विनय गुप्ता किदवई नगर के अपने छोटे से घर की की बालकनी में बैठे हुए थे. रोज सुबह यहां बैठकर चाय पीते हुए समाचार पत्र पढ़ना उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था, पर न जाने क्यों आज की सुबह एकदम अलग थी. चाय तिपाई पर रखी ठंडी हो चुकी थी. कुर्सी पर बैठे हुए उनके हाथों में समाचार पत्र ज्यों का त्यों रखा था. सामने हनुमान मंदिर की तरफ से आने वाली सड़क पर चलते हुए वाहन और लोग रोज की तरह आ जा रहे थे.सूर्य की रोशनी काफी फैल चुकी थी लेकिन फिर भी सुबह कुछ अलसाई सी थी , लेकिन उसकी आँखे जैसे अनंत में टंकी हुई थी. निष्क्रिय सा वह न जाने कबसे इसी एक ही मुद्रा में बैठा था, जिसका उसे शायद अहसास भी नहीं था.
जब उसकी तंद्रा टूटी तो उसे लगा कि कानपुर का मौसम अचानक बदल गया है. बरसात हो चुकी है, चारों तरफ पानी ही पानी है. सड़कें भीगी है, पेड़ पौधे भीगे हैं और आसपास पानी पानी ही दिख रहा है. सब कुछ पानी से तरबतर है. कुछ भी साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था. उसे आश्चर्य हुआ कि कानपुर के मौसम में इतना परिवर्तन अचानक तो नहीं होता. नाक पर नीचे खिसक गए अपने चश्मे को ऊपर खिसकाते हुए उसने ठीक से देखने की कोशिश की लेकिन फिर भी कुछ साफ दिखाई नहीं दिया तो उसने साफ करने के लिए चश्मा उतारा तो दिखाई पड़ा कि बाहर तो सब कुछ ठीक है, पानी उसके चश्मे में है. शायद उसके अंतर्मन में उमड़ते घुमड़ते हुए बादल आंखों के रास्ते बरस कर चश्मे को पूरी तरह से तरबतर कर चुके हैं . इसीलिए उसको सब कुछ भीगा भीगा सा और अस्तव्यस्त दिख रहा है. उसने चश्मा भी पोंछा और आँखे भी और जल्दी से दाएं बाएं देखा कि किसी ने उसकी भीगी आँखे तो नहीं देंखी. फिर उसे याद आया कि घर में तो उसके आलावा कोई है ही नहीं, वह तो अकेला है.
यही पितृसत्ता है जो पुरुष को रोने नहीं देती और भूले भटके आंसू भी आ जाय तो छिपाना पड़ता है कि कोई देख न पाय. पुरुष चाहे पुत्र हो, पति हो या पिता हो, उसे बचपन से ही इस मानसिकता का बोध कराया जाता है और मजबूत होने का आभास देते रहने का अभ्यास कराया जाता है. जैसे-जैसे जीवन एक पुत्र, पति और पिता की ओर अग्रसर होता है , पितृसत्ता का क्रमिक विकास होता रहता है. दुखद से दुखद, विषम से विषम परिस्थितियों में भी न रोना और न आंसू बहाना उसके मजबूत दिखने का आधार बन जाता है. पुरुष अंदर से मजबूत भले ही न हो लेकिन मजबूत दिखना उसकी मजबूरी है और शायद जिम्मेदारी भी क्योंकि अगर पितृ ही रोएगा तो और लोग क्या करेंगे? उनको ढांढस कौन बंधायेगा ? यही कारण है कि कभी किसी ने सामान्यता किसी पुरुष को रोते बिलखते हुए नहीं देखा होगा.
पितृसत्ता की यही मजबूती और स्वभाव की इतनी दृढ़ता, भले ही दिखावटी हो, भरपूर संबल देती है मातृ सत्ता को और इसीलिए मां अपनी करुणा में निर्बाध रूप से बह सकती है या स्वयं ममता के सागर में स्वछंद हिलोरे ले सकती है. लेकिन जब कभी करुणा के इन तारों को कोई उसके अपने अस्वाभाविक रूप से झंकृत कर देते हैं तो मां के आंसू निकल आते हैं . मां रोती भी है, बिलखती भी है और फिर आंचल से स्वयं ही आंसू पोंछ लेती है और जैसे यह सब कुछ स्वाभाविक रूप से खुद सामान्य करने का प्रयास होता है. लेकिन पिता तो पिता है, रो नहीं सकता, आंसू नहीं बहा सकता. कभी कभी बांध में अनायास अत्यधिक पानी आता है और बाँध के ऊपर से निकलने लगता तो यह बहुत ही असामान्य होता है. बाँध की ऊंचाई बढ़ाते जाना ही विकल्प होता है जो उचित भले ही न हो लेकिन मजबूरी है. बाँध चाहे कितने ही वैज्ञानिक तरीके से बने हों, ऊंचाई कितनी भी अधिक क्यों न हो, नमी तो फिर भी आ ही जाती है, सेफ्टी वाल्व से कभी कभी बूंदे तो टपकती ही हैं. यदि पानी बाँध तोड़ कर निकलने लगे तो परस्थितियाँ बहुत बिषम और असाधारण ही होती है.
विनय सोचने लगा कि अतीत में वह कब ऐसे आंसुओं के सैलाब में डूबा था ? शायद... कोई 15 साल पहले की बात होगी जब वह अपने बड़े बेटे को इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा दिलाने दिल्ली ले गया था. बेटे को परीक्षा केंद्र छोड़ आने के बाद पहाड़गंज के एक छोटे से होटल के एक छोटे से कमरे में खुद बंद कर बहुत आंसू बहाए थे . यह वह समय था जब कुछ समय पहले ही उसे लीवर कैंसर होने का पता चला था, काफी देर हो चुकी थी और अब उसके पास समय बहुत कम बचा था. उसे तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि भगवान उसके साथ ऐसा भी कर सकता है और इसी विश्वास के साथ एक से दूसरे और तीसरे डॉक्टर को दिखाता रहा कि शायद कोई कह दे कि तुम्हे कुछ भी नहीं है, लेकिन सब की राय एक जैसी थी कि "वह तेजी से बढ़ने वाले लिवर कैंसर से पीड़ित है और जितनी जल्दी हो सके उसे ऑपरेशन करवा लेना चाहिए". वह इसके लिए मानसिक रूप से बिलकुल तैयार नहीं था. उसे मालूम था कि यदि ऑपरेशन करवाया गया तो उसके बाद कैंसर के इलाज की एक लंबी प्रक्रिया है. जितने भी आर्थिक संसाधन उसके पास हैं सब उसके आसपास ही सिमट जाएंगे. फिर उसके बच्चों का क्या होगा ? उसकी पत्नी का क्या होगा ? वह आर्थिक रूप से बहुत समृद्धि नहीं है. उसकी बेचैनी का कारण था उसका अपने घर का इतिहास जो एक बार फिर दोहराने के कगार पर खड़ा था . बचपन में ही उसके पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी. कितनी मुश्किल और तंगहाली से उसकी मां ने उसे पढाया लिखाया. दूसरों के घरों में झाड़ू पोंछा और चौका वर्तन का काम किया. खुद उसने भी छोटे-मोटे काम किए और स्नातक के बाद नौकरी शुरू कर दी. प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का समय भी नहीं मिला. किसी इंजीनियरिंग और मेडिकल कोर्स करने के लिए सोचना भी मुश्किल था. शायद उसकी मां ने जो तपस्या की थी उसी का ये सुखद परिणाम था कि उसे नौकरी मिल गयी थी. वह सोचता था कि अब सब अच्छा ही होगा और शायद सदा सर्वदा के लिए उसका परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर आ जाएगा . फिर पता नहीं भगवान क्यों इतना निष्ठुर है ? बार-बार उसकी परीक्षा क्यों हो रही है ?
इस समय उसका बेटा १२वीं में पढ़ रहा था और बेटी नवी क्लास में. वह यह सोच कर परेशान हो रहा था कि इस समय यदि उसे कुछ हो जाता है तो उसका पूरा आशियाना बिखर जायेगा. उसका अपना मकान नहीं और नौकरी में पेंशन नहीं, आमदनी का और कोई साधन नहीं. ऐसी स्थिति बेटे की पढ़ाई तो छूटेगी ही, घर चलने के लिए उसे छोटे-मोटे काम करने पड़ेंगे. बेटी भी पता नहीं क्या करेगी? उसे भी कुछ ना कुछ करना पड़ेगा और पत्नी को भी, हो सकता है कुछ छोटा मोटा काम करना पड़े. ये सोच कर ही उसका कलेजा मुहं को आ रहा है. जिन परस्थितियों से निकलने के लिए उसने लंबा संघर्ष किया है, एक बार फिर वही परस्थितियाँ, समय का वही चक्र फिर उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है.
वह ईश्वर से चाहता था कि उसे कम से कम से कम से 5 वर्ष का समय दे दे तो शायद उसका परिवार बर्बादी से बच जाय. 5 साल का समय इसलिए कि बेटा इंजीनियरिंग पूरी करके किसी नौकरी में आ जाएगा और अगर उसने मां और बहिन को सहायता दी तो बेटी भी पढ़ लिख जाएगी औए कोई नौकरी कर सकेगी . तब शायद घर परिवार चलने में बहुत मुश्किल नहीं आएगी. पूरे जीवन में उसने कभी किसी का अहित नहीं किया. भरपूर मेहनत की और भगवान पर पूरी आस्था रखी और सिर्फ इसलिए कि अच्छे व्यक्ति को अच्छे कार्य करने चाहिए, वैसा ही करने की कोशिश करता रहा. वह हारना नहीं चाहता था इसलिए आखिरी दम तक कोशिश करना चाहता था.
वह लगातार एक के बाद एक डॉक्टर को दिखाता रहा लेकिन लखनऊ में संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में एक डॉक्टर ने उसकी फ़ाइल् में एक ही मर्ज के लिए अनेकों डाक्टर्स की की रिपोर्ट और एक ही निष्कर्ष देख कर कहा कि “क्या तुम किसी ऐसे डॉक्टर को खोज रहे हो जो यह कह दे कि तुम्हे कुछ नहीं हुआ है ? और तुम्हे कुछ नहीं होगा ? तो वह मैं नहीं हूँ. तुम्हे कैंसर है और अच्छा तो ये होगा कि तुम तुरंत ऑपरेशन करा लो लेकिन चूंकि तुम मामले को टाल रहे हो, यहाँ के बाद फिर कहीं किसी डॉक्टर के पास जाओगे तो मै इस पर पूर्ण विराम लगा देता हूँ . तुम अभी ऑपरेशन नहीं कराना चाहते हो तो मत कराओ. हफ्ते में एक बार अल्ट्रासाउंड करवाना होगा और वह एक ही पैथोलॉजी सेंटर में, और लीवर में कैंसर की गांठ का माप लेना होगा ताकि यह पता लग सके कि कैंसर की वृद्धि कितनी तेज है. अगर वृद्धि बहुत तेजी से हो रही है तो ऑपरेशन का निर्णय लेंगे, अन्यथा जब तक टाला जा सकता है टालते रहेंगे. आपरेशन के बाद भी ठीक होने की कोई गारंटी तो होती नहीं इसलिए थोडा रिस्क लेकर इन्तजार करना बुरा नहीं. जो दवायें लिखी हैं, लेते रहो, खान पान का ध्यान रखो. कभी कभी चमत्कार भी होतें हैं, उसका इन्तजार करो."
यह सुनकर उसे बहुत शांति मिली जैसे कि वह यही चाहता था और फिर वैसा ही किया. हर हफ्ते एक पैथोलॉजी में अल्ट्रा साउंड कराने का क्रम शुरू हो गया. घर में तो किसी को मालूम भी नहीं था कि उसे कैंसर की बीमारी है जैसे जैसे समय गुजर रहा था कैंसर की वृद्धि हो रही थी लेकिन जो सीमा उसे दी गयी थी उसमे अभी समय था. उसकी इच्छा अंतिम क्षण तक प्रतीक्षा करने की थी. इसी समय स्वामी रामदेव का योग प्रशिक्षण कार्यक्रम हुआ. उसने भी प्रशिक्षण शिविर में भाग लिया और जैसा कि स्वामी दावा करते थे कि योग से कैंसर भी ठीक हो जाता है. इस आशा से अनुलोम विलोम और कपालभाति से लेकर योग की जितनी भी क्रियाएं वह कर सकता था या करना उसके लिए संभव था, करना शुरू कर दिया.
उसे मालूम था के उसके पास समय बहुत कम है. इसलिए बच्चों की पढ़ाई और घर में पैसे की बचत करने और सारे कार्य समय पर पूरे करने का बहुत ही कठोर परियोजना प्रबंधन शुरू कर दिया ताकि सब कुछ जितना भी संभव हो समय से हो. बच्चों की पढ़ाई में छोटी मोटी त्रुटियों को भी बहुत गंभीरता से लेता था और कई बार न चाहते हुए डांटता भी था क्योंकि उसे लगता था कि थोड़ी सी असावधानी उसके पूरे प्रोजेक्ट का सत्यानाश कर देगी .
कुछ महीनो बाद पैथोलॉजी के डाक्टर ने हर सप्ताह के बजाय महीने में एक बार अल्ट्रासाउंड करवाना शुरू किया और एक साल बाद ये क्रम मासिक के स्थान पर त्रैमासिक हो गया . अल्ट्रासाउंड करने वाला डॉक्टर भी उसको बहुत दिलासा देता था कि अभी समय है चिंता की बात नहीं है. ऐसा लगता था कि जैसे ईश्वर उसे कुछ समय दे रहा है और फिर समय मिलता गया. इस बीच बड़े बेटे की इंजीनियरिंग पूरी हो गयी. उसको अच्छा काम भी मिल गया. शादी भी हो गई और बेटी की भी पढाई पूरी होकर उसे भी नौकरी मिल गई और शादी भी हो गयी तो उसे लगा शायद कि अब उसका प्रोजेक्ट पूरा हो गया है. उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया और प्रार्थना की कि ईश्वर चाहे तो अब अपना काम कर सकता है. उसने जो समय मांगा था वह पूरा हो गया है और सारे काम भी पूरे हो गए हैं .
अब तो उसकी जिंदगी जैसे बोनस की जिंदगी थी सब कुछ हो चुका था और एक और जो इच्छा मां-बाप की होती है वह भी पूरी होने वाली थी वह दादा बनने वाला था. एक हफ्ते पहले ही वह और उसकी पत्नी बेंगलुरु में बेटे के पास गए हुए थे क्योंकि बहु की डिलीवरी होने वाली थी. इस समय पितृपक्ष चल रहा था सामान्यतया इस समय वह किसी यात्रा से बचता था क्योकि इस समय वह अनिवार्य रूप से रोज सुबह अपने पूर्वजों तर्पण करता था. पिता को तो उसने देखा जरूर था लेकिन ठीक से याद नहीं, लेकिन मां जरूर उसके लिए आराध्य थी और पूर्वजों के लिए तर्पण शायद मां को धन्यवाद ज्ञापित करने का एक तरीका था.
इस पितृ पक्ष में एक बहुत असामान्य घटना हुई . एक दिन सपने में उसे मां दिखाई दी और बताया कि वह उसके घर आ रही है. इशारा था कि घर में पोती के रूप आ रही थी. एक सप्ताह पहले ही पति-पत्नी बैंगलोर पहुंच गए और उस शुभ घड़ी का बड़ी उत्सुकता से इंतजार करने लगे. विनय के लिए खासी उत्सुकता की वजह थी कि उनकी बोनस की जिंदगी में और कितनी खुशियां मिलती चली जा रही हैं. आखिर वह घड़ी आ गई जब बहू को अस्पताल में भर्ती कराया गया. बेटा बहू और उसकी एक दोस्त उसके साथ में थी. चूंकि सारे लोग अस्पताल में नहीं रुक सकते थे इसलिए वे पति और पत्नी, बेटे के कहने के अनुसार घर पर ही रहे. रात भर वे लोग जागते रहे और बेटे की फोन की प्रतीक्षा करते रहे. उसे पहली बार महसूस हुआ कि किसी खुशी का इंतजार करना कितना उत्सुकता पूर्ण होता है जिसमें धैर्य रख पाना भी बहुत मुश्किल होता है. इसलिए उसने बीच बीच में एक दो बार बेटे को फोन कर पूछा भी . जब सुबह होने को आई फिर भी उसका फोन नहीं आया तो एक बार फिर उसने फोन किया तो बेटे ने झुंझलाते हुए कहा कि “बार-बार फोन करके मुझे परेशान मत करो मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं जब कुछ होगा तो आपको सूचना मिल जाएगी”.
अच्छा तो नहीं लगा ..लेकिन दिल को तसल्ली दी कि शायद ठीक ही कह रहा था पूरी रात अस्पताल में जाग रहा था. पता नहीं क्या क्या परेशानी हुई होगी, कहीं ऑपरेशन वगेरह का तो चक्कर तो नहीं. आजकल डाक्टर बिना जरूरत के कुछ भी कर सकते हैं. इसी तरह सोचते सोचते सुबह हो गयी . स्नान ध्यान के बाद अपने पूर्वजों के तर्पण की प्रक्रिया शुरू की. अब तक कोई समाचार नहीं मिला था ... चिंता हो रही थी लेकिन दोबारा बेटे को फोन करने की हिम्मत नहीं हो सकी. आज उसे पहली बार एहसास हुआ कि बाप अपने बच्चों से भी कितना डरता है, उन बच्चों से जिन्हें अपने हाथों बड़ा किया, कभी हाथों में लेकर झूले झुलाये, गोद में लेकर बगीचे में लगे गुलाब के फूल की खुशबू का अहसास कराया , जिनके हाथ पकड़ कर चलना सिखाया और कंधे पर बैठाकर घुमाया, सोने के पहले हर दिन कहानी सुनायी , जिनको जुखाम बुखार होने पर पूरी पूरी रात जागकर बिताई. उसे इस तरह के जवाब की अपेक्षा सपने भी नहीं थी.
तभी अचानक मोबाइल की घंटी बजी और लपक कर उसने फोन उठाया उसे जिस बहुत बड़ी खुशखबरी की प्रतीक्षा थी अब वह समय आ गया है. सोचा बेटे का फोन होगा लेकिन यह क्या ये तो कोई विदेशी अनजान नंबर था. बात हुई तो पता चला समधी जी लाइन पर थे. दुबई से उसे बधाई देने के लिए फोन किया था कि घर में पोती आ गई है.
काश ये बात उसको बेटे ने बताई होती तो कितना अच्छा लगता ! सात समुंदर पार दूरदराज बैठे हुए व्यक्ति को यह खबर मिल चुकी है और वह एक सप्ताह से यहाँ है सिर्फ और सिर्फ इसी सूचना के लिए और उसको अपनी पोती के आने की सूचना किसी अन्य से मिल रही है. उसने संतोष किया कि हो सकता है बेटा पूरी रात जागता रहा होगा परेशान होगा . पता नहीं कितनी मुश्किलों का सामना किया होगा और इस तरह की तमाम संभावित बातों से उसने अपने आप को संतोष दिया . जल्दी से तैयार होकर दोनों पति पत्नी निकल पड़े अस्पताल के लिए.
अस्पताल पहुंचकर भी उसकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई क्योंकि अस्पताल में विजिटिंग आवर्स होते हैं तभी मरीज से मिला जा सकता है. वह इंतजार करने लगा और यह समय भी कैसे कटा ? उसे नहीं मालूम . इतनी उत्सुकता अपनी पोती के रूप में मां को देखने के लिए हो रही है इतनी तो अपने बच्चों के लिए भी नहीं हुई थी. आज जो बेचैनी है अपनी बेटी सामान बहू को देखने के लिए भी है , उसे धन्यवाद देने के लिए, जिसने उसके परिवार को आगे बढ़ाया.
अन्दर जाने का समय भी आ गया और वह पूछता हुआ उस प्राइवेट रूम में पहुंचा जहां उसकी बहू थी. उसने धीरे से दरवाजे पर दस्तक दी और उसका बेटा बाहर आ गया. जिसने बजाय उसे अंदर ले जाने के बाहर आकर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया, वह एकटक देख रहा था और कुछ समझ नहीं पा रहा था . इस समय का एक एक पल उसके लिए बहुत भारी हो रहा था. वह जल्दी से जल्दी अन्दर जाना चाहता था और अपनी पोती को देखना चाहता था, उससे मिलना चाहता था. लेकिन बेटा था दरवाजा बंद कर ऐसे खड़ा था जैसे कि अभी भी अंदर जाने के लिए कुछ औपचारिकताये बाकी है. उससे पूछा “क्या हुआ” तो बेटे ने जवाब दिया “बहु अभी सो रही है, अंदर जाने से डिस्टरबेंस होगा और अभी कुछ और लोग भी आ रहे हैं, मेरे दोस्त वगैरह सब लोग एक साथ में ही मिल लेंगे तो अच्छा रहेगा. समय बचेगा और बार-बार बच्ची को और उसकी मां को परेशानी नहीं होगी”.
ये शब्द उसके कानों में पिघले शीशे की तरह अन्दर चले गए. ऐसा लगा कि वह बिल्कुल संज्ञा शून्य हो गया है. ऐसा नहीं लग रहा था कि यह बात उसके अपने बेटे ने कही है. शायद इस तरह का रूखापन तो किसी अपरचित के पास जाकर देखने को भी नहीं मिलता. यही है पितृ सत्ता, जहाँ कोई भी पिता, कोई भी पुरुष, या कोई भी मां बाप चाहे विश्व विजय कर ले लेकिन अपनी औलाद से कभी नहीं जीत सकते. वह हमेशा हारते हैं और उन्हें हारना ही पड़ता है. हर बार, स्वयं जानबूझकर हारना भी पितृ सत्ता की जिम्मेदारी है और मजबूरी भी. जितनी असहनीय घुटन और पीड़ा उसने इस समय महसूस की वह कल्पना से परे है. वह सोचने लगा....कि क्या इस सब के लिए भगवान से समय मांगा था ? परिवार बचाने के लिए ? किसका परिवार ? और क्या पाने के लिए ? किसके लिए ?
तरह तरह की बातें उसके दिमाग में आने लगी. ऐसा लगा कि उसके आँखों के सामने अँधेरा छा रहा है और चक्कर खाकर गिरने वाला है, दीवार का सहारा लेते हुए वह पास ही रखी बेंच पर बैठ गया. ये सब क्या हो रहा है ? इतना सब कुछ बदल चूका है और उसे इसका आभास तक नहीं है. शायद ये नए युग के नए रिश्ते हैं, जो आज बन रहे हैं मां बाप और बच्चों के बीच, जिनमे न अपनेपन की गर्माहट है, न सम्वेदनाएँ हैं, न ही संस्कार और न ही समझ . रिश्तों का शायद अब कोई महत्व नहीं है. ऐसा लगता है किसी कारपोरेट जगत की एक श्रेणी बद्ध व्यवस्था है जिसमें कोई बरिष्ठ है तो कोई कनिष्ठ. बस. बरिष्ठ सिर्फ इसलिए बरिष्ठ है क्योकि उसने परिवार रूपी संस्था में पहले प्रवेश किया है और उसका सेवा काल लम्बा है. कनिष्ठ इसलिए कि वह इस परिवार में बाद में आया है. इसके अलावा और कोई अंतर नहीं. आज का कनिष्ठ कल बरिष्ठ हो जायेगा और बरिष्ठ इस दुनिया से रिटायर हो जायेगा. ये समय का चक्र है, चलता रहेगा. न जाने कब तक. वह भावनाओं के इस ज्वार भाटे में डूबता उतराता रहा और न जाने कब शिथिल होकर अपने आपके लहरों के हवाले कर दिया.
कुछ और लोग मिलने आए और वह भी कमरे के दरवाजे पर पहुंचे, जिनका बेटे ने तपाक से स्वागत किया और अंदर ले गया. शायद उसके कंपनी के अधिकारी या दोस्त होंगे . बेंच पर बैठे हुए उसकी खुशी और उमंग उस मुकाम पर पहुंच गई थी जैसे समुद्र की ऊंची उठती लहरें किनारे से टकराकर बहुत ही धीमी गति से वापस हो जाती हैं. लेकिन अब तो बहुत समय हो गया था. बेटे से मिलने वाले लोग बाहर निकल रहें थे. बेटा उन्हें छोड़ने निकला. उसकी स्थिति मुंशी प्रेमचंद की बूढ़ी काकी की तरह हो रही थी. थोड़े इंतजार के बाद बड़ी बेशर्मी से बेटे के पीछे वह कमरे के अंदर चला गया. बिना उसके बुलाने का इंतजार और बिना ये सोचे के उनका बेटा क्या कहेगा? कमरे के अंदर पहुंचाते ही झूले में लेटी बच्ची को देखकर जैसे उसके पुराने घाव बिलकुल भर गए और बड़ी उत्सुकता से मुस्कुराता हुआ वह अपनी पोती की तरफ बढ़ा, उसे पास से देखने, छूने और यह एहसास करने के लिए कि आखिर वह उसकी पोती ही नहीं, उसकी मां भी है.
इससे पहले कि वह अपनी पोती को हाथ भी लगा पाता बेटे ने टोकते हुए कहा कि “डॉक्टर ने इसे छूने से मना किया है, इंफेक्शन हो सकता है”.
उसने हाथ पीछे खींच लिए और उसको सिर्फ दूर से देखा. तभी किसी ने पीछे से कहा “ भैया इनके भी दो बच्चे हैं ”
उसने पीछे मुड कर देखा उसकी बेटी कह रही थी. जैसे ये उसके अपने ही दिल के शब्द थे. पहले के समय में तो उसके भी घर परिवार के सारे लोग आते थे, कभी किसी को इन्फेक्शन नहीं हुआ. उसने बहुत प्यार से पोती को देखा और मन ही मन अपनी मां को प्रणाम करते हुए पीछे जाकर बेटी के पास खड़ा हो गया कि जैसे कि उसकी मां ने उसको बता दिया है कि बच्चे कितने कीमती होते हैं ? उतने कीमती जितनी मां बाप की हैसियत होती है.
क्या परिवार में जिस समय साधन कम होते हैं, प्यार और ममता ज्यादा होती है?
जैसे-जैसे साधन और संसाधन बढ़ते हैं, ममता और प्यार के बंधन ढीले हो जाते हैं ?
अपनापन सूखने लगता है ?
अपने परिवार के लिए किया गया संघर्ष कहीं खो जाता है ?
ऐसी ऐसी परियोजनाएं जिन्हें पूरा करने के लिए व्यक्ति दीवानगी की हद तक लगा रहता है, अपना सबकुछ दांव पर लगा देता है. परियोजनाए सफल होने के बाद ऐसा पारितोषक मिलता है इसकी तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. एक थके हारे पराजित योद्धा की तरह वह कमरे से बाहर आ गया. पत्नी से उसने कहा कि कुछ बहुत जरूरी काम आ गया है इसलिए उसे आज ही कानपुर वापस जाना पड़ेगा.
“ रिटायरर्मेंट के बाद अब कौन सा जरूरी काम बचा है” पत्नी ने कहा.
“तुम चाहो तो रुक जाओ, मुझे तो जाना ही पडेगा" यह कह कर वह वापस चल दिया.
पत्नी तो रुक गई. पता नहीं वह कुछ समझ भी पाई या नहीं किन्तु उसमे इतने सहनशीलता तो है कि बड़े से बड़ा अपमान और उपेक्षा आंसुओं में बहा देगी, लेकिन वह तो पिता है, पुरुष है जिसके आंसू नहीं निकल सकते हैं, जो किसी को एहसास भी नहीं होने दे सकता कि उसे कितना दुख हुआ है.
वह कल रात ही बंगलोर से वापस आया था. रात में कब आँख लगी थी उसे पता नहीं. आज सुबह उठा और चाय लेकर हमेशा की तरह बालकनी में बैठा हुआ था.
और .... तभी घंटी बजी, दरबाजा खोला तो सामने काम वाली बाई खड़ी थी.
आश्चर्य उसने से पूछा “अरे तुम्हें कैसे मालूम हुआ मैं आ गया हूं”
“भाभी ने सुबह फोन किया था कि भैया रात में पहुंच गए होंगे, जरा देख लेना” उसने बताया
“भैया पोती की बहुत-बहुत बधाई. भाभी कह रही थी कि सब कुछ बहुत अच्छा हो गया है बहू भी ठीक है और बच्ची भी ठीक है” उसने कहा
वह मुस्करा कर रह गया. कुछ बोल नहीं पाया.
“भैया मेरे यहां भी बहू को बेटा हुआ है,” उसने बताया
“अरे बहुत अच्छा, बेटा और बहू तो ठीक है ?’ उसने पूंछा
“हैं भैया बिलकुल ठीक है’
" नाती के नाक, आँखे बिलकुल सुनील ( सुनील बाई का बेटा था ) के पापा की तरह हैं. ऐसा लगता है कि वो हम लोगों के बीच फिर आ गए हैं. उन्हें आना ही था हम सब पहले से ही जानते थे." बताते हुए उसके चहरे पर चमक आ गई थी.
"भैया आज उसकी छटी है" उसने आगे बताया .
"बहुत अच्छा, खूब धूम धाम से करो छटी" उसने औपचारिकता वस कह दिया
"भैया अब क्या धूमधाम से करें ?" कहते हुए उसके आंसू आ गए.
"सुनील के पापा ने सभी बच्चों के छठी, मुंडन सब कुछ बहुत धूमधाम से किए थे, लेकिन तब की बात और थी. अब हम लोगों के पास है ही क्या? “ लेकिन भैया हमारा लड़का और बहू बहुत अच्छे हैं. बिना हमसे पूंछे बताये कुछ नहीं करते. बहुत ध्यान रखते हैं हमारा. सुनील तो अपने पिताजी को याद करके बहुत दुखी हो रहा था कह रहा था कि पिता जी होते तो बात अलग थी. कह रहा था कि किसी तरह से ऐसे ही कर लो . अब उसे कौन समझाए भैया, वह तो बहुत छोटा था, जब उसके पिता जी गुजर गए थे. किसी तरह से आप सब लोगों के घरों में काम करके बच्चे पाल पोष कर बड़े किये और जितनी हमें समझ थी जितना हम कर सकते थे, किया. अब दोनों काम करते हैं. सुनील ई रिक्शा चलाता है और छोटा वाला दवाई की दुकान में काम करता है. अब जो भी है भैया किसी तरीके से घर व्यवस्थित हो गया है. सब अपना अपना काम कर रहे हैं." उसने संतोष व्यक्त करते हुए जैसे एक साँस में अपने जीवन का सारांश बता दिया
"पारिवरिक प्रेम और पारिवारिक खुशी के लिए जो भी किया जाता है वह बहुत अच्छा ही होता है. ये खुशी का मौका है, परिवार के साथ इसे उत्सव की तरह मनाओ, हर एक के नसीब यह सुख नहीं होता " यह कहते हुए वह अंदर गया और एक पैकेट लाकर बाई के हाथ में पकड़ा दिया. यह वही कपड़े थे जो अपने होने वाले पोते / पोती के लिए बैंगलोर ले गया था किन्तु अचानक चले आने के कारण दे नहीं पाया था .
"इसमें तुम्हारे नाती के लिए कपड़े हैं, और ये रु.१००००/ रख लो. यह मौका खुशी का है, इसे हाथ से मत जाने दो" उसने कहा
बाई की आँखों में आंसू आ गए. उसने आंचल से आंसू पोंछे और कहा " भैया छोटे मुहं, बड़ी बात है लेकिन अगर एक उपकार आप हमारे परिवार पर कर दें तो हम लोंगों को बहुत खुशी होगी"
" क्या ?" उसने पूंछा
"अगर आप आकर हमारे नाती को आशीर्वाद दे दें तो हम लोग धन्य हो जायेंगे" बाई ने हाथ जोड़ लिए
" हाँ हाँ क्यों नहीं " उसने तपाक से जबाब दिया " मैं जरूर आऊँगा "
"भगवान आप जैसे लोगों को भी बनाता है, तभी तो ये दुनिया चल रही है" बाई ने जब कहा तो उसे समझ ही नहीं आया कि वह इसका क्या जबाब दे लेकिन उसने कहा "अब तुम जाओ तैयारियां करो, यहाँ का काम छोड़ दो. कल देखा जाएगा"
धोती के आंचल से अपनी भर आई आंखें पोछती बाई धीरे-धीरे सीढिया उतर रही थी.
इसके साथ ही उसका मन भी थोड़ा हल्का होने लगा था. वह सोच रहा था कि रिश्तों की डोर से बंधे और उसे मजबूत करने के लिए हम सब अपने अपने मां बाप और बुजुर्गों को अपने पोते पोतियों के रूप में खोजते रहते हैं ताकि उनसे अटूट संबंध बना रहे और तभी तो हम अपने बच्चों के चहरे में अपने प्रियजनों की शक्ल ढूंडते हैं. उन चेहरों में अपने मां बाप और प्रियजनों की आँख , नाक , कान और पता नहीं क्या क्या खोज निकालते हैं ताकि हमारी पीढ़ियों के बीच में सामंजस्य बना रह सकें. आज उसे यह समझ में गया था कि पारिव़ारिक प्रेम और रिश्तों की गर्मजोशी के लिए "क्वालिफिकेशन " और "पोजीशन" बाधक नहीं होती और परियोजना प्रबंधन से ये चीजें पायीं तो जा सकती हैं, लेकिन पारिवारिक प्रेम और रिश्तों की प्रगाढ़ता भी मिले ये जरूरी नहीं.
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शिव प्रकाश मिश्रा
मूल कृति - २५ दिसम्बर २०१८
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