सबसे चिंताजनक बात है कि इन झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बड़ी संख्या में अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने वाले बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठये हैं, जिन्हें सरकारी भूमि पर बिजली पानी की सुविधा देकर आधार कार्ड तक उपलब्ध करा दिया गया है, ताकि उनके भारत के नागरिक होने में किसी को कोई संदेह न हों और सरकारी सुविधाएँ भी उन्हें उपलब्ध हो सकें. यह केवल भ्रष्टाचार नहीं, राष्ट्र द्रोह है.

ऐसा नहीं है कि मामले का खुलासा सिर्फ समाचार पत्र द्वारा ही किया गया. इससे पहले स्थानीय निवासी बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं की इन अवैध बस्तियों की शिकायत संबंधित विभागों से करते करते थक चुके हैं, लेकिन किसी भी विभाग के अधिकारी ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की. स्थानीय निवासियों ने मुख्यमंत्री की जनसुनवाई पोर्टल पर भी शिकायत की लेकिन उसका भी कोई असर नहीं हुआ. आश्चर्यजनक लग सकता है कि हजरतगंज में आईएएस अधिकारियों की कॉलोनी बटलर पैलेस और मंत्रियों के लिए बनी बहुखंडी इमारत के सामने भी बांग्लादेशियों की अवैध बस्ती है, जो उनकी सुरक्षा को भी गंभीर खतरा है लेकिन मंत्रियों और उच्च अधिकारियों का आँखें बंद करना या असहाय होना यही संदेश देता है कि उन सभी को देश की इतनी बड़ी गंभीर समस्या की कोई परवाह नहीं.  यही स्थिति  देश के हर बड़े शहर की है. कुछ राज्य सरकारों ने तो इन्हें बाकायदा अपना वोट बैंक भी बना लिया है .  

मुख्यमंत्री ने समाचार पत्र में छपी इन खबरों का संज्ञान लेते हुए तुरंत कार्रवाई का निर्देश दिया जिसका परिणाम हुआ की अब तक कई झुग्गी झोपड़ियों की बस्तियों को खाली कराया जा चुका है. प्रश्न उठता है कि पहले संबंधित विभागों ने यह कार्रवाई क्यों नहीं की. इसका सीधा और संक्षिप्त उत्तर है कि भारत में भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत स्वार्थ की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उच्च सरकारी अधिकारी और राजनेता भी स्वार्थ और लालच में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को भी  ताक पर रख देते हैं. यह एक प्रमुख कारण है जिससे भारत और सनातन समाज आज इस अधोगति को प्राप्त हो चुका है, और इस कारण ही भविष्य में राष्ट्र की  स्थिति कितनी संकट पूर्ण होने वाली है, जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है.

इन झुग्गी झोपड़ियों से मासिक किराया, बिजली और पानी की कीमत की अवैध वसूली की जाती है.  यह सब करोड़ रुपयों का बहुत बड़ा खेल है, जिसे राष्ट्रीय हितों को अनदेखा कर भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारियों के सहयोग से कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा किया जा रहा है. इतनी बड़ी संख्या में झुग्गी झोपड़ियों में कटिया डालकर सप्लाई की जा रही बिजली और जलनिगम की पाइप लाइन काटकर दिए जा रहे पानी से संबंधित विभागों का कितना नुकसान हुआ है, इस पर कहीं कोई चर्चा तक नहीं हुई. यह कार्य बिना संबंधित विभाग के कर्मचारियों और अधिकारियों की मिली भगत के नहीं हो सकता. आज के इस युग में जब बिजली कंपनिया बिजली चोरी रोकने के लिए आंतरिक वितरण के लिए भी मीटर लगाती हों, इतनी बड़ी बिजली चोरी इतने लम्बे समय से कैसे होती रह सकती है. नियमित कनेक्सन वालों को प्रीपेड और अवैध कनेक्शन पर आँखे बंद कर अवैध वसूली, यह अचंभित करने वाला नहीं है. भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत स्वार्थ प्राय: राष्ट्रीय हितों की भी तिलांजलि दे देता है लेकिन इस पूरे खेल में बड़े  षड्यंत्र की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता. सरकार को इस पर विस्तार जांच करवाने की आवश्यक्ता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि नगर निगम, जल निगम और विकास प्राधिकरण के कर्मचारी पूरे शहर में व्यापक गस्त करते रहते हैं. आप कोई नया निर्माण शुरू करें तो पायेंगे कि विकास प्राधिकरण का कर्मचारी दूसरे दिन ही पहुँच जाएगा, यही हाल नगर निगम, जल निगम और बिजली विभाग का है. इनमें से अधिकांश का उद्देश्य कानून का पालन करवाना नहीं बल्कि कैसे कानून तोड़कर पैसे देकर कुछ भी किया जा सकता है,यह बताना होता है. पुलिस का मूक दर्शक बने रहना ही भ्रष्टाचार में उसकी संलिप्तता का सबसे बड़ा प्रमाण होता है, जो इस मामले में भी है.      

इतनी बड़ी संख्या में फर्जी आधार कार्ड बन जाना राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर ख़तरा है लेकिन इसकी कोई जांच भी शुरू नहीं हुई. सरकारी अधिकारी गंभीर मामलों की किस तरह अनदेखी  करते हैं इसका उदहारण हैं, कुछ संविदा कर्मचारियों की बर्खास्तगी और कुछ असामाजिक तत्वों की गिरफ्तारी, जिन्हें भी उनके संरक्षक शीघ्र ही जमानत दिलवा देंगे. इतनी बड़ी संख्या में अवैध झुग्गी झोपड़ियां बिना उच्च स्तरीय संरक्षण  के संभव नहीं है लेकिन आज तक किसी भी बड़े अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही होना तो दूर स्पष्टीकरण भी नहीं लिया गया है. क्या यह संभव है कि सम्बंधित अधिकारियों ने, जो लखनऊ में ही रहते हैं, कभी आते जाते  बांग्लादेशियों और रोहिंगयाओं की इन झुग्गी झोपड़ियों को नहीं देखा होगा.

लखनऊ शहर के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बसी  बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं की अवैध बस्तियों, और उनको दी जा रही सुविधाओं के खुलासे के बाद बुलडोजर बाबा के नाम से विख्यात योगी  की छवि को बहुत धक्का लगा है. पूरे देश में उनके प्रशंसक और समर्थक बेहद मायूस हैं जो उन्हें मोदी के बाद देश का प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि जब लखनऊ को भी बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं ने घेर रखा है, तो फिर दिल्ली की ऐसी स्थिति के लिए केजरीवाल को दोष कैसे दिया जा सकता है. भारत में यही स्थिति आज हर बड़े शहर की है.  

 यद्यपि मामला सुर्खियों में आने के बाद योगी ने सख्त रुख अपनाया और अधिकारियों को कार्रवाई करनी पड़ी लेकिन की गई कार्रवाई खाना पूर्ति या दिखावे के लिए ही की गई लगती है. उन जगहों को तो खाली करवा लिया गया है जहाँ झुग्गी झोपड़ियां डालकर बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं को बसाया गया था लेकिन यक्ष प्रश्न है कि यहाँ से निकलकर ये बांग्लादेशी और रोहिंग्या कहाँ गए. स्वाभाविक है कि ये सब  म्यांमार या बांग्लादेश तो  नहीं लौट  जाएंगे.

जिन्हें विस्थापित किया गया है, उन्हें सर्दी के इस मौसम में बेसहारा न छोड़ा जाय, और उन्हें कहीं अन्यत्र बसाया जाय” मुख्यमंत्री योगी की  इस सहानभूति पूर्ण बयान का भी शातिर और भ्रष्ट सरकारी तंत्र अवश्य दुरूपयोग करेगा और इन सभी को  एक जगह से हटा कर दूसरी जगह बसा देगा. शायद योगी जी से यह बात छिपाई गयी है कि इनमे बड़ी संख्या बंगलादेशियों  और रोहिंगयाओं की है जिन्होंने अपना काम धंधा भी यहीं पर फैला रखा है. नगर निगम का सफाई ठेकेदार जिन लोगों से शहर की सफाई कराता है, उनमें ज्यादातर बांग्लादेशी और रोहिंग्या ही है, यह बात अधिकारियों को क्यों दिखाई नहीं पड़ती. कमोबेश यही हाल अन्य विभागों का भी है जहाँ ठेकेदारी व्यवस्था है. घरो से कूड़ा इकट्ठा करने वाले भी यही हैं.

आज हर गली मोहल्ले में ड्रग बड़ी आसानी से उपलब्ध हो रही है, उसका बहुत बड़ा कारण भी ये अवैध झुग्गी झोपड़ियां ही है जहाँ से इस पूरे ड्रग व्यापार का संचालन होता है. चोरी, छेड़खानी, अवैध शराब व ड्रग कारोबार सहित अन्य आपराधिक वारदातों में बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं का हाथ होता है, जो कानून और व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी चुनौती है. उत्तर प्रदेश में कुछ बांग्लादेशियों को ह्यूमन ट्रैफिकिंग के मामले में भी पकड़ा गया था। कई बांग्लादेशियों द्वारा जिस्मफरोशी का कारोबार करने की भी बात सामने आ चुकी है। कई बड़ी चोरियों और हत्याओं में भी इन्हें पकड़ा जा चुका  है. विडम्बना देखिये कि जो अपराधी और घुसपैठिये  पुलिस राडार पर होने चाहिए थे, वे पुलिस संरक्षण में ही फलफूल रहे हैं.

योगी जी से मैं व्यक्तिगत रूप परिचित हूँ इसलिए विश्वाश है कि अगर उन्हें मामले की सच्चाई पता होती तो उनका रुख बेहद कड़ा होता और अब तक कई बड़े अधिकारियों के विरुद्ध भी सख्त कार्रवाई हो चुकी होती. योगी जी के पहले कार्यकाल में कई शातिर अधिकारियों और राजनेताओं के कारण ही सत्ता उनके हाथ से फिसलते फिसलते बची. दूसरे कार्यकाल में अधिकारियों ने उनके चारों तरफ़ ऐसी मजबूत घेराबंदी कर रखी है कि वास्तविक स्थित उनके पास तक या तो पहुँच ही नहीं पाती या बहुत देर से केवल आधी अधूरी जानकारी ही पहुंचती है.

अतीत में योगीजी को जिन कार्यों से पूरे देश में वाह वाही मिली थी, उनमें आज कई बेपटरी हो गए हैं. इनमें एक था मस्जिदों से लाउड स्पीकर हटाना. अधिकारियों ने आवाज कम करने के नाम पर इस पूरे कार्यक्रम की हवा निकाल दी और केवल आंकड़ों की बाजीगरी  करके उत्तर प्रदेश के इस कार्य को सुर्खियों में रखा, अब सब कुछ पहले जैसा है. एक दूसरा कार्य था मदरसों का सर्वे जिसकी पूरे देश में बड़ी चर्चा हो रही थी लेकिन अधिकारियों और उनके कुछ विश्वासपात्रों ने इसे भी टांय टांय फिस्स कर दिया. 

मुश्किल यह है कि योगी के शुभचिन्तक असलियत लेकर उनके पास पहुँच भी नहीं पाते हैं जो योगी की भविष्य की राजनैतिक यात्रा के लिए शुभ नहीं है. ऐसा लगता है जैसे पहले योगी आदित्यनाथ का व्यक्तित्व, मुख्यमंत्री के पद पर भारी पड़ता था, अब मुख्यमंत्री का पद योगी आदित्यनाथ के व्यतित्व पर हाबी होने लगा है.  

आज जब देशवासी प्रधानमंत्री के रूप में उनमें बड़ी संभावना देखते  हैं, योगी का दायित्व बनता है उन्हें अपने समर्थकों और प्रशंसकों को निराश नहीं करना चाहिए.   

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


 


सोमवार, 19 दिसंबर 2022

न्याय पर कोलीजियम का कहर

 

न्याय पर कोलीजियम का कहर 

इस बिषय को विस्तार से समझने के लिए You Tube पर तीन विडियो देखना उपयोगी होगा 


कोलेजियम  पार्ट 1




कोलेजियम पार्ट 2




कोलेजियम पार्ट 3  


कोलीजियम व्यवस्था को लेकर आजकल सरकार और सर्वोच्च न्यायालय आमने सामने हैं. पूरे मामले से ऐसा भ्रम  उत्पन्न होता है कि जैसे सर्वोच्च न्यायालय न्यायपालिका को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है और मोदी सरकार न्यायपालिका को अपनी मुट्ठी में करने के लिए  कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त करना चाहती है. दरअसल यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति कोई प्रक्रिया नहीं दी गई है ओर मोदी सरकार द्वारा बनाए गए कानून को 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था.

कोजियम व्यवस्था मजबूरी में न्यायपालिका को राजनैतिक दबाव से मुक्त करने के लिए 28 अक्तूबर 1998 को तीन न्यायाधीशों के एक फैसले द्वारा कोलेजियम व्यवस्था यह प्रभाव में लाई गई थी. इस व्यवस्था को स्वयं न्यायाधीशों ने लागू किया और इसका संविधान  से कोई लेना देना नहीं है। उस समय  इस व्यवस्था को लागू करना साहसिक कदम था और  बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इसकी सराहना की गयी थी. मुझे लगता है कि राजनीतिक दबाव और दखलंदाजी से त्रस्त सर्वोच्च न्यायलय ने अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए यह कदम बेहद मजबूरी में उठाया था और उस समय यह आवश्यक भी था क्योंकि तब तक सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु कोई कानून नहीं बना सकी थी और मनमाने ढंग से न्यायाधीस्शों की नियुक्ति के जा रही थी. अब परस्थितियाँ बदल गयी है, और इस व्यवस्था में अनेक स्वार्थ और भाई भतीजावाद हावी हो गया है किन्तु यह व्यवस्था नहीं बदल रही. न्यायिक स्वतंत्रता की आड़ मे पिछले 24 सालों से इस व्यवस्था के अंतर्गत उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के लिए  न्यायाधीशों को नियुक्त किया जा रहा है।

 यह जान लेना आवश्यक है कि आजादी के 50 वर्ष बाद  सर्वोच्च न्यायालय को कोलेजियम व्यवस्था लाने की क्या मजबूरी थी? उस समय तक कुछ  वर्षों कुछ छोड़कर ज्यादातर समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही. इस पूरे कालखंड में सर्वोच्च न्यायालय सामान्यतय: केंद्र सरकार के दबाव में काम करता रहा, उसका कारण भी केंद्र सरकार द्वारा न्यायाधीशों की मनमानी नियुक्ति और उसके प्रसाद स्वरूप राजनैतिक निर्णय प्राप्त करना था.   आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि केंद्र में सत्तारूढ़ कोई राजनीतिक दल अपने किसी राजनीतिक कार्यकर्त्ता को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना सकता है, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा किया. इंदिरा गाँधी का शासनकाल तो इस मामले में बहुत  कुख्यात हैं, जो कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा.  

एक थे के एस हेगड़े, जो कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य थे, जिन्हें कांग्रेस ने त्यागपत्र दिलवाकर  मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया. प्रोन्नति पाकर वे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी बन गए. इंदिरा गांधी द्वारा मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने में उनकी वरिष्ठता की अनदेखी किए जाने से नाराज होकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था  और कांग्रेस उम्मीदवार के विरुद्ध बैंगलोर से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत कर लोक सभा पहुँच गए. यानी एक सांसद उच्च न्यायलय और सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बन गया और फिर चुनाव जीत कर संसद पहुंच गया. 

कांग्रेस के एक अन्य राज्यसभा सदस्य थे बहरुल इस्लाम जो १९५६ से कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे, को इंदिरा गाँधी ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया था, जहाँ वह मुख्य न्यायाधीश भी बनाये गए. उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्ति होने के बाद श्रीमती गाँधी ने  उन्हें पुनः सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया, जो बहुत असामान्य था.  उन्होंने सहकारी बैंक घोटाले में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को बरी कर दिया था.  सर्वोच्च न्यायालय से त्यागपत्र दिलवाकर श्रीमती गांधी  ने उन्हें फिर राज्यसभा का सदस्य बना दिया ।

राजनीति और न्यायपालिका के  इतने बड़े  घालमेल की कोई भी तारीफ नहीं कर सकता.  सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राज्यसभा भेजने, राज्यपाल और उप राष्ट्रपति बनाने के अलावा आयोगों का अध्यक्ष बनाने का खेल कांग्रेस ने बहुत ही बेईमानी और अमर्यादित ढंग से खेला, फिर भी न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा  जैसे न्यायाधीश भी इसी व्यवस्था  की देन हैं, जिन्होंने सभी प्रलोभनों और दबावों को दरकिनार करते हुए इंदिरा के विरुद्ध फैसला दिया जिससे उनकी संसद सदस्यता ख़त्म हो गयी.  

मुम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस अभय थिप्से  नें सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में गुजरात के भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा किया था और मालेगांव विस्फोट मामले में कहा था कि ये विस्फोट हिंदू संगठनों द्वारा किया गया है। उनके फैसले में कांग्रेस की राजनीति की झलक थी. २०१८ उन्होंने त्यागपत्र देकर कांग्रेस पार्टी ज्वॉइन की, और नीरव मोदी के मामले में  ब्रिटेन की अदालत को झूठा हलफनामा भी दिया जिसे ब्रिटिश अदालत ने पकड़ लिया और विश्व भर में  भारतीय न्यायपालिका की किरकिरी हुई.

मुझे लगता है कि कोलेजियम व्यवस्था शायद इसी राजनीतिक घालमेल को दूर करने के लिए बेहद मजबूरी में लाई गई होंगी, जिसमें  कालांतर में स्वार्थ बस कई विसंगतिया आ गई.   न्यायाधीशों की नियुक्ति का यह कोलेजियम पैनल सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में चलाया जाता है जिसमें चार  अन्य न्यायाधीश सदस्य होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय  और उच्च न्यायालयों के सभी न्यायाधीश अपनी अपनी सिफारिशें कोलेजियम को भेजते हैं, जहाँ उन पर विचार करके अंतिम निर्णय लिया जाता है और उसे केंद्र सरकार को नियुक्ति के लिए भेज दिया जाता है।

स्पष्ट है कि सभी न्यायाधीश अपने कार्यकाल में संपर्कों के आधार पर किसी न किसी की नियुक्ति करवा लेते हैं. न्यायाधीशों की नियुक्ति की इस व्यवस्था में सरकार की कोई भूमिका नहीं है, जो  भेजे गए नामों को पुनर्विचार के लिए सर्वोच्च न्यायालय को वापस तो कर सकती है लेकिन यदि सर्वोच्च न्यायालय फिर से उन्ही नामों  की सिफारिश करता है तो सरकार को उनकी नियुक्ति करना बाध्यकारी होता है। इसलिए सरकार कई विवादित नामों को लंबे समय तक लटकाए रहती है, और यही सर्वोच्च न्यायालय से अनबन का मुख्य कारण है.

यदि उच्च न्यायालयों  और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का रिकॉर्ड खंगाला जाए तो पता चलता है  कि कुछ परिवारों के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी न्यायाधीश बनते जा रहे हैं. मुख्य न्यायाधीश का बेटा भी मुख्य न्यायाधीश बन जाता है. एक कहावत प्रचलन में है कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कोई भी ऐसा न्यायाधीश नहीं होता है जो बिना किसी जस्टिस अंकल के नियुक्त हुआ हो. भाई भतीजावाद की ऐसी बीमारी तो शायद ही किसी सरकारी विभाग में हो. इस सब के बाद भी  उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में नैतिकता कम हठधर्मी ज्यादा दिखाई पड़ती हैं. कई न्यायाधीश अपनी ऊट पटांग टिप्पणियों और वक्तव्यों के लिए कुख्यात रहते हैं. ऐसा तभी हो संभव है जब उन्हें लगता हो कि उनके ऊपर कोई भी नहीं, जो लोकतंत्र के लिए स्वयं गंभीर  खतरा है. ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि इतनी लाभदायक कोलेजियम व्यवस्था को सर्वोच्च न्यायालय कैसे छोड़ सकता है जिसमें हर न्यायाधीश का लाभ होता हो.  

पिछले कुछ समय से कानून मंत्री किरण रिजिजू कॉलेजियम व्यवस्था पर अपनी बेबाक टिप्पणियां कर रहे हैं, यद्यपि उसमें  कहीं भी सर्वोच्च न्यायालय के प्रति असम्मान, अवज्ञा या अवमानना परलक्षित नहीं होती फिर भी उनकी टिप्पणियों से सर्वोच्च न्यायालय बहुत  तिलमिलाया हुआ है.

इसमें कोई संदेह नहीं की कोलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत एक न्यायाधीश ही दूसरे न्यायाधीश की नियुक्ति करता है, जो दुनिया के किसी भी देश में नहीं होता. इस प्रक्रिया में  पारदर्शिता का पूरी तरह से अभाव है. तकनीकी आधार पर देखा जाए तो इन न्यायाधीशों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, कॉलेजियम केवल चयन करके नाम भेजता है. प्रश्न है की जब सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया पर एकाधिकार  है, और  वह इतना सक्षम है तो फिर सीधे इन चयनित न्यायाधीशों की नियुक्ति क्यों नहीं कर देता, केंद्र सरकार को नाम भेजने की क्या आवश्यक्ता? इसका सीधा सा मतलब है की नियुक्ति तो  केंद्र सरकार ही करती है किन्तु चयन का एकाधिकार सर्वोच्च न्यायालय ने जबरन अपने पास रखा है.

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का इससे बड़ा दुरुपयोग और कुछ नहीं हो सकता. सर्वोच्च न्यायालय, न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर संसद से ऊपर नहीं हो सकता. लोकतंत्र मेँ कानून बनाने का और संवैधानिक पदों को भरने का अधिकार संसद  के पास है. न्यायाधीशों के वेतन भत्ते ओर सेवा नियमावली आदि का निर्धारण संसद करती है. इससे कोई भ्रम नहीं है कि न्यायाधीश भी अन्य केन्द्रीय कर्मचारियों के सामान ही सरकारी कर्मचारी हैं. चूंकि  सभी संवैधानिक पदों पर नियुक्तियाँ सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं,  जिसमें न्यायाधीश भी शामिल है,  स्पष्ट है कि कोलेजियम  व्यवस्था न तो संवैधानिक है और न हीं संवैधानिक पदों पर नियुक्ति की चयन प्रक्रिया के अनुरूप है.

न्यायपालिका पर राजनीतिक स्वार्थ हावी न हो, और सर्वोच्च न्यायालय संविधान और कानून के रक्षक की भूमिका निभा सके, इसके लिए आवश्यक है कि कोई न कोई ऐसा फॉर्मूला बनाया जाए जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी निष्पक्ष और भाई भतीजावाद से मुक्त बनाया जा सके. इसके लिए जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय और सरकार मिल बैठकर ऐसी किसी व्यवस्था पर सहमत हों.

-    शिव मिश्रा

 

 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

खड्गे नहीं गांधी परिवार की जीत

 






कांग्रेस अध्यक्ष : कौन जीता,खड्गे या गांधी परिवार?

आखिरकार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए लंबे समय से चल रहे उहापोह ओर उठापटक का पटाक्षेप हो गया और मल्लिकार्जुन खड़गे के रूप में कांग्रेस को एक नया अध्यक्ष मिल गया जिसके लिए निर्वाचन की औपचारिकता भी पूरी की गई लेकिन यह सब कुछ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार ही हुआ इसलिए खड़गे जीते या शशि थरूर हारे, कहना बिल्कुल बेमानी और अर्धसत्य है. पूर्ण सत्य यह है की यह गाँधी परिवार की जीत है और सोनिया गाँधी की जीत है, अध्यक्ष खड़गे हैं या कोई और होता वह पूरी तरह से गाँधी परिवार की कठपुतली के रूप में कार्य करेगा और उसकी इच्छा के विपरीत कुछ भी करने की न तो उसमें सामर्थ्य है और न हिम्मत. सीताराम केशरी के कार्यकाल को याद करते हुए मल्लिकार्जुन खड़गे समय समय पर स्वयं सहमें सहमें रहेंगे. इसलिए गैर गाँधी अध्यक्ष बन जाने के बाद भी कांग्रेस में संगठनात्मक या नीतिगत कोई आशातीत परिवर्तन हो सकेगा इसकी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.

2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गाँधी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था और उन्होंने अच्छा व्यक्ति की थी कि अब कांग्रेस का अध्यक्ष कोई बाहर का व्यक्ति बनें लेकिन लंबे समय तक इस पर फैसला नहीं किया जा सका. सोनिया गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष का पद किसी बाहरी व्यक्ति को देने की इच्छुक नहीं थी इसलिए कांग्रेस वर्किंग कमेटी की इच्छा को ढाल बनाकर वह स्वयं कार्यकारी अध्यक्ष बन गई और लंबे समय से अध्यक्ष पद के चुनाव इस आशा से टाल दिए गए थे कि इस बीच राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनने के लिए मनाया जा सके. इस बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने जिन्हें जी 23 की संज्ञा दी गई थी, सोनिया गाँधी को सार्वजनिक रूप से पत्र लिखकर कांग्रेस में तात्कालिक सुधार की आवश्यकता पर बल दिया जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष पद परिवार से बाहर किसी व्यक्ति को दिया जाना भी एक बड़ा मुद्दा था. सोनिया गाँधी पुत्रमोह के कारण लंबे समय तक असमंजस में रही और कपिल सिब्बल गुलाम, नबी आजाद जैसे बड़े नेता भी पार्टी छोड़ते चले गए.

कई प्रदेश कांग्रेस समितियों ने प्रस्ताव पारित कर राहुल गाँधी से अनुरोध किया कि वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद स्वीकार करें, इससे राहुल गाँधी अध्यक्ष भले ही न बने हो लेकिन गाँधी परिवार के प्रति पार्टी में निष्ठा और निर्भरता का आकलन जरूर हो गया. इसके बाद मधु सूदन मिस्त्री, जो गाँधी परिवार के बेहद करीबी हैं, को चुनाव अधिकारी  बनाकर अध्यक्ष पद के निर्वाचन की अधिसूचना जारी कर दी गई. जिसतरह से अध्यक्ष के निर्वाचन मंडल के लिए डेलीगेट बनाए इस पार्टी के ही कई बड़े नेताओं ने सवालिया निशान लगाए. गाँधी परिवार किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में था जिसकी गाँधी परिवार के प्रति निष्ठा संदेह से परे हो. इससे यह संदेश चला गया की अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने वाला कोई भी व्यक्ति गाँधी परिवार के बिना अनुमति के चुनाव नहीं लड़ सकता है. इसीलिए शशि थरूर ने भी चुनाव लड़ने के लिए सोनिया गाँधी से अनुमति मांगी और उन्हें अनुमति दे दी गई.

सोनिया गाँधी ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को परिवार के प्रति उनकी निष्ठा के आधार पर अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का मन बनाया जिसे  गाँधी परिवार और अशोक गहलोत दोनों ने ही सार्वजनिक कर दिया, किंतु राजस्थान में मुख्यमंत्री पद को लेकर हुए घमासान ने कांग्रेस और गाँधी परिवार की इज्जत तार तार कर दी. गहलोत अध्यक्ष तो बनना चाहते थे लेकिन मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ना चाहते थे. सोनिया से बातचीत के बाद वह मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए तैयार हो गए लेकिन वह गाँधी परिवार के सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाए जाने की फैसले से सहमत नहीं थे और इसलिए उन्होंने बगावत कर दी. कांग्रेस के ज्यादातर विधायक गहलोत खेमे में थे जिन्होंने सामूहिक इस्तीफा देकर कांग्रेस हाई कमान पर दबाव बनाया. सोनिया के अनुरोध के बाद भी गहलोत ने विधायको को समझाने बुझाने का प्रयास नहीं किया.  गहलोत के ऐन वक्त पर यू टर्न के कारण गाँधी परिवार ने अध्यक्ष पद के लिए किसी अन्य व्यक्ति को चुनाव लड़ाने का फैसला किया और शीघ्रता से  कई नामों पर विचार किया गया लेकिन विडंबना देखिए कि गाँधी परिवार अंबिका सोनी, केसी वेणुगोपाल और मल्लिकार्जुन खडगे के अलावा किसी अन्य नाम पर विचार भी नहीं कर सका और अंतिम रूप से मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम नामांकन की तिथि से कुछ समय पहले ही किया गया.

इस पूरी प्रक्रिया से दो बातें पूरी तरह से स्पष्ट हो गई कि एक तो शशि थरूर  गाँधी परिवार के विश्वास पात्र नहीं है दूसरा कि  बिना गाँधी परिवार के अशिर्वाद के कोई भी व्यक्ति अध्यक्ष नहीं बन सकता. गाँधी परिवार के संकेत के बाद प्रदेश कांग्रेस समितियों ने खड़गे के पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि  उन्हें के कुल 10,000 मतों में से 7897 मत मिले जबकि शशि थरूर को 1072 मत मिले. गाँधी परिवार का प्रभाव इस बात से ही समझा जा सकता है कि तुलनात्मक रूप से खड़गे की अपेक्षा शशि थरूर पार्टी में कहीं ज्यादा लोकप्रिय और स्वीकार्य नेता है. चुनाव के बीच ही शशि थरूर ने चुनाव प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कहा था कि प्रादेशिक कांग्रेस समितियाँ खड्गे को गांधी परिवार का आधिकारिक उम्मीदवार बता रहीं हैं और इस तरह पक्षपात होने की संभावना है. कई प्रदेशों में शशि थरूर को पोलिंग एजेंट भी नहीं मिल पाए थे.  शशि थरूर के चुनाव प्रतिनिधि सलमान सोज ने मतदान में धांधली का आरोप लगाया और चुनाव अधिकारी मधुसूदम मिस्त्री को लिखित आपत्ति दर्ज कराई. इस सबके बीच काफी नाटकीय घटनाक्रम में  कांग्रेस की अध्यक्ष का चुनाव सम्पन्न हो गया और करीब 24 साल बाद कांग्रेस पार्टी की कमान गैर-गांधी परिवार के मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ में आ गई है. ८० वर्ष की उम्र के इस पड़ाव पर सीताराम केसरी का भूत सपने में भी खड्गे को डराता रहेगा और वह चाहते हुए गांधी परिवार की चाहत से अलग कुछ कर पाने का साहस नहीं जुटा पायेगे.

यद्दपि खड्गे अनुसूचित जाति से हैं और कर्णाटक  से हैं और हो सकता है कि इसका कुछ लाभ  कर्णाटक चुनाव में कांग्रेस को मिले लेकिन उत्तर भारत और महाराष्ट्र में इसका अधिक असर पड़ने की संभावना नहीं है. इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर इसका कोई फायदा कांग्रेस को नहीं मिलेगा. इसके उलट उनके बौद्ध धर्मावलम्बी होने  और हिन्दू धर्म के विरुद्ध अक्सर बयान देने और हिन्दी भाषा पर अच्छी पकड़ न होने के कारण खड्गे कांग्रेस का लगातार कुछ न कुछ नुकशान करते रहेंगे लेकिन गांधी परिवार ने चुनावी फायदे से ज्यादा परिवारिक निष्ठा को महत्त्व दिया. पारिवारिक वफादारी के कारण  ही लोकसभा और राज्य सभा में कांग्रेस नेता का पद भी क्रमश: अधीर रंजन चौधरी और खड्गे को दिया गया था और यह बताने की आवश्यकता नही इससे कांग्रेस ने क्या खोया और क्या पाया. 

कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव और राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के कारण  हिमाचल और गुजरात में कांग्रेस अपना चुनाव प्रचार भी शुरू नहीं कर सकी है. जहाँ कई नेता राहुल की इस पदयात्रा को बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रहें हैं वही पार्टी  के शुभचिंतकों ने राहुल से यात्रा बीच में रोक कर गुजरात और हिमांचल चुनावों में प्रचार करने का अनुरोध किया पर शायद कांग्रेस ने इन दोनों राज्यों में हारने के पकी इरादे के साथ पूरी तैयारी कर ली हैं. इसे भांप कर दोनों राज्यों में बड़ी संख्या में नेता कांग्रेस  छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए हैं. बचा खुचा काम आम आदमी पार्टी कर रही है जो कांग्रेस के वोटों में बड़ी संख्या में सेंध लगा कर कांग्रेस की बुरी हार सुनिश्चित कर देगी. इसलिए नए कांग्रेस अध्यक्ष का प्रथम स्वागत  गुजरात और हिमाचल की हार से होगा. अब जब मल्लिकार्जुन खड्गे  'बकरीद में बच गए हैं  तो मुहर्रम में जरूर नाचेंगे”.

किसी गैर गांधी के कांग्रेस का अध्यक्ष बन जाने से राहुल और कांग्रेस को तात्कालिक भावनात्मक राहत भले ही मिल जाए इससे पार्टी का भला हो पायेगा इसमें  संदेह हैं. शशि थरूर को गांधी परिवार की इच्छा के विरुद्ध लगभग २०% मत मिलना भे गांधी परिवार के लिए बहुत बड़ा  सन्देश है कि पार्टी लम्बे समय तक गांधी परिवार की पिछलग्गू  बने नहीं रह सक्ती है  है.

-    शिव मिश्रा           

-    शिव मिश्रा